Piagets theory of cognitive development

samparkacharya 1,750 views 25 slides Apr 29, 2021
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Jean Piaget theory of cognitive development


Slide Content

पियाजे का संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त डॉ. संपर्क आचार्य

पियाजे का संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त जीन पियाजे  द्वारा प्रतिपादित  संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त  ( theory of cognitive development)  मानव बुद्धि की प्रकृति एवं उसके विकास से सम्बन्धित एक विशद सिद्धान्त है। पियाजे का मानना था कि व्यक्ति के विकास में उसका बचपन एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। पियाजे का सिद्धान्त,  विकासी अवस्था सिद्धान्त  ( developmental stage theory) कहलाता है। यह सिद्धान्त ज्ञान की प्रकृति के बारे में है और बतलाता है कि मानव कैसे ज्ञान का क्रमशः अर्जन करता है, कैसे इसे एक-एक कर जोड़ता है और कैसे इसका उपयोग करता है।

पियाजे का संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त व्यक्ति वातावरण के तत्वों का प्रत्यक्षीकरण करता है; अर्थात् पहचानता है, प्रतीकों की सहायता से उन्हें समझने की कोशिश करता है तथा संबंधित वस्तु/व्यक्ति के संदर्भ में अमूर्त चिन्तन करता है। उक्त सभी प्रक्रियाओं से मिलकर उसके भीतर एक ज्ञान भण्डार या संज्ञानात्मक संरचना उसके व्यवहार को निर्देशित करती हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कोई भी व्यक्ति वातावरण में उपस्थित किसी भी प्रकार के उद्दीपकों (स्टिमुलैंट्स) से प्रभावित होकर सीधे प्रतिक्रिया नहीं करता है, पहले वह उन उद्दीपकों को पहचानता है, ग्रहण करता है, उसकी व्याख्या करता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि संज्ञात्माक संरचना वातावरण में उपस्थित उद्दीपकों और व्यवहार के बीच मध्यस्थता का कार्य करता हैं।

पियाजे का संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त जीन पियाजे ने व्यापक स्तर पर संज्ञानात्मक विकास का अध्ययन किया। पियाजे के अनुसार, बालक द्वारा अर्जित ज्ञान के भण्डार का स्वरूप विकास की प्रत्येक अवस्था में बदलता हैं और परिमार्जित होता रहता है। पियाजे के संज्ञानात्मक सिद्धान्त को  विकासात्मक सिद्धान्त  भी कहा जाता है। चूंकि उसके अनुसार, बालक के भीतर संज्ञान का विकास अनेक अवस्थाओ से होकर गुजरता है, इसलिये इसे  अवस्था सिद्धान्त  ( STAGE THEORY ) भी कहा जाता है।

संज्ञानात्मक विकास के कारक संज्ञानात्मक विकास केवल नवीन तथ्यों एवं विचारों की जानकारी तक ही सीमित नहीं है। पियाजे के अनुसार, सोचने की प्रक्रिया में लगातार परिवर्तन आता है। यह परिवर्तन धीमी गति से जन्म से परिपक्व होने तक चलता रहता है क्योंकि हम अपने आस-पास के वातावरण को समझना चाहते हैं। पियाजे के अनुसार ऐसे चार कारक हैं जिनमे परस्पर सम्बन्ध एवं प्रभाव से संज्ञानात्मक विकास होता है- जैविक परिपक्वता ( Biological Maturation) गतिविधि (Activity) सामाजिक अनुभव (Social Experiences) संतुलीकरण (Equilibration)

जैविक परिपक्वता ( Biological Maturation) वातावरण को समझने हेतु सबसे महत्वपूर्ण कारक है जैव परिपक्वता। यह अनुवांशिक रूप से उपस्थित जैविक परिवर्तनों के कारण होती है। अभिभावकों एवं शिक्षकों का संज्ञानात्मक विकास के इस पहलू पर बहुत ही कम प्रभाव पड़ता है। वे केवल बच्चों के लिए पोषण एवं देखभाल का ध्यान रख सकते हैं।

गतिविधि (Activity) गतिविधि भी संज्ञानात्मक विकास का एक अति महत्वपूर्ण नियामक है। शारीरिक परिपक्वता के साथ-साथ वातावरण में गति करने की क्षमता का विकास होता है, जैसे- अवलोकन, अन्वेषण, परीक्षण एवं अंत में ज्ञान का संगठन। इसी के कारण बच्चोँ के ज्ञान में वृद्धि होती है।

