Anukta vyadhi-diagnostic criteria and treatment

anuritagupta0611 0 views 24 slides Sep 26, 2025
Slide 1
Slide 1 of 24
Slide 1
1
Slide 2
2
Slide 3
3
Slide 4
4
Slide 5
5
Slide 6
6
Slide 7
7
Slide 8
8
Slide 9
9
Slide 10
10
Slide 11
11
Slide 12
12
Slide 13
13
Slide 14
14
Slide 15
15
Slide 16
16
Slide 17
17
Slide 18
18
Slide 19
19
Slide 20
20
Slide 21
21
Slide 22
22
Slide 23
23
Slide 24
24

About This Presentation

Anukta vyadhi -this topic has been described as per NCISM Kayachikitsa syllabus .. emphasising on diagnosis and treatment....


Slide Content

अनुक्त व्याधि अनुक्त = अन् + उक्त • अन् (उपसर्ग): जिसका अर्थ होता है "नहीं" या "अभाव“ • उक्त (धातु से बना शब्द): जिसका अर्थ होता है "कहा गया" या "उल्लेखित"

"अनुक्त" का अर्थ: जिसका स्पष्ट उल्लेख शास्त्रों में नहीं है • "व्याधि" का अर्थ: रोग • आयुर्वेद में ऐसे रोग जिनका वर्णन ग्रंथों में नहीं मिलता, उन्हें अनुक्त व्याधि कहा जाता है

Anukta vyadhi विकारनामाकुशलो   न   जिह्रीयात्   कदाचन | न   हि   सर्वविकाराणां   नामतोऽस्ति   ध्रुवा   स्थितिः||४४|| स एव कुपितो दोषः समुत्थानविशेषतः| स्थानान्तरगतश्चैव जनयत्यामयान् बहून् ||४५|| तस्माद्विकार प्रकृतीरधिष्ठाना न्तराणि च| समुत्थान विशेषांश्च बुद्ध्वा कर्म समाचरेत्||४६|| यो ह्येतत्त्रितयं ज्ञात्वा कर्माण्यारभते भिषक्| ज्ञानपूर्वं यथान्यायं स कर्मसु न मुह्यति||४७|| Ref. Charak Samhita sutra sthan 18 Trishothiya adhyay

दोषधातुमलमूलं   हि   शरीरं, दोष धातु मल वात रस मूत्र पित्त रक्त पुरीष (मल) कफ मांस स्वेद (पसीना) मेद अस्थि मज्जा शुक्र

Vata prakrit karma- उत्साहोच्छ्वासनिःश्वासचेष्टा   धातुगतिः   समा| समो मोक्षो   गतिमतां   वायोःकर्माविकारजम्||४९|| Pitta prakrit karma- दर्शनं   पक्तिरूष्मा   च   क्षुत्तृष्णा   देहमार्दवम्| प्रभा   प्रसादो   मेधा   च   पित्तकर्माविकारजम्||५०|| Kapha prakrit karma- स्नेहो   बन्धः   स्थिरत्वं   च   गौरवं   वृषता   बलम्| क्षमा   धृतिरलोभश्च   कफकर्माविकारजम्||५१|| Ref. Charak Samhita sutra sthan 18 Trishothiya adhyay

दोषाः   प्रवृद्धाः   स्वं   लिङ्गं   दर्शयन्ति   यथाबलम्| क्षीणा   जहति   लिङ्गं   स्वं,   समाः   स्वं   कर्म   कुवेते||६२|| ch.su.(17/62) Dosha vriddhi – kshaya lakshana

Vata kshaya तत्र,   वातक्षये   मन्दचेष्टताऽल्पवाक्त्वमप्रहर्षो   मूढसञ्ज्ञता   च Vata vriddhi तत्र,   वातवृद्धौ   वाक्पारुष्यं   कार्श्यं   कार्ष्ण्यं   गात्रस्फुरणमुष्णकामिता   निद्रानाशोऽल्पबलत्वं   गाढवर्चस्त्वं   च Ref Sushrut Sutra sthan 15

