radha-sudha-nidhi-full-book.pdf

3,662 views 155 slides Jul 02, 2023
Slide 1
Slide 1 of 155
Slide 1
1
Slide 2
2
Slide 3
3
Slide 4
4
Slide 5
5
Slide 6
6
Slide 7
7
Slide 8
8
Slide 9
9
Slide 10
10
Slide 11
11
Slide 12
12
Slide 13
13
Slide 14
14
Slide 15
15
Slide 16
16
Slide 17
17
Slide 18
18
Slide 19
19
Slide 20
20
Slide 21
21
Slide 22
22
Slide 23
23
Slide 24
24
Slide 25
25
Slide 26
26
Slide 27
27
Slide 28
28
Slide 29
29
Slide 30
30
Slide 31
31
Slide 32
32
Slide 33
33
Slide 34
34
Slide 35
35
Slide 36
36
Slide 37
37
Slide 38
38
Slide 39
39
Slide 40
40
Slide 41
41
Slide 42
42
Slide 43
43
Slide 44
44
Slide 45
45
Slide 46
46
Slide 47
47
Slide 48
48
Slide 49
49
Slide 50
50
Slide 51
51
Slide 52
52
Slide 53
53
Slide 54
54
Slide 55
55
Slide 56
56
Slide 57
57
Slide 58
58
Slide 59
59
Slide 60
60
Slide 61
61
Slide 62
62
Slide 63
63
Slide 64
64
Slide 65
65
Slide 66
66
Slide 67
67
Slide 68
68
Slide 69
69
Slide 70
70
Slide 71
71
Slide 72
72
Slide 73
73
Slide 74
74
Slide 75
75
Slide 76
76
Slide 77
77
Slide 78
78
Slide 79
79
Slide 80
80
Slide 81
81
Slide 82
82
Slide 83
83
Slide 84
84
Slide 85
85
Slide 86
86
Slide 87
87
Slide 88
88
Slide 89
89
Slide 90
90
Slide 91
91
Slide 92
92
Slide 93
93
Slide 94
94
Slide 95
95
Slide 96
96
Slide 97
97
Slide 98
98
Slide 99
99
Slide 100
100
Slide 101
101
Slide 102
102
Slide 103
103
Slide 104
104
Slide 105
105
Slide 106
106
Slide 107
107
Slide 108
108
Slide 109
109
Slide 110
110
Slide 111
111
Slide 112
112
Slide 113
113
Slide 114
114
Slide 115
115
Slide 116
116
Slide 117
117
Slide 118
118
Slide 119
119
Slide 120
120
Slide 121
121
Slide 122
122
Slide 123
123
Slide 124
124
Slide 125
125
Slide 126
126
Slide 127
127
Slide 128
128
Slide 129
129
Slide 130
130
Slide 131
131
Slide 132
132
Slide 133
133
Slide 134
134
Slide 135
135
Slide 136
136
Slide 137
137
Slide 138
138
Slide 139
139
Slide 140
140
Slide 141
141
Slide 142
142
Slide 143
143
Slide 144
144
Slide 145
145
Slide 146
146
Slide 147
147
Slide 148
148
Slide 149
149
Slide 150
150
Slide 151
151
Slide 152
152
Slide 153
153
Slide 154
154
Slide 155
155

About This Presentation

NYPD Desi Society hosted a Holiday Party and Recognition Ceremony at World’s Fair Marina on December 10, 2021 at World fair Marina, Queens, New York.



Pic 1: NYPD Deputy Chief Deodat Urprasad recognize by Brooklyn Borough President Eric Adam and Citation was presented by Dilip Chauhan,Executiv...


Slide Content

थम संरण – २,००० ितयाँ
कािशत २३ माच २०२१
नवमी, शु प, फागुन, २०७७ िवमी सत्






ी मानमिर सेवा संान
गरवन, बरसाना, मथुरा (उ..)
फोन – ९९२७३३८६६६
http://www.maanmandir.org
[email protected]
ाि-ान
मान मिर, बरसाना
फोन – ९९२७३३८६६६
एवं
ीराधा खंडेलवाल ालय
अठखा बाजार, वृावन
फोन – ९९९७९७७५५१

i

सुधािनिध के स म उद् गार
कार ारा ुत  म ीयुगल के अलौिकक उलतम मधुर रस
का सवाीण गान है जो मा कृ पाग है ।
यह रस समुझिन कौ क नािहंन आन उपाय ।
ेम दरीची जो कबँ सहज कृ पा खुिल जाय ॥ (ुवदासजी कृत ेमावली)
ज ैसे-जैसे साधक सांसािरक िवषय भोग के दलदल से िनकलेगा, व ैसे-व ैसे
‘िवशु ेम की िखड़की’ कृ प ाबल से खुल जायेगी । इसके िलए परमावयक है
रिसकजन की वाणी का आय, जो हम ुत लघु टीका के प म ा ई है ।
ज के परम िनृह रिसक संत अन ीयुत ीीरमेशबाबाजी महाराज के
ारा साधक के ित अपार कणा के फलप ीमद् राधासुधािनिधजी का सरल,
सुगम, संि व सारगिभत अनुवाद आ । यिप टीकाय अनेक सुलभ ह तथािप
साधक ारा सरल टीका की लगातार माँग होती रही । आपकी इस अुत देन से
‘सूण युगलरस उपासक जगत’ परम अनुहीत आ है । २५ वष पूव आपके ीमुख
से लगातार ७ वष तक ीमद्राधासुधािनिध के ४० ोक पर जो वचन आ, वह
अपूव ही है, िजसका संह करके िनकट भिव म िवृत टीका के काशन का काय
चल रहा है, जो रसोपासक के िलए िनिध प होगा ।
ुत टीका के संशोधन का महान काय आपकी ही आा से ‘गाजीपुर
संृ त महािवालय’ के ाचाय आदरणीय ीगोपालजी िजासु ने अ मनोयोग
व मपूवक िकया है; हम आपके ित आभार  करते ह । िवास है, माधुय-
रसोपासक के िलए ुत टीका बत ही उपयोगी िस होगी ।
िचरऋणी
राधाका शाी
मानमिर

ii

सुधािनिध िवषयक भावािभि
जगत् की उि आिद का िनिम कारण वेदा वे सिदानप
पर है, िजसे ुित “रसो वै सः” कहती है । अरिण म अिहत ‘अि’ मनािद
के ारा जब तक अपने साकार प म कट नह हो जाता, तब तक वह अपनी
काशकता एवं दाहकता को मािणत नह कर सकता है । ठीक उसी कार सवापक
िनराकार  का प भी सगुण-साकार के िबना असमो ऐय-माधुय आिद की
अिभि कथमिप नह कर सकता । जैसे गे का रस िमी के प म आकर और
अिधक मधुर बन जाता है, वैसे ही िनराकार  ‘ साकार’ होकर िनरितशय माधुयािद
गुण-गण िविश होता है । “रसो वै सः” का अथ साकार परमेर म ही चिरताथ होता
है, िनिवशेष अय  म नह । रस-िनि म आलनिवभावािद अपेित होते ह,
जैसा की नाशा णेता भरतमुिन कहते ह - “िवभावानुभाव सािर संयोगाद् रस
िनिः” सू म उपा ‘ िनि’ श का अथ है – अिभि; रस-िनि हेतु एक
ही ोित ‘ीराधामाधव’ के प म िधा अवतिरत ई - “ताोितरभूद् ेधा
राधामाधव पकम्” । उ भरत-सू मे ‘संयोग’ पद ान देने योय है; संयोग दो
या दो से अिधक म ही सव है, एक म नह । ीराधा के आलन-िवभाव ‘ ी कृ ’
ह और ीकृ  का आलन-िवभाव अशेष माधुय की अिधाी भगवती
‘ीिकशोरीजी’ ह । वेद-वा भी यही िनदश करते ह – “ी ते ली
पावहोराे .....” (यजुवद)
अथात् परमाा की दो पियाँ ह – ी एवं ली; ‘ी’ सौय-माधुय-सौकुमाय
आिद की एवं ‘लीजी’ सकल ऐय की अिधाी ह । वेदो ‘ी’ ही वृषभानुनिनी
ीराधा ह तथा ‘ली’ पा िणी आिद ह । ‘ ी कृ ’ से परे कोई त नह है
– मः परतरं नाििदि धनय । (ीमगवीता ७/७)

iii

रिसक वैवाचाय ‘कं’ एक का ही ितपादन करते ह, अतएव उपयु ‘मः’ पद
युगल त का वाचक िस होता है ।
महावाणी का भी यही हाद है – कृ  प ीरािधका, राधे प ीयाम । दशन के ये
दोय ह, एक ही सुख धाम ॥ (महावाणी)
अतएव ीराधा-कृ  का परर उपा-उपासक भाव उनके आाराम का ही
ितपादक है । संिहता म ‘ीराधा’ नाम का िनवचन इसी आशय से िकया है, यथा

अनयाराते कृो भगवान् हिररीरः । लीलया रस वािहा तेन राधा कीिता ॥
सुधािनिधकार भी यही ीकार करते ह, यथा –
“या वाराधयित ियं जमिणं ौढानुरागोवैः” (ीराधासुधािनिध - ९७)
सवरी ीरािधका गाढ़ पिरप अनुरागोव िविध से जमिण िय ‘यामसुर’
की आराधना करती ह । ीकृ  भी अहिनश ाणिया ‘िकशोरी’ के जप म तीन
रहते ह, यथा – कािलीतटकुरमिरगतो योगीवद् यद -
ोितानपरः सदा जपित यां ेमाुपूण हिरः । (ीराधासुधािनिध – ९५)
अथात् ीयमुना तटवत कुमिर म िवराजमान योगीवत् ‘माधव’ सवदा
ीराधानाम का जप करते ए राधाचरण-ोित म ानम हो जाते ह और उनके
ने से ेमाु वािहत होते ह ।
यिप सुधािनिधकार की से ीिकशोरी ह तथािप वे ीकृ  का वन-
रण करना नह भूलते ह, यथा – राधाचरणिवलोिडतिचरिशखडं हिरं वे ॥
(ीराधासुधािनिध – २००)

िजनका मनोहर मयूरिप यु मुकुट ीराधाजी के चरण म लोट-पोट होता है, उन
ीकृ  की वना करता ँ ।

अिप च – सदा गायं गायं मधुरतरराधािययशः
सदा सााना नवरसदराधापितकथाः । (ीराधासुधािनिध – २५३)

iv

अथात् मधुराितमधुर ीराधाजी के िय यश एवं घनीभूत आनपा तथा िन नवीन
रस दान करने वाली ीपित माधव की कथाओं का सदैव पुनः पुनः गान करके ........।
काालोचक मनीिषय ने ‘िन’ को का की आा माना है –
“कााा
िनिरित बुधैयः समाात पूवः ......... ” (ालोक)
“रसनेरिन ये चरि संका वोि रह मुाः ।
तेऽबा नव धारयु कुवु शेषाः शुक वा पाठम्” ॥
‘रसिन’ ही का का जीवनाधायक आत होता है, इसके अभाव म उम का
की कना भी नह की जा सकती है; इस ि से सुधािनिध अित महपूण ान पर
आसीन है, रसभाव से पिरपूणतम यह अथाह सुधा का सागर िनय ही रिसक
मुमुुजन का महान उपकारक है । यिप आयावत म िनःेयस के साधक वेद-वेदा,
उपिनषद्, ाण, दशनशा आिद सद्  िवमान ह तथािप वे
सुधािनिध एवं तश सरस कृित के समान मानवमा के उपकारक नह ह िक
वेदािद शा ह ह, अतः सवजन बोध-वे नह हो सकते; शा के नीरस होने से
उनम जनसाधारण की वृि भी नह होती, जबिक सुधािनिध अपनी अनुपम सरसता
के कारण अनिभमुख मानव को भी भगवदिभमुख करने म सवथा सम है । कटु औषध
से शिमत होने वाला रोग यिद मधुर शकरा से न हो जाए तो िकस रोगी को शकरा
अभी नह होगी ? िचवृि का िनरोध ही योग है । दशनशा के अनुसार ‘अा
योग की साधना’ जनसामा की मता का िवषय नह है । रिसक वैवाचाय की
सरस उपासना िचवृि के िनरोध म सम होने के साथ ही अित सुलभ भी है; जबिक
अ िनिवशेष  की उपासना के िवषय म भगवान् ीकृ कहते ह –
ेशोऽिधकतरेषामासचेतसाम् ।
अा िह गितःखं देहविरवाते ॥ (ीमगवीता १२/५)

v

अथात् अ त क-सा है; इस ि से सुधािनिध की उपादेयता तः िस
होती है ।
ज-वसुरा के िलए सवथा समिपत पू ीरमेशबाबामहाराज के
िनदशानुसार ‘ीमानमिर सेवा संान, बरसाना’ के ारा अितीय कृ ित
ीराधासुधािनिध का काशन हो रहा है, यह परम हष एवं सौभाय का िवषय है । इस
पुनीत काय म इन पंिय का लेखक ु बौिक सहयोग देकर यं कृताथता की
अनुभूित कर रहा है । काशन म सहयोग दान करने वाले सुष िनय ही
ीराधामाधव की अहैतुकी अनुका के सवथा पा ह, ऐसा मेरा िवास है । रसमयी
आराधना के साधक रिसक व ैवजन की मनोषकािरणी इस कृ ित के काशन से
अा जगत् िनय ही लाभाित होगा ।
"ीचरण म िनवेदन"
रमणीयतरं पदकमहो, वृषभानुसुते तव भीितहरम् ।
भृशमि भवानल पीिडतकः, पिरपािह सुरेिर मामिनशम् ॥१॥
हे वृषभानुनिनी ीराधे ! परम कमनीय आपके चरणारिव िनय ही भवताप
िवनाशक ह, म संसारानल से अ पीिड़त ँ ।
हे सुरेरी ! आप सदैव मेरी रा कर ।
महतीह दया तव चेतिसया, नवनीत सुकोमलके सुतराम् ।
न िह पयिस पामपाजनम्, मनसीित िनधाय भजे चरणम् ॥२॥
हे ीराधे ! नवनीत के समान कोमल आपके दय म जो महती (अहैतुकी) कृपा
िवमान है, वह पा-अपा का िवचार नह करती, मन म यही िनय कर आपके
चरण का भजन करता ँ ।
ििवणी रािधका मे गितः सवदा, सवलोकैकवा मुनीैनुता ।
पादके तदीये मितः मामकी, सििवा भवेद् याचतेऽयं जनः ॥३॥

vi

सवलोक-लोकार की एकमा वनीया, मुनी की ु ‘सुर माला से
िवभूिषत ीिकशोरी ही एकमा मेरी गित ह, उनके चरणकमल म मेरी मित सििव
हो जाए, यह दास यही कामना करता है ।
याः कदािप पदयोः नखचिकायाः, िदं िनश पवनेन महः सुधांशुः ।
लातुित रहो जलदे िवलीनः, कप-दप-दलनं नितरु तै ॥४॥
िजन सवरी ीरािधकाजू की पद-नख-चिका के िद तेज ‘जो िक कामदेव के
सौयज अिभमान को न करने वाला है’ को पवन के ारा सुनकर पािभमानी
चमा मेघ म िछप गया, उन िकशोरीजी को णाम ीकार हो ।
नैकांशुमािल महसा मवधीरणं यत्, नाजाऽिसतमहो महसा िमिला ।
अावृिष जनयसुरािर चापम्, याः िसतेन शरणं मम साु राधा ॥५॥
ीननन यामसुर का याम तेज अन सूय के तेज को ितरृ त करने वाला
है, वह िजन ीियाजू के गौर तेज से िमलकर िबना वषा ऋतु के भी इधनुष को
उ कर रहा है, वह ीराधा मेरी शरण ह ।
हे ीराधे तव चरणयोनसूनुिनप,
द ैधृा तृणमथ मुः याचते ामभीम् ।
यिन् काले नयन सिललैः ि गाो नताः,
कु ि िहतनयनाऽऽलोकने ां समथा ॥६॥
हे ीराधे ! जब ीकृ च दाँत म ितनका दबाकर आपके चरण म िगरकर, अु
वाह से भगे ए शरीर से नत-मक होकर बार- बार आपसे कृ पा-याचना कर, तब
म कुभवन के िछ म ि डालकर (युगल छिव) को देखने म समथ हो सकूँ (ऐसी
कृ पा कीिजए) ।
यः ीकृ ो वसुसुर सुतो देवकी ननााः,
शााकारो मुिनजन मनः कवासः सुराः ।

