AHIPHENA...DG....BY....SHAHRUKH SHAH.pptx

ShahrukhShah37 207 views 17 slides Jul 04, 2024
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AHIPHENA By- SHAHRUKH SHAH Bams 2 nd prop Mamcrc aligarh

USED PART- फलनिर्यास ( अफीम ) Botanical Name- Papaver somniferum Family- Papaveraceae Enlish name- opium, Poppy seeds Sanskrit Name- अहिफेन Hindi Name- अफीम

CLASSIFICATION CHARAKA - not mentioned SUSHRUTA- not mentioned PV SHARMA- मदकारी BHAVAPRAKASH- हरीतक्यादि

TYPES श्वेत, पीत, कृष्ण और चित्र तथा कर्मानुसार क्रमशः जारण, मारण, धारण और सारण इन चार जातियों का उल्लेख मिलता है। आधुनिक विद्वानों ने देशभेद से तुर्की, यूरोपीय, फारसी और भारतीय ये चार जातियाँ मानीं हैं । अरबी विद्वान् पुष्पभेद से इसकी तीन जातियाँ मानते हैं :- (1) खशखश सफेद- इसका पुष्प पीताभ श्वेत होता है । ( 2 ) खशखश मन्सूर - इसके पुष्प रक्तवर्ण होते हैं । (3 ) खशखश स्याह -इसके पुष्प कृष्ण या नील वर्ण के होते हैं। वर्ग - उपविष

SYNONYMS फणिफेन फणिनां फेन इव उग्रगुणत्वात् । Latex is as strong as venom of Snake. नागफेन → Kshira (Latex) is as strong as Snake venom आफूक → A source for opium. खसफलक्षीर → Injury done to fruit yeilds latex.Bija (seed)• सूक्ष्म बीज → Seeds are very small सूक्ष्म तण्डुल → Small seeds

RASA PANCHAKA गुण- लघु, रूक्ष, सूक्ष्म, व्यवायी, विकासी रस- तिक्त, कषाय विपाक -कटु वीर्य – उष्ण प्रभाव- मादक

उत्पत्तिस्थान अहिफेन उत्तरी समशीतोष्ण कटिबन्ध के देशों-यूरोप, एशिया तथा उत्तरी अफ्रीका में होता है। भारत में विशेषतः उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल और मालवा में इसकी उपज की जातो है। रासायनिक संघटन - ( Primary alkaloids) - मौर्फीन ( Morphine) ५-२१%लॉडेनिन ( Laudanine ) कोडीन ( Codeine) ००३-४%लॉडेनोसिन ( Laudanosine ) धीवेन ( Thebaine ) ००३%मेकोनिडिन ( Meconidine ) नाकोटीन ( Narcotine ) रियेडिन ( Rhoeadine ) नासींन ( Narccine ) कोडेमिन ( Codamine ) पापावरीन ( Papaverine) २-७%सिउडोमार्फीन ( Pseudomorphine ) नॉस्कोपिन ( Nascopine ) लेन्थोपीन ( Lanthopine ) २) द्वितीयक क्षारतत्त्व ( Secondary alkaloids ) - एपोमाकीन ( Apomorphine) थिवेमीन ( Thebamine )( Oxydimorphine ) पॉफिराक्सिन ( Porphyroxine ) एपोकोडीन ( Apocodeine ) केटानिन ( Catarnine ) बेसोक्सीकोडीन 3 ) उदासीन तत्त्व मेकोनिन ( Meconin ) मेकोनॉयडिन ( Meconoidin ) (4) कार्बनिक अम्ल - दुग्धाम्त ( Lactic acid) मेकोनिक एसिड ( Meconic acid

