Anukta vyadhi -this topic has been described as per NCISM Kayachikitsa syllabus .. emphasising on diagnosis and treatment....
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Added: Sep 26, 2025
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अनुक्त व्याधि अनुक्त = अन् + उक्त • अन् (उपसर्ग): जिसका अर्थ होता है "नहीं" या "अभाव“ • उक्त (धातु से बना शब्द): जिसका अर्थ होता है "कहा गया" या "उल्लेखित"
"अनुक्त" का अर्थ: जिसका स्पष्ट उल्लेख शास्त्रों में नहीं है • "व्याधि" का अर्थ: रोग • आयुर्वेद में ऐसे रोग जिनका वर्णन ग्रंथों में नहीं मिलता, उन्हें अनुक्त व्याधि कहा जाता है
Anukta vyadhi विकारनामाकुशलो न जिह्रीयात् कदाचन | न हि सर्वविकाराणां नामतोऽस्ति ध्रुवा स्थितिः||४४|| स एव कुपितो दोषः समुत्थानविशेषतः| स्थानान्तरगतश्चैव जनयत्यामयान् बहून् ||४५|| तस्माद्विकार प्रकृतीरधिष्ठाना न्तराणि च| समुत्थान विशेषांश्च बुद्ध्वा कर्म समाचरेत्||४६|| यो ह्येतत्त्रितयं ज्ञात्वा कर्माण्यारभते भिषक्| ज्ञानपूर्वं यथान्यायं स कर्मसु न मुह्यति||४७|| Ref. Charak Samhita sutra sthan 18 Trishothiya adhyay
दोषधातुमलमूलं हि शरीरं, दोष धातु मल वात रस मूत्र पित्त रक्त पुरीष (मल) कफ मांस स्वेद (पसीना) मेद अस्थि मज्जा शुक्र
क्षय की चिकित्सा दोषों की क्षय स्थिति में उन्हें पोषक आहार, विश्राम और बलवर्धक औषधियों से पुनः संतुलित किया जाता है: • क्षय: कटुकतिक्तकषायरूक्षलघुशीतानां • पित्त क्षय: ऽम्ललवणकटुकक्षारोष्णतीक्ष्णानां • कफ क्षय: स्निग्धगुरुमधुरसान्द्रपिच्छिलानां द्रव्याणाम्| तत्रापि स्वयोनिवर्धनद्रव्योपयोगः प्रतीकारः ॥ (सु.सू. 15/14 )
वृद्धि की चिकित्सा शोधन चिकित्सा : वात - वस्ति ; पित्त - विरेचन ; कफ - वमन शमन चिकित्सा वात स्नेहन, स्वेदन तथा अभ्यङ्ग का प्रयोग। 2. शिरोवस्ति, शिरोस्नेह तथा स्नैहिक धूम का प्रयोग। 3. सुखोष्ण, स्नैहिक गण्डूष तथा मांसरस का प्रयोग। 4. भोजन में स्निग्ध, लवण रस तथा अम्ल रस वाले फलों का प्रयोग। 5. सुखोष्ण परिषेक तथा संवाहन कराना चाहिए। 6. भारी वस्त्रों का प्रयोग जो रेशम, कार्पास, कुङकुम, अगरु आदि के पत्र से निर्मित हों। 7. मृदु शैय्या जहाँ-वायु तथा धूप न पहुँचता हो वहाँ पर शयन करना तथा ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। 8. अग्नि संताप का सेवन करना चाहिए।
पित्त 1 . मधुर, तिक्त, कषाय रस वाली औषधियों का प्रयोग। 2. शीतल आहार-विहार तथा उपचार। 3. स्नेहन, विरेचन, रक्तमोक्षण आदि का प्रयोग। इनमें विरेचन प्रधान उपक्रम है । कफ उष्ण, तीक्ष्ण तथा कटु, तिक्त, कषाय रसवाली औषधियों का प्रयोग। चिकित्सा उपक्रम जैसे- स्वेदन, वमन, शिरोविरेचन तथा व्यायामादि का उचित प्रयोग। कफ वृद्धि को दूर करने के लिए वमन को श्रेष्ठ बताया है।