सामाजिक अनुभव (Social Experiences) जैसे जैसे बालक बड़ा होता जाता है, वह अपने आस-पास के लोगों के संपर्क में आता है। पियाजे के अनुसार संज्ञानात्मक विकास में सामाजिक अनुभव अर्थात दूसरों से सीखने का बहुत महत्त्व है। बिना सामाजिक प्रसरण के हमें हमारी संस्कृति और समाज को प्रारंभ से समझने का प्रयत्न करना पड़ेगा। हमें सदैव शून्य से शुरुआत करनी पड़ेगी।

संतुलीकरण (Equilibration) समाज से सीखना इस बात पर निर्भर करता है की हम संज्ञानात्मक विकास की किस अवस्था में हैं? परिपक्वता, गतिविधि एवं सामाजिक प्रसरण सभी के मध्य संतुलिकरण ही संज्ञानात्मक विकास को पुष्ट करता है।

संगठन ( Organization) संगठन ज्ञान और अनुभवों को मानसिक तंत्र में सुव्यवस्थित करने की सतत प्रक्रिया है। मानव में विचारों की प्रक्रिया के संगठनों को मनोवैज्ञानिक संरचनाओं में ढालने की जन्मजात प्रवृत्ति होती है। इन मनोवैज्ञानिक संरचनाओं के द्वारा ही हम वातावरण को समझते हैंतथा उससे जुड़ पाते हैं। सामान्य संरचनाएं धीरे-धीरे जुडती चली जाती हैं और समन्वित होकर जटिल एवंप्रभाव्शाली हो जाती हैं। पियाजे ने इन मानसिक संरचनाओं एवं प्रत्यक्षीकरण तथा अनुभवों के समूह को स्कीमा (SCHEMA) का नाम दिया था। स्कीम विचारों की मूलभूत इकाई है। यह क्रियाओं एवं विचारों की एक सुव्यवस्थित प्रणाली है जिसके द्वारा हम संसार की वस्तुओं एवं घटनाओं के बारे में सोच पाते हैं तथा मस्तिष्क में उसकी एक छवि बना पाते हैं। स्कीम बहुत ही छोटे और विशिष्ट तथा बहुत बड़े और विस्तृत भी हो सकते हैं। जैसे-जैसे मानव के विचार की प्रक्रिया संगठित होती है और नए स्कीम का विकास होता है, वैसे ही उसका व्यवहार अधिक परिपक्व, जटिल एवं अनुकूलित होता जाता है।

अनुकूलन मनोवैज्ञानिक संरचनाओं को संगठित करने की प्रवृत्ति के साथ ही बच्चे में वातावरण के अनुकूल होने की प्रवृत्ति भी होती है। पियाजे का यह विशस था कि पौधों और पशुओं की तरह ही मनुष्य भी अपने भौतिक और सामाजिक वातावरण के साथ, जिसमे वे रहते हैं, अपने को अनुकूलित करते हैं। पियाजे ने अनुकूलन को दो मूल प्रक्रियाओं के रूप में लिया- समावेशन (Assimilation) समायोजन (Accomodation)

समावेशन (Assimilation) समावेशन उस प्रक्रिया को कहते हैं, जिसके द्वारा नवीन वस्तुएं एवं घटनाएं ग्रहण की जाती हैं और वर्तमान संरचनाओं अथवा स्कीम के क्षेत्र में समाविष्ट किया जाता है।

समायोजन (Accomodation) समायोजन वह प्रक्रिया है , जिसके द्वारा नयी वस्तु या घटना को सीधे-सीधे ग्रहण करने या समाविष्ट करने में होने वाले प्रतिरोध को दूर करने के लिए पहले से मौजूद संज्ञानात्मक स्कीम या संरचना को परिमार्जित किया जाता है। मान लीजिये एक छः महीने की आयु का बच्चा हाथ बढ़ाकर वस्तु को पकड़ने का अभ्यस्त है। अगली बार वह एक बड़े आकार की वस्तु को पकड़ने का प्रयास करता है। यदि बच्चा सफलतापूर्वक नयी वस्तु तक पहुँच जाता है और उसे ग्रहण कर लेता है तो पियाजे के अनुसार नयी वस्तु सफलतापूर्वक समाविष्ट कर ली गयी है। चूँकि नयी वस्तु पहले वाली वास्तु से बड़े आकार की है तो बच्चे को कुछ अधिक श्रम करना होगा। उसे हथेली को चौड़ा कर फैलाना होगा, अन्यथा उसकी कोशिश सफल नहीं होगी। इस तरह नयी वस्तु के लिए पहले से मौजूद स्कीमा में परिवर्तन करना होगा। पियाजे मानसिक संरचना के इस तरह के आतंरिक परिवर्तन को समायोजन कहते हैं।

