Pancha-Mahabhut complete knowledge...pdf

sdppbnys 46 views 28 slides Jan 19, 2025
Slide 1
Slide 1 of 28
Slide 1
1
Slide 2
2
Slide 3
3
Slide 4
4
Slide 5
5
Slide 6
6
Slide 7
7
Slide 8
8
Slide 9
9
Slide 10
10
Slide 11
11
Slide 12
12
Slide 13
13
Slide 14
14
Slide 15
15
Slide 16
16
Slide 17
17
Slide 18
18
Slide 19
19
Slide 20
20
Slide 21
21
Slide 22
22
Slide 23
23
Slide 24
24
Slide 25
25
Slide 26
26
Slide 27
27
Slide 28
28

About This Presentation

5 elements in Hindi with Sanskrit references


Slide Content

पंचमहाभूत क�
अवधारणा
199
इकाई 4 पंचमहाभूत क� अवधारणा
इकाई क� �परेखा
4.0 उद्देश्य
4.1 प्रस्तावना
4.2 परमाणुवाद
4.2.1 सृि� और ई�र
4.2.2 सृि� और परमाणुवाद
4.3 भूत क� िन�ि� व प�रभाषा या ल�ण
4.4 भूत के ल�ण:
4.5 महाभूतों के गुण
4.6 पृथ्वी िन�पण
4.6.1 पृथ्वी के ल�ण
4.6.2 पृथ्वी के भेद:
4.7 जल िन�पण
4.7.1 जल का ल�ण
4.7.2 जल के भेद
4.7.3 जल क� अवस्थायें
4.8 तेज
4.8.1 तेज का ल�ण
4.8.2 तेज या अिग्न के भेद
4.8.3 िवद्युत्
4.9 वायु-िन�पण
4.9.1 वायु का ल�ण
4.9.2 वायु के भेद'
4.9.3 वायु के कायर्
4.10 आकाश-िन�पण
4.10.1 आकाश के ल�ण
4.10.2 'आकाश क� िसिद्ध
4.10.3 आकाश शब्द क� व्युत्पि�
4.11 प�चमहाभूतों का परस्पर अनुप्रवेश
4.12 भूतों का अन्योन्यानुप्रवेश (पंचीकरण)
4.13 सारां श

200
4.14 पा�रभािषक शब्दावली
4.15
lUnHkZ xzUFk lwph
4.16 cks/k iz”u
4.0 उद्देश्य
िप्रय िवद्याथ�! आप प्रस्तुत इकाई तृतीय खंड क� तृतीय इकाई में भारतीय दशर्न में प्रितपािदत
पं चमहाभूत क� अवधारणा का अध्ययन करने जा रहे हैं। इसके अध्ययन से आप यह जान
सकते हैं िक पं चमहाभूत क्या है भारतीय परमाणुवाद का िसद्धां त क्या है पं च महाभूतों का
अध्ययन कर पाएंगे इसमें पृथ्वी तत्व जल तत्व अिग्न तत्व वायु तत्व आकाश तत्व क�
व्युत्पि� तथा उनके ल�ण और भेद आप समझेंगे।
वायु तत्व तथा आकाश तत्व क� िसिद्ध हम कैसे कर सकते हैं आप यह भी समझेंगे।
4.1 प्रस्तावना
प�चमहाभूत िसद्धान्त भारतीय दशर्नों का एक सवर्दशर्न सम्मत अिव�द्ध िसद्धां त हैं, जो द्रव्यों
के िविभन्न गुण, कमर्, स्वभाव एवं अवस्था आिद को देखकर सृि�िवकास क� स्वभाविसद्ध
परम्परा का सतत िनरी�ण कर लोकानुमत सू�म भूतों के िविवध काय� का अवलोकन कर
सू�मस्तर पर व्याख्याियत प�चप�चक के युि�सं गत तकर्-बल द्वारा भारत के पुराकालीन
मनीिषयों ने प्रितपािदत िकया है। आधुिनक त�ववाद, परमाणुवाद, द्रव्यों के िविवध
अवस्थावाद तथा सृि�िवकास के िनहा�रकावाद आिद से इस िसद्धान्त का कोई िवरोध नहीं है।
अिपतु इनके साथ सवर्था साम�जस्य रखने क� इसमें �मता ही �ात होती है। आयुव�द के
गभर्िवकासवाद, देह सं घटन, ित्रदोषवाद, इिन्द्रयों क� िनयताथर् ग्रहणशीलता, द्रव्यों का रसवाद,
गुण कमर्वाद, द्रव्यों क� िविवधता तथा उनका वग�करण आिद िवषयों का तो यह िसद्धान्त
आधारभूिम बनाता है।
1

सं सार के िविवध पदाथर् प�चमहाभूत से ही िनिमर्त होते हैं चाहे वह चेतन हो, अथवा अचेतन
हो। इन पदाथ� के स्थूलतम या सू�मतम रचनाओं का कलेवर प�चभूतों क� समि� या एक-
दूसरे में प्रिव� पांच भूतों का अथवा उनके ही िवकारों का बना होता है। जहाँ पर आत्म सम्बन्ध
से इिन्द्रय व्यापार �ि�गोचर होता है, उसे चेतन पदाथर् या चेतन द्रव्य कहा जाता है तथा जहाँ
इिन्द्रय-व्यापार �ि�गोचर नहीं होता है, उसे जड़ पदाथर् कहा जाता है। आचायर् चरक ने
चेतनाचेतन समस्त द्रव्यों क� पां चभौितकता को िनम्न शब्दों द्वारा व्य� िकया है-
सव� द्रव्यं पांचभौितकमिस्मन्नथ� तच्च
ं च।
तस्य गुणाः शब्दादयो गु वार्दय� द्रवान्ताः॥
2

'प�चमहाभूत जो िक समुदाय �प में भौितक सृि� के आधारभूत त�व हैं, न्याय, वैशेिषक दशर्न
के अनुसार परमाणु �प में िनत्य एवं द्वयणुक, त्रसरेणु आिद सू�म व स्थूल कायर् के �प में
अवयव यु� एवं दूसरे से उत्पन्न होने के कारण अिनत्य कारणभूत द्रव्य हैं।


1
आयुव�द के मूलिसद्धान्त, डा० ल�मीधर जी िद्ववेदी, पेज 115
2
च. सू. २७/१०

पंचमहाभूत क�
अवधारणा
201
4.2 परमाणुवाद
वैशेिषक के अनुसार जगत् के सभी कायर् द्रव्य, पृथ्वी, जल, तेज और वायु इन चार तरह के
परमाणुओं (Atoms) से बनते हैं। इसिलए सृि� सम्बन्धी वैशेिषक मत परमाणुवाद
(Atomism) कहलाता है। परमाणुवाद जगत् के अिनत्य द्रव्यों क� ही सृि� और प्रलय का क्रम
बतलाता है । आकाश, िद्रव्य, काल, मन, आत्मा और भौितक परमाणु, जगत् के इन िनत्य
पदाथ� क� न तो सृि� होती है और न िवनाश ही होता है।
परमाणुओं के सं योग में ई�र क� इच्छा या 'अ��' िक्रयाशील होता है । वैशेिषकों के अनुसार
पहले सामान्य परमाणुओं में िवच्छेद (Disintegration) होता है, िफर आणुिवक गुणों
(Atomic qualities) में प�रवतर्न होता है और िफर ऊष्मा (heat) के कारण अिन्तम संयोग
होता है । इस िसद्धान्त को 'पोलपाक िसद्धान्त' (Doctrine of Pilupaka or heating of
atoms) कहते हैं। न्याय के अनुसार तैजस परमाणु (Heat-corpuscles) वस्तु क� िछद्रयु�
काया (Porous body) में प्रवेश कर जाते हैं और वस्तु के �प (Colour) में प�रवतर्न उत्पन्न
करते हैं । सम्पूणर् पदाथर् न तो परमाणुओं में िवभ� (Disintegrated) होता है और न पुनगर्िठत
(Reconstituted) ही होता है, क्योंिक ऐसा व्यावहा�रक जगत् में अनुभव नहीं िकया जाता है
। इस िसद्धान्त को 'िपथरपाक' (Heating of molecules) कहते हैं ।
आकाश, वायु, अिग्न, जल व पृथ्वी-इन पाँचों को प�चभूत या प�चमहाभूत कहते हैं। इनक�
दो अवस्थायें होती हैं-प्रथम परमाणु �प या कारण �प तथा िद्वतीय कायर् �प स्थूल अवस्था।
परमाणु�प भूत िनत्य व स्थू ल�प भूत अिनत्य होते हैं।
परमाणु चार प्रकार के हैं, िजनका संयु� �प पृथ्वी,

है। इन परमाणुओं में प�रमाण (Mass), सं ख्या (Number), गु�त्व (Weight), द्रवत्व
(Fluidity), िस्थरत्व (Viscosity), गित (Velocity), �प (Colour), रस (Taste), गन्ध
(Smell), स्पशर् (Touch) आिद पाये जाते हैं। ये स्वाभािवक हैं। आकाश �पहीन और
िनरवयव है। यह शब्द का आधार �प है । परमाणुओं का सं योग (Atomic combination)
केवल चार प्रकार के परमाणुओं तक ही सीिमत है। सृि� के समय परमाणु अलग-अलग नहीं
रह सकते और इन परमाणुओं के पृथकत्व का ही आशय है प्रलय । परमाणु वह सू�मतम �प
है, िजसका पुनिवभाजन (Re-division) नहीं िकया जा सकता ।
परमाणुवाद क� चचार् उपिनषदों में भी क� गयी है परन्तु ऋिषकणाद ने अपने वैशेिषक दशर्न में
'परमाणुवाद' क� व्याख्या तत्व-िव�ान के �प में क�।
तत्व�प भूतों का पृथ्वी आिद नामकरण लोक में इन नामों से िवख्यात पदाथ� के उपर, जो िक
सं गठन क� �ि� से स्वयं भौितक हैं, सुिवधा के िलये िकया गया है। स्थूल जगत् में भौितक
काय� के प्रित इन लोकभूतों क� कारणता भी सवर्दा देखी जाती है। इसिलये यिद त�व शब्द का
पा�रभािषक अथर् न लेकर कारणभूत यौिगक द्रव्यों को भी सामान्य लोक व्यवहार में त�व कह
िदया जाता है, अतः लोक व्यवहार में यिद महाभूतों को (स्थू ल) प�च त�व कहा जाता है, तो
लोक-व्यावहा�रक �ि� से आपि� नहीं होनी चािहये। जो पदाथर् सभी कायर् द्रव्यों में व्या� होते
हैं, उन्हें त�व कहते हैं—'तनोित सवार्न् व्याप्य आस्ते इित त�वम्' अथार्त् सभी पदाथ� को
व्या� कर जो अविस्थत हो वह तत्व है।

202
आधुिनक त�वसं�क द्रव्य एिलमेंट भी अनेक इिन्द्रयों के द्वारा ग्रा� होने के कारण तथा अनेक
गुणों के आश्रय होने के कारण प�चमहाभूतों के िवकार ही कहे जा सकते हैं अथार्त्
प�चमहाभूतों द्वारा उत्पन्न कायर् द्रव्य हैं। प्रत्येक त�व क� त�व िविन�यता तो आज भी नहीं है।
वे पूणर्तः संभावना व्य� करते हैं िक - कुछ त�व आगे चलकर िविभन्न पदाथ� में टूटकर
यौिगक िसद्ध हो सकते हैं, जो िवजातीय पदाथ� के योग से िनिमर्त न हो ऐसे िवशुद्धतम पदाथर्
को त�व कहा जाता है। यिद भारतीय दशर्नानुसार एक इिन्द्रय ग्रा�ता को इकाई मान िलया
जाए तो िजन्हें आधुिनक िव�ान त�व कहता है, वे भारतीय दशर्नानुसार प�चमहाभूतों के
िवकार �प यौिगक द्रव्य है। जैसे एक इिन्द्रय से ग्रा� गुण को िविश� गुण कहा जाता है, उसी
तरह एके िन्द्रयाथार्श्रय को ही िविश� द्रव्य कहना चािहये।
'प्राचीन काल के त�वदिशर्यों ने समस्त कायर्द्रव्यों को पां चभौितक कहा है। आज के िव�ान में
मान्य परमाणु भी सू�म किणकाओं का समूह माना जाता है, िजनके गुण व कायर् पृथक्-पृथक्
हैं। अतः आधुिनक परमाणु सावयव होने से परमाणु नहीं माने जा सकते हैं। आधुिनक परमाणु
के घटक, इलेक्ट्रान, प्रोटान, पोिजट्रान आिद को स्थूल महाभूतों क� श्रेणी में रखकर परमाणु को
पा�चभौितक परमाणु ही या जा सकता है। यिद परमाण के प्राचीन प�रभाषा के प�रप्रे�य में
देखा जाए तो परमाणुओं के घटकों को िविभन्न गुण धमर् वाले कण िवशेष ही परमाणु कहे जा
सकते हैं तथा उन्हें पािथर्वािद चतु�य
में वग�कृत िकया जा सकता है।
महाभूत सं�ा का कारण-कितपय लोगों का कथन है िक महदथर्कारी या सवर्िवकार व्यापी होने
के कारण भूतों को ही महाभूत कहा जाता है। इससे जन्तुवाचक भूत से पृथ�ा भी हो जाती है।
कुछ लोगों का कहना है िक सृि� के पूवर् जब अिनत्य द्रव्यों का अभाव था तो परमाणु �प में
िनत्य व पृथक्-पृथक् �प में भूत िवद्यमान थे, िजन्हें भूत या सू�मभूत कहा जाता है। जब
सगार्रम्भ में इनका उ�रो�रानु प्रवेश ह�आ तो गुण वृिद्ध वाले पांच महाभूत या स्थूलभूत बन
जाते हैं। भूतावस्था में ये अव्य� द्रव्य महाभूतावस्था में व्य� हो जाते हैं। इसी आधार पर
सांख्य दशर्न में भूतों को अिवशेष तथा महाभूतों को िवशेष कहा गया है। इसके बाद महाभूत
परस्पर िमिश्रत या अन्योन्यानुप्रिव� होकर प�चीकृत होते हैं, तत्प�ात् असंख्य कायर्-द्रव्यों क�
उत्पि� होती है।
4.2.1 सृि� और ई�र (Creation and God)
वैशेिषकों का परमाणुवाद भौितकवादी (Materialistic) नहीं है, क्योंिक उनके परमाणु
आध्याित्मक हैं। वे स्वयं िनिष्क्रय (Inactive) हैं। उनमें िक्रया का संचार अ�� या ई�र के
कारण होता है । िव� क� रचना और प्रलय का कारण ई�र क� इच्छा है । ई�र ही िव� का
कतार् (Creator), पालक (Sustainer) और सं हारक (Destroyer) है। इससे यह नहीं
समझना चािहए िक परमाणु कुछ करते ही नहीं । परमाणु िव� के उपादान कारण (Meterial
cause) हैं। रचना और िवनाश का चक्र (Circle) सदैव चला करता है । इस प्रकार सृि� का
िनिम� कारण ई�र है और उपादान कारण परमाणु हैं ।
4.2.2 सृि� और परमाणुवाद (Creation and Atomism)
िव� क� ुओं के सं योग से होती है। दो परमाणुओं के सं योग से एक द्वयणुक
(Abinary molecule) बनता है। दो द्वयणुकों के सं योग से श्रयणुक, तीन द्ववणुकों के सं योग
से चतुणंक आिद बनते हैं। परमाणुओं के सं योग का यह �ि�कोण बह�त ही प्रचिलत था लेिकन

पंचमहाभूत क�
अवधारणा
203
इसके अित�र� भी एक �ि�कोण प्रकाश में आया, िजसक� िववेचना डॉ० बी० ० एन० सील
(Seal) ने इस प्रकार क� है-
"Atoms have also an inherent tendency to unite," and that they do so in twos,
threes or fours, "either by the atoms falling into groups of threes, fours etc,
directly, or by the successive addition of one atom to each preceding
aggregate."