vii
नूनं त कृ ित मधुरे मानसे राजते या,
सा मे राधा वृषरिवसुता मानसे राजतां वै ॥७॥
ीदेवकीनन वासुदेव कृ  शााकार ह, मुिनजन के दयकमल पर िनवास करने
वाले ह तथा देवताओं के भी अचनीय ह, िनित ही उनक े भावसुरमानस म जो
वृषभानुनिनी ‘ीराधा’ िवराजमान ह, वह सवरी मेरे दय म िनय ही िवराज,
(यही कामना है) ।
११ फरवरी २०२१, ीकृ कु, मानमिर, बरसाना
िवनयावनत –
िजासूपा गोपालः,
पूव ाचायः

viii
रस की पराविध ‘समरित’
रसराज ृंगार िकंवा मधुरा रित ही  की रसपता को आादनीय
बनाती है । आादन म जो हेतु है वह िवभाव नाम से जाना गया है, िजसके दो भेद ह
–आलन और उीपन; पुनः आलन के दो भेद ह – िवषयालन और
आयालन; रसाादन के िलए दोन ही अपेित ह । “रते आाते इित रसः”
जो आा है, वह रस है । “रसयित आादयित इित रसः” जो आादक है, वह
रस है । इस कार िवषयालन (आा), आयालन (आादक) दोन की
रसपता िस होती है और ये रस ही यहाँ िन ीडायमान है ।
ीिहत ुवदासजी के श म – “नायक तहाँ न नाियका, रस करवावै केिल”
नायक-नाियका म मु-गौण भाव नह है, मुता मा रस की है और इस रस की
दोन (नाियका, नायक) म ही िित है । आादन की ि से कह नायक
‘िवषयालन’ है तो कह नाियका, कह नायक ‘आयालन’ है तो कह नाियका
अथवा ये कह िक दोन ही िवषयालन ह व दोन ही आयालन ह, तभी तो एक
िच है, एक अवा है, एक ही कार की परर ीित है; दोन का शील एक-सा है
और एक-सा ही मृल भाव है, रस-िवलास के िलए दो देह धारण िकए ह –
“एक रंग िच एक वय एकै भाँित ेह । एकै शील सुभाव मृ, रस के िहत दो देह” ॥
(ीुवदासजी कृत रित-मरी)
अथवा
ढूँिढ़ िफरै ैलोक म बसत कँ ुव नािहं । ेम प दोऊ एक रस बसत िनकुँ जिन मािहं॥
(ीुवदासजी कृत ेमावली)
दोन की एकरस िित अथात् एक भाव, एक िच व एक ही ाद है –
ेम रािस दोउ रिसकवर, एक वयस रस एक ।िनिमष न टत अंग-अंग, यहै ँिन कै
टेक ॥अद् भुत िच सिख ेम की, सहज परर होइ ।जैसे एकिह रंग स, भिरये सीसी

ix

दोइ ॥याम रंग यामा रंगी, यामा के रंग याम ।एक ान तन मन सहज, किहबै कौ
ै नाम ॥कबँ लािड़ली होत िपय, लाल िय ै जात । निहं जानत यह ेम रस, िनिस
िदन कहाँ िबहात ॥ (ीुवदासजी कृत रंग-िवहार)
ीिया-ियतम दोन ेम की रािश ह, दोन ही रिसक ह, दोन की एक ही अवा है;
दोन म रस की िित भी एक है, दोन ही गाढ़ आिलन से कभी मु होना ही नह
चाहते, दोन म परर ेम की अुत िच भी सहज है; इ देखकर तो ऐसा तीत
होता है िक एक ही रंग दो शीिशय म भर िदया गया है । याम के रंग से यामा रँगी
ह व यामा के रंग म याम रँग रहे ह; सच तो यह है िक दोन के तन, मन और ाण
सहज प से एक ह, कहने भर को इनके दो नाम ह । देखो तो सही कभी ‘ िया’ ियतम
हो जाती ह तो कभी ‘ियतम’ िया हो जाते ह; यह ऐसा ेम-रस है िक इसम िनम
युगल को यह तक भान नह है िक रात-िदन कब तीत हो रहे ह; ऐसी िित म िकसी
एक को ‘िवषय’ व अ को ‘ आय’ कहना िसा के िव है; दोन को ‘िवषय’ व
दोन को ‘आय’ कहना ही शा-सत है ।
ीिहताचाय महाभु ीयुगल म समान रस की िित मानते ए कहते ह –
“दित रस समतूल” ।
चतुरासीजी का थम पद है – “जोई जोई ारो करै सोई मोिह भावै, भाव ै
मोिह जोई सोई-सोई कर ारे” जो ियतम करते ह वही मुझे अा लगता है और जो
मुझे अभी है, वही ियतम करते ह ।
ीिहताचायजी की वाणी म –
जोई जोई ारो करै सोई मोिह भावै, भावै मोिह जोई सोई-सोई कर ारे । मोक तौ
भावती ठौर ारे के न ैनन म, ारौ भयौ चाहै मेरे ननन के तारे ॥मेरे-तन ान ँत ीतम
िय, अपने कोिटक ान ीतम मोस हारे ।'जैी िहत हिरवंश' हंस-हंिसनी साँवल गौर,
कहौ कौन करै जल-तरंगन ारे ॥

x
ुत पद म ीिया-ियतम दोन म ही िवषय व आय की अुत िित है ।
ीमहावाणीकार की वाणी म –
॥ दोहा ॥
एक भाव िच एकह एक चाव इकर । निहं िबरत ियतम दोउ िवहरत िमिल इकसंग ॥
॥ पद ॥
निहं िबरत पल ियतम दोऊ िवहरत संग सँगे रसरंगे । एकिहं भाव चाव िच एकिहं
एकिहं र रँगे रसरंगे ॥ एकिहं वेष ान मन एकिहं एकिहं अं अँगे रसरंगे । ीहिरिया
िहिलिमले परर ढिर ढिर ढंग ढँगे रसरंगे ॥ (सुरत-सुख ६०)
‘दोन’ दोन के िवषय ह, ‘ दोन’ दोन के आय ह ।
तृन तोरित गावित गुनिन, भा िनरिख जो ऊज । कहत ान के ान ए, रंगभीने दोऊज ॥
दोउ रिसक दोउ सरस सुख, दोउ प के धाम । दोउ दोउन के अँग अँग, भीने हो रंग
ाम ॥
॥ दोहा ॥
तृन तोरित गावित गुनिन, भा िनरिख जोऊज । कहत ान के ान ए, रंगभीने दोऊज ॥
दोउ रिसक दोउ सरस सुख, दोउ प के धाम । दोउ दोउन के अ अ, भीने हो र
ाम ॥
॥ सोिहलौ ॥
रंगभीने हो अंग अंग ाम, दोउ रिसक दोउ पधाम । दोउ सरस दोउ सुख सहेिल,
दोउ ेम-आन-बेिल ॥ दोउ दोउन के उरिन-हार, दोउ दोउन के चमार । दोउ
दोउन के लड़े लाड़, दोउ दोउन के िचत चाड़ ॥ दोउ दोउन के रित मनोज, दोउ दोउन
के िचत के चोज । दोउ दोउन के जीवन जीय, दोउ दोउन के ारी पीय ॥ दाउ दोउन
के कमलन ैन, दोउ दोउन के चन ऐंन । दोउ दोउन की बनी बाल, दोउ दोउन के लिलत

xi
लाल ॥ दोउ दोउन के कवन अंग, दोउ दोउन के सहज संग । दोउ ीहिरिया एक
ान, दोउ दोउन के सहज ान ॥ (उाह-सुख १७३)
ामी ीहिरदासजी की वाणी म –
सम िकसोर जोरी नई, िनत गट भई सुख सार ।
जनम करम िजनके नह, सहज िवहार अहार ॥
“सम िकसोर जोरी नई” दोन िकशोर म िच की, वय की, ीित की समानता है ।
अंग-अंग की उजराई, सुघराई, चतुराई सुरता ऐसै । ीहिरदास के ामी ामा
कुंजिवहारी सम बैसे ॥
अथवा अनुवत आचाय कहते ह –
परर दोउ चकोर दोउ चंदा । दोउ चातक दोउ ाित दोऊ घन दोउ दािमनी अमंदा ॥
दोउ अरिबंद दोऊ अिल लंपट दोउ लोहा दोउ चुंबक । दोउ आसक महबूब दोऊ िमिल जुरे
जुराफा अंबक ॥ दोऊ मुदार दोउ मोर दोऊ मृग दोऊ राग रस भीने । दोउ मिन िबसद
दोउ बर पग दोऊ वािर दोउ मीने ॥ भगवत रिसक िबहारिन ारी रिसक िबहारी ारे ।
दोउ मुख देिख िजयत अधरामृत िपयत होत निहं ारे ॥
(ीभगवतरिसकदेवजी)
रसमाग उपासक के िलए दोन म समान रित की ापना ही करने योय है
और इस िसा को उपरो माण के अनुसार सभी रसमाग ने ीकार िकया है ।
ऐसै ही देखत रह जनम सुफल किर मान । ारे की भाँवती, भाँवती के ारे जुगल
िकसोरिह जानौ ॥ (केिलमाल)
तथािप ीियाजी म िवषय व ियतम म आय की िित (एकाी ेम)
आाद ि से है । यथा – ीिहत पररा म “राधा चरण धान दै अित सुढ़
उपासी” ‘ीराधा’ िवषयालन ह । गौड़ीय पररा म ‘ ी कृ ’ िवषयालन ह –
“असमो सौय लीलावैद सदाम् । आयेन मधुरे हिररालनो मतः” ॥

xii
ततः दोन ही ‘िवषयालन’ ह व दोन ही ‘ आयालन’ ह और यही युगल हमारे
से ह । ीिनाकाचाय भगवान् ‘वेदा दश ोकी’ म कहते ह –
अे तु वामे वृषभानुजां मुदा, िवराजमानामनुपसौभगाम् ।
सखी सहैः पिरसेिवतां सदा, रेम देव सकले कामदाम् ॥
भग व ा न्  ी कृ  के वामा म वृषभानुनिनी ीरािधका स मुा म
िवराजमान ह, जो भगवान् ीकृ  के ही अनुप मनोरम ह, जो हजार सिखय के
ारा सदैव सेिवत ह; ऐसी सकल अभी कामनाओं को दान करने वाली देवी
‘ीिकशोरीजू’ का हम रण करते ह ।
ीआिदवाणीकार कहते ह –
से हमारे ी िय ारी वृािविपन िवलासी ।
ननन वृषभानुनिनी चरण अन उपासी ॥
वु तु ीयुगल-उपासना (दोन म समान रित) ही सभी रस-सदाय
का मुख िसा है, अ सम आादन भेद है ।
डा.रामजीलाल शाी
मानमिर

एक
ी रमेश बाबा जी महाराज
गुण-गिरमागार, कणा-पारावार, युगलल-साकार इन िवभूित िवशेष
गुवर पू बाबाी के िवलण िवभा-वैभव के वणन का आ कहाँ से
हो यह िवचार कर म मित की गित िवथिकत हो जाती है ।
िविध हिर हर किव कोिवद बानी ।
कहत साधु मिहमा सकुचानी ॥
सो मो सन किह जात न कैसे ।
साक बिनक मिन गुन गन जैसे ॥
(ीरामचिरतमानस, बालकाड -३क)
पुनरिप
जो सुख होत गोपालिह गाये ।
सो सुख होत न जप तप की े, कोिटक तीरथ ाये ।
(सूर-िव न य प ि का)
अथवा
रस सागर गोिव नाम है रसना जो त ू गाये ।
तो जड़ जीव जनम की त ेरी िबगड़ी  बन जाये ॥
जनम-जनम की जाये मिलनता उलता आ जाये ॥
(बाबाी ारा रिचत 'बरसाना' से संहीत)
कथनाशय इस पिव चिर के लेखन से िनज कर व िगरा पिव करने
का सुख व जनिहत का ही यास है ।

दो
अेतागण अवगत ह इस बात से िक यह ' लेख' मा सांकेितक पिरचय
ही दे पाएगा अशेष ाद (बाबाी) के िवषय म । सवगुणसमित इन
िद-िवभूित का कष-आष जीवन-चिर कह लेखन-कथन का िवषय है?
"करनी कणािसु की मुख कहत न आवै"
(सूर-िवनयपिका)
मिलन अस् म िस स के वािवक वृ को यथाथ प से समझने
की मता ही कहाँ, िफर लेखन की बात तो अतीव र है तथािप इन लोक-
लोकारोर िवभूित के चिरतामृत की वणािभलाषा ने असं के मन को
िनकेतन कर िलया, अतएव सावभौम महत् वृ को शब करने की धृता
की ।
तीथराज याग को िजने जभूिम बनने का सौभाय-दान िदया ।
माता-िपता के एकमा पु होने से उनके िवशेष वाभाजन रहे ।
ईरीय-योजना ही मूल हेतु रही आपके अवतरण म । दीघकाल तक
अवतिरत िद दित नामध ी बलदेव साद शु ('शु भगवान्'
िज लोग कहते थे) एवं ीमती हेमेरी देवी को सान-सुख अा रहा,
सान-ाि की इा से कोलकाता के समीप तारकेर म जाकर आत
पुकार की, पिरणामतः सन् १९३० पौष मास की समी को राि ९:२७ बजे
कार ी तारकेरी (दीदी जी) का अवतरण आ, अनर दि को
पु-कामना ने िथत िकया । पु-ाि की इा से किठन याा कर
रामेर पँचे, वहाँ जला ाग कर िशवाराधन म तीन हो गये, पु
कामेि महाय िकया । आश ुतोष ह रामेर भु, उस तीाराधन से स
हो तृतीय राि को माता जी को सवजगिवासावास होने का वर िदया ।

तीन
िशवाराधन से सन् १९३८ पौष मास कृ प की समी ितिथ को अिभिजत
मुत मा १२ बजे अुत बालक का ललाट देखते ही िपता (िव के
ात व काड ोितषाचाय) ने कह िदया –
“यह बालक गृह हण न कर नैिक चारी ही रहेगा, इसका
ाभाव जीव-जगत के िनार िनिम ही आ है ।”
वही आ, गु-िश पिरपाटी का िनवाहन करते ए िशायन को तो
गये िकु ब अकाल म अयन समापन भी हो गया ।
"अकाल िवा ब पायी"
गुजन को गु बनने का ेय ही देना था अपने अयन से । सवे-
कुशल इस ितभा ने अपने गायन-वादन आिद लिलत कलाओं से
िवयाित कर िदया बड़े-बड़े संगीत-मातड को । यागराज को भी
काल ही यह सािन सुलभ हो सका "तीथ कुवि तीथािन" ऐसे
अिच शि स असामा पुष का । अवतरणोेय की पूित हेतु दो
बार भागे जभूिम छोड़कर जदेश की ओर िकु माँ की पकड़ अिधक
मजबूत होने से सफल न हो सके । अब यह तृतीय यास था, इियातीत
र पर एक ऐसी िया सिय ई िक तृणतोड़नवत् एक झटके म सवाग
कर पुनः गित अिवराम हो गई ज की ओर ।
िचकूट के िनजन अरय म ाण-परवाह का पिराग कर पिरमण
िकया; सूयवंशमिण भु ीराम का यह वनवास-ल 'पूपाद' का भी
वनवास-ान रहा । “स रिता रित यो िह गभ” इस भावना से िनभक
घूमे उन िहंसक जीव के आतंक संभािवत भयानक वन म ।

चार
आरा के दशन को तृषाित नयन, उपा को पाने के िलए
लालसाित दय अब बार-बार 'पाद-प' को ीधाम बरसाने के िलए
ढकेलने लगा, बस पँच गए बरसाना । माग म अस् को झकझोर देने
वाली अनेकानेक िवलण िितय का सामना िकया । माग का असाधारण
घटना संघिटत वृ यिप अिधक रोचक, ेरक व पुल है तथािप इस
िद जीवन की चचा त प से िभ  के िनमाण म ही सव है,
अतः यहाँ तो संि चचा ही है । बरसाने म आकर तन-मन-नयन
आािक मागदशक के अेषण म तर हो गए । ीजी ने सहयोग
िकया एवं िनरर राधारससुधा िसु म अवित, राधा के पिरधान म
सुरित, गौरवणा की शुोल काि से आलोिकत-अ ल  कृत युगल
सौ म आलोिडत, नाना पुराणिनगमागम के ाता, महावाणी जैसे
िनगूढ़ाक  के ाककता “अन ी स ी ी ियाशरण जी
महाराज” से िश ीकार िकया ।
ज म भािमनी का ज ान 'बरसाना' , बरसाने म भािमनी की िनज
कर िनिमत 'गर-वािटका' "बीस कोस वृािविपन पुर वृषभानु उदार, ताम
गहवर वािटका जाम िन िवहार" और उस गरवन म भी महासदाशया
मािननी का मनभावन मान-ान 'ीमान मिर' ही मानद (बाबाी) को
मनोनुकूल लगा । 'मानगढ़' ाचलपवत की चार िशखर म से एक महान
िशखर है । उस समय तो यह 'बीहड़ ान' िदन म भी अपनी िवकरालता के
कारण िकसी को मिर-ाण म न आने देता । मिर का आिरक मूल-
ान चोर को चोरी का माल िछपाने के िलए था । चौरागय की उपासना
म इन िवभूित को भला चोर से ा भय?