MORPHOLOGY ( स्वरूप ) इसका वर्षायु क्षुप ३-४ फीट ऊंचा होता है, इसे 'पोश्ता ' कहते हैं। इसका काण्ड क्षोदयुक्त, सरल, प्रायः निःशाख और स्निग्ध होता है। पत्र- लट्वाकार-आयताकार या रेखाकार-आयताकार होते हैं। पत्र का प्रान्तभाग खण्डित होता है। पुष्प -बड़े, श्वेत, बैंगनी या रक्तवर्ण होते हैं। फल- छोटे अनार के समान, १ इंच व्यास के, सवृन्त, विषमकोषीय तथा स्वतःस्फोटी होते हैं। इसे 'डोडा' कहते हैं। फल के छिलके को 'पोश्त' कहते हैं। बीज- श्वेत या कृष्ण मधुर-स्निग्ध होते हैं। ये 'पोश्तदाना' या 'खशखश' कहलाते हैं ।

पोश्ता

कर्म दोष कर्म - उष्णवीर्य होने से यह कफवात का शामक एवं पित्त का प्रकोपक है। अधिक मात्रा में लेने पर ओजःक्षय होने से वायु की वृद्धि हो जाती है जिससे प्रलाप आदि लक्षण उत्पन्न होते हैं। संस्थानिक कर्म-बाह्य - उष्ण होने से इसका प्रयोग वेदनास्थापन एवं शोथ- हर है। आभ्यन्तर-नाडीसंस्थान - यह मादक, वेदनास्थापन, निद्राजनन एवं आक्षेप- हर है। वमन, प्राणदा नाड़ी तथा तारकासंकोचक केन्द्रों को उत्तेजित करता है। पाचन संस्थान - रूक्ष और कषाय होने के कारण यह लालाप्रसेक को कमकरता है, अग्नि को मन्द करता है और स्तम्भन होने के कारण यह शरीर के सभी स्रावों (मूत्र, स्तन्य और स्वेद इन तीन के अतिरिक्त) को कम करता है। इसी कारण यह पित्त के स्त्राव को भी कम करता है और इसके सेवन से रक्त में शर्करा की मात्रा कम हो जाती है। वातशमन होने से यह प्रसिद्ध शूलप्रशमन है । रक्तवह संस्थान - इससे हृदय की गति मन्द किन्तु शक्ति तीव्र होती है।कषाय होने से रक्तस्तम्भन भी होता है । श्वसन संस्थान - यह श्वसन केन्द्र का अवसादक है। उष्ण होने से यह कफनाशक और श्वासहर है ।

मूत्रवह संस्थान - यद्यपि सामान्यतः मूत्रस्राव पर इसका कोई प्रभाव नहीं होता तथापि कभी कभी इससे मूत्राघात की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। यह माधुर्य-शमन भी है। प्रजनन संस्थान - रूक्ष, कषाय, व्यवायी और विकासी होने के कारण यह घातुओं को क्षीण करता है अतः पुंस्त्वोपघाती है। इससे शुक्र का स्तम्भन भी होता है। त्वचा - उष्णता के कारण यह स्वेदजनन है। सात्मीकरण - व्यवायी और विकासी होने के कारण धातुओं का शोषण होने से यह शरीर को कृश और दुर्बल बनाता है। तापक्रम - यह तिक्त और स्वेदजनन होने से ज्वरघ्न, विशेषकर विषम- ज्वरघ्न है । नेत्र- इससे नेत्र की तारकायें संकुचित हो जाती हैं और नेत्रगत दबाव भी बढ़ जाता है।फलत्वक् का गुणकर्म अहिफेन के समान ही है। अहिफेन-बीज (खसखस ) मधुर, वृष्य और बल्य है । कर्म