3

4.3 भूत क� िन�ि� व प�रभाषा या ल�ण भू सतायां धातु में '�' प्रत्यय लगाने से (भू + � = भूत) भूत शब्द बनता है, िजसका अथर्
स�ावान् होना, िवद्यमान होना होता है ये िकसी के द्वारा उत्पन्न नहीं होते बिल्क महाभूतों के
कारण होते हैं।'
इस प्रकार भूत शब्द का अथर् यह ह�आ िक जो स�ावान् हो या जो िवद्यमान हो तथा िकसी द्वारा
उत्पन्न न हो; परन्तु महाभूतों का उत्पादक-कारण हो उसे ' भूत' कहते हैं।
4.4 भूत के ल�ण
'बिह�रिन्द्रयग्रा�िवशेषगुणत्वम् भूतत्वम्।
अथार्त् बा�ेिन्द्रयों, पाँच �ानेिन्द्रयों के द्वारा ग्रहण िकये जा सकने वाले �पािद िवशेष गुण
िजनमें िवद्यमान हों, उन्हें भूत कहा जाता है। चूँिक बा� जगत् के �ान के िलये केवल पाँच
�ानेिन्द्रयाँ हैं, िजनसे मनुष्य को समस्त पदाथ� का यथािविध �ान होता है। ये इिन्द्रयाँ एक-एक
िनयत िवषय का ही ग्रहण करती हैं। यथा— श्रोत्रेिन्द्रय शब्द गुण का, स्पशर्मेिन्द्रय स्पशर् गुण
का, च�ुरीिन्द्रय �प गुण का, रसनेिन्द्रय रस गुण का तथा घ्राणेिन्द्रय गन्ध गुण का ग्रहण करती
है, अतः शब्द, स्पशर्, �प, रस, गन्ध—इन पाँच िवशेष गुणों के आश्रयभूत द्रव्य पाँच ही हैं,
िजन्हें भूत कहा जाता है। यहाँ 'विह�रिन्द्रय' से यह स्प� कर िदया गया है िक इन पाँच �ानेिन्द्रयों
का सम्बन्ध बा� जगत् से होता है या बा� जगत् से या लोक पु�ष का अन्तर्सम्बन्ध स्थािपत
करने का साधन (Tools) इन्द्रयाँ हैं। इस प्रकार बा�
जगत् से इिन्द्रयाँ िजन-िजन गुणों को ग्रहण करती है, उन-उन गुण वाले गुणी क� ही स�ा इस
जगत् में िवद्यमान है, अतः उन्हें भूत कहा जाता है। हमारे पास बा� उ�ेजनाओं या गुणों को
ग्रहण करने का साधन पाँच हैं, अतः हम इनके आधार पर ही सम्पूणर् जगत् में पाँच क� स�ा
स्वीकार करते हैं, िजनक� स�ा होने से इन्हें भूत कहा जाता है। में इसको स्प� िकया गया है िक-
महाभूतािन खं वायुरिग्नरापः ि�ितस्तथा।
शब्दः स्पशर्� �पं
रसोगन्ध� तद्गुणाः।
4

अथार्त् आकाश, वायु, अिग्न, जल तथा पृथ्वी-ये पाँच महाभूत हैं तथा शब्द, स्पशर्, �प, रस
तथा गन्ध-ये क्रमशः इनके गुण हैं। इन गुणों के आधार पर ही इन भूतों के ल�ण िनिदर्� हैं।
यथा—


3
Positive Science of the Ancient Hindus
4
च. शा. १।२७

204
शब्दगुणकमाकाशम् — शब्द गुण वाला आकाश कहा जाता है।
स्पशर्वान् वायुः - स्पशर् गुणवाला वायु कहा जाता है।
�पस्तेजः - �पवान् को तेज कहते हैं।
रसवत्यं आपः - रसवान् को अप कहते हैं तथा गन्धवती पृथ्वी- गन्ध गुण वाली को पृथ्वी
कहते हैं।।
प�चमहाभूतों के असाधारण ल�ण–प�चमहाभूतों के असाधारण या भौितक गुणों का िनद�श
देते ह�ए कहा गया है िक-
खरद्रवचलोष्णत्वं भूजलािनलतेजसाम्।
आकाशस्याप्रितघातो द्र�ं िलङ्गं यथाक्रमम्।।
5

अथार्त् खरत्व, द्रवत्व, चलत्व, उष्णत्व-ये ल�ण पृथ्वी, जल, अिग्न व वायु के होते हैं। खरत्व
पृथ्वी का, द्रवत्व जल का, चलत्व वायु का तथा उष्णत्व अिग्न का ल�ण है। आकाश का
ल�ण अप्रितघात होता है। प्रितघाताभाव या प्रितघात का न होना ही अप्रितघात कहा जाता है।
प्रितघात स्पशर् के द्वारा होता है, अतः अप्रितघात का अथर् यहाँ स्पशार्भाव ग्रहण करना
चािहये।
4.5 महाभूतों के गु ण
महाभूतािन खं वायुरिग्नरापः ि�ितस्तथा। शब्दः स्पशर्� �पं च रसो गन्ध� तद्गुणाः ।।
तेषामेकगुणः पूव� गुणवृिद्ध परे परे। पूवर्: पूवर्गुण�ैव क्रमशो गुिणषु स्मृतः ॥
6

अथार्त् आकाश, वायु, अिग्न, जल व पृथ्वी के क्रमशः शब्द, स्पशर्, �प, रस व गं ध गुण होते
हैं। इनमें पूवर्-पूवर् गुण उ�र-उ�र महाभूतों में अनुप्रवेिशत होते हैं। अथार्त् आकाश में एकमात्र
शब्द गुण होता है। वायु में स्पशर् के साथ- साथ पूवर् महाभूत आकाश का शब्द गुण भी होता है।
इसी प्रकार अिग्न में �प के साथ-साथ आकाश व वायु के शब्द व स्पशर् भी होते हैं। इस प्रकार
अिग्न में �प, स्पशर् व शब्द - तीन गुण होते हैं। जल में रस गुण के साथ-साथ पूवर्गुण �प, स्पशर्
व शब्द भी होते हैं। इस प्रकार जल में रस, �प, स्पशर् व शब्द- ये चार गुण होते हैं। पृथ्वी
महाभूत का अपना गुण गन्ध है; परन्तु गन्ध गुण के साथ-साथ पूवर् के महाभूतों के गुण, रस,
�प, स्पशर् व शब्द भी होते हैं। इस प्रकार पृथ्वी महाभूत में गन्ध, रस, �प, स्पशर् व शब्द-ये
पाँच गुण होते हैं।। पं च महाभूतों में ित्रगुण (स�व, रज, तम); है- आचायर् सुश्रुत के अनुसार
तत्र स�वबह�लमाकाशं, रजोबह�लो वायुः, स�वरजोबह�ल
स�वतमोबह�ला आपः
तमोबह�ला पृथ्वीित।
अथार्त् आकाश महाभूत स�वबह�ल होता है। वायु महाभूत में रजोगुण क� बह� लता होती है।
स�व व रजोगुण बह� ल अिग्न होती है। जल महाभूत में स�व व तमोगुण होता है एवं पृथ्वी
महाभूत में तमोगुण क� बह� लता होती है।



5
च. शा. १।२९
6
च. शा. १।२७-२८

पंचमहाभूत क�
अवधारणा
205
4.6 पृथ्वी
4.6.1 पृथ्वी के ल�ण
१. तमो बह�ला पृिथवी— सुश्रुत।
तमो गुण बह� ल पृथ्वी होती है।
१२. तत्र गन्धवती पृिथवी — तकर्संग्रह।
गन्ध वाली पृथ्वी है। अथार्त् गन्धवान् होना पृथ्वी का ल�ण है। यहाँ पृथ्वी
ल�य व पृिथवीत्व उसका अन्य द्रव्यों से अलग करने वाला ल�ण है। िजस द्रव्य
में गन्ध समवायसम्बन्ध से रहे, उसे पृथ्वी कहा जाता है ।।
अद्भ्यो गन्धगुणाः भूिमः।
7

जल से गन्ध गुण वाली पृथ्वी उत्पन्न ह�ई।
�प रसगन्धस्पशर्वती पृिथवी ।
अथार्त् �प, रस, गन्ध व स्पशर् गुणयु� द्रव्य को पृथ्वी कहा जाता है। इसमें गन्ध पृथ्वी का
अपना गुण है तथा रस, �प व स्पशर् क्रमशः पूवर् महाभूत जल, तेज व वायु के हैं, जो अनुप्रवेश
द्वारा पृथ्वी में प्रिव� हैं। यहाँ वैशेिषक दशर्न में पृथ्वी को चार गुणों वाली ही कहा गया है।
आकाश महाभूत के गुण शब्द का यहाँ उल्लेख नहीं िकया गया है। यद्यिप वैशेिषक दशर्नकार
ने आकाश को द्रव्य स्वीकार िकया है; परन्तु उ�र महाभूत पृथ्वी में उसको अनुप्रिव� नहीं
माना है। वस्तुिस्थित यह है िक िबना आकाश महाभूत के िकसी द्रव्य क� िस्थित नहीं हो सकती
है, अतः आकाश के गुण-शब्द का भी उ�र महाभूतों में अनुप्रवेश स्वीकार करना चािहये।
तत्र ि�ितगर्न्धहेतु नार्ना �पवती मता। षड्िवधस्तु रसस्तत्र
गन्धस्तु िद्विवध

स्पशर्स्तस्यास्तु िव�ेयो �नुष्णाशीतपाकजः ।
िनत्यािनत्या च सा द्वेधा िनत्या स्यादणु ल�णा ।।
8

�प-रस-गन्ध-स्पशर् संख्या-प�रमाण पृथ�व-सं योग-िवभाग-परत्वापरत्व- गु�त्व- द्रवत्व-
सं स्कारवती पृिथवी । एते च गुणिविनवेशािधकारे �पादयों गुणिवशेषाः िसद्धाः चा�ुषवचनात्
स�सं ख्यादयः । पतनोपदेशात् गु�त्वम्। अिद्भः सामान्यवचनात् द्रवत्वम्। उ�रकमर्वचनात्
संस्कारः प्रशस्तपाद। १
अद्भ्यः पृिथवी—तैि� ।
अथार्त् जल से पृथ्वी क� उत्पि� ह�ई। पृथ्वी क� उत्पि� के िलये अप् त�व क� सू�मावस्था रस
तन्मात्रा क� सहायता आवश्यक होती है। मनुस्मृित में कहा गया है िक जल त�व से गन्ध गुण
वाली पृथ्वी उत्पन्न ह�ई। बृहदारण्यकोपिनषद् में कहा गया है िक जल का जो फेन भाग था वही
किठन होकर पृथ्वी उत्पन्न ह� ई (तद्यदपां सरः आसीत् तत् समहन्यत सा पृिथवी अभवत् )।


