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िसद्धान्तमु�ावली में अनेक प्रकार के गन्धों के कारण �प में पृथ्वी को प्रदिशर्त िकया गया है
तथा कहा गया है िक पृथ्वी छः रसों से यु� अथार्त् छः रसों वाली है और इसमें दो प्रकार का
गन्ध होता है। इनमें अनुष्णाशीत पाकज स्पशर् भी होता है।
�प-रस आिद गुण, षड्रस यु� पृथ्वी आिद कायर् �प पृथ्वी में समझना चािहए। यिद
िनत्यािनत्य भेद से देखा जाय तो ये गुण अिनत्य या कायर् �प पृथ्वी में हो सकते हैं। िनत्य पृथ्वी
परमाणु �प में ही हो सकती है, जो िक िनरवयव होती है।
पृथ्वी में �प, रस, गन्ध, स्पशर्, संख्या, प�रमाण, पृथ�व, संयोग, िवभाग, परत्वापरत्व, गु�त्व,
द्ववत्व और सं स्कार—ये चौदह गुण होते हैं। ये गुण पृथ्वी महाभूत में समवायसम्बन्ध से रहते हैं।
इन उपयुर्� चौदह गुणों में से �प, रस, गन्ध व स्पशर् गुण िवशेष �प से रहते हैं ; क्योंिक ये गुण
पृथ्वी के पूवर् के महाभूतों के भी हैं, जो अनुप्रिव� हैं। पृथ्वी शुक्ल, नील, ह�रत, लाल, पीला,
खाक� व िचत्र भेद से सात �पों वाली होती है। इसमें मधुराम्ललवण कटु ित� कषाय- ये छः
रस और स ुरिभ व असुरिभ ये दो गन्ध होते हैं। इसमें अनुष्णाशीत स्पशर् भी होता है।
उपयुर्� गुणों में से (चौदह गुणों में से) सं ख्यािद सात गुण १. सं ख्या २. प�रमाण ३. पृथ�व ४.
सं योग ५. िवभाग, ६. परत्व,
अपरत्व व कमर् भी चा�ुण प्रत्य� होने वाले िवषय होने के
कारण पृथ्वी में िवद्यमान रहते हैं।
चा�ुषवचनात् स�संख्यादयः
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- अथार्त् संख्यािद सात गुण चा�ुषप्रत्य�गम्य िवषय हैं, जो
पृथ्वी में िवद्यमान रहते हैं।
पृथ्वी के ल�ण हेतु वैशेिषक दशर्न में '�परसगन्धस्पशर्वती पृथ्वी' कहा गया है। यिद केवल
स्पशर्वती पृथ्वी कहा जाए तो वायु का गुण है, अतः स्पशर्वान् जो होगा वह वायु होगा। यिद
स्पशर् के साथ �पवती पृथ्वी कहा जाए तो यह तो सही है िक पृथ्वी में शुक्ल, नीलािद �प है;
परन्तु के वल �प कहने से इसके आश्रय अिग्न का बोध होगा; क्योंिक �प अिग्न का िविश�
गुण है। इसी प्रकार यिद 'स्पशर्�परसवती पृथ्वी' कहा जाएगा तो रस से जल का बोध होगा;
क्योंिक रस जल का िविश� गुण है। हालां िक पृथ्वी में मधुरािद रस होता है; परन्तु रसवान् पृथ्वी
का ल�ण नहीं है। यिद रसवान् होना ही पृथ्वी का ल�ण मान िलया जाए िक पृथ्वी में तो रस
है, तो यह ल�ण दो-दो महाभूतों जल व पृथ्वी दोनों के हो जाएंगें अतः पृथ्वी के िविश� गुण
गन्ध के साथ ल�ण िदया गया िक - '�प रसगन्धस्पशर्वती पृथ्वी। क्योंिक ये चारों गुण पृथ्वी में
िवद्यमान रहते हैं। इन चारों गुणों में स्पशर्, वायु, अिग्न व जल में भी है , �प, अिग्न व जल दोनों
में, रस, जल व पृथ्वी दोनों में है; परन्तु गन्ध गुण क
पृथ्वी में ही है, अतः िबना गन्ध गुण के
कहे पृथ्वी का बोध नहीं हो पाता है, इसीिलये कहा गया है िक-'�परसगन्धवती पृिथवी'। अब
यहाँ यह स्प� करना आवश्यक समझा जा रहा है िक 'गन्धवती' में 'वती' क्यों लगाया जाता है।
'वती' से सामान्यतया 'बाली' या यु� अथर् ग्रहण िकया जाता है। अथार्त् गन्धयु� पृथ्वी है या
गन्ध वाली पृथ्वी है; परन्तु 'वती' शब्द 'मतुप्' प्रत्यय से उत्पन्न है , िजसका अथर् ' सामान्य
सम्बन्ध' होता है, िजसका तात्पयर् समवाय सम्बन्ध �प में ग्रहण होता है। इस प्रकार 'गन्धवती
पृिथवी' का तात्पयर् 'समवायेन गन्धव�वं पृथ्वीत्वम्'होता है। अथार्त् िजसमें गन्ध समवाय�प से
सम्बिन्धत हो उसे पृथ्वी कहा जाता है। जब पृथ्वी महाभूत द्वारा िकसी कायर्- द्रव्य क� उत्पि�
होती है, तो पृथ्वी के साथ गन्ध यु� रहता है। ऐसी बात नहीं है िक गन्ध पृथक् �प से कायर्-
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प्रशस्तपाद