Bhartiya kala is one of the topic for ICSE SCHOOL Hindi PROJECTS 9 &10 and I would be happy if you find this ppt helpful.
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Added: Dec 23, 2020
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भारतीय हस्त एवं शिल्प कला
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अनुक्रमणिका पृष्ठ संख्या विषय ३ आभार ज्ञान ४ प्रमाणपत्र ५ भारतीय कला ६ हस्तकला ७ तंजौर कला - तमिलनाडु ८ मधुबनी चित्रकारी - बिहार १ मीनाकारी - राजस्थान ११ लाख का काम – राजस्था १२ असम की कला १४ कश्मीर की कला १५ अतिरिक्त जानकारी १६ स्त्रोत २
आभार ज्ञान इस परियोजना के संकलन के लिए मैं अपने विद्यालय की प्रधानाचार्य जी की आभारी हूँ तथा जुरूजन की अनुकंपा से यह कार्य संभव हुआ हैं I सहपाठियों एवं संगणक की भी सहायता हेतु धन्यवाद् I इन सब की छत्र छाया एवं कुशल निर्देशन से परियोजना का कार्य संभव हुआ है I सभी का धन्यवाद् I ३
प्रमाणपत्र मैं कक्षा ९ की छात्रा हूँ I मैंने परियोजना के सर्व नियम तथा तथ्यों को ध्यान में रखते हुए इसकी रचना की हैं I वह मौलिकता एवं सहायक ज्ञान से परिपक्त हुआ है I ४
भारतीय कला वह धरती जहाँ शास्त्रीय संगीत की स्वर लहरियाँ खूबसूरत चित्रों की बारीक कारीगरी, प्राचीन काल की कालीन बुनकर कला और हस्तकलाओं, नृत्य के दिव्य प्रकारों, शानदार प्रतिमाओं और मन को मोह लेने वाले त्यौहारों से घुली मिली हुई हैं, भारत कला और शिल्प का सुंदर सम्मिश्रण है। इसका हर प्रांत और केंद्र शासित प्रदेश परंपरा की सुगंध में सराबोर है, जो इसकी हर गली, हर मोड में फैली हुई है। यह देश जीवनी शक्ति और ज़िंदादिली की चमक से जगमगाता रहता है। हमेशा से ही भारत की कलाएं और हस्तशिल्प इसकी सांस्कृतिक और परम्परागत प्रभावशीलता को अभिव्यक्त करने का माध्यम बने रहे हैं। देश भर में फैले इसके 35 राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों की अपनी विशेष सांस्कृतिक और पारम्परिक पहचान है, जो वहां प्रचलित कला के भिन्न-भिन्न रूपों में दिखाई देती है। भारत के हर प्रदेश में कला की अपनी एक विशेष शैली और पद्धति है जिसे लोक कला के नाम से जाना जाता है। लोककला के अलावा भी परम्परागत कला का एक अन्य रूप है जो अलग-अलग जनजातियों और देहात के लोगों में प्रचलित है। इसे जनजातीय कला के रूप में वर्गीकृत किया गया है। भारत की लोक और जनजातीय कलाएं बहुत ही पारम्परिक और साधारण होने पर भी इतनी सजीव और प्रभावशाली हैं कि उनसे देश की समृद्ध विरासत का अनुमान स्वत: हो जाता है। ५