7
मनुस्मृित
8
िसद्धान्तमु�ावली

206
िसद्धान्तमु�ावली में अनेक प्रकार के गन्धों के कारण �प में पृथ्वी को प्रदिशर्त िकया गया है
तथा कहा गया है िक पृथ्वी छः रसों से यु� अथार्त् छः रसों वाली है और इसमें दो प्रकार का
गन्ध होता है। इनमें अनुष्णाशीत पाकज स्पशर् भी होता है।
�प-रस आिद गुण, षड्रस यु� पृथ्वी आिद कायर् �प पृथ्वी में समझना चािहए। यिद
िनत्यािनत्य भेद से देखा जाय तो ये गुण अिनत्य या कायर् �प पृथ्वी में हो सकते हैं। िनत्य पृथ्वी
परमाणु �प में ही हो सकती है, जो िक िनरवयव होती है।
पृथ्वी में �प, रस, गन्ध, स्पशर्, संख्या, प�रमाण, पृथ�व, संयोग, िवभाग, परत्वापरत्व, गु�त्व,
द्ववत्व और सं स्कार—ये चौदह गुण होते हैं। ये गुण पृथ्वी महाभूत में समवायसम्बन्ध से रहते हैं।
इन उपयुर्� चौदह गुणों में से �प, रस, गन्ध व स्पशर् गुण िवशेष �प से रहते हैं ; क्योंिक ये गुण
पृथ्वी के पूवर् के महाभूतों के भी हैं, जो अनुप्रिव� हैं। पृथ्वी शुक्ल, नील, ह�रत, लाल, पीला,
खाक� व िचत्र भेद से सात �पों वाली होती है। इसमें मधुराम्ललवण कटु ित� कषाय- ये छः
रस और स ुरिभ व असुरिभ ये दो गन्ध होते हैं। इसमें अनुष्णाशीत स्पशर् भी होता है।
उपयुर्� गुणों में से (चौदह गुणों में से) सं ख्यािद सात गुण १. सं ख्या २. प�रमाण ३. पृथ�व ४.
सं योग ५. िवभाग, ६. परत्व,
अपरत्व व कमर् भी चा�ुण प्रत्य� होने वाले िवषय होने के
कारण पृथ्वी में िवद्यमान रहते हैं।
चा�ुषवचनात् स�संख्यादयः
9
- अथार्त् संख्यािद सात गुण चा�ुषप्रत्य�गम्य िवषय हैं, जो
पृथ्वी में िवद्यमान रहते हैं।
पृथ्वी के ल�ण हेतु वैशेिषक दशर्न में '�परसगन्धस्पशर्वती पृथ्वी' कहा गया है। यिद केवल
स्पशर्वती पृथ्वी कहा जाए तो वायु का गुण है, अतः स्पशर्वान् जो होगा वह वायु होगा। यिद
स्पशर् के साथ �पवती पृथ्वी कहा जाए तो यह तो सही है िक पृथ्वी में शुक्ल, नीलािद �प है;
परन्तु के वल �प कहने से इसके आश्रय अिग्न का बोध होगा; क्योंिक �प अिग्न का िविश�
गुण है। इसी प्रकार यिद 'स्पशर्�परसवती पृथ्वी' कहा जाएगा तो रस से जल का बोध होगा;
क्योंिक रस जल का िविश� गुण है। हालां िक पृथ्वी में मधुरािद रस होता है; परन्तु रसवान् पृथ्वी
का ल�ण नहीं है। यिद रसवान् होना ही पृथ्वी का ल�ण मान िलया जाए िक पृथ्वी में तो रस
है, तो यह ल�ण दो-दो महाभूतों जल व पृथ्वी दोनों के हो जाएंगें अतः पृथ्वी के िविश� गुण
गन्ध के साथ ल�ण िदया गया िक - '�प रसगन्धस्पशर्वती पृथ्वी। क्योंिक ये चारों गुण पृथ्वी में
िवद्यमान रहते हैं। इन चारों गुणों में स्पशर्, वायु, अिग्न व जल में भी है , �प, अिग्न व जल दोनों
में, रस, जल व पृथ्वी दोनों में है; परन्तु गन्ध गुण क
पृथ्वी में ही है, अतः िबना गन्ध गुण के
कहे पृथ्वी का बोध नहीं हो पाता है, इसीिलये कहा गया है िक-'�परसगन्धवती पृिथवी'। अब
यहाँ यह स्प� करना आवश्यक समझा जा रहा है िक 'गन्धवती' में 'वती' क्यों लगाया जाता है।
'वती' से सामान्यतया 'बाली' या यु� अथर् ग्रहण िकया जाता है। अथार्त् गन्धयु� पृथ्वी है या
गन्ध वाली पृथ्वी है; परन्तु 'वती' शब्द 'मतुप्' प्रत्यय से उत्पन्न है , िजसका अथर् ' सामान्य
सम्बन्ध' होता है, िजसका तात्पयर् समवाय सम्बन्ध �प में ग्रहण होता है। इस प्रकार 'गन्धवती
पृिथवी' का तात्पयर् 'समवायेन गन्धव�वं पृथ्वीत्वम्'होता है। अथार्त् िजसमें गन्ध समवाय�प से
सम्बिन्धत हो उसे पृथ्वी कहा जाता है। जब पृथ्वी महाभूत द्वारा िकसी कायर्- द्रव्य क� उत्पि�
होती है, तो पृथ्वी के साथ गन्ध यु� रहता है। ऐसी बात नहीं है िक गन्ध पृथक् �प से कायर्-


9
प्रशस्तपाद

पंचमहाभूत क�
अवधारणा
207
द्रव्य उत्पन्न करता है, जहाँ पृथ्वी महाभूत है, वहाँ गन्ध है अथवा जहाँ गन्ध है, वह पृथ्वी है;
क्योंिक गन्ध पृथ्वी के अित�र� अन्यत्र रहता ही नहीं है - गन्धगुणात्यन्ताभावानिधकरणत्वं
गन्धवत्वम्।।
पृथ्वी में गु�त्व है व गन्ध उसका िविश� गुण है। सामान्य िनयम है िक जैसे-जैसे परमाणुभार में
वृिद्ध होती है वैसे-वैसे गन्ध क� तीव्रता बढ़ जाती िजस द्रव्य के परमाणु बह�त ही कम हैं, वे
प्रायः गन्धिवहीन होते हैं।
वाष्पीय पदाथ� का परमाणु भार बह� त अिधक होने पर वे िनगर्न्ध हो जाते हैं। थोड़े से
रासायिनक प�रवतर्न से रासायिनक द्रव्यों के गन्ध में उल्लेखनीय प�रवतर्न हो जाता है।
4.6.2 पृथ्वी के भेद
या िदिवधा िनत्याऽिनत्या च िनत्या परमाण�पा। अिनत्या
पृथ्वी के दो भेद वैशेिषक न्यायो� हैं। सांख्य के अनुसार पृथ्वी क� उत्पि� गन्ध, तन्मात्रा से
अन्य पूवर् के तन्मात्राओं क� सहायता से होता है। कोई भी उत्पन्न वस्तु िनत्य नहीं होती है।
अतः सांख्य के अनुसार भेद नहीं है । वैशेिषक दशर्न के अनुसार पृथ्वी का परमाणु िनत्य होता
है, उसका नाश नहीं होता है तथा इसे िवकिसत होने वाले िविभन्न परमाणुओं के सहयोग से
उत्पन्न पृथ्वी िजसे शरीर सं�क अथार्त् आकारािद (Shape & size) पृथ्वी कहते हैं। वह
पृथ्वी अिनत्य है। इसके अित�र� िवषय सं �क पृथ्वी भी अिनत्य है। अन्य दशर्न
सांख्यािदमें
इस प्रकार क� अवधारणा (Concept) नहीं है। अथार्त् पृथ्वी के दो प्रकार होते हैं- (१) िनत्या
(२) अिनत्या। ।
िनत्या—जो परमाणु �प में पृथ्वी रहती है, वह िनत्य होती है, अतः इसे िनत्या पृथ्वी कहा
जाता है।
अिनत्या—जो �प स्थूल पृथ्वी होती है, वह अिनत्य होती है, इसिलये उसे अिनत्या पृथ्वी
कहते हैं। इससे िविभन्न कायर्-द्रव्यों क� उत्पि� होती है। इसके पुनः तीन भेद होते हैं- (१) शरीर
सं�क (२) इिन्द्रय सं �क तथा (३) िवषय सं �क ।
शारीर सं�क—शरीर को पं चमहाभूतों के िवकारों का समुदाय माना गया है-तत्र शरीरं नाम
चेतनािध�ानभूतं पं चमहाभूतिवकारसमुदायात्मकं।
10

इस प्रकार कायर्�प पाँचों महाभूतों के िवकार का समूह शरीर है। इसमें जो पृथ्वी महाभूत का
िवकार सहभागी होता है, उसे शारीर सं �क पृथ्वी कहा जाता है। इसके पुनः दो भेद िकये गये
हैं— (क) योिनज (ख) अयोिनज।
योिनज-शुक्र-शोिणत संयोग से िजस शरीर क� उत्पि� होती है, उसे योिनज कहा जाता है। यह
दो प्रकार का है—(अ) जरायुज (ख) अण्डज। जो जरायु द्वारा शरीर उत्पन्न होता है, उसे
जरायुज कहा जाता है यथा-मनुष्य, गौ आिद तथा िजस प्रकार शरीर क� उत्पि� अण्डे द्वारा
होती है, उसे अण्डज कहा जाता है। यथा— सपार्िद।
अयोिनज-िजन शरीरधा�रयों क� उत्पि� िबना शुक्र-शोिणतं सं योग के होती है, उसे अयोिनज


10
च. शा. ७

208
शरीर कहा जाता है। यथा—देव, ऋिष, क�टािद। इनके दो प्रकार हैं- (अ) धमर्िविश� जो धमर्
िविश� अणुओं के संयोग से उत्पन्न होते हैं—यथा— देव, ऋिष तथा (ब) अधमर् िविश�-जो
अधमर् िविश� अणुओं के सं योग से उत्पन्न होते हैं—यथा—य ूका आिद।
इिन्द्रय सं�क – िजससे पृथ्वी के गुण-गन्ध का ग्रहण होता उसे इिन्द्रय सं �क पृथ्वी कहा जाता
है। नासा के अग्र भाग में रहने वाली इिन्द्रय भ्राणइिन्द्रय कहलाती है।
िवषय सं�क पृथ्वी -द्वयणुकािद क्रम से उत्पन्न कायर् �प पृथ्वी को िवषय सं �क पृथ्वी कहा
जाता है। इसके तीन प्रकार हैं—(क) मृत्-भू प्रदेश, इि�कािद। (ख) पाषाण-उपल, मिण,
वज्रािद। (ग) स्थावर-तृण, लता, वृ�ािद।
अब पृथ्वी महाभूत के भेदोपभेद का सरल रेखाकंन बोद्धगम्यता क� �ि� से प्रस्तुत िकया जा
रहा है-
Diagram---
4.7 जल
4.7.1 जल का ल�ण व भेद
िविभन्न दशर्नों में जल का ल�ण िनम्न �प में उिल्लिखत है-
ज्योितष� िवकुवार्णादपो रस गुणाः स्मृताः ।
11

�परसस्पशर्वत्य आपोः द्रवाः िस्नग्धाः ।
12

अग्नेरापः
13

तैि�रीयोपिनषद् के अनुसार अिग्न से जल क� उत्पि� ह�ई। आचायर् मनु के अनुसार- अिग्न से
रस गुण वाले जल क� उत्पि� ह� ई। आचायर् सुश्रुत ने जल को स�व व तमोबह� ल कहा है।
वैशेिषक दशर्न में �प-रस-स्पशर् गुणयु� िस्नग्ध व द्रव�पीय द्रव्य को जल कहा गया है।
वैशेिषक दशर्न में जल का जो ल�ण कहा गया है, उस ल�ण को कायर् �प जल का ल�ण
समझना चािहए; क्योंिक परमाणु के िनरवयव होने से परमाणु �प जल िनरवयव होता है, अत:
उसमें �प, स्पशार्िद गुण नहीं होते हैं। अतः ये ल�ण कायर् �प जल के हैं।
क्रमानुसार जल क� उत्पि� अिग्न से होती है। गुणों के उ�र अनुप्रवेशानुसार अिग्न
(�पतन्मात्रा) क� सहायता से जल क� उत्पि� होती है।
अिग्न क� उष्णता से द्रवीभूत होकर शीत जल क� उत्पि� ह� ई। प्रकृित में उष्णता से द्रवता क�
उत्पि� होती है, इस प्रकार द्रवता के िलये अिग्न क� सहायता या िवद्यमानता आवश्यक होती
है। िकसी वस्तु को द्रव �प में िवद्यमान रखने के िलये यथोिचत अिग्न का िवद्यमान

आवश्यक होता है। यहाँ यथोिचत का तात्पयर् सम्यक् �प में या सम्यक् मात्रा में रहना
आवश्यक है। जैसे—यिद िकसी द्रव पदाथर् क� िस्थित से अिग्न क� उष्णता समा� कर दी जाती


11
मनुस्मृित
12
वै. द. २१/२
13
तैि�रीयोपिनषद्

पंचमहाभूत क�
अवधारणा
209
है, तो वह ठोस हो जाती है। इसी प्रकार यिद अिग्न क� अिधकता कर दी जाए तो वह द्रव द्रव्य
वाष्प में बदल जाएगा तथा उसक� द्रवता समा� हो जाएगी। इस प्रकार लोक व्यवहार में जल
या द्रवता क� िस्थित बनाये रखने एवं अिग्न से द्रव�प जलोत्पि� क� िसिद्ध होती है; परन्तु
हमारे मत से यह ल�ण कायर्�प जल के हो सकते हैं, कारण�प जल के नहीं। अिग्न क� िस्थित
के अनुसार जल का ठोस बनना या वाष्प बनना, जल क� िस्थित में अिग्न क� अिनवायर्ता िसद्ध
करती है। जलोत्पि� में िकसी वस्तु का द्रवीभूत होना िवलीनता का द्योतक है न िक उत्पादकता
का; क्योंिक द्रवीभूत होने वाला द्रव्य पांचभौितक होगा अन्यथा अिग्न िकस द्रव्य को द्रवीभूत
करती है? अतः उपयुर्� ल�ण कायर्�प जल के हैं न िक कारण �प जल के हो सकते हैं।
सं भव है िक-अल्पबुिद्ध के कारण मेरे िवचार गलत िसद्ध हो सकते हैं; परन्तु आयुव�द या
भारतीय दशर्नों में, जैसा िक आगे हम लोग जानेगें, जल कायर्�प व कारण�प दोनों होता है,
अतः उपयुर्� ल�ण कायर्�प जलत�व के हो सकते हैं या इन्हें कायर्�प जल का ल�ण जानना
चािहये। अब इसी प�रप्रे�य में कारण �प जल के ल�ण को समझने का प्रयत्न िकया जाएगा।
वैशेिषक दशर्न में कहा गया है िक-'�प, रस, स्पशर्वत्य, आपोद्रबा िस्नग्धा:' अथार्त् जल �प,
रस, स्पशर्िविश� गुण व द्रव, िस्नग्ध, भौितक या गुवार्िद गुणयु� है। इसमें द्रवता िजसक� चचार्