संज्ञानात्मक विकास की अवस्थाएँ जीन प्याजे ने संज्ञानात्मक विकास को चार अवस्थाओं में विभाजित किया है- 1. संवेदिक पेशीय अवस्था ( Sensory Motor) : जन्म के 2 वर्ष 2. पूर्व-संक्रियात्मक अवस्था ( Pre-operational) : 2-7 वर्ष 3. मूर्त संक्रियात्मक अवस्था ( Concrete Operational) : 7 से12 वर्ष 4. अमूर्त संक्रियात्मक अवस्था ( Formal Operational) : 12 से 15वर्ष

संवेदी पेशीय अवस्था जन्म के 2 वर्ष इस अवस्था में बालक केवल अपनी संवेदनाओं और शारीरिक क्रियाओं की सहायता से ज्ञान अर्जित करता है। बच्चा जब जन्म लेता है तो उसके भीतर सहज क्रियाएँ ( Reflexes) होती हैं। इन सहज क्रियाओं और ज्ञानन्द्रियों की सहायता से बच्चा वस्तुओं ध्वनिओं, स्पर्श, रसो एवं गंधों का अनुभव प्राप्त करता है और इन अनुभवों की पुनरावृत्ति के कारण वातावरण में उपस्थित उद्दीपकों की कुछ विशेषताओं से परिचित होता है।

संवेदी पेशीय अवस्था जन्म के 2 वर्ष संज्ञानात्मक विकास के प्रारंभिक काल को संवेदी पेशीय अवस्था कहते हैं। इस अवस्था में बच्चा अपनी सम्वेदिक इन्द्रियों ( देखना , सुनना, चलना, छूना, चखना आदि) एवं पेशीय गतिविधियों द्वारा सीखता है। इस अवस्था में बच्चा वस्तु स्थायित्व (Object Permanence) के विकास को दर्शाते हैं। बच्चा यह समझने लगता है की यदि कोई वस्तु उसके सामने उपस्थित नहीं है तो भी उसका अस्तित्व रह सकता है, यद्यपि बच्चा उसका इन्द्रियों से अनुभव नहीं कर पाता है। यहीं से बच्चे का मानसिक निरूपण (Mental Representation) की क्षमता का विकास होता है। वस्तु स्थायित्व से पहले बच्चों से चीजें लेकर छुपाना बहुत आसान होता है लेकिन इसके विकास के पश्चात् बच्चे छिपाई हुयी वस्तु को यहाँ-वहां देखने और खीजने का प्रयास करते अहिं। इससे यह पता लगता है कि बच्चे को यह समझ है कि वह सामने नहीं होने पर भी वस्तु मौजूद रहती है।

संवेदी पेशीय अवस्था जन्म के 2 वर्ष संवेद पेशीय अवस्था की एक मुख्य उपलब्धि यह भी है कि इसमें उद्देश्यपूर्ण कार्यों की शुरुआत होती है। इस अवस्था में बच्चे बड़ों के व्यवहार को दोहराते हैं। बड़ों की कही हुयी बातों को याद रखकर उन्ही के व्यवहार को उनकी अनुपस्थिति में दोहराते हैं। नक़ल उतरने जैसा व्यवहार करते हैं । वे रोजाना दिखने वाली गतिविधियों की नक़ल भी उतारते हैं तथा काल्पनिक गतिविधियाँ भी करते हैं। जैसे खाना बनाने का अभिनय करना आदि।

संवेदी पेशीय अवस्था जन्म के 2 वर्ष इस अवस्था को छः उपवस्था मे बाटा है ~ 1- सहज क्रियाओ की अवस्था (जन्म से 30 दिन तक) 2- प्रमुख वृत्तीय अनुक्रियाओ की अवस्था ( 1 माह से 4 माह) 3- गौण वृत्तीय अनुक्रियाओ की अवस्था ( 4 माह से 8 माह) 4- गौण स्किमेटा की समन्वय की अवस्था ( 8 माह से 12 माह ) 5- तृतीय वृत्तीय अनुक्रियाओ की अवस्था ( 12 माह से 18 माह ) 6- मानसिक सहयोग द्वारा नये साधनों की खोज की अवस्था ( 18 माह से 24 माह )