हस्तकला हस्तशिल्प हाथ के कौशल से तैयार किए गए रचनात्मक उत्पाद हैं जिनके लिए किसी आधुनिक मशीनरी और उपकरणों की मदद नहीं ली जाती। आजकल हस्त-निर्मित उत्पादों को फैशन और विलासिता की वस्तु माना जाता है। भारत की भव्य सांस्कृतिक विरासत और सदियों से क्रमिक रूप से विकास कर रही इस परम्परा की झलक देश भर में निर्मित हस्तशिल्प की भरपूर वस्तुओं में दिखाई पड़ती है। हस्तशिल्प इन वस्तुओं को तैयार करने वाले परम्परावादी कारीगरों की सांस्कृतिक पहचान का दर्पण हैं। युगों से भारत के स्तशिल्प जैसे कि कश्मीरी ऊनी कालीन, ज़री की कढ़ाई किए गए वस्त्र, पक्की मिट्टी (टेराकोटा) और सेरामिक के उत्पाद, रेशम के वस्त्र आदि, ने अपनी विलक्षणता को कायम रखा है। प्राचीन समय में इन हस्तशिल्पों को 'सिल्क रूट' रास्ते यूरोप, अफ्रीका, पश्चिम एशिया और दूरवर्ती पूर्व के दूरस्थ देशों को हनिर्यात किया जाता था। कालातीत भारतीय हस्तशिल्पों की यह समूची सम्पत्ति हर युग में बनी रही है। इन शिल्पों में भारतीय संस्कृति का जादुई आकर्षण है जो इसकी अनन्यता, सौन्दर्य, गौरव और विशिष्टता का विश्वास दिलाता है। ६
तंजौर कला - तमिलनाडु हर कृति अपने आप में एक पूर्ण वृतान्त है जो प्राचीन काल की एक झांकी प्रस्तुत करती है जिसे हमारे कलाकारों की प्रवीणता और निष्ठा ने जीवित रखा है। एक राजसी विरासत वाले धार्मिक चित्र तंजावर चित्रकारी, जिसे अब तंजौर चित्रकारी के नाम से जाना जाता है, की सर्वोत्तम परिभाषा है। तंजौर की चित्रकारी महान पारम्परिक कला रूपों में से है जिसने भारत को विश्व प्रसिद्ध बनाया है। इनका विषय मूलत: पौराणिक है। ये धार्मिक चित्र दर्शाते हैं कि आध्यात्मिकता रचनात्मक कार्य का सार है। कला के कुछ रूप ही तंजौर की चित्रकारी की सुन्दरता और भव्यता से मेल खाते हैं।कला और शिल्प दोनों का एक विलक्षण मिश्रित रूप तंजौर की इस चित्रकारी का विषय मुख्य रूप से हिन्दू देवता और देवियां हें। कृष्ण इनके प्रिय देव थे जिनके विभिन्न मुद्राओं में चित्र बनाए गए है जो उनके जीवन की विभिन्न अवस्थाओं को व्यक्त करते हैं। तंजौर चित्रकारी की मुख्य विशेषताएं उनकी बेहतरीन रंग सज्जा, रत्नों और कांच से गढ़े गए सुन्दर आभूषणों की सजावट और उल्लेखनीय स्वर्णपत्रक का काम हैं। स्वर्णपदक और बहुमूल्य और अर्द्ध-मूल्य पत्थरों के भरपूर प्रयोग ने चित्रों को भव्य रूप प्रदान किया है। इन्होंने तस्वीरों में इस कदर जान डाल दी हैं कि ये तस्वीरें एक विलक्षण रूप में सजीव प्रतीत होती हैं। मानिक, हीरे और अन्य मूल्यवान रत्न-मणियों से जडित और स्वर्ण-पदक से सजी तंजौर के ये चित्र एक असली खजाना थे। तंजौर शैली की चित्रकारी में प्रयुक्त स्वर्ण पत्रकों की चमक और आभा सदैव बनी रहेगी। ७
मधुबनी चित्रकारी - बिहार मधुबनी चित्रकारी, जिसे मिथिला की कला भी कहा जाता है, की विशेषता चटकीले और विषम रंगों से भरे गए रेखा-चित्र अथवा आकृतियां हैं I इस चित्रकारी में शिल्पकारों द्वारा तैयार किए गए खनिज रंजकों का प्रयोग किया जाता है। यह कार्य ताजी पुताई की गई अथवा कच्ची मिट्टी पर किया जाता है। वाणिज्यिक प्रयोजनों के लिए चित्रकारी का यह कार्य अब कागज़, कपड़े, कैनवास आदि पर किया जा रहा है I रंगों का प्रयोग सपाट रूप से किया जाता है जिन्हें न तो रंगत (शेड) दो जाती है और न ही कोई स्थान खाली छोड़ा जाता है प्रकृति और पौराणिक गाथाओं के वही चित्र उभारे जाते है