पर क� गयी है, कायर्�प जल के हैं, जब भूतों का प�चीकरण हो जाता है तथा स्पशर्, �प,
रस, गुण कायर् व कारण�प दोनों में होते हैं। स्पशर् व �प क� सहायता �प में िकये गये सं योग से
रसात्मक जल क� उत्पि� होती है। स्पशर् वायु का गुण है तथा �प अिग्न का गुण है। इस प्रकार
वायु व अिग्न िमलकर जल क� उत्पि� करते हैं। वायु में गित व िक्रयाकतृर्त्व होता है, अिग्न में
ज्वलनशीलता है। जब क�ार् ( वायु) तथा करण या साधन (अिग्न) का सं योग होता है, तो िक्रया
होती है। िकसी िक्रया का प�रणाम अवश्य होता है, अतः जब वायु (जलने में सहायक,
उ�ेजक, िक्रयाकारक तथा ज्वलनशील) अिग्न का सं योग होता है, तो इस िक्रया के प�रणाम
स्व�पं जल क� उत्पि� होती है। अिग्न में उष्णता है तथा जल में शैत्य है। जब दोनों का सं योग
होता है, तो िक्रयाकारक वायु अिग्न क� उष्णता कम कर देता है। अिग्न में �पत्व गुण होता है,
ज्यों ही प्रकृितगत उष्णता कम होती है, तो द्रव �प में शीत गुण वाले जल क� उत्पि� होती है।
इस प्रकार एक जलाने वाले तथा एक जलने वाले दो त�वों का सिम्मश्रण होता है, तो जल क�
उत्पि� होती है। यिद अिग्न महाभूत क� अिधकता होती है, तो जल क� द्रवता समा� हो जाती
है। वह वाष्पीकृत हो जाता है तथा जब वायु महाभूत िक्रयाशील होता है, तो उसके शीतता से
जलोत्पि� होती है। 'स�व तमोबह�ला आपः'। प्रकृित में सत्व, रज, तम में तीन गुण हैं। इस
ें
िक्रयात्मक गुण रज है जहाँ भी िक्रया होती है, वह रजोगुण का ल�ण है। इसका लोक में
प्रितिनिध वायु है। जब तम व स�व का सं योग होता है, तो स�व का आग्नेयांश या ज्योित तम
के गु�त्व या आवरक भाव को द्रवीभूत कर देता है, िजससे जल क� उत्पि� होती है।
वणर्ः शुक्लो रसस्पश� जले मधु रशीतलौ। स्तेहस्तत्र द्रवत्वं तु सांिसिद्धकमु दा�तम्।।
14

अथार्त् जल का वणर् शुक्ल होता है। रस, मधुर तथा शीत स्पशर् होता है। स्नेह व द्रव�व इसके
सांिसिद्धक गुण हैं। जल के िलये कहा गया है िक- '�परसस्पशर्वत्य आपो'। यहाँ जल के
ल�णों को स्प� करते ह�ए कहा गया है िक जल का �प शुक्ल है, रस-मधुर है तथा स्पशर् शीत
है। स्नेहत्व व द्रवत्व को जल का सांिसिद्धक ल�ण कहा गया है।



14
मु�ावली

210
�प-रस-स्पशर्- द्रवत्व-स्नेह संख्या- पमाण-पृथ�व-संयोग-िवभाग- परत्वायरत्व-
गु�त्व-संस्कारवत्यः । पू वर्वदेषां िसिद्धः । शु क्ल-मधु र-शीत एव �प-रस-
स्पशार्ः।स्नेहोऽम्भस्येव सांिसिद्धकं च द्रवत्वम्।
15

अथार्त् जल में १. �प २. रस ३. स्पशर् ४. द्रवत्व ५. स्नेह ६. संख्या ७. प�रमाण ८. पृथकत्व
९. पर १०. अपर ११. गु�त्व १२. सं योग १३. िवभाग १४. सं स्कार—ये चौदह गुण होते हैं।
पूवर्वदेषां िसिद्धः - अथार्त् पृथ्वी क� तरह ही इसक� िसिद्ध होती है। यथा-�प, रस, स्पशर्, गुण,
गुणिविनवेशानुसार िसद्ध है। सं ख्यािद सात गुण अथार्त् सं ख्या, प�रमाण, पृथ�व, परत्व,
अपरत्व, सं योग, िवभाग- ये चा�ुष प्रत्य� जल में रहते हैं। पतनोपदेशात् गु�त्व-पतनोपदेश से
गु�त्व क� िसिद्ध होती है। जल का �प शुक्ल, रस, मधुर तथा स्पशर् शीत है। द्रवत्व व स्नेह जल
के सां िसिद्धक ल�ण हैं।
4.7.2 जल के भेद
पृथ्वी क� तरह जल के भेद का भी वणर्न वैशेिषक न्यायानुसार है िजसका उल्लेख तकर्संग्रह में
मु�ावली में िवस्तृत�पेण िकया गया है। िजसे प्राथिमक स्तर पर जल के िनत्यािनत्य भेद से दो
भेद िकये गये हैं। परमाणु �प जल िनत्य होता तथा कायर् �प जल अिनत्य होता है, िजसके
भेदोपभेद होते हैं।
िनत्यतािद पूवर्व�ु िकन्तु देहमयोिनजम्। इिन्द्रयं रसनं िसन्धुिहंमािदिवर्षयो मतः ॥
16

अथार्त् जल के दो प्रकार होते हैं- (1) िन

िनत्य जल-जो परमाणु �प जल होता है, वह िनत्य होता है।
अिनत्य- कायर् �प जल को अिनत्य कहा जाता है। इसके पुनः तीन भेद होते हैं- (1)
शरीरसं�क (2) इिन्द्रयसं�क (3) िवषयसं�क ।
शरीरसं�क-जलीय शरीर व�णलोक में होता है। यह प�चत�वात्मक होता है एवं सुख-दुःख
का सा�ात्कार करता है। इस शरीर में जलत�व क� प्रधानता होती है।
इिन्द्रयसं�क - 'इिन्द्रयं रसग्राहकं रसनं िज�ाग्रवितर्' अथार्त् िज�ाग्रवत� रसनेिन्द्रय जलीय
इिन्द्रय है। रसनेिन्द्रय जलीय होने के कारण केवल रस का �ान कराती है।
िवषयसं�क-िवषयसं�क जलत�व स�रत्, समुद्र, िहम आिद हैं। िवषयः स�रत्समुद्रािदः। यथा
चरके-आिदना तडागिहमकरकादीनां संग्रहः । द्रव- िस्नग्धशीतमन्दमृदुिपिच्छल आप्यािन।
4.7.3 जल क� अवस्थायें
जल क� चार अवस्थायें होती हैं- १. अम्भ २. मरीिच ३. मर तथा ४.
अम्भ - सूयर्मण्डल के ऊपर आकाश के ऊपरी भाग में जो जल िस्थत होता है, उसक�
अम्भसं�ा होती है। अथार्त् उसे अम्भ कहते है। इसे सोम�प कहा गया है तथा इसे अमृत माना
जाता है। जहाँ अम्भ जल क� प्रथम अवस्था है, वहीं परमात्मा का िनवास कहा गया है। सबसे
ऊपर िस्थत होने वाले इसक� अवस्था सू�मतम होती है। अथार्त् अितसू�म परमाण �प में होता


15
प्रशस्तपाद
16
मु�ावली

पंचमहाभूत क�
अवधारणा
211
है अतः हमे जल क� प्रारिम्भक या प्राथिमक अवस्था कहा जाता है। यह अम्भ-जल सूयर् क�
रािश्मयों से जलने वाला होता है, िजससे इसे प्रकाशजनक माना जाता है।'
मरीिच -सूयर् क� िकरणों का प्रभाव जहाँ तक िवद्यमान रहता है, उस सूयर्मण्डल और पृथ्वी के
बीच अन्त�र� में जो जल िस्थत होता है, उसे मरीिच अप् कहा जाता है। इसका नामकरण
'मरीिच' इसिलये िकया गया है िक मरीिचमाली क� मरीिचमाला से प्रभािवत यह जल है।
मरीिच सूयर् को कहते हैं। मरीिचमाली का तात्पयर् माला पहने सूयर् से है। यह जल सूयर्मण्डल व
पृथ्वी के बीच में सूयर्मण्डल के चारों तरफ माला क� तरह व्या� रहता है, अतः यहाँ इस अप
को मरीिचमाला कहा गया है तथा सूयर्ण्डल को चारों तरफ से माला क� तरह व्या� करने के
कारण इसे मरीिच कहा गया है। यह जल आग्नेय होता है, अतः इसे पवमान कहा जाता है। यह
अप् या जल अिग्न को धारण करता है। यह जल जहाँ िस्थत होता है, वहीं से सूयर्मण्डल, ग्रह,
न�त्रािद क� सृि� होती है। िदन का प्रकाश वहीं
मर—जो जल पृथ्वी पर िस्थत है, उसे मर कहा जाता है। अम्भ व मरीिच के संयोग से मर क�
उत्पि� होती है; क्योंिक मरीिच आग्नेय होता है। इस मर अप् से ही पृथ्वी क� उत्पि� होती है।
अप्– पृथ्वी के नीचे जो जल िस्थत होता है, उसे अप् कहा जाता है।
अनेक प्रकार के कायर्�प जल का उल्लेख िकया गया है, िजसमें अम्भ व मरीिच दोनों के िलये
अन्त�र� जल कहा गया है। मर का वणर्न पृथ्वी के स�रता, तालाब, नदी आिद के जल के �प
में िकया गया है तथा अप् जल का वणर्न कूप-जल आिद के �प में िकया गया है। इन सभी
प्रकार के जलों क� व्यावहा�रक उपादेयता व इसका स्व�प-वणर्न आयुव�दीय सं िहताओं में
िकया गया है।
इनमें अन्त�र� जल को ही सव��म जल कहा गया है। यह जल अमृतस्व�प, अव्य� रस
वाला, जीवन�प
ुव�दीय संिहताओं के जलवगर् में
विणर्त िकया गया है।
वायु व अिग्न क� सहायता से जलोत्पि� मानी जाती है। मरीिच आग्नेय है। वायु अपनी गित
द्वारा मेघ क� उत्पि� करता है तथा वषार् का कारण है। वायु ही संयोग िवभाग का कारण है,
अतः वह अम्भ मरीिच या अपने गुण, स्पशर् व आग्नेय जल मरीिच, जो प्रकाशोत्पादन के
कारण �पत्व-गुणयु� है, उसक� सहायता से जलोत्पि� करता है।
4.8 तेज
4.8.1 तेज का ल�ण
३. वायोरिप िवकुवार्णािद्वरोिचष्णुतमोनुदम् ।
ज्योित�त्पद्यते भास्व�द्रूपगुणमुच्यते॥
17

४. तेजो �पस्पशर्वत्।
18




17
मनुस्मृित
18
वै. द. २|३|१

212
अथार्त वायु से अिग्न क� उत्पि� होती है। मनु ने कहा है िक तम का नाश करने वाले तथा
भास्वर�प गुण वाले तेज क� उत्पि� वायु से होती है। इस तेज में स�व व रजोगुण क� बह�लता
होती है। इस प्रकार यह तेज स�व व रज- बह� ल होने से तम का नाश करने वाला होता है। इसमें
�पत्व व स्पशर्त्व होता है। अथार्त् तेज का ल�ण �पत्व होना तथा स्पशर्त्व होना है। इसका
�ान च�ुरीिन्द्रय से तथा स्पशर्नेिन्द्रय के द्वारा उष्ण स्पशर् होने पर होता है।
उष्णस्पशर्व�ेजः।
19

अथार्त् उष्ण स्पशर् का अनुभव होने के साथ ही अिग्न क� िवद्यमानता का �ान होता है।।
'अिग्न या तेज क� उत्पि� वायु से कही गयी है। वायु का अथर् गित होता है, जहाँ गित होती है,
वही अिग्न क� उत्पि� होती है। वायु का गुण स्पशर् होता है। गत्यात्मक वायु का स्पशर् गुण होने
से इससे संघषर् होता है; क्योंिक जहाँ स्पषर् होगा वहाँ दो के बीच सं घषर् होगा। इस प्रकार गित से
स्पशर् के कारण ह�ए संघषर् के प�रणामस्व�प अिग्न क� उत्पि� होती है। भारतीय शा� या
िव�ान में अिग्न, िवद्युत् व प्रकाश आिद को एक ही त�व के िभन्न-िभन्न प�रणाम का िविभन्न
�प माना गया है। यथा-
श्रान्तस्य त�स्य तेजो रसो न्यवतर्त अिग्नः । स त्रेधा आत्मानं व्याकु�त आिदत्यं िद्वतीयं
वायुं तृतीयमिग्नः ।
20

यहाँ एक ही आत्म को (१) अिग्न (२) आिदत्य व (३) वायु
�प में प्रस्तुत िकया गया है।
इस सृि� में िजन पदाथ� में �पत्व है उनमें अिग्न िवद्यमान रहती है तथा इस अिग्न को प्रिव�
होने के कारण ही उन पदाथ� में िवशेष प्रकार के �प �ि�गोचर होते हैं।
�पस्पशर्संख्याप�रमाणपृथ�वसंयोगिवभागपरत्वापरत्वद्रवत्वसंस्कारवत् पूवर्वदेषां
िसिद्धः । तत्र शु क्लं भास्वरं च �पम्। उष्ण एव स्पशर्ः ।
21
'
अथार्त तेज उष्ण स्पशर् वाला तथा भास्वर शुक्ल �प वाला होता है।
द्रव्यत्व उसका नैिमि�क गुण हैं
तेज में १. �प २. स्पशर् ३ संख्या ४. प�रमाण ५. पृथक्त्व ६. सं योग, ७. िवभाग ८. परत्व ९.
अपरत्व १०. द्रवत्व तथा ११. सं स्कार—ये ग्यारह गुण होते हैं। तेज का �प भास्वर शुक्ल तथा
स्पशर् उष्ण होता है।
4.8.2 तेज या अिग्न के भेद
तेज का भेद भी पृथ्वी व जल क� तरह वैशेिषक न्यायानुसार है। पूवर्वत् कहकर स्प� कर िदया
गया है िक िजस प्रकार पृथ्वी व जल के पूवर् में भेद िकये गये हैं, उसी प्रकार तेज के भेद िकये
गये हैं।
.. िनत्यतािद च पू वर्वत्।
इिन्द्रयं नयनं वि�ः स्वणार्िदिवषयो मतः ।
22



19
तकर्संग्रह
20
बृहदारण्यकोप. ११२
21
प्रशस्तपाद

पंचमहाभूत क�
अवधारणा
213
तच्च िद्विवधं – िनत्यमिनत्यं च िनत्यं परमाणु�पं अिनत्यं कायर्�पम्।
23