पाँच
भय को भगाकर भावना की – "तराणां पतये नमः" – चोर के सरदार
को णाम है, पाप-प के चोर को भी एवं रकम-बक के चोर को भी ।
'जवासी चोर भी पू ह हमारे' इस भावना से भािवत हो ोहाहण (ोह के
योय) को भी कभी ोह-ि स े न देखा, अेा के जीव प जो ठहर े ।
िफर तो शनैः-शनैः िवभूित की िवमा ने ल को जात कर िदया,
अा की िद सुवास से पिरा कर िदया ।
जग-िहत-िनरत इस िद जीवन ने असं को आोित के पथ पर
आढ़ कर िदया एवं कर रहे ह । ीमैतदेव के पात् किलमलदलनाथ
नामामृत की निदयाँ बहाने वाली एकमा िवभूित के सतत् यास से आज
३२ हजार से अिधक गाँव म भातफेरी के माम से नाम िननािदत हो रहा
है । ज के कृलीला सित िद वन, सरोवर, पवत को सुरित करने
के साथ-साथ सह वृ लगाकर सुसित भी िकया । अिधक पुरानी बात
नह है, आपको रण करा द - सन् २००९ म “ीराधारानी जयाा” क े
दौरान जयािय को साथ लेकर यं ही बैठ गये आमरण अनशन पर इस
संक के साथ िक जब तक ज-पवत पर हो रहे खनन ारा आघात को
सरकार रोक नह देगी, मुख म जल भी नह जायेगा । सम जयाी भी
िनापूवक अनशन िलए ए हिरनाम-संकीतन करने लगे और उस समय जो
उाम गित से नृ-गान आ; नाम के ित इस अटूट आा का ही पिरणाम
था िक १२ घंटे बाद ही िवजयप आ गया । िद िवभूित के अपूव तेज से
साा-सा भी नत हो गयी । गौवंश के राथ गत ६ वष पूव माताजी
गौशाला का बीजारोपण िकया था, देखते ही देखते आज उस वट बीज ने
िवशाल त का प ले िलया, िजसके आतप (छाया) म आज ५०,००० से

छः
अिधक गाय का मातृवत् पालन हो रहा है । संह-पिरह से सवथा परे रहने
वाले इन महापुष की ' भगवाम' ही एकमा सरस सि है ।
परम िवर होते ए भी बड़े-बड़े काय सािदत िकये इन ज-संृ ि त
के एकमा संरक, वक व उारक ने । गत सषि (६७) वष से ज
म ेसास (ज के बाहर न जाने का ण) िलया एवं इस सुढ़ भावना से
िवराज रहे ह । ज, जेश व जवासी ही आपका सव ह । असं जन
आपके साि-सौभाय से सुरिभत ये, आपके िवषय म िजनके िवशेष
अनुभव ह, िवलण अनुभूितयाँ ह, िविवध िवचार ह, िवपुल भाव-साा
है, िवशद अनुशीलन ह; इस लोकोर ि ने िवमुध कर िदया है
िववेिकय का दय । वुतः कृकृपाल पुमान् को ही ग हो सकता है
यह ि । रसोदिध के िजस अतल-तल म आपका सहज वेश है, यह
अितशयोि नह िक रस-ाताओं का दय भी उस तल से अृ ही रह
गया ।
'आपकी आिरक िित ा है' यह बाहर की सहजता, सरलता को
देखते ए सवथा अग है । आपका अरंग लीलान, सुगु भावोान,
युगल-िमलन का सौ इन गहन भाव-दशाओं का अनुमान आपके सृिजत
सािह के पठन से ही सवहै । आपकी अनुपम कृितयाँ – ी रिसया
रसेरी, र वंशी के श नूपुर के, जभावमािलका, भय चिर इािद
दयावी भाव से भािवत िवलण रचनाएँ ह ।
आपका ैकािलक संग अनवरत चलता ही रहता है । साधक-साधु-
िस सबके िलए सल ह आपके ैकािलक रसावचन । दै की सुरिभ से
सुवािसत अुत असमो रस का ोल पु है यह िद रहनी, जो

सात
अनेकानेक पावन आाााद के लोभी मधुप का आकषण के बन
गयी, सैकड़ ने छोड़ िदए घर-ार और अाविध शरणागत ह; ऐसा
मिहमाित-सौरभाित व ृ िवयाित कर देने वाला ाभािवक है ।
रस-िस-स की पररा इस जभूिम पर कभी िवि नह हो
पाई । ीजी की यह 'गर-वािटका' जो कभी पुिवहीन नह होती, शीत हो
या ी, पतझड़ हो या पावस, एक न एक पु तो आरा के आराधन हेतु
ुिटत ही रहता है । आज भी इस अजरामर, सुरतम, शुिचतम,
महम, पु (बाबाी) का जग 'िवाचन' कर रहा है । आपके
अपिरसीम उपकार के िलए हमारा अनवरत वन अनुण णित भी ून
है ।

�ोक सं�ा सू�चका
एक
ोक संा सूिचका

अकात् कािन् नव.............२३२
अितेऽिप दियते िकमिप............४६
अिरधुरतरमहा...........१६२
अितेहाद् उैरिप च....................५४
अा राधाे िनिमषमिप..............२१४
अुतानलोभेन्....................२७०
अ यामिकशोरमौिलरहह..........१६७
अनजयमलिनत.................२२४
अननवरिणी रसतरिणी..........१७७
अनुिानानिप.…...............१५४
अनेन ीता मे िदशित..................२५७
अोहासपिरहासिवलासकेिल......४९
अेे कृ तिनयािप सुिचरं............२३०
अम ेमा थ सकल...............५१
अमयादोीलुरतरसपीयूष........१५२
अलं िवषयवाया नरककोिट...........८३
अिले कािलीतटनवलता.........१६५
अहो तेऽमी कुादनुपम............२०९
अहो ैधीकतु कृ ितिभ…...............२५०
अहो भुवनमोहनंमधुरमाधवी..........१४०
अहो रिसकशेखरः ुरित............१११
आधाय मूिन यदा-पुदारगोः......४
आनाननचमीिरतगापा.......१२३
आशा दां वृषभानुकुमािर.......१९७
ओाोिलतदियतोीण........१८९

इतो भयिमतपाकुलिमतो............१०९
इहैवाभूत् कुे नवरितकला............२१०

उिामृतभुव ैव चिरतं.............२४०
उागरं रिसकनागर-सरैः..........१६
उृमाण-रसवािर-िनधे...............११
उदोमाचयखिचतां .............२०२
उीलवमिदाम……............१५१
उीलिथुनानुरागगिरमो............६४
उीलुकुटटापिरलसि.....१२०
उपाचरणाुजे जभृतां...........१२२

एकं कानचकिव परं...........१६९
एका रितचौर एव चिकतं...........२३३

�ोक सं�ा सू�चका


दो

कदा गायं गायं मधुरमधुरीा........२०१
कदा गोिवाराधनलिलत.............१८३
कदा मधुरसािरकाः रस.............२२१
कदा रुुं कचभरमहं.............१७४
कदा रासे ेमोदरसिवलासे.........१५८
कदा वा खेलौ जनगर...............६५
कदा वा ोाम.......................१९२
कदा वा राधायाः पदकमल............१९१
कदा वृारये मधुरमधुरा............१३७
कदा सुमिणिकिणीवलयनूपुर.......११३
कदािचद् गायी ियरित.............२५५
करं ते पािलं िकमिप कुचयोः........१०५
करे कमलमुतं मयतोिमथ.......१७१
कमािण ुितबोिधतािन िनतरां..........८२
किलिगिरनिनीपुिलन...............९२
किलिगिरनिनीसिलल............१३२
कािचद् वृावननवलता...............१४५
कााायकाा ....................९१
कािः कािप परोला...............२३७
कामं तूिलकया करेण हिरणा .........२०५
कािलीकूलकुमतल.............१२६


कािलीतटकुरमिरगतो...........९५
कािलीतटकुे.........................१९८
िकं ूमोऽ कुठीकृ तक ...........१७५
िकं रे धूवर िनकटं यािस...........१९०
िकं वा नैः सुशाैः िकमथ ........२१६
कुारे िकमिप जातरसो..............४७
कृ ः पो नवकुवलयं ..................८८
कृ ामृतं चल िवगाढु....................१४
केनािप नागरवरेण पदे िनप............९
कैशोराुतमाधुरीभरधुरीणा.............८०
कोटीिवहािसनी नवसुधा........१८२
ीडीनयााः ुरदधर.........२४१
ीडासरः कनकपज...................३५
ासौ राधा िनगमपदवी..............२६०
ाहं मूढमितः  नाम..................२६८

णं मधुरगानतः णमम..........१६६
णं सीत्कुवी णमथ..............२०३
रीव रमनुपमेम...........१५३

खेलुधािमीनुरदधर...........१७२

�ोक सं�ा सू�चका


तीन

गता रे गावो िदनमिप तु..............२२८
गा किलतनया-िवजना.............२३
गाे कोिटतिडिव िवततान.....९८
गौराे मृिदमािते मधुिरमा ..........७४

चकोरे वामृतिकरणिबे........२५१
चाे हिरणाि देिव................११६
चलुिटलकुलं ितलक............१८५
चलीलागा िचद.................२१९
िचामिणः णमतां ज...............२६

जासुषुिषु ुरतु मे...........१६४
ोितःपुयिमदमहो.................२२६

तीयान् नवयौवनोदयमहा.............६८
तत् सौय स च नववयोयौवन........८४
तः ितण-चमृत....................६
ता अपाररससारिवलास..............३९
ताूितजपितसुतः पादयोम......२१८
ताूलं िचदपयािम चरणौ..........१३४
िय यामे िनणियिन............१४९


िद-मोद-रससार-िनजा..............५
कूलं िबाणमथ कुचतटे...............५२
कूलमितकोमलं कलयद्..............१५७
रादपा जनाुखमथ............३२
रे सृािदवाा न कलयित..........२३५
रे िधपररा िवजयतां..............७३
शौ िय रसाुधौ मधुरमीन.........९०
ा य चन िविहताेडने...........६२
ैव चकलतेव चमृताी.........१८
देवानामथ भमुसुदा...............९६

धिं ते नवपिरमलै...............६६
धमाथचतुयं िवजयतां................७७
ायंं िशिखिपमौिल............२५८

न जानीते लोकं न च िनगमजातं.....१४६
न देव ैाैन ख हिरभैन........१४८
नासाे नवमौिकं सुिचरं स्.......२२९
िनजाणेया यदिप दयनीये............५५
िनमाय चामुकुटं नवचकेण.........३०
नीलेीवरवृकािलहरीचौरं......२४५

�ोक सं�ा सू�चका


चार

पाल लिलतां कपोल.................२२२
पावल रचियतुं कुचयोः कपोले......३६
पररं ेमरसे िनमम्................१९६
पातं पातं पदकमलयोः.................२०८
पादशरसोवं णितिभ.............६०
पादाुली-िनिहत-ि....................१५
पीताणिवमन.....................२९
पूणेमामृतरससमुास................१८६
पूणानुरागरसमूित तिडताभां.........४०
ोललामृत ..............१३५
सृमरपटवासे ेमसीमा...............१५९
ातः पीतपटं कदा पन................७५
ियांसे िनिोुलक..................२३४
ीितं कामिप नाममाजिनतो.........५६
ीितरेव मूितमती रसिसोः..........१९९
ेमानरसैकवािरिधमहा................६९
ेमाोिधरसोसिणमा..........२४३
ेमोससिवलास.......................४१
ेमोासैकसीमा परमरस.............१३०
ेः सधुरोल दयं..........७८
ेयःससुधासदानुभिवनी.............१८१


बलान् नीा ते िकमिप.............१०४
ानैकवादाः कितचन.............१४७
ेरािद-सुह..........................२

भूयोभूयः कमलनयने िकं मुध.........२१५
भोः ीदामुबल वृषभ ..............२२७
मूकुिटसुरं ुिरत...............११९

मुभावमिधक.....................२७
मठे िकं नखरिशखया.............१६३
मदाघूणें नवरितरसावेश...........१९५
मदाणिवलोचनं कनकदप............१९४
मे मे कुसुमखिचतं...............२४८
मीकृ  मुकुसुरपद............१४२
मीदामिनबचाकबरं...............१२९
महाेमोीलवरससुधा...............५०
महामिणवरजं कुसुमसयै.........२४७
मालानिशया मृमृी........२४२
िमथःेमावेशाद् घनपुलक.............१९३
िमथोभीकोिटवहद...................१४४
मुापिितमदशना चा..............९९

�ोक सं�ा सू�चका


पाँच

यापः सकृ द् एव गोकुलपते...........९४
यत्-िकंकरीषु बशः ख.................७
यादप-नखच-मिण...............१०
यादाुहैक रेणु किणकां............७२
य य मम जकमिभः.............२६७
यिद कनकसरोजं कोिट.................१६०
यिद ेहाद् राधे िदशिस..................८७
यद् गोिवकथासुधारसदे...........११४
यद् राधापदिकरीकृ तदां............२६५
यद् वृावनमागोचरमहो.............७६
यन् नारदाजेशशुकैरगं..............२३८
ययोीलेलीिवलिसत..............१८७
यीशुकनारदािदपरमाया.........८५
याः कदािप वसनाल..................१
याः ेमघनाकृ तेः पदनख..........२०४
याः ूजदनख मिण............१३६
याुकुमारसुर................१३१
याे बत िकरीषु ...................९३
या वाराधयित ियं जमिणं............९७
यातायातशतेन सिमतयो............१३९
यूनोव दरपानटकला.............२२५
येषां ेां िवतरित नवोदार............१०३

यो --शुक-नारद....................३

रसघनमोहनमूित........................२००
रसागाधे राधािद सरिस..............२३१
रहो दां ताः िकमिप..............११५
रहोगो ोतुं तव िनज................१०६
राकाचो वराको यदनुपम...........१२४
राकानेकिविचच उिदतः..........१२५
राधाकराविचत-पव-वरीके.........१३
राधाकेिलकलासु साििण.............२६६
राधाकेिलिनकुवीिथषु चरन्.........१३८
राधादामपा यः यतते...........७९
राधानामसुधारसं रसियतुं..............१४१
राधानामैव काय नुिदन..............१४३
राधापादसरोजभिमचला............११७
राधापादारिवोिलत...............२१३
राधामाधवयोिविचसुरतारे........१७९
पं शारदचकोिटवदने..............१०८
रोमालीिमिहराजा....................१७८

लीकोिटिवललण................६७
ला य न गोचरी..................२३९

�ोक सं�ा सू�चका


छः
लाःपटमारच रिचत...........१०१
ला दां तदितकृ पया...............८६
लसद्दशनमौिकवर................१८४
लसदनपजा नवगभीर..............१७६
लावयं परमाुतं रितकला...........११८
लावयसाररससारसुख ैक...............२५
लावयामृतवाया जगिददं.............६१
िलखि भुजमूलतो न ख............८१
लीलापातरितैिरव िदशो..............८९
लीलापातरितैदभवेकै............७१
िलतनवलवोदार....................१५५

वही राधायाः कुचकलश...........२६३
िविचरितिवमं दधदनुमाद्.......१७०
िविचवरभूषणोलकूल.............१२
िविचािभभीिवतितिभरहो ..........२४९
िविची केशान् चन...............५३
िवेदाभासमानादहह िनिमषतो.....१७३
िवपितसुपमं िचरवेणुना............५७
वीणां करे मधुमत मधुररां...........४८
वृाटवीकटमथ.....................३३
वृाटां नवनवरसान.............१०७
वृािन सवमहतामपहाय................८
वृारयिनकुमुल....................५९
वृारयिनकुसीमिन..................७०
वृारयिनकुसीमसु सदा...........१२८
वृारये नवरसकला कोमल........२६१
वृावनेिर तवैव........................१२
वेणुः करािपिततः िलतं............३८
वैदग्िसु-रनुराग....................१७
ाकोशेीवरिवकिसता...............१३३
ाकोशेीवराापदकमल...........२२०

शुेमिवलासवैभविनिधः.............२४४
शुेमैकलीलािनिधरहह..............१२७
याम यामेनुपमरसापूण..........२१७
याम यामेमृतरससंा...........२५४
यामामडलमौिलमडन.............१२१
यामे चाटुतािन कुवित..............११०
यामेित सुरवरेित......................३७
ीगोपेकुमारमोहनमहािवे.......१८८
ीगोवधन एक एव भवता.............२२३
ीगोिव जवरवधूवृ.............२५६
ीमिाधरे ते ुरित...............२११
ीमाधे मथ मधुरं..................१६८
ीराधारिसकेपगुण...............२५९

