Rajput History Hidden Truth | Rathore Kshatriya Real Story | Mughal Period Exposed
kooinsta
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May 23, 2025
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About This Presentation
यह कहानी 16वीं और 17वीं सदी के उस दौर की है, जब मुग़ल साम्राज्य अपने चरम पर था और महाराणा प्रताप जैसे राजपूत योद्धा दिल�...
यह कहानी 16वीं और 17वीं सदी के उस दौर की है, जब मुग़ल साम्राज्य अपने चरम पर था और महाराणा प्रताप जैसे राजपूत योद्धा दिल्ली की सत्ता से सीधी टक्कर ले रहे थे।
महाराणा प्रताप की मृत्यु और समाज में विभाजन:
1597 में महाराणा प्रताप का निधन चावंड में हुआ। उनके निधन के बाद राजपूत समाज में गहरा आंतरिक विभाजन उत्पन्न हुआ। विशेष रूप से राठौर और ठाकुर क्षत्रिय वर्ग के बीच यह मतभेद और स्पष्ट हो गया। प्रताप की मृत्यु का आरोप समाज के ही कुछ वर्गों पर लगा, जिससे अविश्वास की खाई बन गई।
राठौर बनाम ठाकुर:
कुछ योद्धा जिन्होंने महाराणा प्रताप के आदर्शों को सर्वोपरि माना, उन्होंने “राठौर राजपूत क्षत्रिय” की नई पहचान बनाई। दूसरी ओर, कुछ लोग जिन्होंने उनके विचारों से असहमति जताई, उन्होंने “ठाकुर” उपनाम अपनाया – जो उस समय कोई जाति नहीं बल्कि एक सामाजिक उपाधि थी।
राठौरों की गुप्त योजना:
राठौरों ने मेवाड़ की रक्षा और अकबर की सत्ता को कमजोर करने के लिए एक साहसी रणनीति अपनाई। वे चार-चार के गुप्त समूहों में कोलू (तेल घानी) चलाने लगे – जिससे उन्हें आसानी से मुग़ल इलाकों में घुसने का मौका मिला।
अकबर की मृत्यु: संयोग या साजिश?
कहानी के अनुसार, राठौरों ने सरसों के तेल में विषमिश्रित औषधियाँ मिलाकर उन्हें मुग़ल दरबार तक पहुँचाया। धीरे-धीरे अकबर की तबीयत बिगड़ती गई और 1605 में उसकी मृत्यु हो गई। इतिहास इसे स्वाभाविक मृत्यु मानता है, लेकिन यह रणनीतिक हत्या भी हो सकती है – यह सवाल आज भी खड़ा है।
चंदा सिंह और शेखा सिंह राठौर:
महाराणा प्रताप की पांचवीं पत्नी फूलबाई राठौर के पुत्र – चंदा सिंह और शेखा सिंह – इस गुप्त योजना के सूत्रधार थे। उनकी माँ ने उन्हें प्रतिज्ञा दिलाई थी कि वे मेवाड़ की रक्षा के लिए अपने प्राण न्योछावर कर देंगे। वे सत्ता से दूर रहे लेकिन उनके बलिदान ने इतिहास की धारा मोड़ दी।
तेली समाज से गठबंधन:
मुग़ल सत्ता में प्रवेश पाने के लिए राठौरों ने तेली समाज का सहयोग लिया। पहले विरोध के बाद, तेलियों ने राठौरों का साथ दिया। यह गठबंधन इतना मजबूत हुआ कि राठौरों ने अपने पारंपरिक ठाकुर रिश्तों से नाता तोड़कर तेली समाज में नई पहचान बना ली – "तेली राठौर"।
गुप्त रूप से अन्य जातियों में राठौर:
राठौर क्षत्रिय केवल तेली समाज में ही नहीं, बल्कि गुज्जर और अन्य जातियों में भी शामिल हुए। वे राठौर गोत्र के नाम से पहचाने जाते हैं, लेकिन पहचान छिपाकर इन जातियों की आड़ में मुग़ल सेना में घुसपैठ कर, उसे भीतर से कमजोर किया।
वीर दुर्गादास राठौर की समानता:
चंदा सिंह और शेखा सिंह की तरह ही दुर्गादास राठौर भी सत्ता से दूर रहकर राष्ट्रहित में लड़े। उनके त्याग और निष्ठा को आज भी राठौर समाज श्रद्धा से याद करता है।
निष्कर्ष:
यह वह इतिहास है जिसे किताबों में जगह नहीं मिली। यह वीरता, बलिदान और रणनीति की वह गाथा है जो आज भी कई लोगों की स्मृति में जीवित है। राठौर राजपूत क्षत्रिय समाज ने केवल अस्तित्व नहीं बनाया, बल्कि अपने कर्म और आदर्शों से इतिहास की दिशा बदल दी।
राठौर उपनाम, गोत्र और परंपरा ही इनकी असली पहचान है – जाति नहीं। चाहे वे आज किसी भी जाति में दर्ज हों, उनकी आत्मा क्षत्रिय धर्म, वीरता और एकता से जुड़ी है।