अथार्त् अिग्न या तेज के दो भेद होते हैं- (१) िनत्य तथा (२) अिनत्य।
िनत्य — 'िनत्यं परमाणु�पं' अथार्त् जो परमाणु�प तेज होता है, उसे िनत्य तेज कहा जाता
है।
अिनत्य-अिनत्यं कायर्�पम् —जो तेज कायर्�प होता है, वह अिनत्य होता है। इस अिनत्य
तेज के भी पुनः तीन भेद होते है– (१) शरीरसं�क (२) इिन्द्रयसं�क तथा (३) िवषयसं�क।
शरीरसं�क तेज-शरीरमािदत्यलोके प्रिसद्धम्। तकर्सं ग्रह।। आिदत्य लोक में शरीरसं�क तेज
होता है। स्वयं आिदत्य अथार्त् सूयर् एवं अन्य ग्रहािद तैजस शरीरयु� है।
इिन्द्रयसं�क तेज- अथार्त च�ु के अन्दर कृष्ण तारामण्डल के अग्रभाग में रहने वाला तथा
�प का ग्रहण करने वाला च�ुरीिन्द्रय तैजस इिन्द्रय कहा जाता है।।
स्वणार्िद में उपिस्थत तेज िवषयसं�क तेज कहा जाता है। इसके पुनः चार भेद होते हैं—(क)
भौम (ख) िदव्य (ग) उदयर् (घ) आकरज। '
(क) भौम िवषयसं�क तेज–भौमं वह्न्यािदकम्
24
। भूिम से उत्पन्न होने वाली अिग्न को
भौम िवषयसं�क तेज कहा जाता है। यहाँ आिद पद से भूिमगत ज्वालामुखी आिद का ग्रहण
िकया जाता है- 'आिदपदेन खद्योतगततेजः प्रभृते-प�रग्रहः।
िदव्यिवषयसं�क तेज अथार्त् जल से उत्पन्न होने वाली िवद्युत् आिद तेज को िदव्य कहा
जाता है।
उदयर् तेज – भु�स्य प�रणामहेतु�दयर्म्
25

अथार्त् जो तेज या अिग्न उदरस्थ होती है, उसे उदयर् तेज कहा जाता है।
यह अिग्न िविभन्न प्रकार के ग्रहण िकये गये अिशत, पीत, लीढ व खािदत आ
हारों का सम्यक्
�पेण पाचन करती है। प ुनः इसके ख, वायु, अिग्न, जल व प ृथ्वी भेद से पांच प्रकार होते हैं।
आकरज तेज-आकरज ं सुवणार्िदः
26
खिनजों से उत्पन्न होने वाले स्वणार्िद धातुओं में जो तेज
होता है, उसे आकरज तेज कहा जाता है।
4.8.3 िवद्यु त्
'द्युत्' धातु में 'िव' उपसगर् तथा 'िक्वप्' प्रत्यय लगाने से िवद्युत् शब्द बनता है। िव+द्युत्-िक्वप् ।
िविश�ा द्युत् दीि�:'; अथार्त् िजसक� िवशेष दीि� हो, उसे िवद्युत् कहा जाता है— यथा
'हस्काराद् िवद्यु तस्पशर्तो'
27
पर सायण ने-हस्तकाराद् दीि�काराद् िवद्यु तो िवशेषेण


22
मु�ावली
23
तकर्संग्रह
24
तकर्संग्रह
25
तकर्संग्रह
26
तकर्संग्रह
27
ऋ. वे. १।२३।१२।

214
दीप्यमानात्'कहा है, िजसका अथर्-िवशेष �प से दीप्यमान होना-होता है। इसका पयार्य
अमरकोषानुसार - तिडत, सौदािमनी, िवद्युत्, चंचला, चपला आिद है। तिडत शब्द का तात्पयर्
'ताडयतीित सतः' ताडयतीित 'तािडतो' अथार्त् जो वृ�ािद का ताडन करे वह तिडत है। यहाँ
ताडन का अथर् आघात करना होता है। तिडत िवद्युत् क� व्याख्या करते ह�ए संस्कृत के िवद्वानों
ने कहा है िक- यदा िवद्युत्, वृ�ादीन् ताडयित तदा सा तिडत् इित उच्यते, यदा सा िवद्योतते
तदा सा िवद्युत् इित उच्यते-अथार्त् जब िवद्युत् वृ�ािद पर आघात करती है, तो आघात
(ताडन) करने के कारण उसे तिडत कहते हैं तथा जब यह दीि�मान् होती है। अथार्त् चमकती है
तब इसे िवद्युत् कहा जाता है। इसक� चं चलता से इसे चं चला या चपला कहते हैं।
4.9 वायु-िन�पण
4.9.1 वायु का ल�ण
वा गितगन्धनयोः।
28

आकाशाद्वायुः।
29
. आकाशस्तु िवकुवार्णात्सवर्गन्धवहः शुिचः
30

आकाशस्तु िवकुवार्णः स्पशर्मात्रं ससजर् ह।
वायु�त्पद्यते तस्मात् तस्य स्पश� गुणो मतः।।
31

अथार्त् आकाश से वायु क� उत्पि� होती है। वायु या वात शब्द का अथर् गित होता है। इसका
अथर् है िक आकाश से गितपरक रजोगुण बह�ल वायु क� उत्पि� होती है। इस संदभर् में
िवष्णुपुराण में कहा गया है िक-आकाश क� उत्पि� के बाद शब्द-तन्मात्रा क� उत्पि� ह�ई,
िजससे स्पशर् गुणवाला वायु उत्पन्न ह� आ।
स�व, रज व तम —इनक� िक्रयाशीलता से सृि� रचना प्रारम्भ होती है। जब सृि�रचना
प्रारम्भ ह� ई तो स�वबह� ल आकाश उत्पन्न ह� आ। स�वबह� ल आकाश में म�वस्व�प परमात्मा
के ही ल�ण िवद्यमान थे अथार्त् वह आकाश सू�मतम �प में होने के कारण व्यापक �प से
िवद्यमान हो गया। इसक� व्यापकता के कारण इसमें िस्थरता थी तथा िनिवर्�ता थी। िजस
प्रकार स�वस्व�प परमात्मा िनिष्क्रय व व्यापक होता है, उसी प्रकार स�वबह� ल आकाश भी
व्यापक व िस्थर था। इसमें कोई िक्रया नहीं थी। अब इस िनिष्क्रय, व्यापक, सुिषर (�र�) सृि�
में तीनों गुण मात्र ही थे। जब गु�त्व गुणयु� तम भी था, उस तम क� जहाँ भी िस्थित थी वहाँ
स्पशर् उत्पन्न
ह� आ। स्पशर् क� उत्पि� के पूवर् वहाँ कोई मूतर्वस्तु नहीं थी िजसके कारण उसमें
गित उत्पन्न ह� ई। यह गित रजोगुण क� थी। इस प्रकार इस गित का नाम 'वा गितगन्धनयो' के
अनुसार वायु रखा गया। इस प्रकार आकाश क� िस्थरता या व्यापकता क� अपे�ा वायु में गित
प्रारम्भ ह� ई। इस गित को िक्रया या वायु कहा जाता है। इस प्रकार िनिष्क्रयता से सिक्रयता या
िस्थरता से गितशीलता क� िस्थित को वात कहा गया है। इसका ल�ण स्पशर् माना गया।
समझने के िलये इसे इस तरह समझा जा सकता है िक-िकसी �र� स्थान में यिद िकसी कण
आिद या िकसी वस्तु क� िस्थित हो, तो उस कण या वस्तु के चारों ओर से िकसी न िकसी


28
सुश्रुतसंिहता
29
तैि�रीयोपिनषद्
30
मनु.
31
िवष्णुपुराण

पंचमहाभूत क�
अवधारणा
215
पदाथर् का सम्पकर् होगा। िकसी वस्तु को �र� स्थान में लटकाया जाता है, तो उस वस्तु पर
प्रथम िक्रया स्पशर् क� होगी अथार्त् वस्तु चारों तरफ �र� िदखाई देने वाले '�रि�' में ही वह
िस्थत होगी, उस �रि� व वस्तु के सम्पकर् को ही स्पशर् कहा गया तथा इस स्पशर् से गित क�
उत्पि� ह�ई िजसे वायु कहा गया और इसी को िक्रया या कमर् कहा जाता है।।
अपाकजोऽनुष्णाशीतस्पशर्स्तु पवने मतः। ितयर्ग्गमनवानेष �ेयः स्पशार्िदिलङ्गकः ।।
32

अथार्त् अपाकज तथा अनुष्णशीत स्पशर् गुण वायु में होता है। यह वायु स्पशर् ल�ण वाला होता
है तथा ितयर्क् गमन करने वाला होता है। तेज अथार्त् अिग्न के संयोग िवशेष को पाक कहा
जाता है तथा इस पाक के द्वारा जो उत्पन्न होता हैं, उसे पाकज कहा जाता है। यथा-पृथ्वी, जो
द्रव्य िबना अिग्नसं योग के उत्पन्न होते हैं। उन्हें अपाकज कहा जाता है। वायु क� उत्पि� में
अिग्नसं योग नहीं होता है, अतः यहाँ इसका ल�ण अपाकज कहा गया है। अपाकज कहने का
यहाँ तात्पयर् है वायु के स्वल�ण स्पशर् को स्प� करना; क्योंिक स्पशर् में दो प्रकार क� सृि� के
कारण या तो शीत-स्पशर् का �ान होता है या उष्ण-स्पशर् का �ान होता है। इसी को यहाँ स्प�
िकया गया है 'अपाकजोऽनुष्णशीतस्पशर्' अथार्त् यह आपाकज है जो शीत उष्ण स्पशार्नुभव
िकया जाता है, वह वायु का ल�ण नहीं है। वायु का स्पशर् अनुष्ण शीत होता है। अथार्त् केवल
स्पशर्मात्र का होना ही वायु का ल�ण है। शीत व उष्ण स्पशर् क्रमशः जल व अिग्न के हैं।
आयुव�द में
ु योगवाही होता है, सूयर् क� उष्णता से
यु� होने के कारण इसका स्पशर् उष्ण तथा चन्द्रमा क� शीतलता के कारण इसका स्पशर् शीत
होता है। यह गितपरक होता है। जब प्रकृितगत वायु अिग्न व जल में गित प्रदान कर शरीर से
सं योग कराता है, तो शीत-उष्ण का अनुभव होता है। इसका ल�ण तो स्पशर्मात्र है। वायु में- १.
स्पशर्, २. सं ख्या, ३. प�रमाण, ४. पृथ�व, ५. सं योग, ६. िवभाग, ७. परत्व, ८. अपरत्व तथा
९. सं स्कार-ये नौ गुण होते हैं। इसमें �पत्व गुण नहीं होता है, अतः इसका चा�ुष प्रत्य� नहीं
िकया जा सकता है।'
4.9.2 वायु के भेद'
पूवर् क� तरह वायु का भी िनत्यािनत्य भेद वैशेिषक न्याय का है।
स िद्विवधः - िनत्योऽिनत्य�। िनत्यः परमाणु�पः। अिनत्यः कायर्�पः ।
33

अथार्त् वायु दो प्रकार का होता है- १. िनत्य तथा २. अिनत्य ।
परमाणु�प वायु िनत्य होता है तथा कायर्�प वायु अिनत्य होता है। अिनत्य वायु भेद होते हैं-
१. शरीरसं�क २. इिन्द्रयसं�क तथा ३ िवषयसं�क ।
शरीरसं�क वायु—शरीरं वायुलोके। वायुलोक में वायव्य शरीर होता है।
इिन्द्रयसं�क- स्पशर् का बोध कराने वाली इिन्द्रय को इिन्द्रयसं �क कहा जाता है। स्पशर् का
बोध कराने वाली त्विगिन्द्रय है, जो सम्पूणर् शरीर में व्या� रहती है। िविभन्न प्रकार के शीत,
उष्णािद का स्पशर्�ान त्विगिन्द्रय द्वारा ही होता है।
िवषयसं�क-वृ�ािद में कम्पन उत्पन्न करने वाला तथा शरीर के अन्दर प्राणािद का सं चार
करने वाला वायु िवषयसं�क कहा जाता है। चरकसं िहता के आधार पर इसे लोकगत व


32
मु�ावली
33
तकर्संग्रह

216
शरीरगत-दो भागों में िवभ� िकया जा सकता है। इन दोनों वायुओं का आयुव�द में
व्यावहा�रकता क� �ि� से िववेचन िकया जा रहा है।
इस प्रकार शरीरस्थ वायु िवषय सं�क वायु है। तकर्सं ग्रह में भी िवषय सं �क वायु के लोक व
शरीरगत भेद से दो कहे गये हैं। यह लोक जीिवत शरीर का सम्बन्ध वायु द्वारा अ�ुणशः बना
रहता है; क्योंिक लोकगत वायु संच�रत होकर शरीर में जाता है तथा पुनः शरीरगत िनगर्त वायु
लोक में जाता है। इस प्रकार लोक व शरीर से वायु सम्बन्ध बनाये रखता है।
लोकगत वायु—लोकगत वायु के प्राकृत कम� के सम्बन्ध में कहा गया है िक
१. पृथ्वी को धारण करता है। २. अिग्न को जलाता है। ३. सूयर्, चन्द्रमा, ग्रह, न�त्रािद को
अपनी-अपनी गितयों में बनाये रखता है। ४. बादलों को उत्पन्न करता है! ५. जल बरसाता है।
६. नदी व तालाबों के जल में उिचत गित प्रदान करता है। ७. पुष्प व फलों को यथाकाल
उत्पन्न करता है। ८. पृथ्वी को फोड़कर िनकलने वाले वृ�ों को िनकालता है। ९. ऋतुओं का
अलग-अलग िवभाग करता है। १०. स्वणर्-रजतािद धातुओं को िवभ� िकया जाता है। ११.
धातुओं के आकृित व मान को स्प� करता है। १२. बीजों में गुणों का अिभसंस्कार करता है।
१३. धान्यों को बढ़ाता है, सड़ने से बचाता है तथा उनके गीलेपन का शोषण कर उन्हें शुष्क
करता है तथा १४. अन्य अवैका�रक काय� को करता है।
34

लोकगत िवकृत वायु के ल�ण-लोकगत प्राकृत वायु के कमर् व ल�णों के साथ-साथ लोकगत
िवकृत वायु से भी कम� या ल�णों का उल्लेख िकया गया है। यथा
प्रकुिपतस्य खल्वस्य लोकेषु चरतः कमार्णीमािन भविन्त-तद्यथा िशख�रिशख-
रावमथनम्
35
,
अथार्त िवकृत वायु-१. पवर्त क� चीिटयों का तोड़-फोड़ करती है। २. वृ�ों को उखाड़ फेंकती
है। ३. समुद्रों को उत्पीिड़त करती है। ४. तालाब नालों व नदी के जल को िवपरीत िदशा में

