तरेपन
चौ की शीतल, सुहावनी, स्फूितमयी संध्या, गंगा का तट, टसुआं से लहलहाता हुआ ढाक का मैदिान, बरगदि
का छायादिार वृतक्ष, उसके नीचे बंधी हुई गाएं, भैंसें, कद्दू और लौकी की बेलों से लहराती हुई झिोंपिडयां, न कहीं
गदिर्च न गुबार, न शोर न गुल, सुख और शांित के िलए क्या इससे भी अच्छी जगह हो सकती है? नीचे स्वणर्चमयी
गंगा लाल, काले, नीले आवरण से चमकती हुई, मंदि स्वरों में गाती, कहीं लपकती, कहीं िझिझिकती, कहीं चपल,
कहीं गंभीर, अनंत अंधकारकी ओर चली जा रही है, मानो बहुरंिजत बालस्मृतित कीडा और िवनोदि की गोदि में
खेलती हुई, िचतामय, संघषर्चमय, अंधाकारमय भिवष्य की ओर चली जा रही हो देवी और रमा ने यहीं, प्रयाग के
समीप आकर आश्रय िलया है।
तीन साल गुज़र गए ह, देवीदिीन ने ज़मीन ली, बाग़ लगाया, खेती जमाई, गाय-भैंसें खरीदिीं और कमर्चयोग
में, अिवरत उद्यपोग में सुख, संतोष और शांित का अनुभव कर रहा है। उसके मुख पर अब वह जदिी, झिुिरयां नहीं
ह, एक नई स्फूित, एक नई कांित झिलक रही है। शाम हो गई है, गाएं-भैंसें हार से लौटींब जग्गो ने उन्हें खूंट से
बांधा और थोडा-थोडा भूसा लाकर उनके सामने डाल िदिया। इतने में देवी और गोपी भी बैलगाड़ी पर डांठं लादे
हुए आ पहुंचेब दियानाथ ने बरगदि के नीचे ज़मीन साफ कर रखी है। वहीं डांठं उतारी गई। यही इस छोटी-सी
बस्ती का खिलहान है।
दियानाथ नौकरी से बरख़ास्त हो गए थ और अब देवी के अिसस्टंट ह। उनको समाचार-पत्रों से अब भी
वही प्रेम है, रोज कई पत्र आते ह, और शाम को फुसर्चत पाने के बादि मुंशीजी पत्रों को पढ़कर सुनाते और समझिाते
ह। श्रोताआं में बहुधा आसपास के गांवों के दिस-पांच आदिमी भी आ जाते ह और रोज़ एक छोटीमोटी सभा हो
जाती है।
रमा को तो इस जीवन से इतना अनुराग हो गया है िक अब शायदि उसे थानेदिारी ही नहीं, चुंगी की
इंस्पेक्टरी भी िमल जाय, तो शहर का नाम न ले। प्रातःकाल उठकर गंगा-स्नान करता है, िफर कुछ कसरत करके
दूध पीता है और िदिन िनकलते-िनकलते अपनी दिवाआं का संदूक लेकर आ बैठता है। उसने वैद्यप की कई िकताबें
पढ़ली ह और छोटी-मोटी बीमािरयों की दिवा दे देता है। दिस-पांच मरीज़ रोज़ आ जाते ह और उसकी कीित
िदिन-िदिन बढ़ती जाती है। इस काम
से छुट्टी पाते ही वह अपने बगीचे में चला जाता है। वहां कुछ साफ-भाजी भी लगी हुई है, कुछ फल-फलों
के वृतक्ष ह और कुछ जड़ी-बूिटयां ह। अभी तो बाग़ से केवल तरकारी िमलती है, पर आशा है िक तीन-चार साल
में नींबू, अमरूदि,बेर, नारंगी, आम, केले, आंवले, कटहल, बेल आिदि फलों की अच्छी आमदिनी होने लगगी।
देवी ने बैलों को गाड़ी से खोलकर खूंट से बांधा िदिया और दियानाथ से बोला,’अभी भैया नहीं लौट?’
दियानाथ ने डांठों को समेटते हुए कहा, ‘अभी तो नहीं लौट। मुझिे तो अब इनके अच्छे होने की आशा नहीं
है। ज़माने का उधार है। िकतने सुख से रहती थीं, गाड़ी थी, बंगला था, दिरजनों नौकर थ। अब यह हाल है।
सामान सब मौजूदि है, वकील साहब ने अच्छी संपित्ति छोड़ी था, मगर भाई-भतीजों ने हड़प ली। देवीदिीन—‘
‘भैया कहते थ, अदिालत करतीं तो सब िमल जाता, पर कहती ह, मैं अदिालत में झिूठ न बोलूंगी। औरत बडे ऊंचे
िवचार की है।’
सहसा जागश्वरी एक छोट-से िशशु को गोदि में िलये हुए एक झिोंपड़े से िनकली और बच्चे को दियानाथ की
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