दोषाः क्षीणा बृंहयितव्याः, कुपित्ताः प्रशमयितव्याः, वृद्धा निर्हर्तव्याः, समाः परिपाल्या इति सिद्धान्तः (सु.चि. 33/3 जो दोष धातु-मलादि आदि क्षीणता को प्राप्त हुए हैं उनका वृद्धि कर, जो वृद्धि को प्राप्त हुए है। उनका निर्हरण कर, जो कुपित्त हुए हों उनका प्रशमन कर तथा उपरोक्त की साम्यावस्था बनाये रखने के लिए प्रयत्न करना चाहिए यही चिकित्सा सिद्धांत है। यथा- Chikitsa sutra
विशेषाद्रक्तवृद्धयुत्थान् रक्तस्रुतिविरेचनैः । मांसवृद्धिभवान् रोगाञ् शस्त्रक्षाराग्निकर्मभिः ।। स्थौल्यकार्योपचारेण मेदोजानस्थिसंक्षयात् ।जातान्क्षीरघृतैस्तिक्तसंयुतैर्वस्तिभिस्तथा ।। रक्त वृद्धि में- रक्तविस्रावण एवं विरेचन मांस वृद्दि में- शस्त्र, क्षार तथा अग्नि कर्म मेद वृद्धि में- कृशता कारक एवं स्थौल्य के समान अस्थि क्षय में- दुग्ध, घृत का सेवन तथा तिक्त रसयुक्त वस्यिों का प्रयोग । मज्जा-युक्त क्षय में- मधुर, तिक्त, रस प्रधान आहार एवं औषध का प्रयोग । Cont…