Pitta kshaya पित्तक्षये मन्दोष्माग्निता निष्प्रभता च,  Pitta vriddhi पित्तवृद्धौ पीतावभासता सन्तापः शीतकामित्वमल्पनिद्रता मूर्च्छा बलहानिरिन्द्रियदौर्बल्यं पीतविण्मूत्रनेत्रत्वं च Ref Sushrut Sutra sthan 15

Kapha kshaya श्लेष्मक्षये रूक्षताऽन्तर्दाह आमाशयेतरश्लेष्माशयशून्यता  सन्धिशैथिल्यं (तृष्णा दौर्बल्यं प्रजागरणं) च ||७|| Kapha vriddhi श्लेष्मवृद्धौ शौक्ल्यं शैत्यं स्थैर्यं गौरवमवसादस्तन्द्रा निद्रा सन्धिविश्लेषश्च ||१३|| Ref Sushrut Sutra sthan 15

क्षय की चिकित्सा दोषों की क्षय स्थिति में उन्हें पोषक आहार, विश्राम और बलवर्धक औषधियों से पुनः संतुलित किया जाता है: • क्षय: कटुकतिक्तकषायरूक्षलघुशीतानां • पित्त क्षय: ऽम्ललवणकटुकक्षारोष्णतीक्ष्णानां • कफ क्षय: स्निग्धगुरुमधुरसान्द्रपिच्छिलानां द्रव्याणाम्| तत्रापि स्वयोनिवर्धनद्रव्योपयोगः प्रतीकारः ॥ (सु.सू. 15/14 )

वृद्धि की चिकित्सा शोधन चिकित्सा : वात - वस्ति ; पित्त - विरेचन ; कफ - वमन शमन चिकित्सा वात स्नेहन, स्वेदन तथा अभ्यङ्ग का प्रयोग। 2. शिरोवस्ति, शिरोस्नेह तथा स्नैहिक धूम का प्रयोग। 3. सुखोष्ण, स्नैहिक गण्डूष तथा मांसरस का प्रयोग। 4. भोजन में स्निग्ध, लवण रस तथा अम्ल रस वाले फलों का प्रयोग। 5. सुखोष्ण परिषेक तथा संवाहन कराना चाहिए। 6. भारी वस्त्रों का प्रयोग जो रेशम, कार्पास, कुङकुम, अगरु आदि के पत्र से निर्मित हों। 7. मृदु शैय्या जहाँ-वायु तथा धूप न पहुँचता हो वहाँ पर शयन करना तथा ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। 8. अग्नि संताप का सेवन करना चाहिए।

पित्त 1 . मधुर, तिक्त, कषाय रस वाली औषधियों का प्रयोग। 2. शीतल आहार-विहार तथा उपचार। 3. स्नेहन, विरेचन, रक्तमोक्षण आदि का प्रयोग। इनमें विरेचन प्रधान उपक्रम है । कफ उष्ण, तीक्ष्ण तथा कटु, तिक्त, कषाय रसवाली औषधियों का प्रयोग। चिकित्सा उपक्रम जैसे- स्वेदन, वमन, शिरोविरेचन तथा व्यायामादि का उचित प्रयोग। कफ वृद्धि को दूर करने के लिए वमन को श्रेष्ठ बताया है।

मानस दोष - रज तम रजस्तमश्च मानसौ दोषौ| तयोर्विकाराः  कामक्रोधलोभमोहेर्ष्यामानमदशोकचित्तोद्वेगभयहर्षादयः | तत्र खल्वेषां द्वयानामपि दोषाणां त्रिविधं प्रकोपणं; तद्यथा- असात्म्येन्द्रियार्थसंयोगः, प्रज्ञापराधः, परिणामश्चेति||६|| असात्म्येन्द्रियार्थसंयोगः प्रज्ञापराधः परिणाम

धातु ( दूष्य ) "प्रीणनं जीवनं लेपः स्नेहो धारण पूरणे। गर्भोत्पादश्च कर्माणि धातूनां क्रमशो विदुः॥" ( अष्टांग हृदय, सूत्रस्थान ) रस (प्लाज्मा) - तृप्ति, पोषण, जीवन शक्ति प्रदान करना | रक्त (रक्त) - शरीर को ऊर्जा देना, जीवन बनाए रखना | मांस (मांसपेशियाँ) - शरीर को आकार और स्थिरता देना | मेद (वसा) - स्निग्धता, स्नेहन, ऊर्जा संचय | अस्थि (हड्डियाँ) - शरीर को आधार, धारण और कठोरता देना | मज्जा (बोन मैरो) - अस्थियों को भरना, स्निग्धता और बल देना | शुक्र (प्रजनन ऊतक) - गर्भोत्पादन, प्रजनन क्षमता बनाए रखना |