जाती है। ५. भूिम कम्पोत्पादक है। ६. मेघ गजर्नोत्पादक होती है। ७. बफर्, िबना मेघ के
शब्दोत्पि�; पांशु, िशकता मत्स्य, मेढकः सपर्, �ार र� अश्म, बज्र आिद को िगराती है। ८.
ऋतुओं को िवकृत
करती है। ९. शस्यों को उिचत �प में उत्पन्न नहीं होने देती है। १०. लोकगत प्रािणयों का
िवनाश करती है। ११. भावात्मक पदाथ� का अभाव करती है। ११. चारों युग का अन्त करने
वाले भयंकर बादल, सूयर्, अिग्न व वायु को उत्पन्न करती है।
शरीरगत वायु-शरीरगत वायु के पां च प्रकार है-
प्राणवायु–
प्राणवायु मूधार्, उर: प्रदेश, कण्ठ, िज�ा, मुख, नािसका आिद में िस्थत होता है। �ीवन (थूकना)
�वथु (छींकना) उद्गारोत्पि�, �ास-प्र�ास आहारािद का ग्रहण करना प्राणवायु का कमर् है। यह
देह को धारण करता है, अन्न का प्रवेश कराता है, �ानेिन्द्रय, मन व धमिनयों का धारक है।
36

उदानवायु—उदानस्य पुनः स्थानं नाभ्युरः कण्ठ एव च।
37



34
च. सू. १२-१
35
च. सू. १२
36
अ. सं. सू. २० �िद प्राणो-अमरकोष।
37
िच. िच. २८

पंचमहाभूत क�
अवधारणा
217
अथार्त् उदान वायु का स्थान उरोगुहा, नािभ, कण्ठ तथा नािसका है। इसका कमर् वाक्प्रवृित,
प्रयत्न, ऊजार्, बल, वण�त्पि�, �ोतः प्रीणन, बुिद्ध, स्मृित आिद का संतुलन और मनोिवबोध
आिद कमर् है।।
समानवायु–समानोऽन्तरिग्नसमीपस्थः पक्वामाशय-दोषमल- शुक्रा�र्वाम्बुवहस्रोतोिवचारी ।
तदवलम्बनावधारणं पाचनिववेचनिकट्टाधोनयनािद िक्रयः।
38

अथार्त् स्वेदवह, दोषवह, अम्बुवह स्रोतसों में, आमाशय, पक्वाशय में व कायािग्न के पा�र् में
समानवायु रहता है। अिग्न सन्धु�ण, आहार का प�रपाक, दोष, धतु व मलिववेचन इसका कमर्
है।
अपान वायु- वृषणौ विस्तमेदं च नाभ्यू� वं�णौ गुदम्। शुक्रमूत्रशकृिन्त च सृजत्यातर्वगभ� च।
39

अथार्त् पक्वाशय, अन्त्र, नािभ, वृषण, बिस्त, मेढू, गुद, वं�ण, श्रोिण तथा उ� इसके स्थान है।
मूत्र, पुरीष, शुक्र, आतर्व तथा गभर् का उत्सजर्क है।
व्यानवायु- देहं व्याप्नोित सवर् तु व्यानः। गितप्रसारणा�ेपिनमेषािदिक्रयः सदा।
40

'�दय में आिश्रत व सम्पूणर् शरीर में व्या� वायु को व्यानवायु कहा जाता है। इसका कमर्
रससंवहन, स्वेद व र�स्रावण, अवयवों में गित प्रसारण, सं कोच, ऊपर क� ओर उठना, नीचे
क� ओर िगरना, पलक खुलना, बन्द होना, अत्र का आस्वादन तथा स्रोतोिवशोधन है। योिन में
शुक्र का प्रितपादन करना, अत्र में िकट्ट से सार भाग को अलग करके उससे धातुओं का पोषण
करता है।
4.9.3 वायु के कायर्
चरकसं िहता में शरीरगत वायु के कम� पर िवस्तृत �प से प्रकाश डाला गया है। यथा-
वायुस्तन्त्रयन्त्रधरः - वायु
ु प्राणािद पं चवायुओं
क� आत्मा है। वायु मन का िनयमन व प्रेरण करती है। वायु सभी इिन्द्रयों को अपने-अपने
िवषयों का ग्रहण करने में प्रवृ� कराती है।
सव�िन्द्रयाथार्नामिभवोठा- सभी इिन्द्रयों के िवषयों का स्वयं ग्रहण कर इिन्द्रय बुिद्धयों तक ले
जाती है।
शरीरस्थ सभी धातुओं को अपने-अपने स्थान पर एकित्रत करती है। शरीर का सन्धान करती है।
अथार्त् शरीरस्थ जुड़ने वाले भावों को यथोिचत् �प में जोड़ती है।
प्रवतर्को वाचः-वाणी को प्रवृ� कराती है।
शब्द और स्पशर् का कारण है। श्रोत्रेिन्द्रय व स्पशर्नेिन्द्रय का मूल है। -हषर् व उत्साह क� उत्पन्न
करने वाली है। १३. यह जठरािग्न को तेज करती है।
दोषसंशोषण:-दोषों का सं शोषण कायर् वायु द्वारा सम्पन्न होता है। शरीर से मल को बाहर
िनकालने वाली है। कतार् गभार्कृतीनाम्-गभर् को आकृित प्रदान करना वायु का कमर् है। १८.
आयु का अनुवतर्न करती है। अथार्त् अपने प्राकृत कम� द्वारा आयु क� िनरन्तरता बनाये रखती
है।


38
अ. सं. सू. २०
39
च. िच. २८
40
च. िच. २८

218
यह आशुकारी, शीघ्र कायर्कारी तथा बार-बार गित करने वाला है। आचायर् चरक ने वायु के
िलये िनम्न सं�ाओं का उल्लेख िकया है। स िह िव�कमार् िव��पः सवर्णः सवर्तन्त्राणां
िवधाता भावानां अणुः िवभु ः िवष्णुः क्रान्ता लोकानाम्।
41

इस प्रकार आचायर् चरक ने भी वायु को िव�कमार्, िव��प, सव�ग, अणु, िवभु, िवष्णु,
लोकक्रान्ता कहा है। इसके अित�र� आचायर् ने इसे—संचार के उत्पि� का कारण, नाशरिहत,
प्रािणयों का उत्पादक व िवनाशक आिद कहा है। इसके पयार्य�प में उपयुर्� नाम िवभु, िवष्णु
आिद के साथ-साथ मृत्यु, यम, िनयन्ता, प्रजापित आिद सं �ाओं से अिभिहत िकया है।
उपयुर्� तथ्यों से अब यह स्प� हो जाता है िक सृि� क� उत्पि�, िस्थित एवं िवनाश में धारक
तथा िवनाशक त�व वायु ही हैं।
वायु को उत्पि�, िस्थित व िवनाश का कारण माना गया है। िकसी भी कायर्द्रव्य क� उत्पि� के
िलये िक्रया आवश्यक है। िक्रया का िवद्यमान रहना िस्थित है तथा िक्रया का बन्द होना िवनाश
है। वायु समस्त िक्रयाओं का मूल है, इससे वात के उत्पादक, िस्थितकारकत्व व िवनाशकत्व
क� िसिद्ध होती है। यथा- �दयगित का उत्पादक कारण गितपरक वोयु है, जबतक गित होती है।
अथार्त् वायु क� िक्रया कतृर्त्व है िस्थित होती है तथा िक्रया या गित बन्द हो जाती है, तो मृत्यु
हो जाती है।
गभ�त्पि� हेतु मूल कारण गित ही है। शुक्र (Sperm) क� गित (Metility) तथा �ीबीज हेतु
िडम्ब प्रणाली के िसिलएटेड िटसू के िसिलया का कम्पन आवश्यक होता है तथा पुनः उनका
संयोग (Ferlitize) होना तथा िवभाग (Celldivision) वायु (गित) के कारण ही सम्भव है।
इससे वायु क� व इसके उत्प
त्व िक्रया क� िसिद्ध होती है। मन का िनयन्ता प्रणेता वायु को
कहा गया है।
वायु के िलये 'अव्य�ं व्य�कमार्' कहा गया है। अथार्त् यह स्वयं तो अव्य� होता है; परन्तु
अपने कम� द्वारा व्य� होता है, अतः इसके कम� के ल�णों द्वारा ही इसका अिस्तत्व िसद्ध
होता है।
4.9.4 वायु क� िसिद्ध
वायु शब्द ही स्वयंिसद्ध है; परन्तु वायु महाभूत में �पत्व नहीं है, अतः च�ु से इसके ल�णों
को भी प्रत्य� नहीं िकया जा सकता है। आधुिनक काल में प्रत्येक द्रव्य का चा�ुष प्रत्य� होना
आवश्यक समझा जा रहा है। इसे इस तरह भी कहा जा सकता है िक-चा�ुष प्रत्य�ीकृत्
वस्तुओं को ही द्रव्य माना जाता है। इस सृि� में दो तरह के पदाथर् होते हैं। कुछ तो प्रत्य� होते
हैं तथा कुछ अप्रत्य� होते हैं। इस प्रत्य� में भी चा�ुषप्रत्य� तीन ही हैं-अिग्न, जल और
पृथ्वी।
स्वातन्�य �प में िनत्यभाव में रहने व सवर्गत होने से सवार्त्मना आत्मा ३. समस्त प्रािणयों क�
िस्थित, उत्पि� व िवनाश का कारण है।
यह अव्य� है, इसे देखा नहीं जा सकता है; परन्तु इसक� िवद्यमानता इसके कम� के द्वारा
प�रलि�त होती है।
इसमें ��, शीत, लघु, खर गुण होते हैं।


41
च. सू. १२/३

पंचमहाभूत क�
अवधारणा
219
यह ितयर्ग्गामी, शब्द-स्पशर् दो गुण वाला तथा रजोबह�ल होता है। ७. यह अिचन्त्य शि� वाला
है। यह दोषों का नेतृत्व करने वाला तथा रोगसमूह का राजा है।
. वेदान्त में 'क्रम्पनात्'
42
के द्वारा समस्त भावों में कम्पन स्वीकार िकया गया है। इस कम्पन का
मूल कारण वायु ही होता है, अतः वेदान्त के उपयुर्� वचन 'कम्पनात्' से वायु क� िसिद्ध होती
है।
'वायुयर्थैको भुवनं प्रिव�ो �पं �पं प्रित�पो बभूव'
43
() अथार्त् जैसे एक ही वायु चतुदर्श
लोक में प्रवेश करता ह�आ प्रत्येक शरीर के अनु�प हो जाता है। यिद वायु िकसी बफर्यु� गृह
में प्रिव� होती हैं, तो शीतल होती है तथा यिद अिग्नयु� गृह में प्रिव� होती है, तो ऊष्ण हो
जाती है। आधुिनक काल में वातानुकूलन िक्रया (Aircondition) इसी िसद्धान्त पर आधा�रत
है, अतः इससे वायु के सवार्त्म�प क� िसिद्ध होती है।
'वा' गितगन्धनयो: से वात या वायु शब्द क� उत्पि� होती है, िजसका अथर् 'गित' है।
िव� में ऐसा कोई पदाथर् नहीं है, जो गितशील न हो। इसी से इसका नाम जगत् या संसार है।
'गच्छतीित जगत्' अथार्त् जो गितमान् हो, उसे जगत् कहते हैं तथा 'सं सरित इित सं सार:' अथार्त्
जो सदैव सं सरण करता है, उसे सं सार कहा जाता है। इस प्रकार जगत् या सं सार शब्द गितपरक
है, जो वायु का स्वल�ण है। गन्धन का यहाँ अथर् सूचना, उत्साह ग्रहण िकया जाता है। उत्साह
से प्रवृि� होती है। चरकसं िहता में सामान्य वायु का कमर् उत्साह कहा गया है। वायु के गित से
िक्रया एवं गन्धन से िक्रयारम्भक अथर् ग्रहण करना उिचत प्रतीत
ु क� िसिद्ध
होती है।
'यिददं िक�च जगत् सवर् प्राण एजित िनःसृतम्' अथार्त् इस सृि� में िजतने भी पदाथर् हैं, वे
प्राण�पी ब्र� से चलते हैं। जीवधा�रयों में तो गित प्रत्य�कृत् है, िजसे हम जड़ पदाथर् कहते हैं,
उनके अन्दर भी द्रव्य के या परमाणु के मध्य में िस्थत धनिवद्युत् कणों के चारों तरफ ऋणिवद्युत्
िपण्ड गित करते रहते हैं। इस प्रकार इस सृि� के सम्पूणर् पदाथ� में गित क� िक्रया िनरन्तर
चलती रहती हैं, अतः इससे वायु क� िसिद्ध होती है।
4.10 आकाश-िन�पण
4.10.1 आकाश के ल�ण
तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः संभूतः।
44

२. स�वबह�लमाकाशम्।
45

३. त आकाशे न िवद्यन्ते।
46

. शब्दगुणकमाकाशम्। तच्चैकं िवभु िनत्यं च।
47

िनष्क्रमणं प्रवेशनिमत्याकाशस्य िलङ्गम्।
48



42
'क्रम्पनात्' १।३।३४
43
कठो.
44
तैि�रीयोपिनषद्
45
सुश्रुत
46
वै. द. २५
47
तकर्संग्रह