�ोक सं�ा सू�चका


सात
ीरािधकां िनजिवटेन.....................२८
ीरािधके तव नवोमचा..............४४
ीरािधके सुरतरििण....................२०
ीरािधके सुरतरि-िनत.............१९
ीराधे ुितिभबुधैभगवता.............२६९
ोकाेयशोिताृह...............१८०

संकेतकुिनलये मृपवेन.............४२
संकेतकुमनुपव........................३१
संलापमुलदनतरमाला..........४५
सेतकु-मनु-कुर.....................२२
सािप महोवेन मधुरा...........२४६
सेमरािश-सरसो िवकसत्.............२४
सेमिसु-मकर.....................२१
सदा गायं गायं मधुरतरराधा..........२५३
सदानं वृावननवलता.............१५०
सद् गमानवचलव.............४३
सोगी सुयसारसदा.........२६४
सहासवरमोहनाुतिवलास.............५८
सा ूनतनचातुरी िनपमा सा.........६३
सा लावयचमृितनववयो..........१०२
साेमरसौघविषिण..................२०६
साानोदरसघनेम.............२१२
साानुरागरससारसरः..................३४
सुधाकरमुधाकरं ितपद................१६१
सुासुरसतुिलम्..................२३६
सौयामृतरािशरुतमहा.............१५६
िधाकुितनीलकेिश.................१००
ृा ृा मृकरतलेनामं.......२५२
ेदापूरः कुसुमचयनैरतः............२०७

हा कािलि िय मम.................२६२
ुत  म यु छ का िववरण.१२०-१२४
राधे िकशोरी दया करो .....................१२०

श्रीराधासुधा�न�ध

ीराधासुधािनिध ोम्
याः कदािप वसनाल खेलनो
धाितध पवनेन कृताथमानी ।
योगी-गम-गित-मधुसूदनोऽिप
ता नमोऽु वृषभानुभुवो िदशेऽिप ॥१॥
नमाराक मंगलाचरण –
िजन वृषभानुनिनी के नीलाल के िकसी लीला म उठने से अित ध
वायु का श पाकर योगी को भी अित लभ गित वाले मधुभोगी (कृ भी)
अपने को कृ ताथ मानते ह, उनकी िदशा को नमार है ।
ेरािद-सुह-पदारिव –
ीमराग-परमाद्भुत-वैभवायाः ।
सवाथसार-रसविष-कृ पा-ेस् –
ता नमोऽु वृषभानुभुवो मिहे ॥२॥
उनकी मिहमा को नमार –
ि े ीचरण का ीपराग परमाुत वैभव यु है, जो ा-शंकर आिद
को भी लभ है और िजनकी ‘ कृ प ा-रस से भीगी ि’ सार-वु ‘ेम’ की वषा करती
है, उ वृषभानुनिनी की मिहमा को नमार है ।
यो --शुक-नारद-भीमुै –
रालितो न सहसा पुष त ।
सो-वशीकरण-चूण-मन-शिम्
तं रािधका-चरणरेणु-मनुरािम ॥३॥

श्रीराधासुधा�न�ध


ीपदरेणु-रण –
जो ‘परम पुष ीकृ ’ ाजी, िशवजी, शुकदेवजी, नारदजी और
भीजी जैसे महाभागवत को भी सरलता से िदखाई नह पड़ते ह, उ को तण
वश म करने वाले चूण के समान अन शिशाली ‘ ीराधाचरणरज-कण’ का
बार-बार रण करता ँ ।
आधाय मूिन यदापुदारगोः
कां पदं ियगुणैरिप िपमौलेः ।
भावोवेन भजतां रसकामधेनुम्
तं रािधका चरणरेणुमहं रािम ॥४॥
ीपदरेणु-रण –
ज की उदार गोिपय ने भी िजस रज को मक पर चढ़ाकर अपना
इित पद, मोरमुकुटी ीकृ का भी का ‘ीराधारानी के दा’ को ा िकया
था, भावभि से भजने वाल के िलए कामध ेनु के समान ‘ीजी की उस चरणधूिल’
का बार-बार रण करता ँ ।
िद-मोद-रससार-िनजास –
पीयूषवीिच-िनचयै-रिभषेचयी ।
कपकोिट-शर-मूित-नसूनु –
सीवनी जयित कािप िनकुदेवी ॥५॥
जयघोष –
जो अलौिकक आन और रस के सार अपन े िद अ-स प
अमृतमयी लहर से सचकर करोड़ काम के बाण से पीिड़त नलाल को जीवन
देने वाली ह, िजनका वणन नह हो सकता; ऐसी उन ‘िनकु-देवी’ की जय हो ।

श्रीराधासुधा�न�ध

तः ितण-चमृत-चालीला –
लावय-मोहन-महा-मधुराभि ।
राधाननं िह मधुरा-कलािनधान –
मािवभिवित कदा रसिसुसारम् ॥६॥
िदा (दशन-इा) –
ितण चमारपूण सुर लीलाओं के लावय (सौय) से मोिहत करने
वाली महामधुर अवयव (ने आिद) की भिमाओं से यु तथा कामकला का
एकमा आय ‘ीराधाजी का मुख’ जो िक रस पी सागर का सार प है, वह
हमारे सम कब कट होगा ?
यत्-िकं करीषु बशः ख काकुवाणी
िनं पर पुष िशखडमौलेः ।
ताः कदा रसिनधे-वृषभानुजाया –
ेिलकु भवनाणमाजनीाम् ॥७॥
सोहनी बनने की इा –
प ुष मोरम ुकुटी िजनकी दािसय से िन ही कातर-वाणी से ाथनारत
रहते ह, उन रसिनधान ‘वृषभानुनिनी के केिल-कु-भवन’ के ाण की सोहनी देने
वाली म कब होऊँ गी ? (िजसम वेशाथ कृ  भी ाथना करते ह ।)
वृािन सवमहतामपहाय राद् –
वृाटवीमनुसर णयेन चेतः ।
सारणीकृ त सुभाव सुधारसौघम्
राधािभधानिमह िद िनधानमि ॥८॥

श्रीराधासुधा�न�ध


यं को िशा –
अरे मन ! तू सम महाओं (साधन-सा) के समूह को र से ही
ागकर ेमपूवक वृावन का ही अनुसरण कर, िजस वृावन म सुष को
संसार-सागर से पार करने के िलए भाव-सुधा-रस का समूह प ‘ीराधा’ नामक
िद आय है ।
केनािप नागरवरेण पदे िनप
सािथतैक-पिरर-रसोवायाः ।
सू-िवभंग-मितरंगिनधेः कदा ते
ीरािधके निह नहीित िगरः णोिम ॥९॥
रसमय  की ाि की िनषेधाकता –
हे ीराधे ! कोई लोकातीत चतुर िशरोमिण (कृ ) आपके ीचरण म
िगरते ए, आपसे एक बार पिररण, जो रसमय सुख का उव है, ऐसे आिलन
को माँग रहे ह और आप अपनी भौह को रसमय मरोड़ दे करके ‘नह-नह ...’ कर
रही ह; उस िनषेधाक-कौतूहल की आप िनधान ह, उस ‘ नह-नह ...’ की वाणी को
म कब सुनूँगी ?
यादप-नखच-मिणटायाः
िवूिजतं िकमिप गोपवधूदिश ।
पूणानुराग-रससागर-सारमूितः
सा रािधका मिय कदािप कृपां करोतु ॥१०॥
कृ पा की ाथना –
सम गोिपयाँ िजन ‘ीजी के ीचरणकमल की ीनखचमिण’ की
छटा का िवकासमा ह; िजसकी काि का काश गोिपय म देखा जाता है, जो

श्रीराधासुधा�न�ध

‘ीराधा’ सूण अनुराग-रस-समु की मूितमती सारपा ह, वे ‘रािधका’ मुझ पर
कभी भी कृ पा करगी ?
उृमाण-रसवािर-िनधेरंगै –
रैिरव णयलोल-िवलोचनायाः ।
ताः कदा नु भिवता मिय पुयि –
वृाटवी-नविनकु-गृहािधदेाः ॥११॥
कृ प ा ि -ाि की ास –
ि े सभी अ उमड़ते ए रस-समु की लहर की तरह ह, उन णय से
चल ने वाली ‘ीवन के नव-िनकु महल की अिधातृ देवी’ की पिव ि मुझ
पर कब होगी ?
वृावनेिर तवैव पदारिवम्
ेमामृतैक-मकर-रसौघपूणम् ।
िपतं मधुपतेः रतापमुम्
िनवापयत्-परमशीतल-मायािम ॥१२॥
ीचरणाय की अनता –
हे वन की अधीरी राधे ! तुारे ‘चरणकमल’ ही एकमा ेमामृत प
मकर-रस वाह से भरे ए ह, िजनके आादक ीकृ ह, िजनका उट काम-
ताप उससे शा हो जाता है; म उ परम शीतल ‘चरणकमल’ का सूण आय
लेती ँ ।
राधाकराविचत-पव-वरीके
राधापदा-िवलसन्-मधुरलीके ।

श्रीराधासुधा�न�ध

राधायशो-मुखर-म-खगावलीके
राधा-िवहार-िविपने रमतां मनो मे ॥१३॥
मन को िशा –
जह ं के कोमल पे राधारानी के ही करकमल से सजाये ए ह,
जहाँ के मधुर ल उ के चरणिच से िचित ह और जहाँ के ेमम पीगण
उ के यशगान म म रहते ह; मेरा मन ‘ीराधा के उसी केिलवन’ म रम जाए ।
कृामृतं चल िवगाढु-िमतीिरताहम्
तावत्-सह रजनी सिख यावदेित ।
इं िवह वृषभानुसुतेह ले
मानं कदा रसद-केिलकद-जातम् ॥१४॥
ीजी से पिरहास –
जब ीजी मुझसे कहगी – ‘हे सखी ! कृ ामृत म ान करने के िलए चल
(अथात् यमुनाजल के बहाने कृ -िमलन के िलए चल) ।’ तब म उर ँगी – ‘हे
सखी ! रात आने तक धैय धारण करो (िक िवलास का समय राि उिचत है) ’ ।
मेरे हा-वचन से केिल-रण का आन उ होगा (तब वृषभानुनिनी
‘कद-पु से ताड़ना प’ मुझे सान दगी); तब रसदायक केिल-समूह से उ
‘मान’ को कब ा कँगी ?
(यमुना-ान को ‘कृ -िमलन’ म बदल िदया, यह भाव है ।)
पादाुली-िनिहत-ि-मपिपुम्
रादी रिसके-मुखेिबम् ।
वीे चलदगितं चिरतािभरामाम्
झार-नूपुरवत बत किह राधाम् ॥१५॥

श्रीराधासुधा�न�ध


दशन की इा –
र से रिसके ीकृ  के मुखचमडल को देखकर िजने िमलन के
िलए कुभवन को जाती ई अपनी ला भरी ि को अपने ही चरण की अँगुिलय
म लगा िदया है, व े झत नूपुर वाली, सुर लीला वाली ‘ीराधा’ ा कभी मुझे
दशन दगी ?
उागरं रिसकनागर-सरैः
कुोदरे कृतवती नु मुदा रजाम् ।
सुािपता िह मधुनैव सुभोिजता म्
राधे कदा िपिष मरलािलतांिः॥१६॥
चरण-संवाहनािद की इा –
हे ीराधे ! आपने अपने ारे चतुर ीयाम के साथ कु-भवन म ेम-
िवहार के आन म सारी रात जागकर ही िबता दी । सुर ान एवं मधुर भोजन
कराकर म कब अपने हाथ से आपकी चरण-सेवा कँ और आप शयन करगी ?
वैदिसु-रनुराग-रसैकिसु –
वािसु-रितसा-कृ पैकिसुः ।
लावयिसु-रमृतिव-पिसुः
ीरािधका ुरतु मे िद केिल िसुः ॥१७॥
अनेक िसुओं का सििलत प ‘ीराधा’ –
सम षोडशािद कलाओं म िनपुणता की िसु, अनुराग-रस की िसु,
वा की िसु, घनीभूत कृ पा की एकमा िसु, लावय की िसु, अखड
काि वाले प की िसु और ीड़ा-िसु ‘ीराधा’ हमारे दय म ुिरत ह ।
(गीत ं वां तथा नृं यं संगीतमुते।)

श्रीराधासुधा�न�ध

ैव चकलतेव चमृताी
वेणुिनं  च िनश च िवलाी ।
सा यामसुर-गुणै-रनुगीयमानैः
ीता पिरजतु मां वृषभानुपुी ॥१८॥
ीजी के आिलन-कृ पा का पुरार –
जो ‘ीराधा’ अपने ारे याम को देखते ही सभी अ से चकलता के
समान फुित हो जाती ह, उनके वंशीनाद को सुनकर िवल हो जाती ह, वे मेरे
ारा गाये ए अपने ियतम याम के गुण को सुनकर मुझे सेम आिलित
करगी ।
ीरािधके सुरतरि-िनतभागे
काीकलाप-कलहंस-कलानुलापैः ।
मीर-िशित-मधुत-गुितांि –
पेहैः िशिशरय रसटािभः ॥१९॥
रस-छटा के अिभिसन का पुरार –
हे राधे ! सुरत-ीड़ा-रंगी िनत वाली आपकी ‘कधनी’ की झनकार ही
हंस का सुर णन है, आपके ीचरणकमल-नूपुर की झनकार ही मदम भौर
का गुन है; आप अपनी रसभरी छटाओं से मुझे शीतल कर ।
ीरािधके सुरतरििण िदकेिल –
कोलमािलिन लसद्-वदनारिवे ।
यामा-मृताुिनिध-सम-तीवेिग –
ाव-नािभिचरे मम सिधेिह ॥२०॥

श्रीराधासुधा�न�ध

सामी-ाि की याचना –
हे राधे ! देवनदी के समान आप िद लहर की माला वाली, शोिभत
कमलमुख वाली, कृ  पी नीले सागर से संगम के िलए ती वेग वाली, नािभप
भँवर वाली ! आप मुझे अपना साि दान कर ।
सेमिसु-मकर-रसौघधारा –
सारा-नज-मिभतः वदाितेषु ।
ीरािधके तव कदा चरणारिवम्
गोिव-जीवनधनं िशरसा वहािम ॥२१॥
ीचरण-धारणेा –
ि ‘ीजी के चरणकमल’ गोिव के जीवन-धन ह, उ कब अपने िसर
पर धँगी, जो चरणाित पर शु ेमसागर के सुा मकर रस की सार ‘ धारा’
को चतुिदक् बरसाते रहते ह ।
सेतकु-मनु-कुर-मगािम –
ादाय िद-मृ-चन-गमाम् ।
ां कामकेिल-रभसेन कदा चलीम्
राधेऽनुयािम पदवी-मुपदशयी ॥२२॥
‘िमलन-कु’ की सेवा –
आप ‘िमलन-कु’ म काम-ीड़ा की उठा से गजगािमनी प से आ
रही ह; म शीतल, कोमल चन एवं सुगित पुमाला आिद िद सामी लेकर
उस कु का ल कराती ई आपका कब अनुगमन कँगी ?