धातु ( दूष्य ) "प्रीणनं जीवनं लेपः स्नेहो धारण पूरणे। गर्भोत्पादश्च कर्माणि धातूनां क्रमशो विदुः॥" ( अष्टांग हृदय, सूत्रस्थान ) रस (प्लाज्मा) - तृप्ति, पोषण, जीवन शक्ति प्रदान करना | रक्त (रक्त) - शरीर को ऊर्जा देना, जीवन बनाए रखना | मांस (मांसपेशियाँ) - शरीर को आकार और स्थिरता देना | मेद (वसा) - स्निग्धता, स्नेहन, ऊर्जा संचय | अस्थि (हड्डियाँ) - शरीर को आधार, धारण और कठोरता देना | मज्जा (बोन मैरो) - अस्थियों को भरना, स्निग्धता और बल देना | शुक्र (प्रजनन ऊतक) - गर्भोत्पादन, प्रजनन क्षमता बनाए रखना |
धातु वृद्धि रस वृद्धि प्रसेकारोचकस्यवैरस्यहृल्लासस्रोतोरोधस्वादुद्वेषाङ्ग मर्दादिभिरन्यैश्च श्लेष्मविकारप्रायैः रसः| रक्त वृद्धि कुष्ठविसर्पपिटकासृग्दराक्षिमुखमेढ्रगुददाहगुल्मविद्रधि-प्लीहव्यङ्गकामलाग्निनाशतमःप्रवेशरक्ताङ्गनेत्रतावातरक्तपित्तादिभिरन्यैश्च पित्तविकारप्रायैरसृक्| मांस वृद्धि गलगण्डगण्डमालार्बुदग्रन्थितालुजिह्वाकण्ठरोगस्फिग्गलौ- ष्ठबाहूदरोरुजङ्घागौरववृद्धिभिः श्लेष्मरक्तविकारप्रायैश्च मांसम्|
मेद वृद्धि प्रमेहपूर्वरूपैःस्थौल्योपद्रवैश्चान्यैरपि श्लेष्मरक्तमांसविकारप्रायै| र्मेदः| अस्थि वृद्धि अध्यस्थिभिरधिदन्तैश्चास्थि| मज्जा वृद्धि नेत्राङ्गरक्तगौरवैः पर्वसु च स्थूलमूलारुभिर्मज्जा| शुक्र वृद्धि अतिस्त्रीकामताशुक्राश्मरीसम्भवाभ्यां शुक्राधिक्यकम्||६| Ref Astang sanghrah sutra sthan (19/4-6)
मल मल ( पुरीष ) क्षय – सशब्दस्य वायोः कुक्षौ तिर्यगूर्ध्वं च भ्रमणेनान्त्र वेष्टनेन पार्श्वहृदयपीडनेनाल्पतया च शकृत्| मल ( पुरीष ) वृद्धि - कुक्षिशूलाटोपगौरवैः शकृदाधिक्यम्| मूत्र क्षय बस्तिनिस्तोदमुखशोषकृच्छ्राल्पविवर्णमूत्रतादिभिः सरुधिरमूत्रतया वा मूत्रम्| मूत्र वृद्धि - बस्तितोदाध्मानैर्मूत्राधिक्यम्| स्वेद क्षय – स्तब्धरोमकूपतारोमच्यवनत्वक्परिपाटनस्वापपारुष्य स्वेदनाशैः स्वेदः| स्वेद वृद्धि - कण्डूदौर्गन्ध्यैः स्वेदः|
दोषों की वृद्धि और क्षय की सामान्य चिकित्सा सर्वदा सर्वभावानां सामान्यं वृद्धिकारणम्| ह्रासहेतुर्विशेषश्च, प्रवृत्तिरुभयस्य तु||४४|| सामान्यमेकत्वकरं, विशेषस्तु पृथक्त्वकृत्| तुल्यार्थता हि सामान्यं, विशेषस्तु विपर्ययः||४५|| Ref Charak sutra sthan (1/44-45)
शुक्रक्षये क्षीरसर्पि षोरुपयोगो मधुरस्निग्धशीत समाख्यातानां चापरेषां द्रव्याणां, मूत्रक्षये पुन रिक्षुरसवारुणीमण्डद्रवमधुराम्ललवणोपक्लेदिनां , पुरीषक्षये कुल्माषमाषकुष्कुण्डाजमध्ययवशाकधान्याम्लानां , वातक्षये कटुकतिक्तकषायरूक्षलघुशीतानां , पित्तक्षये ऽम्ललवणकटुकक्षारोष्णतीक्ष्णानां , श्लेष्मक्षये स्निग्धगुरुमधुरसान्द्रपिच्छिलानां द्रव्याणाम्| देशकालात्मगुणविपरीतानां हि कर्मणामाहारविकाराणां च क्रियोपयोगः सम्यक्, सर्वातियोगसन्धारणम्, असन्धारणमुदीर्णानां च गतिमतां, साहसानां च वर्जनं, स्वस्थवृत्तमेतावद्धातूनां साम्यानुग्रहार्थमुपदिश्यते||८|
मधु श्लेष्मपित्तप्रशमनानां, सर्पिर्वातपित्तप्रशमनानां, तैलं वातश्लेष्मप्रशमनानां, वमनं श्लेष्महराणां, विरेचनं पित्तहराणां, बस्तिर्वातहराणां, रक्त की अधिकता से उत्पन्न रोगों का उपचार रक्तस्राव और विरेचन करना चाहिए। मांस की वृद्धि से उत्पन्न रोगों का उपचार शस्त्र , क्षार और अग्निकर्म करना चाहिए। मेद वृद्धि का उपचार स्थूलता रोग अस्थि क्षय से उत्पन्न रोगों का उपचार क्षीर (दूध), घृत (घी), तिक्तरस बस्ति।