220
तैि�रीयोपिनषद् के अनुसार आकाश क� उत्पि� आत्मा से ह�ई है। यहाँ आत्मा का तात्पयर् शुद्ध
चेतन त�व या परमात्मा से है। अन्य दशर्नों व शा�ों में इसक� उत्पि� शब्द से मानी गयी है।
सांख्यानुसार अहंकार से शब्द तन्मात्रा क� उत्पि� होती है तथा उस शब्द तन्मात्रा से आकाश
क� उत्पि� होती है।
परमात्मा या शुद्ध चेतन त�व का स्व�प भी शुद्ध या स�व�प है, अतः स�वबह� ल आकाश के
उत्पि� का कारण स�व�प शुद्धत�व आत्मा को कहा गया है। आकाश को भी व्यापक, िनत्य
तथा एक माना गया है। इसमें अत्मा के िलङ्ग व्या� हैं, अतः तैि� में आकाश क� उत्पि�
आत्मा से कही गयी है। मनुस्मृित में कहा गया है िक महाभूतों के उत्पि�क्रम में सवर्प्रथम
शब्दल�ण वाले शब्द-तन्मात्रा क� सहायता से आकाश महाभूत क� उत्पि� ह� ई। यहाँ आचायर्
मनु ने आकाश के दो ल�णों का उल्लेख िकया है—प्रथम ल�ण 'शब्द'; जो आकाश का
िवषयसं�क गुण है तथा दूसरा 'सुिषरता'; क्योंिक आचायर् ने कहा है िक शब्दतन्मात्रा से सुिषर
आकाश क� उत्पि� ह� ई। छान्दोग्योपिनषद् में भी सवर्प्रथम आकाशोत्पि� का उल्लेख प्रा�
होता है-
अस्य लोकस्य का गित�रित ? यहाँ एक प्र� िकया गया है िक इस लोक क� गित क्या है?
अथार्त्
क्या है? इसके उ�र में आकाश को कहा गया है—आकाश इित
होवाच सवार्िण ह वा इमािन भूतान्याकाशादेव समुत्पद्यन्ते, आकाशं प्रत्यस्तं यािन्त
आकाशो �ेवेभ्यो ज्यायानाकाशः परायणम्
49
अथार्त् आकाश से ही सभी वस्तुयें जीव
आिद उत्पन्न होते हैं तथा आकाश में ही लीन हो जाते हैं।
तत्राकाशस्य गु णाः शब्दसंख्याप�रमाणपृथ�वसंयोगिवभागाः।
50
। आकाश में १. शब्द
२. सं ख्या ३. प�रमाण ४. पृथ�व ५. सं योग ६. िवभाग—ये छः गुण होते हैं।
भेद-आकाश का भेद नहीं होता है; क्योंिक आकाश एक, िनत्य व व्यापक होता है।।
4.10.2 आकाश क� िसिद्ध
भारतीय िव�ान में भौितक जगत् का प्रारम्भ आकाश महाभूत से माना जाता है। यहाँ आकाश
से सृि�-प्रारम्भ का अथर् यह है िक भौितक जगत् का प्रारिम्भक भूत आकाश है। इससे चार
और महाभूत क्रिमक �प में उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार पाँच महाभूत सम्पूणर् सृि� में व्या� रहते
हैं। इनमें तेज महाभूत में �पत्व होता है,
अतः तेज व तेज के बाद उत्पन्न महाभूतों में-अिग्न, जल व पृथ्वी में �पत्व होने के कारण
उनका च�ुरीिन्द्रय द्वारा स्थूल�प ग्रा� होता है। यथा जल क� द्रवता को, पृथ्वी क� संहननता
को प्रत्य�ीकृत िकया जा सकता है; परन्तु अिग्न के पूवर् के महाभूत आकाश व वायु के अन्दर
�पत्व नहीं होता है। आकाश में तो स्पशर् भी नहीं होता है, मात्र शब्दगुण रहता है। इसक� कोई
आकृित नहीं होती है, अतः न यह प्राणेिन्द्रय प्रत्य�गम्य है,
ुष, न स्पशर्न
प्रत्य�गम्य है। इस िस्थित में आकाश महाभूत क� स�ा या िवद्यमानता पर प्र�िच� चा�ुष
प्रत्य�वािदयों द्वारा लगाया जाता हैं। चा�ुष प्रत्य�वादी िनराकार व्यापक आकाश क� स�ा
स्वीकार, नहीं करते हैं। चावार्क् न आकाश को महाभूत �प में स्वीकार न कर चार ही महाभूत


48
वै. द. २।१।२०
49
छान्द. उ
50
प्रशस्तपाद

पंचमहाभूत क�
अवधारणा
221
को स्वीकार िकया है। आकाश महाभूत को िसद्ध करने के िलये या आकाश महाभूत क� िसिद्ध
के िलये इसको स्प� कर देना ही प्रमाण है; क्योंिक आकाश महाभूत क� अवधारणा समझ में
आ जाने पर यह स्वतः िसद्ध हो जाता है।
आकाश व्यापक है। अनन्त है। क्या हम अनुमान कर सकते हैं िक आकाश क� समाि� कहाँ
होती है। जहाँ तक भी हमारी बुिद्ध का �ेत्र है, वहाँ तक मात्र आकाश है। िजसमें �पत्व है;
िजसमें अन्य वैशेिषक गुण हैं, उनमें व्यापकता नहीं है। यिद �पत्व सूयर् तक है या हम उसके
ऊपर तक देख सकते हैं; परन्तु उस �पत्व क� दूरी अपनी िस्थित से �ात कर सकते हैं; परन्तु
यह �रि� कहाँ तक है , इसक� नहीं। इसके अित�र� यिद कोई रचना है, यथा मकान है। उसको
न� कर िदया गया। क्या बचा ? सुिषरता। एक स्थान क� सुिषरता कहीं गित नहीं करती है
बिल्क गितशील वस्तु जहाँ भी पह�ँचती है, वहाँ सुिषरता व्या� रहती है। इस प्रकार आकाश क�
व्यापकता व िनराकारता क� िसिद्ध होती है।
इस प्रकार यहाँ आकाश क� स�ा के िसिद्ध हेतु कितपय संके तमात्र िदया गया है। िकसी वस्तु
क� िक्रया या गितशीलता का �ान िस्थरता से होता है। िक्रयारम्भ िस्थरता से होती है तथा
िक्रया हेतु
�रि� क� आवश्यकता होती है, इसीिलये भारतीय िव�ान में प्रथम स�ावान् द्रव्य आकाश को
माना गया तथा िक्रयायोजना क� प्रारिम्भक अवस्था हेतु िनत्यता (Eternity) िस्थरता
(Constant) व्यापकता (Universelity) व एकत्व (Sigularity) का िसद्धान्त अपनाया
गया िजसे सुिषर व िस्थरता (Space & Constant) कहा जा सकता है, जो िक आकाश का
ल�ण कहा गया है।।
4.10.3 आकाश शब्द क� व्युत्पि�
आकाश शब्द क� व्युत्पि� 'काशृ' धा ु से दीि� अथर् में होती है। यहाँ दीि� का अथर् कां ित या
प्रकाश होता है। छान्दोग्योपिनषद् में 'भा�प: सत्यसंकल्प आकाशात्मा सवर्कमार्
सवर्कामः सवर्गन्धः सवर्रसः
51
कहा गया है। यहाँ प्रकाश�प सत्यसं कल्प को आकाशात्मा
कहा गया है। जब शुद्ध चेतन त�व में सत्य सं कल्प ह�आ, जो भास्वर था तो यह भास्वरता जहाँ
व्या� ह� ई वह आकाश ही था अथार्त् भास्वरता क� व्याि� कहाँ होगी? अतः भास्वरता क�
व्याि� हेतु जो �रि� थी अथार्त् यहाँ भास्वरता है, वह आकाश है। यहाँ दीि�, कािन्त या प्रकाश
अथर् में रखने वाला आकाश है। वैिदक सािहत्य में सृि� उत्पि� के संदभर् में कहा गया है िक
जब असत् या तो कुछ नहीं था। जब असत् से सत् ह�आ तो इस सत् ब्र� का प्रकाश चारों ओर
फैलने लगा। प्रकाश फै लने के साथ-साथ �रि�याँ व्या� होती गईं। यिद प्रकाश न हो, तो यह
�ात नहीं हो पायेगा िक यहाँ �रि� है या नहीं। अतः आकाश शब्द क� व्युत्पि� 'काशृ' धातु से
दीि� अथर् में कहा गया है।।
जहाँ हम चा�ुषप्रत्य� कर �पत्व ग्रहण करते हैं, उस �पत्व क� िस्थित कहाँ है ? जैसे हम
चन्द्रमा या तारों को देखते हैं। चन्द्रमा के चारों तरफ क्या है ? चन्द्रमा क� िस्थित कहाँ है ? तारों
क� िस्थित कहाँ है ? इस प्रकार िजस वस्तु का हम �पत्व ग्रहण करते हैं वह वस्तु
थत
होती है, वह आकाश है।। यिद कोई ठोस वस्तु ले िजसके अन्दर िकसी प्रकार क� सुिषरता न
हो. तो क्या उसमें कोई वस्तु उत्पन्न हो सकती है। जैसे एक बीज डालकर ऊपर से पाषाणािद से


51
छा. उ. ३।१४।२

222
इस तरह ढंक िदया जाए िक बीज क� िस्थित तक वायु, पानी दोनों जाए परन्तु उसके अंकुरण
स्थानिवशेष पर क� �रि� समा� कर दी जाए, तो बीज से शस्य क� उत्पि� नहीं हो पाती है;
क्योंिक िकसी भी वस्तु क� उत्पि� वहीं हो सकती है जहाँ आकाश है।
जहाँ कोई भी िक्रया होती है या िकसी दो द्रव्यों का सं योग होता है, जहाँ सुिषरता आवश्यक
होती है, यिद सुिषस्ता नहीं है, तो िक्रया या गित हो ही नहीं सकती है , अतः इस सृि� में जहाँ
भी कोई गित या िक्रया हो रही है, उसका कारण आकाश है। जैसे—मनुष्य क� उत्पि� में शुक्र
शोिणत सं योग क� िक्रया है। सं योग क� िक्रया वहीं होगी जहाँ �र� स्थान होगा; वही आकाश
है।।
आधुिनक िव�ान में भी ईथर क� कल्पना क� जाती है तथा कितपय वै�ािनक सृि�गत त�वों
क� उत्पि� का कारण इसे मानते हैं। यिद इनसे सम्बिन्धत कणों को माना जाए िजसे इलेक्ट्रान,
प्रोटान आिद कहा जाता है, तो इनक� उत्पि� कै से ? तथा इनक� उत्पि� कहाँ है ? यिद ये
उत्पन्न हैं, तो इनक� िस्थित कहाँ है ? इस प्रकार सू�माितसू�म कणों क� उत्पि�, िस्थित आिद
का कारण स ुिषर आकाश है।।
जो वस्तु बाहर से ठोस नजर आती है। यथा स्वणार्िद। उनके अन्दर परमाणु हैं। उन परमाणुओं में
किणकायें है, जो धनात्मक तथा ऋणात्मक हैं। उन किणकाओं क� िस्थित भी �र� स्थान या
सुिषर भाग में है। यिद सुिषस्ता न हो, तो िफर उस त�व क� स�ा भी नहीं रह जाएगी। इस प्रकार
बाहर से ठोस िदखाई देने वाले वस्तुओं क� िस्थ

इस शरीर में िजतने भी िछद्रसमूह हैं, सुिषर प्रदेश हैं, सू�माितसू�म कलाओं के अन्दर धनायन
व ऋणायन के आवागमन के मागर् हैं यिद उनक� सुिषरता समा� हो जाए तो शरीरभाव का
अिस्तत्व ही नहीं रहेगा। इस प्रकार शरीर में होने वाली िविभन्न िक्रयाओं का कारण स्थान व
मागर् है। एक कोषा के अन्दर िविभन्न अवयवों (organels) क� िस्थित का कारण आकाश है।
�दय क� �रि�यों को समा� कर िदया जाए तो जीवनिक्रया समा� हो जाएगी। इस प्रकार िकसी
भी िक्रया का कारण आकाश है।।
4.11 प�चमहाभूतों का परस्पर अनु प्रवेश
यहाँ भूतों के उ�रो�रानुप्रवेश का तात्पयर् यह है िक पूवर्-पूवर् के भूत उ�र- उ�र के भूतों में
अनुप्रिव� हो जाते हैं। अथार्त् प्रवेश कर जाते हैं। इस प्रकार पूवर्- पूवर् महाभूतों के प्रवेश करने के
कारण उ�र-उ�र महाभूतों में अपने वैशेिषक (नैसिगर्क, स्वाभािवक) गुणों के अित�र� पूवर्-
पूवर् महाभूतों के गुण भी आ जाते हैं। जैसे—वायु महाभूत का अपना स्वाभािवक गुण स्पशर् है;
परन्तु वायु महाभूत में पूवर् में महाभूत आकाश के गुण शब्द के अनुप्रिव� हो जाने के कारण
वायु महाभूत में अपने स्वाभािवक गुण स्पशर् के अित�र� आकाश का नैसिगर्क गुण- शब्द भी
आ जाता है, िजसके कारण वायु को िद्वगुणात्मक अथार्त् स्पशर् व शब्द गुण वाला कहा जाता
है। इसी प्रकार तेज महाभूत में पूवर्-पूवर् महाभूतों, वायु महाभूत व आकाश महाभूत के भी गुणों
का अनुप्रवेश हो जाता है, िजससे तेज महाभूत में अपने नैसिगर्क गुण—�प के साथ-साथ वायु
व आकाश के नैसिगर्क गुण- स्पशर् व शब्द भी रहते हैं, िजसके कारण अिग्न महाभूत में तीन
गुण-�प, स्पशर् व शब्द होते हैं। जल महाभूत में पूवर्-पूवर् महाभूतों-अिग्न महाभूत, वायु महाभूत
व आकाश महाभूत के गुणों का भी अन ुप्रवेश हो जाता है, िजसके प�रणामस्व�प जल महाभूत
में अपने स्वाभािवक गुण-रस के अित�र� पूवर्-पूवर् महाभूतों अिग्न, वायु, आकाश के �प,

पंचमहाभूत क�
अवधारणा
223
स्पशर् व शब्द का भी अनुप्रवेश हो जाता है, िजससे जल महाभूत रस-स्प-स्पशर्-शब्द-इन चार
गुणों से यु� हो जाता है। इसी प्रकार पृथ्वी महाभूत में पूवर्-पूवर् महाभूत जल, अिग्न, वायु,
आकाश - इनके गुण-रस-�प- स्पशर् च शब्द क्रमश: अनुप्रिव� हो जाते हैं िजससे पृथ्वी
महाभूत में अपने नैसिगर्क गुण- गन्ध के साथ-साथ पूवर् महाभूतों के गुण-रस-�प-स्पशर्-शब्द
भी रहते हैं, अतः पृथ्वी महाभूत में गन्ध, रस, �प, स्पशर् व शब्द-ये पाँच गुण होते हैं।
तेषामेक गुणः पू व� गु णबु िद्धः परे परे।
पू वर्ः पूव� गु ण�ैव क्रमशो गु िणषु स्मृतः ।
52