श्रीराधासुधा�न�ध
१०
गा किलतनया-िवजनावतार –
मुय-मृत-म-मनजीवम् ।
ीरािधके तव कदा नवनागरेम्
पयािम म नयनं ितमुनीपे ॥२३॥
यमुना-ान –
हे ीरािधके ! आप ानाथ कािली के िकसी िनजन घाट पर पधार और
म िद काम को जीवन देने वाले आपके उन ी-अ का जब उबटन कँ, उस
समय पास के ऊँचे कद पर ‘चतुरिशरोमिण कृ को आपको देखते ए’ कब
देखूँगी ?
सेमरािश-सरसो िवकसत्-सरोजम्
ान-सीधु-रसिसु-िववनेम् ।
तीमुखं कुिटल-कुल-भृजुम्
ीरािधके तव कदा नु िवलोकिये ॥२४॥
‘ीमुखकमल’ दशनेा –
हे राधे ! म कब आपके उस ‘ीमुखकमल’ का दशन कँगी, जो ेम-
पु के सरोवर का िखला आ कमल है, जो आनंददायक मादक रससमु को बढ़ाने
वाला पूण च है; िजस मुखकमल के चार ओर घुँघराली लट मतवाले भौर के
समान लटक रही ह ।
लावयसाररससारसुखैकसारे
कायसारमधुरिवपसारे ।

श्रीराधासुधा�न�ध
११

वैदसाररितकेिलिवलाससारे
राधािभधे मम मनोऽिखलसारसारे ॥२५॥
सम सार वुओं का सार ‘ीराधा’ –
जो लावय का सार है, रस का सार है, सभी सुख का एकमा सार है,
कणा का सार है, मधुर छिव वाले प का सार है, चतुरता का सार है, रितीड़ा क े
िवलास का भी सार है; वही राधा नामक त सभी सार का सार है, उसी म मेरा मन
रमण करे ।
िचामिणः णमतां जनागरीणाम्
चूडामिणः कुलमिणवृषभानुनाः ।
सा यामकामवरशािमिणिनकु –
भूषामिणदयसुटसिणनः ॥२६॥
सभी का सार मिण प ‘राधा’ –
जो णाम करने वाल के िलए िचामिण ह, जो ज की नवीन तिणय
की चूड़ामिण ह, जो वृषभानुजी के वंश की मिण ह, जो यामसुर के काम की
शाि की े मिण ह, जो िनकु-भवन की भूषणमिण ह; वही मेरे दय की िद
मिण ‘ीराधा’ ह ।
मुभावमिधकलतािनकुम्
मुतकृपारसपुमेव ।
ेमामृताुिधमगाधमबाधमेतम्
राधािभधं ुतमुपाय साधु चेतः ॥२७॥
आय का चमार –
हे मेरे साधु मन ! (साधु कहने से सम दैवी सियाँ अपने आप आ

श्रीराधासुधा�न�ध
१२
गय ।) तू उसी राधा नाम वाले ेमामृत के अगाध और अबाध समु का शी
आय कर, िजनका भाव अित कोमल है तथा जो कवृ के िनकु म िवराजती
ई अुत कृ पारस-रािश का िवतरण करती रहती ह ।
(‘अबाध’ कहने से ताय - कष की बाधा नह आयेगी) ।
ीरािधकां िनजिवटेन सहालपीम्
शोणाधरसृमरिवमरीकाम् ।
िसरसंविलतमौिकपंिशोभाम्
यो भावयेशनकुवत स धः ॥२८॥
रिसकजन की धता –
ीरा अपने म ला प से आस कृ के साथ बात म लगी ह,
िजससे उनके लाल-लाल ओठ से िनकलती ई सौय-रािश चार ओर फैल रही है,
िजनकी दपंि िसर से सनी मोितय की लड़ी को भी लित कर रही ह तथा जो
कुकली के समान द-पंि वाली ह; ऐसी ‘ीराधा’ का जो ान करता है, वह
ध है ।
पीताणिवमनतिडताभाम्
ौढानुरागमदिवलचामूितम् ।
ेमादां जमहीपिततिहो –
गिववनिस तां िनदधािम राधाम् ॥२९॥
अःकरण म सााार –
उन ‘ीराधा’ को अपने मन म धारण करती ँ, िजनकी छिव पीले और
ललायी से िनकले ए णवत् है; इनकी आभा अन िवुतमाला की चमक के

श्रीराधासुधा�न�ध
१३
समान है, िजनकी सुर मूित ौढ़ अनुराग से िवल है और जो न और यशोदा के
िलए गोिव के समान ेमपा ह ।
िनमाय चामुकुटं नवचकेण
गुािभरारिचतहारमुपाहरी ।
वृाटवीनविनकुगृहािधदेाः
ीरािधके तव कदा भिवताि दासी ॥३०॥
कृ प ापा बनने की ाथना –
हे ीराधे ! आप ीवन के नवीन िनकु की अिधदेवी ह । नई-नई मयूर की
चिकाओं से िनिमत सुर मोरमुकुट और गुा (घुँघची) से बने हार का उपहार
आपको देने वाली आपकी दासी म कब बनूँगी ?
संकेतकुमनुपवमारीतुम्
तसादमिभतः ख संवरीतुम् ।
ां यामचमिभसारियतुं धृताशे
ीरािधके मिय िवधेिह कृपाकटाम् ॥३१॥
कृ प ा ि -ाि की ाथना –
मेरे मन म यही आशा है िक संकेत-कु म नई-नई पव की सुर शा
बनाकर वहाँ ियतम याम से िमलाने के िलए आपको िछपाकर ले जाऊँ, इस सेवा से
आप स हो जायगी; ऐसी कृ पा कर ।
रादपा जनाुखमथकोिटम्
सवषु साधनवरेषु िचरं िनराशः ।

श्रीराधासुधा�न�ध
१४

वषमेव सहजाुतसौधाराम्
ीरािधकाचरणरेणुमहं रािम ॥३२॥
ीजी की चरणरेणु का रण –
अपने ममताद जन और करोड़ सिय के सुख को र से ही
छोड़कर, परमाथ के सभी उ साधन से िनराश होकर आयमयी सुखधारा को
बरसाने वाली ‘ीरािधका के चरणरज-कण’ का म रण करती ँ ।
वृाटवीकटमथकोिटमूः
कािप गोकुलिकशोरिनशाकर ।
सवसुटिमव नशातकु –
कुयं र मनो वृषभानुपुाः ॥३३॥
िचय ‘ी-न’ रण –
ओ मेरे मन ! तू वृषभानु लािड़ली क े दोन न का रण कर, जो युगल
णकलश के समान ह और जो ीवृावन म िवराजमान करोड़ काममूित के
समान गोकुल चमा कृ  के सूण धन की िपटारी के समान ह ।
साानुरागरससारसरः सरोजम्
िकं वा िधा मुकुिलतं मुखचभासा ।
तूतननयुगं वृषभानुजायाः
ानसीधुमकरघनं रािम ॥३४॥
अाकृ त न का रण –
वृषभानुनिनी ीराधाजी के िन नवीन ‘युगल न’ घनीभूत अनुराग-
रस के सार पी सरोवर म उ कमल के समान ह और वही ‘न-कमल’
मुखच की काि से दो प म मुकुिलत हो रहे ह तथा परमान क े मादक

श्रीराधासुधा�न�ध
१५
(मोहक) एवं घनीभूत मकर-रस से पिरपूण ह; म उन दोन न का ान
करती ँ ।
ीडासरः कनकपजकुड् मलाय
ानपूणरसकतरोः फलाय ।
तै नमो भुवनमोहनमोहनाय
ीरािधके तव नवनमडलाय ॥३५॥
िचय ‘ी-न’ रण –
हे े ! लीला-सरोवर की सुनहरी दो कमल-कली के समान आपके
अपने ही आन से पूण, रस-कवृ फल के समान िलोकी को मोहन करने वाले
मोहनलाल को भी मोिहत करने वाले आपके िन नवीन ‘न-मडल’को
नमार ।
पावल रचियतुं कुचयोः कपोले
बुं िविचकबर नवमिकािभः ।
अं च भूषियतुमाभरणैधृताशे
ीरािधके मिय िवधेिह कृपावलोकम् ॥३६॥
कृ प ाि की ाथना –
मेर ए िक आपके दोन न-
मडल पर और कपोल पर िचावली बनाऊँ और मिका (बेला) के नए-नए फूल
को गूँथकर िविच रीित से आपका जूड़ा बनाऊँ एवं सुर कोमल अ म गहने
स ज ा ऊँ ।
यामेित सुरवरेित मनोहरेित
कपकोिटलिलतेित सुनागरेित ।

श्रीराधासुधा�न�ध
१६

सोठमि गृणती मुराकुलाी
सा रािधका मिय कदा नु भवेसा ॥३७॥
ेम-वैिची –
जो िदन म उठा से भरकर “हे याम ! हे सुर !! हे े !!! हे मन का
हरण करने वाले !!! हे करोड़ कामदेव से भी सुर !!! हे चतुर िशरोमण े !!!” इन
श को बारार गाती ह, वे ाकुल ने वाली ‘ ीरािधका’ मुझ पर कब स
हगी ?
वेणुः करािपिततः िलतं िशखडम्
ं च पीतवसनं जराजसूनोः ।
याः कटाशरपातिवमूित
तां रािधकां पिरचरािम कदा रसेन ॥३८॥
रसभरी इा –
िजनके ने के बाण की चोट से जराज नकुमार के हाथ से मुरली िगर
पड़ती है और मक का मोरमुकुट भी िखसक जाता है, यहाँ तक िक पीतार भी
ट जाता है तथा वे मूित होकर िगर जाते ह; ऐसी ‘ीराधा’ की म कब ेम से
सेवा कँगी ?
ता अपाररससारिवलास मू –
रानकपरमाुतसौलाः ।
ािदगमगते वृषभानुजायाः
कैयमेव मम जिन जिन ात् ॥३९॥
ती इा –
जो अपार रस के सागर की िवलासमूित ह, आन की मूल ह, परमाुत

श्रीराधासुधा�न�ध
१७
सुख की सित ह, िजनकी ग ित ा आिद भी नह जान सकते; उन
वृषभानुलािड़ली का कैय (दासी भाव) मुझे ेक ज म ा हो ।
पूणानुरागरसमूित तिडताभम्
ोितः परं भगवतो रितमहम् ।
यारि कृपया वृषभानु गेहे
ािरी भिवतुमेव ममािभलाषः ॥४०॥
‘ीमुख’ रण –
ज े ही वृषभानुभवन म कट ई ह, जो रहमयी परम ोितमयी
ह, जो िवुता के समान दीिमती ह; जो परम पुष भगवान् कृ  को भी अपने
आप म रमण करा लेती ह, जो पूण अनुराग-रस की मूित ह; म उनकी दासी बनूँ ,
यही इा है ।
ेमोससिवलासिवकासकम्
गोिवलोचनिवतृचकोरपेयम् ।
िसमुतरसामृतचिकौघैः
ीरािधका वदनचमहं रािम ॥४१॥
‘ीमुखच’ रण –
ज ेम के उास से भरे ए रसमय िवलास क े िवकास का बीज है और
गोिव के ासे ने चकोर के िलए पानप है, उस अुत रसामृत चिकाओं के
समूह से ीकृ  एवं सिखय को सचने वाले ‘ीराधामुखच’ का रण करती
ँ ।

श्रीराधासुधा�न�ध
१८
संकेतकुिनलये मृपवेन
ृे कदािप नवसंगभयपााम् ।
अाहेण करवािरहे गृहीा
नेे िवटेशयने वृषभानुपुीम् ॥४२॥
ती इा –
 े समय भय और ला से भरी ई वृषभानुलािड़ली को
संकेितत कु-सदन म अ आहपूवक उनका करकमल पकड़कर कोमल पव
से बनी ‘जार-िशरोमिण की शा’ पर कब ले जाऊँ गी ?
(नयो नेह नव रंग नयो रस, नवल याम वृषभान ुिकशोरी । (िहत चतुरासी)
‘िचय वपु’ म िन नवीनता रहती है, इसिलए िन नवीन िमलन होता है,
िजसकी कना ाकृ त रा म हम लोग नह कर सकते ।)
सद् गमानवचलवस –
ताूलसुटमधीिर मां वहीम् ।
यामं तमुदरसादिभसंसरी
ीरािधके कणयानुचर िवधेिह ॥४३॥
उट अिभलाषा –
हे राधे ! आप अपनी कृ पा से मुझे ऐसी दासी बनाइये िक जब आप रस के
उाद से भरकर अपने ियतम के समीप जाने लग, उस समय सुगित मालाय
तथा नए कपूर लवंगयु ताूल (पानदान) लेकर चँ ।
ीरािधके तव नवोद्गमचावृ –
वोजमेव मुकुलयलोभनीयम् ।

श्रीराधासुधा�न�ध
१९
ोण दधसगुणैपचीयमानम्
कैशोरकं जयित मोहनिचचोरम् ॥४४॥
ती इा –
हे ीराधे ! आपके कमल की किलय के समान मोिहत करने वाले दो
उभरेए गोलाकार न, ीकृ के िन भोग आिद गुण ारा बढ़ता आ
ोिणभार, उनके भी िच को हरण करने वाला आपका नव कैशोर िवजय को ा हो
रहा है ।
संलापमुलदनतरमाला –
संोिभतेन वपुषा जनागरेण ।
रं रदपाररसामृतािम्
ीरािधके तव कदा नु णोरात् ॥४५॥
अिभलाषा –
आपकी ‘बातचीत’ जो अनेक काम की लहर की माला से उछलते ए
ीवपु को आनित कर रही है, ऐसे कृ के साथ िजस वाता म ेक अर
रसामृतिसु का झरना बना है, उस महामधुर वाता को िनकट से कब सुनूँगी ?
अितेऽिप दियते िकमिप लापम्
हा मोहनेित मधुरं िवदधकात् ।
यामानुरागमदिवलमोहनाी
यामामिणजयित कािप िनकुसीि ॥४६॥
ेम-वैिची –
गोद म ित होने पर भी अकात् ‘हा मोहन !’ ऐसा लाप करने लगती

श्रीराधासुधा�न�ध
२०

ह, ऐसी कृ के अनुराग के मद से िवल और मधुर अवाली िन ‘िकशोरीमिण’
िनकु-देश म िवजय को ा हो रही ह ।
कुारे िकमिप जातरसोवायाः
ुा तदालिपतिशंिजतिमितािन ।
ीरािधके तव रहःपिरचािरकाहम्
ारिता रसदे पितता कदा ाम् ॥४७॥
उट इा –
आप िनभृत िनकु म ियतम के साथ िकसी गु रसोव म म ह,
िजसम आभूषण की िन से िमली ई आपकी मधुर बातचीत सुनाई पड़ रही है; म
ऐकािक पिरचािरका होकर उसे कब सुनूँ और सुनकर रस-सरोवर म डूब जाऊँ ?
वीणां करे मधुमत मधुररां ता –
माधाय नागरिशरोमिणभावलीलाम् ।
गायहो िदनमपारिमवाुवष –
ःखायहह सा िद मेऽु राधा ॥४८॥
ेम-िवरह का वणन –
मधुर र वाली ‘मधुमती’ नाम की अपनी वीणा को करकमल से उठाकर,
चतुरिशरोमिण ियतम की भाव-लीलाओं को गाती रहती ह; िनरर आँसुओं को
बहाते ए िवरहज क से िदन िबताती ह; ऐसी ेम से िवल ‘ीराधा’ मेरे दय म
िनवास कर ।
अोहासपिरहासिवलासकेिल –
वैिचजृितमहारसवैभवेन ।

श्रीराधासुधा�न�ध
२१
वृावने िवलसतापतं िवदध –
ेन केनिचदहो दयं मदीयम् ॥४९॥
िवलासरस –
व परर के हास-पिरहास से यु िवलास-ीड़ा की िविचता से
भरी ई एवं महारस के वैभव से भरी ई लीला करने वाले िक ‘चतुरिशरोमिण
युगल’ ने मेरा िच छीन िलया है ।
महाेमोीलवरससुधािसुलहरी –
परीवाहैिवं पयिदव नेानटनैः ।
तिडालागौरं िकमिप नवकैशोरमधुरम्
पुरीणां चूडाभरणनवरं िवजयते ॥५०॥
जयपा िकशोरी –
ि े मधुर, ज की
चतुर नाियकाओं की िशरोभूषण, नवीन रपा ‘ीराधा’ सवािधक उृ प से
शोिभत ह; जो अपने कटा के नतन से, महाेम से कट होने वाले रसामृतिसु
की लहर के वाह से, अन िव को ान करा रही ह; उनकी जय हो ।
अम ेमा थ सकल िनब दयम्
दयापारं िदिव मधुर लावय लिलतम् ।
अलं राधां िनिखलिनगमैरिततराम्
रसाोधेः सारं िकमिप सुकुमारं िवजयते ॥५१॥
वेद म अल ‘िकशोरी’ वणन –
ती व शु ेम के कारण िजनके सभी आह िशिथल हो गए ह, जो
अलौिकक काि के कारण ‘माधुय और लावय’ से लिलत बनी ई ह, वे दयाता

श्रीराधासुधा�न�ध
२२
की सीमा ह; सम वेद से अ अलित ह, रस-समु की सार ह; उन
अिनवचनीय सुकुमारी ‘ीराधा’ की जय हो ।
कूलं िबाणामथ कुचतटे कुकपटम्
सादं ािमाः करतलदं णयतः ।
ितां िनं पा िविवधपिरचयकचतुराम्
िकशोरीमाानं िकिमह सुकुमार नु कलये ॥५२॥
कैय का प –
 े ारा ेमपूवक अपने करकमल से दी ई सादी
ओढ़नी और चोली धारणकर म िनित अपने आपको ऐसी सुकुमार िकशोरी के प
म अनुभव कँगी जो अनेक सेवाओं म पूण िनपुण है तथा आपके िन समीप म
ित है ।
िविची केशान् चन करजैः कुकपटम्
 चाामुी कुचकनकदीलशयोः ।
सुगुे ी चन मिणमीरयुगलम्
कदा ां ीराधे तव सुपिरचािरयहमहो ॥५३॥
सेवा का प –
हे े ! ा कभी अँगुिलय से आपके केश को सुलझाती ई, आपके
िद णकलश के समान गोल िद नमडल पर कुकी धारण कराती ई
और कभी आपके गु म मिणनूपुर पहनाती ई दासी बनूँगी ?
अितेहाद्-उैरिप च हिरनामािन गृणतस् –
तथा सौगाैबिभपचारै यजतः ।