धातुक्षय रसक्षय घट्टते सहते शब्दं नोच्चैर्द्रवति  शूल्यते| हृदयं ताम्यति स्वल्पचेष्टस्यापि रसक्षये||६४|| रक्तक्षय परुषा स्फुटिता म्लाना त्वग्रूक्षा रक्तसङ्क्षये| मांसक्षय मांसक्षये विशेषेण स्फिग्ग्रीवोदरशुष्कता||६५|| मेदक्षय सन्धीनां स्फुटनं ग्लानिरक्ष्णोरायास एव च| लक्षणं मेदसि क्षीणे तनुत्वं  चोदरस्य च||६६||

अस्थिक्षय केशलोमनखश्मश्रुद्विजप्रपतनं श्रमः| ज्ञेयमस्थिक्षये लिङ्गं सन्धिशैथिल्यमेव च||६७|| मज्जाक्षय शीर्यन्त इव चास्थीनि दुर्बलानि लघूनि च| प्रततं वातरोगीणि क्षीणे मज्जनि देहिनाम्||६८|| शुक्रक्षय दौर्बल्यं मुखशोषश्च पाण्डुत्वं सदनं श्रमः| क्लैब्यं शुक्राविसर्गश्च क्षीणशुक्रस्य लक्षणम्||६९|| Ref Charak sutra sthan (17/64-69)

धातु वृद्धि रस वृद्धि प्रसेकारोचकस्यवैरस्यहृल्लासस्रोतोरोधस्वादुद्वेषाङ्ग मर्दादिभिरन्यैश्च श्लेष्मविकारप्रायैः रसः| रक्त वृद्धि कुष्ठविसर्पपिटकासृग्दराक्षिमुखमेढ्रगुददाहगुल्मविद्रधि-प्लीहव्यङ्गकामलाग्निनाशतमःप्रवेशरक्ताङ्गनेत्रतावातरक्तपित्तादिभिरन्यैश्च पित्तविकारप्रायैरसृक्| मांस वृद्धि गलगण्डगण्डमालार्बुदग्रन्थितालुजिह्वाकण्ठरोगस्फिग्गलौ- ष्ठबाहूदरोरुजङ्घागौरववृद्धिभिः श्लेष्मरक्तविकारप्रायैश्च मांसम्|

मेद वृद्धि प्रमेहपूर्वरूपैःस्थौल्योपद्रवैश्चान्यैरपि श्लेष्मरक्तमांसविकारप्रायै| र्मेदः| अस्थि वृद्धि अध्यस्थिभिरधिदन्तैश्चास्थि| मज्जा वृद्धि नेत्राङ्गरक्तगौरवैः पर्वसु च स्थूलमूलारुभिर्मज्जा| शुक्र वृद्धि अतिस्त्रीकामताशुक्राश्मरीसम्भवाभ्यां शुक्राधिक्यकम्||६| Ref Astang sanghrah sutra sthan (19/4-6)

उपधातु स्तन्यक्षय स्तनक्षये स्तनयोर्म्लानता स्तन्यासम्भवोऽल्पता वा; आर्तव क्षय आर्तवक्षये यथोचितकालादर्शनमल्पता वा योनिवेदना च;  स्तन्य वृद्धि स्तन्यं स्तनयोरापीनत्वं मुहुर्मुहुः प्रवृत्तिं तोदं च; आर्तव क्षय आर्तवमङ्गमर्दमतिप्रवृत्तिं दौर्गन्ध्यं च;

