हिन्दी परियोजना कार्य विषय – सूरदास पर पी.पी.टी Myank दसवी 19
सूरदास सूरदास जी का जन्म अनिश्चित था, 1478 और 1483 के बीच कहीं गांव सीही, फरीदाबाद, हरियाणा में। सूरदास के सही जन्म स्थान को लेकर भी मतभेद है, कुछ विद्वानों का कहना है कि उनका जन्म रणुकता या रेणुका गाँव में हुआ था जो आगरा से मथुरा जाने वाली सड़क पर स्थित है, जबकि कुछ का कहना है कि उन्हें दिल्ली के पास सीही कहा जाता था। गांव से था। वल्लभाइट की कहानी में कहा गया है कि सूर जन्म से अंधा था और उसके परिवार ने उसकी उपेक्षा की, सूरदास को छह साल की उम्र में अपना घर छोड़ने और यमुना नदी के किनारे रहने के लिए मजबूर होना पड़ा। वे वल्लभाचार्य के अष्ठछाप कवियों में से सबसे प्रसिद थे । सन 1583 में परसोली में उनका निधन हो गया।
जीवन परिचय सूरदास 14वीं सदी के अंत में एक अंधे संत, कवि और संगीतकार थे, जिन्हें भगवान कृष्ण को समर्पित उनके भक्ति गीतों के लिए जाना जाता था। कहा जाता है कि सूरदास ने अपनी महान कृति ‘सूर सागर’ (मेलोडी का सागर) में एक लाख गीत लिखे और रचे थे, जिनमें से केवल लगभग 8,000 ही मौजूद हैं। उन्हें एक सगुण भक्ति कवि माना जाता है और इसलिए उन्हें संत सूरदास के नाम से भी जाना जाता है, एक ऐसा नाम जिसका शाब्दिक अर्थ है “माधुर्य का सेवक”। उनकी सबसे प्रसिद्ध कृति ‘चरण कमल बंदो हरि राय’ (चरण कमल बंदो हरी राय) थी, जिसका अर्थ है कि मैं श्री हरि के चरण कमलों से प्रार्थना करता हूं। सूरदास की सही जन्म तिथि के बारे में कुछ मतभेद हैं, कुछ विद्वान इसे 1478 ईस्वी मानते हैं, जबकि अन्य 1479 ईस्वी होने का दावा करते हैं। उसकी मृत्यु के वर्ष के मामले में भी ऐसा ही है; इसे या तो 1581 ई. या 1584 ई. माना जाता है।
रचनाएँ सूरदास जी कुछ मशहूर कृतिया सूरसागर सूरसागर, महाकवि सूरदास जी द्धारा कृत सबसे मशहूर ग्रंथों में से एक है। अपनी इस कृति में सूरदास जी ने श्री कृष्ण की लीलाओं का बेहद खूबसूरती के साथ वर्णन किया है। सूरसागर की जितनी भी कॉपियां हासिल हुईं हैं, वे सभी साल 1656 से लेकर 19वीं शताब्दी के के बीच की हैं। सूरदास जी की इस कृति में भक्ति रस की प्रधानता है। सूरसारावली हिन्दी साहित्य के सर्वश्रेष्ठ कवि सूरदास जी द्धारा रचित सूरसारावली उनके प्रसिद्ध ग्रंथों में से एक है, जिसमें उन्होंने 1107 छंदों का वर्णन शानदार तरीके से किया है। सूरदास जी का यह ग्रंथ एक “वृहद् होली” गीत के रूप में रचित है। इस ग्रंथ में सूरदास जी का श्री कृष्ण के प्रति अलौकिक प्रेम और उनकी गहरी आस्था देखने को मिलती है। साहित्य-लहरी साहित्यलहरी सूरदास का जी का एक अन्य प्रसिद्ध काव्य ग्रंथ है। इस ग्रंथ में पद्य लाइनों के माध्यम से कवि ने अपने प्रभु श्री कृष्ण की भक्ति की कई रचनाएं बेहद शानदार ढंग से प्रस्तुत की हैं। सूरदास जी की यह रचना एक लघु रचना है, जिसमें 118 पद लिखे गए हैं। वहीं इस ग्रंथ की सबसे खास बात यह है कि साहित्यलहरी के सबसे आखिरी पद में अपने वंशवृक्ष के बारे में बताया है। सूरदास जी के इस प्रसिद्ध कृति में श्रंगार रस की प्रधानता हैं।
नल-दमयन्ती सूरदास जी की मशहूर कृतियों में से एक हैं, इसमें कवि ने श्री कृष्ण भक्ति से अलग एक महाभारतकालीन नल और दमयन्ती की कहानी का उल्लेख किया है। ब्याहलो ब्याहलो, सूरदास जी का एक अन्य मशहूर ग्रंथ है, जो कि उनका भक्ति रस से अलग है। फिलहाल, महाकवि के इस ग्रंथ का कोई पुख्ता प्रमाण नहीं मिलता है।
काव्यगत विशेषताएं सूरदास के काव्य में भाषा सूरदास के काव्य की भाषा ब्रज प्रदेश में बोली जाने वाली बोली है जिसे ब्रज भाषा कहते हैं। ब्रज प्रदेश के शब्दों के साथ उन्होंने अनेक प्रादेशिक संस्कृत के शब्दों का भी चयन किया है। यों भी ब्रजभाषा का सीधा सम्बन्ध संस्कृत से रहा है फिर सूरदास ने तो पाली, अपभ्रंश, गुजराती, राजस्थानी, पंजाबी और फारसी तुर्की को भी अपने साहित्य में स्थान दिया है। वैसे भी सूरदास अपने शब्द विधान में एक विस्तृत दायरे को समेटे हुए हैं। अलंकार प्रयोग सूरदास ने सूक्ष्म कथावस्तु को कल्पना और अलंकारों के सहारे ही विस्तार की चरम शिखर पर पहुँचाया है। उनकी अलंकार योजना ने काव्य में केवल सजावट का ही काम नहीं किया है अपितु भाव, गुण रूप और क्रिया का उत्कर्ष भी बढ़ाया है। सूरदास शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों का प्रयोग बङे कलात्मक ढंग से किया है।
भाषा भाषा की भाँति सूरदास की शैली भी अद्वितीय एवं अनुपम है। उन्होंने अपने काव्य में विविध शैलियों को अपनाया है। शैली कवि या लेखक की अनुभूति को अभिव्यक्त करने का एक ढंग है। कृष्ण के बाल-स्वरूप और बाल-चरित्र का वर्णन करते हुए सूरदास की वचन चातुरी तो देखिए ऐसा लगता है मानों वे बाल मनोविज्ञान के अध्येता हों। वात्सल्य के तो वे सम्राट इसीलिए कहलाये कि उनका जैसा मातृ हृदय पारखी कवि कोई दूसरा नहीं था। उन्होंने जितने भी रसों का वर्णन किया है सब भिन्न शैलियों में हैं। सुविधा की दृष्टि से उनकी शैलियों को निम्नलिखित शीर्षकों में विभाजित किया जा सकता है – गीत शैली, चित्रात्मक शैली, भावात्मक शैली, व्यंग्य शैली, उपालम्भ शैली और दृष्टकूट शैली।