श्रीराधासुधा�न�ध
२३
परानं वृावनमनुचरं च दधतो –
मनो मे राधायाः पदमृलपे िनवसतु ॥५४॥
सभी उपासनाओं का ल ‘कै य’ –
प े ेह से उ र से हिरनाम को लेते ए, सुग आिद अनेक
सामिय से पूजन करते ए, परमान को धारण करते ए, धामवास करते ए, मेरा
मन ‘राधारानी के कोमल चरणकमल’ म ही रहे ।
िनजाणेयाः यदिप दयनीयेयिमित माम्
मुुािलितसुरतमाा मदयित ।
िविचां ेहि रचयित तथाुतगतेस् –
तवैव ीराधे पदरसिवलासे मम मनः ॥५५॥
िकरी भाव की अनता –
ि ेरी ‘ीराधा’ की दयापा जानकर मुझे बार-बार
चुन, आिलन यु सुरत-माधुरी से म बना देते ह; इस कार की ेहवृि की
रचना करते ह, िफर भी मेरा मन हे ीराधे ! आपके ीचरण के ही रस-िवलास म
रहता है ।
ीितं कामिप नाममाजिनतोामरोमोमाम्
राधामाधवयोः सदैव भजतोः कौमार एवोलाम् ।
वृारयनवसूनिनचयानानीय कुारे
गूढं शैशवखेलनैबत कदा काय िववाहोवः ॥५६॥
िववाहोव-लीला –
अ नीय उल ेम पूण कौमार-अवा का सद ैव सेवन करने वाले
युगल सरकार, परर के नामोारण मा से रोमाित होने वाले, ा कभी ऐसा

श्रीराधासुधा�न�ध
२४

होगा िक म ीवन से नए-नए पु-समूह को लाकर शैशव के अनुप ीडा की
अवा म ही उनकी िववाह-लीला मनाऊँ गी ?
िवपितसुपमं िचरवेणुना गायता
ियेण सह वीणया मधुरगानिवािनिधः ।
करीवनसिलदकिरयुदारमा
कदा नु वृषभानुजा िमलतु भानुजारोधिस ॥५७॥
युगलगान-माधुय –
जो ीराधा मधुर ‘गान-िवा-िनिध’ ह, वन म म गजराज से िमलने के
िलये जाती यी मदो हिथनी के समान ह (अथात् गजगािमनी ह), िजनकी गित
परम उदार है; वे ‘ीवृषभानुनिनी’ मनोहर वंशी से पम र म गाते ये ियतम
ीकृ  के साथ वीणा ारा संगित कर रही ह; वे (ीराधा) यमुना-पुिलन पर मुझे
कब िमलगी ?
सहासवरमोहनाुतिवलासरासोवे
िविचवरताडवमजलागडलौ ।
कदा नु वरनागरीरिसकशेखरौ तौ मुदा
भजािम पदलालनािलतवीजनं कुवती ॥५८॥
रासिवलासोव-दशन –
हास-पिरहास से यु, अतीव मोहक एवं अुत िवलासपूण रासोव म
चतुर नागरी ीिकशोरीजी एवं रिसकिशरोमिण ीकृ  िविच उद् धत नृ कर रहे
ह, अतएव म के कारण िनकल े ए पसीने से िजनके कपोल भग गए ह, उन
यामा-याम के चरण को लाड़ लड़ाती एवं मधुर हवा करती ई सतापूवक
उनको कब भजूँगी ?

श्रीराधासुधा�न�ध
२५
वृारयिनकुमुलगृहेाेर मागयन्
हा राधे सिवदधदिशतपथं िकं यािस नेालपन् ।
कािलीसिलले च तुचतटीकूिरकापिले
ायं ायमहो कुदेहजमलं जां कदा िनमलः ॥५९॥
कािली-ान का मह –
व े कमनीय िनकु-भवन म अपनी ािमनी को ढूँढ़ती ई तथा
ािमनी से यह कहती ई – ‘परम चतुर ीकृ ारा दिशत पथ से आप  नह
जा रही ह ?’ ऐसा कहते ए ीराधाजी के यमुना-ान के कारण कुच-ा पर लगी
कूरी से िमित यमुना-जल म पुनः पुनः ान करके कुित देहमल को ागकर
कब िनमल बनूँगी ?
पादशरसोवं णितिभगिविमीवर –
यामं ाथियतुं सुमुलरहःकुां सािजतुम् ।
मालाचनगपूगरसवाूलसानका –
ादातुं च रसैकदाियिन तव ेा कदा ामहम् ॥६०॥
सेवा की रसपता –
ि े चरण का श ही रस का उव है । नीलकमल के समान
यामवण वाले उन गोिव को णाम सिहत बुलाने के िलए, मनोहर एका कु के
माजन के िलए, सुगित माला-चन, सूण रसयु सुपारी वाला ताूल (पान
का बीड़ा), पिरमलपा (इदान) व ािद पेय-पदाथ लाने के िलए रसदाी
ािमनी की कब दासी बनूँगी ?
लावयामृतवाया जगिददं सावयी शरद्
राकाचमनमेव वदनोािभरातती ।

श्रीराधासुधा�न�ध
२६
ीवृावनकुमुगृिहणी काि तुामहो
कुवाणािखलसासाधनकथां दा दाोवम् ॥६१॥
पिरचया की इा –
‘ीिकशोरीजी’ ीवृावन के मनोरम िनकु-भवन की अपूव परम
कमनीय गृिहणी (नाियका) ह, जो अपनी मनोहारी व रसीली वाता से इस सम
संसार को आािवत कर रही ह एवं जो अपनी मुख-काि के ारा अन पूिणमा के
च का िवकास कर रही ह तथा सूण सा-साधन की कथा को तु बना रही
ह; ऐसी उन ‘ ीराधा’ को अपना दाोव समिपत कर (म कब सफल बन ूँगी ?)
िदा य चन िविहताेडने नसूनोः
ाानलत उिदतोदारसेतदेशा ।
धूत यमुपगता सा रहो नीपवााम्
नैका गेत् िकतव कृतिमािदशेत् किह राधा ॥६२॥
संकेत-ल की चातुरी –
मेरे कई बार ाथना करने पर अीकार करने के बहाने मेरे सौभाय से ही
संकेत-ान बता िदया िकु ‘तुम धूत िशरोमिण हो और छिलया हो’ इस आशंका
से तुमसे िमलने कद-वािटका म अकेली न जा सक गी; मुझे उस समय संग ले जाने
के िलए ‘ीराधा’ कब आद ेश दगी ?
सा ूनतनचातुरी िनपमा सा चानेाले
लीलाखेलनचातुरी वरतनोावचातुरी ।
सेतागम चातुरी नवनवीड़ाकला चातुरी
राधाया जयतात् सखीजनपरीहासोवे चातुरी ॥६३॥

श्रीराधासुधा�न�ध
२७
अनेक कार की चतुरताएँ –
ि ंप ‘ीािमनी’ की वह भह को नचाने की अनुपम चतुरता,
सुर ने कोर का लीलायु कटा, सुर मुखवाली की मनोहर वाक्-चातुरी,
िमलन-ल म आने-जाने की चातुरी, नई-नई ीड़ा-कलाओं की चतुरता एवं
सखीजन के साथ हास-पिरहास की चतुरता; सभी एक से एक उृ ह ।
उीलिथुनानुरागगिरमोदारुराधुरी –
धारासारधुरीणिदलिलतानोवैः खेलतोः ।
राधामाधवयोः परं भवतु निे िचराितृशोः
कौमारे नवकेिलिशलहरीिशािददीारसः ॥६४॥
कैशोर के थम िमलन के दशन की इा –
युग कालीन बढ़ी ई कामातुरता के िवकास की कामना कर रहे ह,
िजसम परर बढ़ते ए अनुराग का गाीय उदार प से ुिरत मधुर धाराओं की
वषा से िद और सुर कामोव से ीड़ा करते ए, दोन एक-सरे के अ का
श कर रहे ह, वह समप ण यु लीलाओं का रस हमारे िच म िर रहे ।
कदा वा खेलौ जनगरवीथीषु दयम्
हरौ ीराधाजपितकुमारौ सुकृितनः ।
अकात् कौमारे कटनवकैशोरिवभवौ
पयन् पूणः ां रहिस पिरहासािदिनरतौ ॥६५॥
‘ज नवरस कु-वीथी-ीड़ा’ दशन –
ज की गिलय म खेलते ए, पुयााओं के िच को छीनते ए, सहसा
कुमारावा म ही िजनके नव-कै शोर का वैभव कट हो गया है, एका म हास -

श्रीराधासुधा�न�ध
२८
पिरहास म लगे ए ीराधा और नलाल के दशन करते ए म कब कृ त ा थ
ह ो ऊँ ग ी ?
(‘कौमारे’ का स “कट नव ....िवभवौ” से है ।)
धिं ते नवपिरमलैसुमी –
मालं भाललमिप लसािसरिवम् ।
दीघापािवमनुपमां चाचांशुहासम्
ेमोासं तव तु कुचयोमः रािम ॥६६॥
‘ीराधा का कैशोर’ वणन –
( े !) आपकी नई मी (बेला) मालाओं के सुगित फूल से बनी
वेणी और ललाट पर लगे घने िसर से शोिभत लाल िब, कान तक फैले ए ने
की बेजोड़ छिव , ेम से उिसत चाँदनी की तरह आपकी मधुर हँसी और दोन ी-
न के रह को म दय से रण करती ँ ।
लीकोिटिवललणलसीलािकशोरीशतै –
रारां जमडलेितमधुरं राधािभधानं परम् ।
ोितः िकन िसल रसाावमािवभवद्
राधे चेतिस भूिरभायिवभवैः काहो जृते ॥६७॥
तािक प वणन –
हे ीराधे ! करोड़ लिय के िलए भी आयजनक लण वाली, स ैकड़
िकशोरीगण से ज म आरा ‘ीराधा’ नामक मधुर गौर-ोित प, उल
ृंगार रस के अंकुिरत होते ए ेम-भाव को सचती ई िकसी अ भायशाली के
िच म िवार से उिसत होती ह ।

श्रीराधासुधा�न�ध
२९

तीयान् नवयौवनोदयमहालावयलीलामयम्
साानघनानुरागघिटतीमूितसोहनम् ।
वृारयिनकुकेिललिलतं कामीरगौरिव
ीगोिव इव जेगृिहणीेमैकपां महः ॥६८॥
‘रस-रहमय ोित’ की जय हो –
जो नव-यौवन के कट होने के समय महान् लावय यु, सौय लीला
यु ह । जो घनीभूत आन और अनुराग से रिचत मूित वाले कृ को मोिहत कर
लेती ह । केसर के समान गोरी छिव वाली, जो ीधाम की िनकु-लीलाओं म अित
लिलत ह एवं जो जे (न या वृषभानु) की गृिहणी (यशोदा या कीित) क ो कृ 
के ही समान ेमपाी ह, वह ‘गौर-तेज’ जय को ा हो रहा है ।
ेमानरसैकवािरिधमहाकोलमालाकुला
ालोलाणलोचनालचमारेण सिती ।
िकित् केिलकलामहोवमहो वृाटवीमिरे
नुतकामवैभवमयी राधा जगोिहनी ॥६९॥
ीराधा की जय हो –
ेम ही आन रस है, उसके महान समु की लहर से बनी ई चपल,
अण कोर वाले ने के कटा से, ीड़ा की कला का महान उव सचती ई,
ीवृावन के िनकु-मिर म ेम वैभवमयी िवमोिहनी ‘राधा’ आनित होकर
िवहार कर रही ह ।
वृारयिनकुसीमिन नवेमानुभावमद्
ूभीलवमोिहतजमिणभैकिचामिणः ।

श्रीराधासुधा�न�ध
३०
साानरसामृतवमिणः ोामिवुता –
कोिटोितदेित कािप रमणीचूड़ामिणमिहनी ॥७०॥
रमिणय की चूड़ामिण ‘राधा’ –
ज -िनकु की सीमा म, नवीन ेमानुभूित से चल ू-भंिगमा के
लेशमा से जमिण कृ को मोिहत करने वाली मिण ह, जो भ के िलए एकमा
िचामिण-प ह, जो घनीभूत आनामृतरस को कट करने वाली मिण ह,
िजनसे उट करोड़ िवुत-लता उ होती ह, जो रमिणय की चूड़ामिण ह; ऐसी
अुत मोिहनी शि (ीराधा) प मिण कट हो रही है ।
लीलापातरितैदभवेकैकशः कोिटशः
कपाः पुदपटतमहाकोदडिवािरणः।
तायथमवेशसमये या महामाधुरी –
धारानचमृता भवतु नः ीरािधका ािमनी ॥७१॥
‘ीराधा ािमनी’ का प –
य े थम-वेश समय ही लीला से ेिरत कटा पी िवलासी लहर
से, गव भरे िवशाल धनुष को खचन े वाले करोड़ काम एक-एक कर उ होते
रहते ह, जो माधुयमय अन धाराओं से चमार पूण रहती ह; ऐसी ‘रािधका’
हमारी ािमनी ह ।
यादाुहैक रेणु किणकां मूा िनधातुं न िह
ापु िशवादयोिधकृितं गोेकभावाया ।
सािप ेमसुधारसाुिधिनधी राधािप साधारणी
भूता कालगितमेण बिलना हे दैव तुं नमः ॥७२॥

श्रीराधासुधा�न�ध
३१
‘राधा प’ की मिहमा –
ि े चरणकमल की एक रेणु-कण को ा, शंकर आिद गोपी-भाव का
आय लेकर के भी नह ा कर पाये, वही ेमामृत रससागर की िनिध ‘ीराधा’
बलवान काल-गित से साधारण-सी हो गई ह; हे दैव ! आपको नमार ।
रे िधपररा िवजयतां रे सुडली
भृाः सु िवरतो जपतेरः सः कुतः ।
य ीवृषभानुजा कृतरितः कुोदरे कािमना
ारा ियिकरी परमहं ोािम काििनम् ॥७३॥
शा-दा-स-वा से भी लभ ‘सखीभाव’ –
जह ु के आिरक भाग म युगल की रित लीला होती रहती है, वहाँ
कृ  के ेहीजन भी नह पँच पाते । सखावग, दासवग भी र रहते ह, िफर अ
की उपिित का कोई  ही नह; जहाँ कु के अगत कामी ीकृ  के साथ
‘ीराधा’ रमण कर रही ह, उनकी काी- िन को (‘करधनी’ के श को) ार पर
ित होकर ‘िय िकरी’ बनकर (कब) सुनूँगी ?
गौराे मृिदमािते मधुिरमा नेालेािघमा
वोजे गिरमा तथैव तिनमा मे गतौ मिमा ।
ोयां च िथमा ुवोः कुिटिलमा िबाधरे शोिणमा
ीराधे िद ते रसेन जिडमा ानेऽु मे गोचरः ॥७४॥
ान म दशनान –
गौर-अ म कोमलता, मुान म मधुरता, ने की कोर म िवशालता,
न म गुता, किटा म ीणता (पतलापन), चाल म मंदता, िनत म

श्रीराधासुधा�न�ध
३२
ूलता, भौह म कुिटलता, अधरिब म रता (ललायी) एवं दय म रसावेश की
ता (जड़ता) मेरे ान म कट हो ।
ातः पीतपटं कदा पनयाांशुकापणात्
कुे िवृतकुकीमिप समानेतुं धावािम वा ।
बीयां कवर युनि गिलतां मुावलीमये
नेे नागिर रकै िपदधाणं वा कदा ॥७५॥
सुरता म सेवा की इा –
हे चतुर िशरोमिण राधे ! कभी ातः आपने िकसी का (याम का) शीता म
पीतार पहना होगा, उसके ान पर नीलार धारण कराऊँ गी और शीता म
भूली ई कुकी को दौड़कर लाऊँगी, िवहार म ढीला जूड़ा, उसे िफर से बाँधूंगी, टूटी
ई मोती की माला को िपरोऊँ गी, ने म टा अन लगाकर के कूरी-कुमकुम-
मलय आिद के ारा नख के िच को कब ढकूँ गी; ऐसा भाय कब होगा ?
यद् वृावनमागोचरमहो य ुतीकं िशरो –
ारोढुं मते न यिवशुकादीनां तु यद् ानगम् ।
यत् ेमामृतमाधुरीरसमयं यिकैशोरकम्
तद् पं पिरवे टुमेव नयनं लोलायमानं मम ॥७६॥
दशन-इा की तीता –
जो ‘प’ ीवृावन मा म ही  होता है और िजसे वेद का
िशरोभाग उपिनषद आिद भी नह पा सकते, जो ‘िशव, शुक आिद’ को ान म भी
ा नह है, जो ेमामृत की मधुरता के रस से भरा आ है , जो िन िकशोर
अवा से यु है; उस प को देखने के िलए मेरे ने ाकुल हो रहे ह ।