जो इनकी शैली से मेल खाते हों। इन चित्रों में जिन प्रसंगों और डिजाइनों का भरपूर चित्रण किया गया है वे हिन्दू देवी-देवताओं से संबंधित हैं जैसे कि कृष्ण, राम, शिव, दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, सूर्य और चन्द्रमा, तुलसी के पौधे, राजदरबारों के दृश्य, सामाजिक समारोह आदि। मधुबनी चित्रकारी अनेक परिवारों की आमदनी का एक मुख्य साधन बन गया है। पूरे विश्व में इस कला के चलने बाजार मिथिला की महिलाओं की उपाय कुशलता के लिए एक प्रशस्ति है, जिन्होंने भित्तिचित्र की अपनी तकनीकियों का कागज़ पर चित्रकारी के लिए सफल प्रयोग किया है। ८
९ मधुबनी चित्रकारी
१ मीनाकारी - राजस्थान मीनाकारी एक कलात्मक प्रक्रिया है। इसमें काच के बारीक पाउडर को ७५० डिग्री सेल्सियस से ८५० डिग्री सेल्सियस तक गर्म करके पिघलाकर धातु ऑक्साइड जैसे चांदी, सोना, तांबा और जिंक के ऊपर क्रिस्टलीय पारदर्शी रूप में जड़ दिया जाता है। तांबे, चांदी या सोने पर किए गए असली इनामेल से मणियों जैसे खूबसूरत रंग पैदा होते हैं। मीनाकारी का कार्य मूल्यवान व अर्द्धमूल्वान रत्नों तथा सोने व चांदी के आभूषणों पर किया जाता है। जयपुर में सोने के आभूषणों और खिलौनों पर बड़ी सुंदर मीनाकारी की जाती है। मीनाकारी एक पुरानी और अति-प्रचलित प्रौद्योगिकी है। अपने अधिकांश इतिहास में यह मुख्यतः आभूषणों और सजावटी कलाओं के ऊपर की जाती रही है। किन्तु उन्नीसवीं शती के बाद मीनाकारी का उपयोग औद्योगिक वस्तुओं और दैनन्दिन उपयोग की वस्तुओं पर भी किया जाने लगा
११ लाख का काम – राजस्था जयपुर और जोधपुर के बने आभूषणों विशेष रुप से चूड़ियों, कडो, पाटलों, सजावटी चीजें, खिलौने, मूर्तियां, हिंडोली, गुलदस्ते, गलेकाहार,अंगूठे के लिए प्रसिद्ध है लाख के काम का अर्थ है चपड़ी को पिघला कर उसमें चाक मिट्टी बिरोजा हल्दी मिलाकर उसे गुंथ लिया जाना और फिर उससे विभिन्न चीजें तैयार करना लाख की चूड़ियों का काम जयपुर, करौली, हिंडोन में होता है । लाख के आभूषण खिलौना और कलात्मक वस्तुओं का काम उदयपुर में होता है । लाख से बनी चूड़ियां मोकड़ी कहलाती है । जयपुर के अयाज अहमद लाख के कार्य के लिए प्रसिद्ध है।
असम की कला कला और हस्तशिल्प से संबंधित कुटीर उद्योगों के लिए असम सदैव विख्यात रहा है I बांस आधार शिल्प अब मुख्य रूप से एक घरेलू उद्योग है और राज्य के हस्तशिल्प के बीच एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह खेती करने वालों के लिए एक सहायक व्यवसाय और उच्च कुशल कारीगरों को पूर्णकालिक व्यवसाय प्रदान करता है जो वाणिज्यिक पैमाने पर केवल ठीक सजावटी टोकरी, फर्नीचर और मैट आदि का उत्पादन करते हैं । बांस के उत्पादों का निर्माण मुख्य रूप से एक ग्रामीण उद्योग है। यह आमतौर पर कृषकों द्वारा अपने खाली समय में सहायक व्यवसाय के रूप में अपनाई जाती है। ग्रामीण क्षेत्रों में इसकी भारी सांद्रता मुख्य रूप से गांवों में बाँस की उपलब्धता और विभिन्न बाँस के उत्पादों, जैसे कि, मैट, टोकरियाँ, मछली पकड़ने के लिए गर्भनिरोधक, इत्यादि की उच्च माँग के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। असम उत्तम शिल्प और कलाकृतियों का खजाना था। यह पीतल शिल्प, धातु शिल्प, मुखौटा बनाने, कुम्हार, बेंत और बांस शिल्प, और गहने के उत्पादन में प्रचुर है। असम को दुनिया भर में जाना जाता है अपने रेशमी रेशम के लिए जिसका नाम असम सिल्क है। १२