पूर्व-संक्रियात्मक अवस्था 2 -7 वर्ष इस अवस्था में बालक स्वकेन्द्रित व स्वार्थी न होकर दूसरों के सम्पर्क से ज्ञान अर्जित करता है। अब वह खेल, अनुकरण, चित्र निर्माण तथा भाषा के माध्यम से वस्तुओं के संबंध में अपनी जानकारी अधिकाधिक बढ़ाता है। धीरे-धीरे वह प्रतीकों को ग्रहण करता है किन्तु किसी भी कार्य का क्या संबंध होता है तथा तार्किक चिन्तन के प्रति अनभिज्ञ रहते हैं। इस अवस्था में अनुक्रमणशीलता पायी जाती है। इस अवस्था मे बालक के अनुकरणो मे परिपक्वता आ जाती है ।

पूर्व-संक्रियात्मक अवस्था 2 -7 वर्ष इस अवस्था मे प्रकट होने वाले लक्षण दो प्रकार के होने से इसे दो भागों में बांटा गया है। 1. पूर्व प्रत्यात्मक काल: (2-4 वर्ष) 2. अंतः प्रज्ञककाल: / अन्तर्दर्शि अवधि (4-7 वर्ष) 1-प्राक संक्रियात्मक:बालक संकेत तथा चिन्ह को मस्तिष्क में ग्रहण करते हैं। निर्जीव वस्तुओं को सजीव समझते हैं । बालक आत्मकेंद्रित हो जाता है । संकेतों एवं भाषा का विकास तेज होने लगता है। 2-अन्तःप्रज्ञाकाल: बालक छोटी छोटी गणनाओं जैसे जोड़ घटाओ आदि सीख लेता है।संख्या प्रयोग करने लगता है। इसमें क्रमबद्ध तर्क नही होता है।

पूर्व-संक्रियात्मक अवस्था 2 -7 वर्ष संवेद पेशीय अवस्था के अंत तक बच्चे बहुमुखी क्रियाएं करने लगते हैं। इस अवस्था में बच्चे मानसिक संक्रियाएं करना प्रारंभ करते हैं। मानसिक संक्रिया से अभिप्राय है कि सोच के साथ क्रियाएं करना एवं मन-मस्तिष्क में समस्या को हल करने का प्रयास करना। पूर्व संक्रियात्मक अवस्था में बच्चे निपुणता की ओर बढ़ते है परन्तु अभी पूर्ण मानसिक संक्रियाओं के उपयोग में निपुण नहीं होते इसलिए इसे पूर्व संक्रियात्मक अवस्था कहते हैं।

मूर्त संक्रियात्मक अवस्था 7-12 वर्ष इस अवस्था में बालक विद्यालय जाना प्रांरभ कर लेता है एवं वस्तुओं एव घटनाओं के बीच समानता, भिन्नता समझने की क्षमता उत्पन हो जाती है इस अवस्था में बालकों में संख्या बोध, वर्गीकरण, क्रमानुसार व्यवस्था किसी भी वस्तु ,व्यक्ति के मध्य पारस्परिक संबंध का ज्ञान हो जाता है। वह तर्क कर सकता है। संक्षेप में वह अपने चारों ओर के पर्यावरण के साथ अनुकूल करने के लिये अनेक नियम को सीख लेता है|

औपचारिक या अमूर्त संक्रियात्मक अवस्था 12-15 वर्ष यह अवस्था 12 वर्ष के बाद की है इस अवस्था की विशेषता निम्न है :- तार्किक चिंतन की क्षमता का विकास समस्या समाधान की क्षमता का विकास वास्तविक-आवास्तविक में अन्तर समझने की क्षमता का विकास वास्तविक अनुभवों को काल्पनिक परिस्थितियों में ढालने की क्षमता का विकास

औपचारिक या अमूर्त संक्रियात्मक अवस्था 12-15 वर्ष परिकल्पना विकसित करने की क्षमता का विकास विसंगंतियों के संबंध में विचार करने की क्षमता का विकास जीन पियाजे ने इस अवस्था को अतंर्ज्ञान कहा है

औपचारिक या अमूर्त संक्रियात्मक अवस्था 12-15 वर्ष परिकल्पना विकसित करने की क्षमता का विकास विसंगंतियों के संबंध में विचार करने की क्षमता का विकास जीन पियाजे ने इस अवस्था को अतंर्ज्ञान कहा है