मल मल ( पुरीष ) क्षय – सशब्दस्य वायोः कुक्षौ तिर्यगूर्ध्वं च भ्रमणेनान्त्र वेष्टनेन पार्श्वहृदयपीडनेनाल्पतया च शकृत्| मल ( पुरीष ) वृद्धि - कुक्षिशूलाटोपगौरवैः शकृदाधिक्यम्| मूत्र क्षय बस्तिनिस्तोदमुखशोषकृच्छ्राल्पविवर्णमूत्रतादिभिः सरुधिरमूत्रतया वा मूत्रम्| मूत्र वृद्धि - बस्तितोदाध्मानैर्मूत्राधिक्यम्| स्वेद क्षय – स्तब्धरोमकूपतारोमच्यवनत्वक्परिपाटनस्वापपारुष्य स्वेदनाशैः स्वेदः| स्वेद वृद्धि - कण्डूदौर्गन्ध्यैः स्वेदः|

दोषों की वृद्धि और क्षय की सामान्य चिकित्सा सर्वदा सर्वभावानां सामान्यं वृद्धिकारणम्| ह्रासहेतुर्विशेषश्च, प्रवृत्तिरुभयस्य तु||४४|| सामान्यमेकत्वकरं, विशेषस्तु पृथक्त्वकृत्| तुल्यार्थता हि सामान्यं, विशेषस्तु विपर्ययः||४५|| Ref Charak sutra sthan (1/44-45)

दोषाः क्षीणा बृंहयितव्याः, कुपिताः प्रशमयितव्याः, वृद्धा निर्हर्तव्याः,  समाः परिपाल्या इति सिद्धान्तः | तत्रापि स्वयोनिवर्धनद्रव्योपयोगः प्रतीकारः ॥ (सु.सू. 15/14 ) तदेव तस्माद्भेषजं सम्यगवचार्यमाणं युगपन्न्यूनातिरिक्तानां धातूनां  साम्यकरं भवति, अधिकमपकर्षति न्यूनमाप्याययति||६|| धातवः पुनः शारीराः समानगुणैः समानगुणभूयिष्ठैर्वाऽप्याहारविकारैरभ्यस्यमानैर्वृद्धिं प्राप्नुवन्ति, ह्रासं तु विपरीतगुणैर्विपरीतगुणभूयिष्ठैर्वाऽप्याहारैरभ्यस्यमानैः||९|| ………………. तथा लोहितं लोहितेन, मेदो मेदसा, वसा वसया, अस्थि तरुणास्थ्ना, मज्जा मज्ज्ञा, शुक्रं शुक्रेण, गर्भस्त्वामगर्भेण||१०||

शुक्रक्षये  क्षीरसर्पि षोरुपयोगो  मधुरस्निग्धशीत समाख्यातानां चापरेषां द्रव्याणां,  मूत्रक्षये पुन रिक्षुरसवारुणीमण्डद्रवमधुराम्ललवणोपक्लेदिनां ,  पुरीषक्षये  कुल्माषमाषकुष्कुण्डाजमध्ययवशाकधान्याम्लानां ,  वातक्षये  कटुकतिक्तकषायरूक्षलघुशीतानां ,  पित्तक्षये ऽम्ललवणकटुकक्षारोष्णतीक्ष्णानां , श्लेष्मक्षये  स्निग्धगुरुमधुरसान्द्रपिच्छिलानां  द्रव्याणाम्| देशकालात्मगुणविपरीतानां हि कर्मणामाहारविकाराणां च क्रियोपयोगः  सम्यक्, सर्वातियोगसन्धारणम्, असन्धारणमुदीर्णानां च गतिमतां,  साहसानां च वर्जनं, स्वस्थवृत्तमेतावद्धातूनां साम्यानुग्रहार्थमुपदिश्यते||८|

मधु श्लेष्मपित्तप्रशमनानां, सर्पिर्वातपित्तप्रशमनानां,  तैलं वातश्लेष्मप्रशमनानां, वमनं श्लेष्महराणां,  विरेचनं पित्तहराणां,  बस्तिर्वातहराणां, रक्त की अधिकता से उत्पन्न रोगों का उपचार रक्तस्राव और विरेचन करना चाहिए। मांस की वृद्धि से उत्पन्न रोगों का उपचार शस्त्र , क्षार और अग्निकर्म करना चाहिए। मेद वृद्धि का उपचार स्थूलता रोग अस्थि क्षय से उत्पन्न रोगों का उपचार क्षीर (दूध), घृत (घी), तिक्तरस बस्ति।