की शोभा ननहारता हुआ वह देवेचवर महालक्ष्मी के दशुनाथु उत्कश्ण्ठत हो मखणकण्ठ तीथु में
गया और वहााँ स्नान करके उसने वपतरों का तपुण ककया। किर महामाया महालक्ष्मी जी को
प्रणाम करके भश्ततपूवुक स्तवन करना आरम्भ ककया।
ानकुमा बोलाुः श्जसके हृदय में असीम दया भर हुई है, जो समस्त कामनाओीं को देती
तथा अपने कटाक्षमाि से सारे जगत की रचना, पालन और सींहार करती है, उस जगन्माता
महालक्ष्मी की जय हो। श्जस शश्तत के सहारे उसी के आदेश के अनुसार परमेठठी ब्रह्मा सृश्ठट
रचते हैं, भगवान अच्युत जगत का पालन करते हैं तथा भगवान �द्र अखखल ववचव का सींहार
करते हैं, उस सृश्ठट, पालन और सींहार की शश्तत से सम्पन्न भगवती पराशश्तत का मैं भजन
करता हूाँ।
कमले ! योगीजन तुम्हारे चरणकमलों का चचन्तन करते रहते हैं। कमलालये ! तुम अपनी
स्वाभाववक सत्ता से ह हमारे समस्त इश्न्द्रयगोचर ववषयों को जानती हो। तुम्ह ीं कल्पनाओीं के
समूह को तथा उसका सींकल्प करने वाले मन को उत्पन्न करती हो। इच्छाशश्तत, ज्ञानशश्तत
और कक्रयाशश्तत – ये सब तुम्हारे ह �प हैं। तुम परासींचचत (परमज्ञान) �वपणी हो। तुम्हारा
स्व�प ननठकाम, ननमुल, ननत्य, ननराकार, ननरींजन, अन्तरदहत, आतींकशून्य, आलम्बह न तथा
ननरामय है। देवव ! तुम्हार मदहमा का वणुन करने में कौन समथु हो सकता है? जो षट्चक्रों का
भेदन करके अन्तःकरण के बारह स्थानों में ववहार करती हैं, अनाहत, ध्वनन, त्रबन्दु, नाद और
कला ये श्जसके स्व�प हैं, उस माता महालक्ष्मी को मैं प्रणाम करता हूाँ। माता ! तुम अपने
मुख�पी पूणुचन्द्रमा से प्रकट होने वाल अमृतरालश को बहाया करती हो। तुम्ह ीं परा, पचयन्ती,
मध्यमा और वैखर नामक वाणी हो। मैं तुम्हे नमस्कार करता हूाँ। देवव ! तुम जगत की रक्षा के
ललए अनेक �प धारण ककया करती हो। अश्म्बके ! तुम्ह ीं ब्राह्मी, वैठणवी, तथा माहेचवर शश्तत
हो। वाराह , महालक्ष्मी, नारलसींह , ऐन्द्र , कौमार , चश्ण्डका, जगत को पववि करने वाल लक्ष्मी,
जगन्माता सावविी, चन्द्रकला तथा रोदहणी भी तुम्ह ीं हो। परमेचवर ! तुम भततों का मनोरथ पूणु
करने के ललए कल्पलता के समान हो। मुझ पर प्रसन्न हो जाओ।
उसके इस प्रकार स्तुनत करने पर भगवती महालक्ष्मी अपना साक्षात् स्व�प धारण करके
बोल ीं - 'राजकुमार ! मैं तुमसे प्रसन्न हूाँ। तुम कोई उत्तम वर मााँगो।'
ानपुर बोलाुः मााँ ! मेरे वपता राजा बृहद्रथ अचवमेध नामक महान यज्ञ का अनुठठान कर
रहे थे। वे दैवयोग से रोगग्रस्त होकर स्वगुवासी हो गये। इसी बीच में यूप में बाँधे हुए मेरे
यज्ञसम्बन्धी िोड़े को, जो समूची पृर्थवी की पररक्रमा करके लौटा था, ककसी ने रात्रि में बाँधन
काट कर कह ीं अन्यि पहुाँचा ददया। उसकी खोज में मैंने कुछ लोगों को भेजा था, ककन्तु वे कह ीं
भी उसका पता न पाकर जब खाल हाथ लौट आये हैं, तब मैं ऋश्त्वजों से आज्ञा लेकर तुम्हार
शरण में आया हूाँ। देवी ! यदद तुम मुझ पर प्रसन्न हो तो मेरे यज्ञ का िोड़ा मुझे लमल जाये,