यह कहानी है एक छुपे हुए इतिहास की — Secret History की।
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Added: May 23, 2025
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यह कहानी 16वीं और 17वीं सदी के उस दौर की है, जब मुग़ल साम्राज्य अपने चरम पर था और महाराणा
प्रताप जैसे राजपूत योद्धा दिल्ली की सत्ता से सीधी टक्कर ले रहे थे।
महाराणा प्रताप की मृत्यु और समाज में विभाजन:
1597 में महाराणा प्रताप का निधन चावंड में हुआ। उनके निधन के बाद राजपूत समाज में गहरा आंतरिक
विभाजन उत्पन्न हुआ। विशेष रूप से राठौर और ठाकुर क्षत्रिय वर्ग के बीच यह मतभेद और स्पष्ट हो गया।
प्रताप की मृत्यु का आरोप समाज के ही कुछ वर्गों पर लगा, जिससे अविश्वास की खाई बन गई।
राठौर बनाम ठाकुर:
कुछ योद्धा जिन्होंने महाराणा प्रताप के आदर्शों को सर्वोपरि माना, उन्होंने “राठौर राजपूत क्षत्रिय” की नई
पहचान बनाई। दूसरी ओर, कुछ लोग जिन्होंने उनके विचारों से असहमति जताई, उन्होंने “ठाकुर” उपनाम
अपनाया – जो उस समय कोई जाति नहीं बल्कि एक सामाजिक उपाधि थी।
राठौरों की गुप्त योजना:
राठौरों ने मेवाड़ की रक्षा और अकबर की सत्ता को कमजोर करने के लिए एक साहसी रणनीति अपनाई। वे
चार-चार के गुप्त समूहों में कोलू (तेल घानी) चलाने लगे – जिससे उन्हें आसानी से मुग़ल इलाकों में घुसने का
मौका मिला।
अकबर की मृत्यु: संयोग या साजिश?
कहानी के अनुसार, राठौरों ने सरसों के तेल में विषमिश्रित औषधियाँ मिलाकर उन्हें मुग़ल दरबार तक
पहुँचाया। धीरे-धीरे अकबर की तबीयत बिगड़ती गई और 1605 में उसकी मृत्यु हो गई। इतिहास इसे
स्वाभाविक मृत्यु मानता है, लेकिन यह रणनीतिक हत्या भी हो सकती है – यह सवाल आज भी खड़ा है।
चंदा सिंह और शेखा सिंह राठौर:
महाराणा प्रताप की पांचवीं पत्नी फूलबाई राठौर के पुत्र – चंदा सिंह और शेखा सिंह – इस गुप्त योजना के
सूत्रधार थे। उनकी माँ ने उन्हें प्रतिज्ञा दिलाई थी कि वे मेवाड़ की रक्षा के लिए अपने प्राण न्योछावर कर देंगे।
वे सत्ता से दूर रहे लेकिन उनके बलिदान ने इतिहास की धारा मोड़ दी।
तेली समाज से गठबंधन:
मुग़ल सत्ता में प्रवेश पाने के लिए राठौरों ने तेली समाज का सहयोग लिया। पहले विरोध के बाद, तेलियों ने
राठौरों का साथ दिया। यह गठबंधन इतना मजबूत हुआ कि राठौरों ने अपने पारंपरिक ठाकुर रिश्तों से नाता
तोड़कर तेली समाज में नई पहचान बना ली – "तेली राठौर"।
गुप्त रूप से अन्य जातियों में राठौर:
राठौर क्षत्रिय केवल तेली समाज में ही नहीं, बल्कि गुज्जर और अन्य जातियों में भी शामिल हुए। वे राठौर गोत्र
के नाम से पहचाने जाते हैं, लेकिन पहचान छिपाकर इन जातियों की आड़ में मुग़ल सेना में घुसपैठ कर, उसे
भीतर से कमजोर किया।
वीर दुर्गादास राठौर की समानता:
चंदा सिंह और शेखा सिंह की तरह ही दुर्गादास राठौर भी सत्ता से दूर रहकर राष्ट्रहित में लड़े। उनके त्याग और
निष्ठा को आज भी राठौर समाज श्रद्धा से याद करता है।
निष्कर्ष:
यह वह इतिहास है जिसे किताबों में जगह नहीं मिली। यह वीरता, बलिदान और रणनीति की वह गाथा है जो
आज भी कई लोगों की स्मृति में जीवित है। राठौर राजपूत क्षत्रिय समाज ने केवल अस्तित्व नहीं बनाया,
बल्कि अपने कर्म और आदर्शों से इतिहास की दिशा बदल दी।
राठौर उपनाम, गोत्र और परंपरा ही इनकी असली पहचान है – जाति नहीं। चाहे वे आज किसी भी जाति में
दर्ज हों, उनकी आत्मा क्षत्रिय धर्म, वीरता और एकता से जुड़ी है।
यह कहानी है एक छुपे हुए इतिहास की — Secret History की।