श्रीराधासुधा�न�ध
३३
धमाथचतुयं िवजयतां िकं तद् वृथावातया
सैकाेरभियोगपदवी ारोिपता मूिन ।
यो वृावनसीि कन घनायः िकशोरीमिणस्
तैयरसामृताद् इह परं िचे न मे रोचते ॥७७॥
‘िकरी-भाव’ की मिहमा –
‘धम-अथ-काम-मो’ ये चार पुषाथ ‘िवजय’ को ा हो रहे ह, इनकी
थ-चचा से ा लाभ ? ईर की भियोग पदवी को भी र से णाम करते ह
अथात् उससे भी हम ा योजन ? हमारे िच को तो ीवृावन की सीमा म
िवरािजत वही घनी आयप िकशोरीमिण का कैय (दासी-भाव) प रसामृत के
अितिर कुछ भी रोचक नह है ।
ेः सधुरोल दयं ारलीलाकला –
वैिचीपरमाविधभगवतः पूैव कापीशता ।
ईशानी च शची महासुखतनुः शिः ता परा
ीवृावननाथपमिहषी राधैव सेा मम ॥७८॥
इ ‘ीराधा’ का पर वणन –
शु ुर व उल ेम की दयपा ह, ृंगार रस की लीला-कलाओं की
िविचता की सव अविध ह, भगवान् कृ  की आराा व शािसका ह; सम
ऐय शियाँ पावती, इाणी और महासुख पा की त सुखमय वपुधािरणी
शि ह; वे ीवृावन के नाथ की पटरानी ‘ीराधा’ ही मेरी आराा ह ।
राधादामपा यः यतते गोिवसाशया
सोऽयं पूणसुधाचेः पिरचयं राकां िवना काित ।

श्रीराधासुधा�न�ध
३४
िकं च याम रित वाहलहरीबीजं न ये तां िवः
ते ाािप महामृताुिधमहो िबं परं ाुयुः ॥७९॥
ीरािधका की परारता –
‘ीर’ के कैय को छोड़कर जो गोिव के संग की चेा करते ह, वे
िबना पूिणमा ितिथ के पूणच ा करना चाहते ह । कृ  ेम-वाह की लहर का
बीज ‘ीराधा’ को न जानने से महान अमृत के सागर को पाकर भी एक बूँद ही पा
स क गे ।
कैशोराुतमाधुरीभरधुरीणािवं रािधकाम्
ेमोासभरािधकां िनरविध ायि ये तियः ।
ाः कमिभरानैव भगवमहो िनममाः
सवायगितं गता रसमय तेो महद्ो नमः ॥८०॥
अन रिसक को नमार –
ि े िवलण माधुरी वाह से िजनके सभी अ की छिव
सवे हो रही है एवं जो उास भरे ेम के वाह के ारा सवता को ा ह, ऐसी
‘रािधका’ को जो महापुष तय िच से सदा ान करते ह, वे कम को नह
छोड़ते, कम ही उ छोड़ देते ह (तः कमबन कट जाते ह) और सवे
भगवद्-धम की ममता से भी मु होकर सभी आय से भरी ई परम रसमयी गित
को ा करते ह, उनको बारार नमार ।
िलखि भुजमूलतो न ख शचािदकम्
िविचहिरमिरं न रचयि भालले ।
लसुलिसमािलकां दधित कठपीठे न वा
गुरोभजनिवमात् क इह ते महाबुयः॥८१॥

श्रीराधासुधा�न�ध
३५
अन रिसक का प –
ीगु ारा िदए गए भजन के पराम से वे भुजाओं म शंख-च आिद
व ैव िच को नह िलखते ह और न कभी ललाट पर िविच हिर- मिर ( व ैव-
ितलक) रचते ह, गले म तुलसी माला भी धारण कर या न कर ( बाहरी लण से
बेसुध होकर िनरर अरंग रस अथात् िवशु ‘ीराधारस’ म डूबे रहते ह); ऐसे
भजनी िकतने ह अथात् िवरले ही ह ।
कमािण ुितबोिधतािन िनतरां कुवु कुवु मा
गूढ़ायरसाः गािदिवषयान् गृु मुु वा ।
कैवा भाव रहपारगमितः ीरािधकाेयसः
िकिैरनुयुतां बिहरहो ािरैरिप ॥८२॥
रिसकजन की िित –
ीर े गूढ़ और आयमय उल भाव के आित रिसकजन
वेद-िविहत कमकाड का अनुान कर या न कर, माला-चन आिद िवलास के
साधन हण कर या न कर । हािन-लाभ से रिहत वे रिसक, बिहमुख सकाम पुष के
साथ ा कभी िमल सकते ह अथात् उनसे अभािवत ही रहते ह ।
अलं िवषयवाया नरककोिटबीभया
वृथा ुितकथामो बत िबभेिम कैवतः ।
परेशभजनोदा यिद शुकादयः िकं ततः
परं तु मम रािधकापदरसे मनो मतु ॥८३॥
‘रिसक’ की मनः िित –
िवषय तो र िवषय की चचा भी मत करो िक वह करोड़ नरक से भी
घृिणत है । अहो ! ुित-कथा भी थ है िक मुझे तो मो से भी भय लगता

श्रीराधासुधा�न�ध
३६
है ।परम पुष भगवान् के भजन म यिद शुकदेव आिद उ ह तो उनसे हम ा,
हमारा मन तो ‘ीराधारानी के चरण-रस’ म ही डूबा रहे (यही अिभलाषा है) ।
तत् सौय स च नववयोयौवनीवेशः
सा ी स च रसघनायवोजकुः ।
सोऽयं िबाधरमधुिरमा तत् ितं सा च वाणी
सेयं लीलागितरिप न िवयते रािधकायाः॥८४॥
न भूलने वाला प –
‘’ का वह सौय, नवीन यौवन की शोभा म वेश, वे कटा, घने
रस आय से भरे ए वे दोन न-कलश, अधर की वह िबाफल माधुरी, वह
मीठी मुान, वह रसीली वाणी, वह मंद-मंद चलना; ये सब भूलता ही नह ।
यीशुकनारदािदपरमायानुरागोवैः
ां ृपयैव िह जभृतां तिशोरीगणैः ।
तैयमनुणाुतरसं ाुं धृताशे मिय
ीराधे नवकुनागिर कृपािं कदा दािस ॥८५॥
कृ प ाि की याचना –
हे चतुर िशरोमिण नव-कु की नाियका ! म उस दा-ाि की आशा
धारण िकए ँ, िजससे ितण अुत रस की ाि होती है और िजसे जवािसय
की िकशोरीगण ने तुारी कृ पा से ही उासपूण ेम से ा िकया । जो ली,
शुक, नारद आिद के िलए परमायमय, पूणानुराग के उव से भरी ई ह; आप !
क ब कृ प ाि करगी ?

श्रीराधासुधा�न�ध
३७
ला दां तदितकृपया मोहनािदतेन
सौयीपदकमलयोलालनैः ािपतायाः ।
ीराधायाः मधुरमधुरोिपीयूषसारम्
भोजं भोजं नवनवरसानमा कदा ाम् ॥८६॥
ीजी के उि साद की इा –
ीकृ के ारा िजनके ेमरस का आादन िकया गया है, उन सवरी
की असीम अनुका से उनके दाभाव को ाकर ‘ सौय के सव चरणकमल
को दबाकर िजनको सुलाया गया है, उन ीराधा के’ मधुराितमधुर अमृतसार को पुनः
पुनः पीकर अित नवीन रसान म म कब म होऊँ गी ?
यिद ेहाद् राधे िदशिस रितलापदवीम्
गतं मे ें तदिप मम िनां णु यथा ।
कटाैरालोके ितसहचरैजातपुलकम्
समािाुैरथ च रसये दरसम् ॥८७॥
िना का प –
हे राधे ! यिद आप कभी ेह से रित-लटता की िित पर पँचे ए
अपने का को दान म मुझे दगी, तब मेरी िना-िित को सुिनये – म मुुराती ई
अपने कटा से ियतम को देखूँगी और इतने से ही उनके शरीर म रोमा हो
जाएगा; उसके बाद उनका गाढ़ आिलन भी कँगी, िजससे उनकी ेम-िवलता
बढ़ेगी िकु यह सब होने पर भी मुझे आपके चरणकमल के ही रस का अनुभव
होगा ।
कृः पो नवकुवलयं कृसारमालो
नीलाोदव िचपदं नामपै कृा ।

श्रीराधासुधा�न�ध
३८
कृे कात् तव िवमुखता मोहनयाममूा –
ि व ु  ा ां हिसतमुख ि क  नु पयािम राधे ॥८८॥
रसीली ंय-वाता –
हे राधे ! कृ  प अथवा कृ पीय नूतन नीलकमल, कृसार मृग,
याम-तमाल, सजल नीला बादल, कृ  प वाली कृ ा (यमुना) - ये सब आपको
िय ह, िफर िकस कारण से आपने याममूित कृ से ितकूल भाव धारण िकया है;
ऐसा कहकर आपको म हँसती ई (मानरिहत) कब देखूँगी ?
लीलापातरितैिरव िदशो नीलोलयामला
दोलायनकािमडलिमव ोम नैतीम् ।
उुलपजािमव भुवं रासे पदासतः
ीराधामनुधावत जिकशोरीणां घटां भावये ॥८९॥
ीराधा अनुगािमनी ‘िकशोरीगण’ का प –
ि े िवलासपूण कटा की लहर स े सम िदशाएँ नीलकमल की
यामता ा करती ह, िजनके नमडल आकाश म िहलते ए ण-पवत का
िवार करते ह; िजनके चरण की गित से ‘रासमडल की पृी’ िखले ए ल-
कमल (गुलाब) से शोिभत हो जाती है; ीराधा की ऐसी अनुगािमनी ‘िकशोरीगण’
की म भावना करती ँ ।
शौ िय रसाुधौ मधुरमीनवद् ातः
नौ िय सुधासरहह चवाकािवव ।
मुखं सुरतरििण िय िवकािस हेमाुजम्
िमलु मिय रािधके तव कृपातरटाः॥९०॥

श्रीराधासुधा�न�ध
३९
कृ प ा-कोर की याचना –
हे राधे ! आपका सूण वपु ही एक िवृत रस-समु है, उस रससागर
म आपके दोन ने ही चल मछिलय की भाँित चलते-िफरते रहते ह । ‘ीराधा’
प अमृत-नदी म िवहार करने वाले चकवा-चकई की भाँित आपके दोन न ह और
हे सुरनदी ीराधे ! आपका ‘गौर-मुख’ ही िवकिसत ण-कमल है । हे ािमनी !
आपकी कृ पा-लहर की छटा (िकरण) मुझे ा ह ।
(इस प के ितीय पाद म ीराधाजी को ही ‘अमृत-सरोवर’ एवं तृतीय पाद म
ीराधाजी को ही ‘देवनदी गंगा’ कहा है ।)
कााायकाा कुलमिणकमला कोिटकाैकपादा –
ोजाजखेिवलविवभवा कागा िकशोरी ।
उयादवृणयरसमहाोिधगीरलीला –
माधुयृिताी मिय िकमिप कृपारमीकरोतु ॥९१॥
कृ प ा-ाि की ाथना –
अ े ियतम से यु करोड़ कााओं की जो मिणपा ह तथा करोड़
कमलाओं का इित वैभव िजनके शोिभत पदकमल नखचमिण का ेक कण
है; िजनका ीअ अित अमयािदत बढ़ते ए ेमपी महासमु की गीर लीला-
माधुरी से उिसत है; ऐसी सभी से अग ‘िकशोरी’ अपने कृ प ा-रस से मुझे रित
कर ीकार कर ।
किलिगिरनिनीपुिलनमालतीमिरे
िववनमािलना लिलतकेिललोलीकृते ।
ितणचमृताुतरसैकलीलािनधे
िनधेिह मिय रािधके िनजकृपातरटाम् ॥९२॥

श्रीराधासुधा�न�ध
४०
कृ प ा-कोर की ाथना –
किलिगिर से िनकलती ई ीयमुना तट पर ित मालतीभवन म व ेश
कर, वनमाली कृ  ने िजन ‘ीराधा’ को सुर ीड़ाओं से चल कर िदया है; इसी
से ितपल िजनकी रसमयी लीला का समु चमृत और अुत हो गया है; ऐसी
‘ीराधा’ कृ पामयी तरंग का मुझ पर िवार कर ।
याे बत िकरीषु बशाटूिन वृाटवी –
कपः कुते तवैव िकमिप ेुः सादोवम् ।
साानघनानुरागलहरीिनपादाुज –
े ीवृषभानुनििन सदा वे तव ीपदम् ॥९३॥
ीजी का प और णाम –
 ्वृावन के कप ीकृ  ‘िजन (ीजी) क ी कृ प ा की ाि भी
उव है’ उस कृ पा को पाने के िलए उनकी िकिरय की सहष चाटुकािरता करते
रहते ह । ‘आपके िजन चरणकमल से घनीभूत आन और सघन अनुराग की लहर
बहती रहती ह’ हे वृषभानुलािड़ली ! म उ ीचरण की वना करती ँ ।
यापः सकृद् एव गोकुलपतेराकषकणाद्
य ेमवतां समपुषाथषु ुरेत् तुता ।
यामाितमजापनपरः ीा यं माधवः
ीकृ ोऽिप तदुतं ुरतु मे राधेित वणयम् ॥९४॥
‘राधा-नाम’ माहा –
'राधा' ये दो अर मेरे दय म ुिरत ह, िजसका एकबार का उारण ही
गोकुलपित कृ को आकिषत करता है; िजससे ‘धम-अथ-काम-मो’ चतुय

श्रीराधासुधा�न�ध
४१

पुषाथ भी तु लगते ह, िजस नाम से अंिकत मराज का जाप यं ीकृ  भी
तरतापूवक करते ह ।
कािलीतटकुरमिरगतो योगीवद् यद –
ोितानपरः सदा जपित यां ेमाुपूण हिरः ।
केनाुतमुसितरसानेन सोिहतः
सा राधेित सदा िद ुरतु मे िवा परा रा ॥९५॥
‘राधा-नाम’ की मिहमा –
िजसे यं ीकृ भी योगी के समान राधाचरण-ोित म ान
लगाकर, भरे ए ने एवं गद वाणी से यमुना तट पर िवमान क ु के मंिदर म जप
िकया करते ह; वही अवणनीय िवलासमय रित-रसान से मोिहत, ज दो अर
की परािवा ‘राधा’ मेरे दय म ुिरत रह ।
देवानामथ भमुसुदामरं च यत्
ेमानरसं महासुखकरं चोािरतं ेमतः ।
ेाकणयते जपथ मुदा गायथािलयम्
जुमुखो हिरदमृतं राधेित मे जीवनम् ॥९६॥
‘राधा-नाम’ का माहा –
जो देवगण, भ, मु और यं ीकृ के सुद वग से अा है ।
जो ेमान रसप है, िजसका उारण महासुख देने वाला है; िजसे यं ीकृ 
भी सेम सुनते ह, यं जप करते ह, सखीगण के म म ेमपूवक गाते ह, जप म
ेमाु से मुख भर जाता है और बारार उारण करत े ह; वही ‘ीराधानामामृत’
मेरा जीवन है ।

श्रीराधासुधा�न�ध
४२
या वाराधयित ियं जमिणं ौढ़ानुरागोवैः
संिसि यदायेण िह परं गोिवसुुकाः ।
यत् िसिः परमापदैकरसवाराधनाे नु सा
ीराधा ुितमौिलशेखरलता नाी मम ीयताम् ॥९७॥
ीजी की ाथना –
ि ‘ ी कृ ’ ीराधा का आराधन करते ह, उसी कार ‘ीराधा’
कृ  अनुराग के उास से भरी ई ियतम का आराधन करती ह । गोिव के साथ
सखीभाव पाने के उुक जन भी िजनके आय से ही इ-िसि ा करते ह,
िजनकी आराधना से परमपद पा रस-िसि ा होती है, वही ‘ीराधा’ नाम वाली
ुितय के मक पर शोिभत लता मुझ पर स हो जाए ।
गाे कोिटतिडिव िवततानिव ीमुखे
िबौे नविवुमिव करे सवैकिवः ।
हेमाोहकुलिव कुचेऽरिवेणम्
वे तवकुकेिलमधुरं राधािभधानं महः॥९८॥
ीजी का प वणन –
िजनके ी-अ म करोड़ िवुत-छिव, ीमुख म िवृत आन की छिव,
िबो म नए िवुम की छिव तथा ी-कर म नवीन पव की छिव , िजनके न
म णकमल-किलय की छिव, ने म कमल-छिव, नवीन कु म ीड़ा से मधुर
ई ‘राधा-नाम ोित’ की म वना करती ँ ।
मुापिितमदशना चािबाधरोी
मे ामा नवनवरसावगीरनािभः ।