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कश्मीर की कला १४ जम्मू और कश्मीर में बहुत खूबसूरत और अनूठी कला और शिल्प हैं। रेशम के कालीन, बुना कालीन, ऊनी शॉल, कालीन, कुर्ता और बर्तनों को शानदार ढंग से सुशोभित किया गया है। इसके अतिरिक्त जम्मू और कश्मीर राज्य में पारंपरिक और अच्छी तरह से डिजाइन की गई नौकाओं को देखा जा सकता है और इन्हें लकड़ी से बना है। इन नावों को मूल रूप से शिकारस कहा जाता है। इस प्रकार, जम्मू और कश्मीर की परंपरा और संस्कृति एक यौगिक है। यह विविधता में सद्भाव के साथ एक सिंथेटिक रूपरेखा पेश करता है
अतिरिक्त जानकारी १५ शिल्प समुदाय की गतिविधियों व उनकी सक्रियता का प्रमाण हमें सिंधु घाटी सभ्यता (3000-1500 ई.पू.) काल में मिलता है। इस समय तक ‘विकसित शहरी संस्कृति’ का उद्भव हो चुका था, जो अफगानिस्तान से गुजरात तक फैली थी। इस स्थल से मिले सूती वस्त्र और विभिन्न, आकृतियों, आकारों और डिजाइनों के मिट्टी के पात्र, कम मूल्यवान पत्थरों से बने मनके, चिकनी मिट्टी से बनी मूर्तियां, मोहरें (सील) एक परिष्कृत शिल्प संस्कृति की ओर इशारा करते हैं। 5 हजार वर्ष पूर्व विशिष्ट शिल्प समुदायों ने सामाजिक आवश्यकताओं और अपेक्षाओं की पूर्ति का सरल और व्यावहारिक समाधान खोजा, जिससे कि लोगों के जीवन को सुधारा जा सका। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में दो प्रकार के कारीगरों के मध्य भेद बताया गया है- पहले, वे विशेषज्ञ शिल्पकार, जो मजदूरी पर कार्य करने वाले कई कारीगरों को रोजगार देते थे और दूसरे, वे कारीगर जो स्वयं की पूंजी से अपनी कार्यशालाओं में कार्य करते थे। कारीगरों को पारिश्रमिक या तो सामग्री के रूप में या नकद दिया जाता था, सेवा संबंध और वस्तुओं का आदान-प्रदान ही चलता था। संभवतः यजमानी प्रणाली इन्हीं सेवा संबंधों का परिणाम है।
स्त्रोत १६ https:// knowindia.gov.in/hindi/culture-and-heritage/folk-and-tribal-art.php https ://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A5%80%E0%A4%AF_% E0%A4%B6%E0%A4%BF%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%AA https :// www.incredibleindia.org/content/incredible-india-v2/hi/destinations/guwahati/arts-and-crafts.html https ://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%85%E0%A4%B8%E0%A4%AE_%E0%A4%95%E0%A5%80_% E0%A4%95%E0%A4%B2%E0%A4%BE https://bihar.gov.in/en/main/CANE%20%26%20BAMBOO #:~: text=Bamboo%20base%20craft%20is%20now,on%20commercial%20scal e