'तेषां महाभूतानां खवाय्वग्न्यपृि�तीनां प�चानां गुणाः तद्गुणाः, प�च क्रमात्-
शब्दस्पशर्�परसगं धा�ेित। नैसिगर्क गुणमु�वा, भूतान्तरानुप्रवेशकृतगुणमाह तेषािमित। तेषां
खादीनां मध्ये पूवर् प्रथमं खं एक गुणं परे परे गुणवृिद्धः - तद्यथा वायु िद्वगुणः। अिग्नः ित्रगुणः ।
चतुगुर्णाः आपः । प�चग ुणा ि�ितः - सा च गुणवृिद्धः यथा भवित तदाह - पूवर्: पूवर् इित ।
गुिणषु नैसिगर्कगुणस्तु नैसिगर्कगुणाः शब्दादयः । खािदषु क्रमशः पूवर्पूवर्गुणः स्मृतः। एवं च
स्पशर्गुणो वायुः पूवर्भूतस्याकाशस्य गुणं शब्द आस्थाय िद्वगुणः शब्दस्पशर् गुणो भवित।
�पगुणोऽिग्नः पूवर्भूतयोः खवाय्वोः शब्दस्पशर्गुणयोः गुणो शब्दस्पशार्वादाय ि
त्रगुणः
शब्दस्पशर्�पगुणाः। रसगुणाः आपः पूव�षां खवाय्वग्नीनां गुणान् शब्दस्पशर्�पाण्यादाय चतुगुर्णा
गन्धगुणाः ि�ितः पूवर्भूतगुणैः शब्दस्पशर्�परसैः प�चगुणाः'।
53

अथार्त् पूवर्-पूवर् के भूतों के गुण उ�र-उ�र भूत में अनुप्रिव� हो जाते हैं, िजससे पूवर् के भूत से
उ�र-उ�र भूतों में एक-एक गुण क� क्रमशः वृिद्ध हो जाती हैं तथा उ�र-उ�र महाभूत पूवर्-पूवर्
महाभूतों के गुणों से भी यु� होते हैं। आचायर् योगीन्द्रनाथ सेन ने उपयुर्� तथ्य का सिवस्तार
�प से वणर्न िकया है तथा यह स्प� िकया है िक भूतों के गुणों से उ�रो�रानुप्रवेश से प्रत्येक
उ�र- उ�र महाभूतों में एक- एक गुण क� क्रमशः वृिद्ध होती जाती है। यथा--आकाश
प्रारिम्भक महाभूत होने के कारण एक गुण वाला होता है, वायु दो गुण वाली, अिग्न ित्रगुण,
जल चतुगुर्ण तथा पृथ्वी पंचगुण वाली होती है। इसके उपरान्त उन्होंने इस प्रिक्रया पर प्रकाश
डाला है िक-िकस प्रकार एक-एक गुण उ�र-उ�र महाभूत में प्रवेश करते हैं।
शब्दािद क्रमानुसार आकाशािद के नैसिगर्क गुण हैं। भूतों में गुणों क� जो वृिद्ध होती है यह
अनुप्रिव� भूत के सम्बन्ध से होती है। भूतों के उ�रो�र अनुप्रवेश से पृथ्वी में चार भूतों

प्रवेश से पाँच गुण होते हैं, इसी प्रकार अप् भूत में तीन भूतों के अनुप्रवेश के कारण चार गुण
होते हैं।
4.12 भू तों का अन्योन्यानुप्रवेश--(पंचीकरण)
वेदान्त दशर्न में भूतों क� इस अन्योन्यानुप्रवेश प्रिक्रया द्वारा परस्पर अनुग्रहािद से द्रव्योत्पि� को
पंचीकरण कहा गया है। इस िसद्धां त क� िविश�ता यह है िक पां चों ही भूत पािथर्वािद भेद से
िभन्न त�द् कायर्द्रव्यों के उपादान कारण या समवािय कारण बन जाते हैं। न्याय-वैशेिषक दशर्न
के अनुसार कायर्द्रव्यों क� भौितकता इससे कुछ िभन्न स्व�प में होती है। कायर्द्रव्यों के पािथर्व
आिद भेदों में, त�द् महाभूत ही समवािय कारण माने जाते हैं। जैसे—पािथर्व द्रव्यों का


52
च. शा. १।२८
53
चरकोपस्कार टीका

224
समवािय कारण पृथ्वी महाभूत, इसी प्रकार आग्नेय द्रव्यों का समवािय कारण अिग्न महाभूत
आिद तथा उन द्रव्यों में रहने वाले अन्य चार महाभूतों को िनिम� कारण अथवा सहायक
कारण माना जाता है।
प�चमहाभूतों के परस्पर अनुप्रवेश या परस्पर प्रवेश में सभी महाभूत परस्पर एक-दूसरे से संयु�
होकर िवजातीयता को छोड़ देते हैं तथा िबना िकसी प्रकार का िवरोध िकये ही एक-दूसरे के
काय� में सहायता करते हैं, िजससे कायर्द्रव्यों के मूल कणों में एक प्रकार क� एकात्मकता आ
जाती है। जैसे—कोई आग्नेय द्रव्य है; यथा िभलावा। इसमें पांचों महाभूत िवद्यमान रहते हैं।
अपने स्वाभािवक गुणानुसार जल महाभूत को अिग्न क� उष्णता का िवरोध अपने शैत्य से
करना चािहये था। अिग्न क� ती�णता का िवरोध पृथ्वी को अपनी मंदता से करना चािहये था;
परन्तु ऐसा नहीं होता है, जब ये भूत परस्पर आपस में सं यु� हो जाते हैं, तो एक-दूसरे का
िवरोध न करते ह�ए एक-दूसरे पर अनुग्रह करते है।
िवद्यािथर्यों इस प्रकार से हमने प�चमहाभूतों पर अपना अध्ययन पूणर् कर िलया।
4.13 सारांश
संसार के िविवध पदाथर् प�चमहाभूत से ही िनिमर्त होते हैं चाहे वह चेतन हो, अथवा अचेतन
हो। इन पदाथ� के स्थूलतम या सू�मतम रचनाओं का कलेवर प�चभूतों क� समि� या एक-
दूसरे में प्रिव� पांच भूतों का अथवा उनके ही िवकारों का बना होता है। जहाँ पर आत्म सम्बन्ध
से इिन्द्रय व्यापार �ि�गोचर होता है, उसे चेतन पदाथर् या चेतन द्रव्य कहा जाता है तथा जहाँ
इिन्द्रय-व्यापार �ि�गोचर नहीं होता है, उसे जड़ पदाथर् कहा जाता है।
वैशेिषक के अनुसार जगत् के सभी कायर् द्रव्य, पृथ्वी, जल, तेज और वायु इन चार तरह के
परमाणुओं (Atoms) से बनते हैं। इसिलए सृि� सम्बन्धी वैशेिषक मत परमाणुवाद
(Atomism) कहलाता है। परमाणुवाद जगत् के अिनत्य द्रव्यों क� ही सृि� और प्रलय का क्रम
बतलाता है । आकाश, िद्रव्य, काल, मन, आत्मा और भौितक परमाणु, जगत् के इन िनत्य
पदाथ� क� न तो सृि� होती है और न िवनाश ही होता है।
भू सतायां धातु में '�' प्रत्यय लगाने से (भू + � = भूत) भूत शब्द बनता है, िजसका अथर्
स�ावान् होना, िवद्यमान होना होता है ये िकसी के द्वारा उत्पन्न नहीं होते बिल्क महाभूतों के
कारण होते हैं।'
इस प्रकार भूत शब्द का अथर् यह ह�आ िक जो स�ावान् हो या जो िवद्यमान हो
शब्दः स्पशर्� �पं च रसोगन्ध� तद्गुणाः।।
अथार्त् आकाश, वायु, अिग्न, जल तथा पृथ्वी-ये पाँच महाभूत हैं
पृथ्वी:�प रसगन्धस्पशर्वती पृिथवी ।
अथार्त् �प, रस, गन्ध व स्पशर् गुणयु� द्रव्य को पृथ्वी कहा जाता है। इसमें गन्ध पृथ्वी का
अपना गुण है तथा रस, �प व स्पशर् क्रमशः पूवर् महाभूत
ु के हैं, जो अनुप्रवेश
द्वारा पृथ्वी में प्रिव� हैं। यहाँ वैशेिषक दशर्न में पृथ्वी को चार गुणों वाली ही कहा गया है।
िनत्या—जो परमाणु �प में पृथ्वी रहती है, वह िनत्य होती है, अतः इसे िनत्या पृथ्वी कहा
जाता है।

पंचमहाभूत क�
अवधारणा
225
अिनत्या—जो कायर्�प स्थूल पृथ्वी होती है, वह अिनत्य होती है, इसिलये उसे अिनत्या पृथ्वी
कहते हैं।
जल:वैशेिषक दशर्न में कहा गया है िक-'�प, रस, स्पशर्वत्य, आपोद्रबा िस्नग्धा:' अथार्त् जल
�प, रस, स्पशर्िविश� गुण व द्रव, िस्नग्ध, भौितक या गुवार्िद गुणयु� है। इसमें द्रवता िजसक�
चचार् ऊपर क� गयी है, कायर्�प जल के हैं, जब भूतों का प�चीकरण हो जाता है तथा स्पशर्,
�प, रस, गुण कायर् व कारण�प दोनों में होते हैं। स्पशर् व �प क� सहायता �प में िकये गये
संयोग से रसात्मक जल क� उत्पि� होती है।
िजसे प्राथिमक स्तर पर जल के िनत्यािनत्य भेद से दो भेद िकये गये हैं। परमाणु �प जल िनत्य
होता तथा कायर् �प जल अिनत्य होता है,
अिग्न:वायु से अिग्न क� उत्पि� होती है। मनु ने कहा है िक तम का नाश करने वाले तथा
भास्वर�प गुण वाले तेज क� उत्पि� वायु से होती है।
अिग्न या तेज के दो भेद होते हैं- (१) िनत्य तथा (२) अिनत्य। (१) िनत्य — 'िनत्यं परमाणु�पं'
अथार्त् जो परमाणु�प तेज होता है, उसे िनत्य तेज कहा जाता है। जो तेज कायर्�प होता है, वह
अिनत्य होता है।
वायु:आकाश से वायु क� उत्पि� होती है। वायु या वात शब्द का अथर् गित होता है। इसका
अथर् है िक आकाश से गितपरक रजोगुण बह�ल (सुश्रुत) वायु क� उत्पि� होती है। इस संदभर् में
िवष्णुपुराण में कहा गया है िक-आकाश क� उत्पि� के बाद शब्द-तन्मात्र
क� उत्पि� ह�ई,
िजससे स्पशर् गुणवाला वायु उत्पन्न ह� आ।
स�व, रज व तम —इनक� िक्रयाशीलता से सृि� रचना प्रारम्भ होती है।
वायु दो प्रकार का होता है- १. िनत्य तथा २. अिनत्य । परमाणु�प वायु िनत्य होता है तथा
कायर्�प वायु अिनत्य होता है। अिनत्य वायु भेद होते हैं- १. शरीरसं�क २. इिन्द्रयसं�क तथा
३ िवषयसं�क
आकाश:तैि�रीयोपिनषद् के अनुसार आकाश क� उत्पि� आत्मा से ह�ई है। यहाँ आत्मा का
तात्पयर् शुद्ध चेतन त�व या परमात्मा से है। अन्य दशर्नों व शा�ों में इसक� उत्पि� शब्द से
मानी गयी है।आकाश से ही सभी वस्तुयें जीव आिद उत्पन्न होते हैं तथा आकाश में ही लीन
हो जाते हैं।
तेज व तेज के बाद उत्पन्न महाभूतों में-अिग्न, जल व पृथ्वी में �मत्व होने के कारण उनका
च�ुरीिन्द्रय द्वारा स्थू ल�प ग्रा� होता है। यथा जल क� द्रवता को, पृथ्वी क� संहननता को
प्रत्य�ीकृत िकया जा सकता है; परन्तु अिग्न के पूवर् के महाभूत आकाश व वायु के अन्दर
�पत्व नहीं होता है। आकाश में तो स्पशर् भी नहीं होता है, मात्र शब्दगुण रहता है। इसक� कोई
आकृित नहीं होती है, अतः न यह प्राणेिन्द्रय प्रत्य�गम्य है, न रसनेिन्द्रय, न चा�ुष, न स्पशर्न
प्रत्य�गम्य है।
4.14 पा�रभािषक शब्दावली
पं चमहाभूत: आकाश, वायु, अिग्न, जल व पृथ्वी-इन पाँचों को प�चभूत या प�चमहाभूत
कहते हैं। इनक� दो अवस्थायें होती हैं-प्रथम परमाणु �प या कारण �प तथा िद्वतीय कायर् �प
स्थूल अवस्था। परमाणु�प भूत िनत्य व स्थू ल�प भूत अिनत्य होते हैं।

226
आग्नेय: अिग्न
नैसिगर्क: प्रकृितक
पाकज: अिग्न के संयोग िवशेष को पाक कहा जाता है तथा इस पाक के द्वारा जो उत्पन्न होता
हैं, उसे पाकज कहा जाता है।
पं चीकरण : प�चमहाभूतों के परस्पर अनुप्रवेश या परस्पर प्रवेश में सभी महाभूत परस्पर एक-
दूसरे से सं यु� होकर िवजातीयता को छोड़ देते हैं तथा िबना िकसी प्रकार का िवरोध िकये ही
एक-दूसरे के काय� में सहायता करते हैं, इस िक्रया को पं चीकरण िक्रया कहते हैं।
4.16

1) पदार्थर् िव�ान, डॉ. बी. के. िद्ववेदी, चौखम्मा कृष्णदास अकादमी, वाराणसी, 2022
2) भारतीय दशर्न, डॉ० नन्द िकशोर देवराज, उ�र प्रदेश िहन्दी सं स्थान, लखनऊ ,2002
3) भारतीय दशर्न, चन्द्रधर शमार्,भारतीय दशर्न आलोचन और अनुशीलन , मोतीलाल
बनारसीदास, 1995,
4) भारतीय दशर्न, डॉ. उमेश िमश्र,उ�र प्रदेश िहन्दी सं स्थान, 2003
5) भारतीय दशर्न, पारसनाथ िद्ववेदी, श्रीराम मेहरा कंपनी आगरा,1973
4.15
1) पं चमहाभूत क्या है? तथा इनके उत्पित िकस प्रकार होती है?
2) वायु तत्व क� उत्पि� िकस प्रकार होती है तथा वायु तत्व का हमारे जीवन में क्या प्रभाव है?
3) आकाश महाभूत क� िसिद्ध िकस प्रकार हो सकती है
4) पृथ्वी में भूत में कौन-कौन से गुण पाए जाते हैं तथा पृथ्वी का अपना गुण क्या है तथा
हमारे शरीर में तथा वातवरण में क्या कायर् करता है ?
5) अिग्न तत्व क� उत्पि� कायर् तथा इसके िभन्न िभन्न स्व�पों का वणर्न करें?
6) महाभूतों के अनन्य अनुप्रवेश अथार्त् पं चीकरण क� व्यख्या करें।?
Tags