प्रयोग दोषप्रयोग –कफवातशमन होने से यह कफवातविकारों में प्रयुक्त होता है। संस्थानिक प्रयोग-बाह्य सन्धिशोथ, फुफ्फुसावरणशोथ तथा शरीर के अन्य अंगों में शोथ और पीड़ा होने पर इसका अकेले या अन्य द्रव्यों के साथ मिलाकर लेप करते हैं। आभ्यन्तर-नाडीसंस्थान - वेदनास्थापन होने के कारण इसका प्रयोग वेदना की सभी अवस्थाओं तथा उदरशूल, अश्मरी, गृध्रसी, पाश्वंशुल आदि में लाभकर होता है। पाचन संस्थान - शूलप्रशमन और स्तम्भन होने से उदरशूल, आमाशयशोथ, और अतीसार में यह उपयुक्त होता है । रक्तवह संस्थान - हृच्छक्तिवर्धक होने के कारण यह हृद्विकारजन्य श्वासकष्ट एवं हृदयशूल में उपयोगी होता है। श्वसन संस्थान - वातकफशामक होने के कारण यह वातश्लेष्मिक कास, कुकुरकास, तीव्र फुफ्फुसावरणशोथ |

प्रजनन संस्थान- - शुक्र का स्तम्भन करने के कारण यह शीघ्रपतन रोग में दिया जाता है। गर्भपात एवं प्रसवोत्तर वेदना को शान्त करने के लिए भी इसका उपयोग किया जाता है। त्वचा - उष्ण होने से यह शीतजन्य उपद्रवों में लाभकर होता है। तापक्रम - इसके सेवन से विषमज्वर के विष का प्रभाव कम होता है और कभी कभी तो अन्य अचूक औषधों से भी लाभ न होने पर इससे कार्य हो जाता है। श्लीपदज्वर में भी इससे लाभ होता है। प्रयोग

अहिफेन विष के लक्ष ण— अधिक मात्रा में अफीम लेने पर निम्नांकित विषाक्त लक्षण क्रमशः उत्पन्न होते हैं:- 1. तन्द्रा 2. निद्रा 3. संन्यास 4. अवसाद 5. श्वासावरोध 6. मृत्यु नेत्रतारकायें संकुचित हो जाती हैं जो मृत्यु के कुछ मिनट पूर्व प्रसारित हो जाती हैं। प्रायः ४-६ घंटों में अवसाद की अवस्था और ६-१२ घंटों में मृत्यु होती है

अहिफेन-विष की चिकित्सा : 1. शोधन - रीठे के जल या सरसों या राई मिले गरम जल से वमन कराना तथा आमाशय नलिका से आमाशय का प्रक्षालन । 2. प्रतिविषों का प्रयोग - रीठा, हींग, बखरोट, अरहर, आंवला, एरण्ड, कार्पासबीज, कलमीशाक, नाडीशाक, केले का पानी, द्रोणपुष्पी, जिगिनी, भूत, तम्बाकू, तूतिया, तेजपात, धामन, नीम, पातालगरुड़ी, और मकोय ये द्रव्य अहिफेन- विषनाशक हैं। अतः इनके जल का पान रोगी को बराबर कराना चाहिए । 3 .उत्तेजक और हृद्य योग हृदय को उत्तेजित करने के लिए कॉफी का गरम क्वाथ पिलाना चाहिए। इसके अतिरिक्त, मकरध्वज, कस्तूरी, जुन्दवेदस्तर, जद्वार, जहर-मोहरा बादि हृद्य औषधे मधु के साथ देनी चाहिए । 4. रोगी को सोने भी न दे जब तक विष न उतर जाय । अहिफेनशोधन - अफीम को पानी में घोल, कपड़े से छानकर आग पर गाड़ा कर ले। तदनन्तर अदरख के स्वरस की इक्कीस भावना देने से वह शुद्ध हो जाता है ।

मात्रा – 30- 125 मि. ग्रा. । तिलभेदः खसतिलः खाखसश्चापि संस्मृतः । स्यात् खाखसफलोद्भूतं वल्कलं शीतलं लघु ॥ ग्राहि तिक्तं कषायं च वातकृत् कफका सहृत् । धातूनां शोषकं रुक्षं मदकृद्धाग्विवर्धनम् ॥ मुहुर्मोहकरं रुच्यं सेवनात् पुंस्त्वनाशनम् । 'उफं खसफल क्षीरमा फूकम हिफेनकम् । आफूकं शोषणं ग्राहि श्लेष्मध्नं वातपित्तलम् ॥ ' (भा. प्र. )

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