श्रीराधासुधा�न�ध
४३
पीनोिणिणमसमुेषलावयिसुर् –
वैदधीनां िकमिप दयं नागरी पातु राधा ॥९९॥
अुत वाा –
ि सुर दावली मोितय की पंि के समान है, िजनका अधरो
िबाफल के समान है, किट अ पतली है, नये-नये रस के भँवर की तरह नािभ
गीर है, मोटे िनत वाली, ुिटत तणाई प-लावय की समु बनी ई चतुर
नाियकाओं की कोई िशरोमिण ‘ीराधा’ मेरी रा कर ।
िधाकुितनीलकेिश िवदलिोिचानने
खेलनगनाि िचमासामुाफले ।
पीनोिण तनूदिर नतटीवृटाुते
राधे ीभुज विचावलये ं पमािवु ॥१००॥
प-दशन की इा –
हे ि े काले घुँघराले केश वाली ! हे पके ए िबाधर अधरो वाली ! हे
चमुखी ! हे चल खन का मदन करने वाले ने वाली ! हे नासा भाग म
शोिभत मुाफल वाली ! हे पृथु िनत वाली ! हे पतली कमर वाली ! हे नतट
की अुत गोलाई की छटा वाली ! हे भुजलताओं म सुर कण वाली ! आप अपने
प को मेरे सामने कट कर ।
लाःपटमारच रिचतायसूनालौ
राधाे नवरधाि लिलतावने यौवने ।
ोणीहेमवरासने रनृपेणाािसते मोहनम्
लीलापािविचताडवकलापािडमुीलित ॥१०१॥

श्रीराधासुधा�न�ध
४४

नाटकीय झाँकी –
ला की यविनका (पदा) डालकर, मुान की पुािल बनाकर ीजी के
अ म यौवन के लािल की ावना की गई, िजसम नृपित कप, िनत पी
े िसंहासन पर अिधित होने पर नव-रभूिम प ‘ीराधा’ के अ म लीलापूण
कटा का िविच ताडव ‘ कला-कौशल’ कािशत हो रहा है ।
सा लावयचमृितनववयो पं च तोहनम्
तेिलकलािवलासलहरीचातुयमायभूः ।
नो िकित् कृतमेव य न नुितनागो न वा समो –
राधामाधवयोः स कोऽिप सहजः ेमोवः पातु वः॥१०२॥
रा की कामना –
िजसम लावय का चमार व नवीन अवा के प की मोहकता है,
अन केिल-कलाओं का िवलास अित मनोरम प से तरित हो रहा है, सम
आय की उस भूिम म न कोई बनावट है, न ुित है, न अपराध है, न आदर है;
ीराधामाधव का ऐसा कोई अिनवचनीय, सहज ेमोव तुारी (रिसक वृ की)
रा करे ।
येषां ेां िवतरित नवोदारगाढानुरागान्
मेघयामो मधुरमधुरानमूितमुकुः ।
वृाटां सुमिहमचमारकारीयहो िकम्
तािन ेेऽुतरसिनधानािन राधापदािन ॥१०३॥
ीपदयुगल की दशन-लालसा –
िजन चरण के दशन की इा का दान, उदार और गाढ़ अनुराग से यं
मधुराितमधुर आन की मूित घनयाम कृ भी िकया करते ह । वृावन म

श्रीराधासुधा�न�ध
४५
अ मिहमाशाली चमार से यु, अुत रस के जो िनधान ह, उन
‘ीराधाचरण’ का म कब दशन कँगी ?
बलान् नीा ते िकमिप पिरराधरसुधाम्
िनपीय ोि खरनखरेण नभरम् ।
ततो नीव े रिसकमिणना रधृते
कदा कुिे भवतु मम राधेनुनयनम् ॥१०४॥
केिल-दशन की इा –
हे राधे ! रिसकशेखर याम ने आपको बलपूवक केिल शा पर ले
जाकर अिनवचनीय कार से पिररण करके आपके अधर-सुधा का पान िकया,
अपने खर नख से आपके नमडल को रेखांिकत िकया, उसके बाद आपके दोन
करकमल को पकड़कर नीवी-बंधन को हटा िदया; यह सब म िनकुभवन के िछ से
कब देखूँगी ?
करं ते पािलं िकमिप कुचयोः कुमुिचतम्
पदं ते कुेषु ियमिभसरा अिभसृतौ ।
शौ कुिैव िनभृतकेिलं कलियतुम्
यदा वीे राधे तदिप भिवता िकं शुभिदनम् ॥१०५॥
ृंगार करने की ती इा –
हे राधे ! वह शुभ िदन मुझे कब िमलेगा, जब म आपके ी-न पर
अनुपम पावली बनाने के योय अपने हाथ को और कु म याम क े ित
अिभसार करने वाली आपका अनुसरण करने योय अपने पैर को तथा क ु-िछ से
आपकी एका केिल-दशन करने वाले अपने ने क ो कृ त कृ  स म झूँगी ?

श्रीराधासुधा�न�ध
४६

रहोगो ोतुं तव िनजिवटेेण लिलताम्
करे धृा ां वा नवरमणते घटियतुम् ।
रतामदं कचभरमथो संयमियतुम्
िवदाः ीराधे मम िकमिधकारोवरसम् ॥१०६॥
अिभलाषा –
हे ीराधे ! अित लट अपने ारे के साथ आपके मधुर वातालाप सुनने
का, आपका हाथ पकड़ नई रमण-शा तक पँचाने का और ीड़ा म सद से
खुले ए केश-पाश को संयत करने का अिधकारोव-रस मुझे कब दान करगी ?
वृाटां नवनवरसानपुे िनकुे
गुृीकुलमुखिरते मुमुहासैः ।
अोेपणिनचयनासोपनाैः
ीडीयाद् रिसकिमथुनं केलीकदम् ॥१०७॥
‘िवशु िनकु-केिल’ दशन –
ीवृावन ित अ रसान-समूह का जो िनकु है, िजसम
गुनपरायण भृंगीकुल गुार कर रहे ह; वहाँ मधुर पिरहासपूवक कक (गद)
फ कना, पकड़ना और उसे िछपा लेना; इन ीड़ाओं म लगे ए ीड़ा-समूह से
सित ‘रिसक युगल’ जय को ा हो रहे ह ।
पं शारदचकोिटवदने धिमीजाम्
आमोदैिवकलीकृतािलपटले राधे कदा तेऽुतम् ।
ैवेयोलकुकिठ मृदोवीचलणे
वीे पकूलवािसिन रणीरपादाुजे ॥१०८॥

श्रीराधासुधा�न�ध
४७
‘दशन’ की इा –
हे श ूणचमुखवाली ! हे केशपाश म गुथी ई मी-
मालाओं के सुग ारा मर-समूह को ाकुल करने वाली ! हे कठ आभूषण से
उल शंखवत् कठवाली ! हे कोमल भुजलताओं म चल कण वाली ! हे रेशमी
पा धारण करने वाली ! हे बजते नूपुर से यु चरणकमल वाली ! कब आपके इस
‘अुत प’ का दश न होगा ?
इतो भयिमतपाकुलिमतो यशः ीिरतो
िहनिखललामिप सखीिनवासया ।
सगदमुदीिरतं सुबमोहनाकाया
कथं कथमयीिर हिसतैः कदा ेसे ॥१०९॥
सुर मनोरथ –
“सिखय के म म आपकी ती आकांा से ‘एक ओर भय’ सरी ओर
ला, इधर कुल ‘उधर यश और ी’; सम ृंखलाओं को आपके कारण न कर
िदया ।” मेरे इन गद वचन को सुनकर आप 'कैसे-कै से' कहकर कब हँसती ई
पूछ गी ? ऐसा कब होगा ?
यामे चाटुतािन कुवित सहालापान् णेी मया
गृाने च कूलपवमहो  मां िस ।
िबाणे भुजविमुिसतया रोमजालताम्
ा ां रसलीनमूितमथ िकं पयािम हां ततः ॥११०॥
इा-पूित –
हे ेमपे ! यामसुर आपकी चाटुकारी कर, उस समय आप म ुझसे
वातालाप कर और जब ियतम आपके पे के छोर को पकड़ तब आप ंकार करते

श्रीराधासुधा�न�ध
४८
ए मुझे ही रोषपूवक देखगी । जब ारे आपकी भुजलता को पकड़ लगे तब आप
उास से, रोमा से शोिभत हो जाएँगी । आपकी ऐसी रसमयी छिव और हा को
म कब देखूँगी ?
अहो रिसकशेखरः ुरित कोिप वृावने
िनकुनवनागरीकुचिकशोरकेिलियः ।
करोतु स कृपां सखीकटपूणनुवो
िनजियतमापदे रसमये ददातु िितम् ॥१११॥
ल की अिभलाषा –
अ ! कोई रिसक-चूड़ामिण वृावन म ुिरत हो रहे ह, िज नई
िनकु म नई नागरी के न के साथ ीड़ा िय है और जो सिखय के सामने ही
पूण िवनय म संकोच को छोड़कर आन ा करते ह; वे मुझ पर कृ पा कर और
अपनी िया ‘ीराधा के रसमय चरणकमल’ म मुझे अखड-िित दान कर ।
िविचवरभूषणोलकूलसुकैः
सखीिभिरित भूिषता ितलकगमाैरिप ।
यं च सकलाकलासु कुशलीकृता नः कदा
सुरासमधुरोवे िकमिप वेशयेत् ािमनी ॥११२॥
‘रास-वेश’ की इा –
सखीगण ारा िविच एवं े आभूषण, उल कूल, सुर कुकी के
ारा, ितलक एवं सुगित  मालाओं से भलीभाँित सुसित (या अलत) की
गई ह और िजने यं हम सम िवाओं व कलाओं म पारंगत िकया है; ऐसी
‘ािमनी ीराधा’ हम कब मधुर उव पी रास म वेश दगी ?

श्रीराधासुधा�न�ध
४९

कदा सुमिणिकिणीवलयनूपुरोसन्
महामधुरमडलाुतिवलासरासोवे ।
अिप णियनो बृहुजगृहीतको वयम्
परं िनजरसेरीचरणल वीामहे ॥११३॥
सदा ीचरण-दशन ही ल रहे –
कब ‘मिणजिटत िकिणी, वलय व नूपुर से शोिभत अितशय मधुर
रासमडल के अुत उव म ियतम ारा दीघ भुजा से हमारी गलबया देने पर
भी’ म केवल सम रस की ईरी ‘ीराधा के चरणिच’ को ही देखूँगी ?
यद् गोिवकथासुधारसदे चेतो मया जृितम्
यद् वा तुणकीनाचनिवभूषाैिदनं ािपतम् ।
यद् यत् ीितरकािर तियजनेािकी तेन मे
गोपेाजजीवनणियनी ीरािधका तुतु ॥११४॥
साधक-जीवन का ल –
‘ीगोिव के कथामृत पी रस सरोवर’ म जो भी मने िच डुबाया है
अथवा उनके गुण-कीतन, चरणाचन, भूषण आिद से शोिभत करने म िदन लगाए ह
अथवा उनके ियजन म आािकी -ीित की है; उन सबके फलप
गोपेनन कृ की जीवन ािमनी ीराधा मुझ पर स ह ।
रहो दां ताः िकमिप वृषभानोजवरी –
यसः पुाः पूणणयरसमूतयिद लभे ।
तदा नः िकं धमः िकमु सुरगणैः िकं च िविधना
िकमीशेन यामियिमलनयैरिप च िकम् ॥११५॥

श्रीराधासुधा�न�ध
५०

सव ाि –
यिद वृषभानुजी की लारी पुी ‘पूणरसेम-मूित’ का एका-दा हम
ा हो जाए; िफर हम धम से ा, देवगण से ा, ा और शंकर से ा; अरे !
कृ  के िय-िमलन के य से भी ा लाभ ?
चाे हिरणाि देिव सुनसे शोणाधरे सुिते
िचीभुजवि कुिचरीवे िगरीिन ।
भबृहितकदलीखडोपादाुज –
ोीलखचमडिल कदा राधे मयारासे ॥११६॥
‘आराधना’ की ती इा –
हे चमुखी ! हे मृगलोचनी ! हे देवी ! हे सुर नािसका वाली ! अणो व
सुमधुर मुान वाली ! िचय शोभा सि यु भुजलता वाली ! शंख के समान
सुर ीवा वाली ! ण पवतवत् नमडल वाली ! हे पतली कमर वाली ! हे
िवशाल िनत वाली ! हे कदलीखड के समान जा वाली ! हे कमल के समान
चरण वाली ! हे चमकते ए नखचमडल से यु शोभा वाली ! आप कब मेरी
आराधना ीकार करगी ?
राधापादसरोजभिमचलामुी िनैतवाम्
ीतः ं भजतोऽिप िनभरमहाेािधकं सवशः ।
आिलथ चुित वदनात् ताूलमाेपयेत्
कठे ां वनमािलकामिप मम ेत् कदा मोहनः ॥११७॥
िनपट सेवा और उसका फल –
ीराधा के चरणकमल म मेरी अचल और िनपट भि देखकर ‘मोहनलाल’
अितशय महाेमपूवक सवाभाव से अपने भजन करने वाल से भी अिधक स

श्रीराधासुधा�न�ध
५१

होकर आिलन चुन करते ह, अपने मुख का पान-बीड़ा मुख म देते ह और उस
राधाभ को अपनी वनमाला पहना देते ह; मुझ पर ऐसी कृ पा कब होगी ?
लावयं परमाुतं रितकलाचातुयमुतम्
कािः कािप महाुता वरतनोललागिताुता ।
ी पुनरुताुततमा याः ितं चाुतम्
सा राधाुतमूितरुतरसं दां कदा दाित ॥११८॥
‘अुत दा’ का दान –
िजनका लावय परम अुत है, रितकला की चतुरता अित अुत है, े
वपु वाली की काि भी महान अुत है, िजनकी लीलापूण गित भी अुत है,
िजनके ने की मरोड़ अुत से अुम है, िजनकी मुान भी अुत है; वे अुत
मूित ‘ीराधा’ रसप अपना अुत दा मुझे कब दगी ?
मूकुिटसुरं ुिरतचािबाधरम्
हे मधुरतं णयकेिलकोपाकुलम् ।
महारिसकमौिलना सभयकौतुकं वीितम्
रािम तव रािधके रितकलासुखं ीमुखम् ॥११९॥
‘ीराधामुख-शोभा’ रण –
हे ीराधे ! म आपके रितकला-सुख से भरे ए ‘ीमुख’ का रण करती
ँ, िजसम भह का सुर नृ हो रहा है, सुर िबाधर भी कुछ फड़क रहे ह;
ियतम यामसुर ारा भुजलताओं के पकड़ने से मधुर ंकार गूँज रहा है, जो
‘ीमुख’ ेम-ीडा के कृिम कोप से पिरपूण है, िजसे महान रिसक चूड़ामिण
ीकृ  भ ी भय और कौतुक की ि से देखते रहते ह ।

श्रीराधासुधा�न�ध
५२

उीलुकुटटापिरलसिवालं ुरत्
केयूरादहारकणघटािनधूतरिव ।
ोणीमडलिकिणीकलरवं मीरमुिन –
ीमादसरोहं भज मनो राधािभधानं महः ॥१२०॥
ेय प –
िदशाओं का समूह िजनके ोितमय मुकुट की छटा से िवशेष शोिभत हो
रहा है, िजनके चमकते ए बाजूबंद, कण, हार व कड़ के समूह से र की छिव
ितरृ त हो रही है; िनत देश म िकिणी झंकृ त हो रही है; नूपुर की मधुर िन
से चरणकमल शोिभत ह; हे मन ! ऐसी ‘राधा’ नामक ोित का ान करो ।
यामामडलमौिलमडनमिणः यामानुरागुरद्
रोमोेदिवभािवताकृितरहो कामीरगौरिवः ।
सातीवोदकामकेिलतरला मां पातु मिता
मारुमकुमिरगता गोिवपेरी ॥१२१॥
रा की ाथना –
जो सभी ज-तिणय (‘यामा’ षोडश वािषकी – १६ वष की युवितयाँ) के
समूह की भी भूषण पा मिण ह, िजनकी आकृ ित ियतम के अनुराग से उ
दीिमान रोमा से िचित है; केसर के समान िजनकी गौरकाि है और जो अित
उद काम-केिल के िलए चल हो रही ह, जो मंद मुाने वाली ह, जो ‘मार
ुम-कुमिर’ म ित रहती ह; ऐसी गोिव की पेरी (िस ंहासनासीन
ािमनी) मेरी रा कर ।
(‘यामा’ का लण –
१. यामा यौवन मा ।

श्रीराधासुधा�न�ध
५३

२. कूपोदकं वटाया यामा ी िध भोजनम् ।
शीतकाले भवेमुकाले च शीतलम् ॥
‘कुँए का जल, वरगद की छाया, यामा ी एवं घृत यु भोजन’ ये चार शीतकाल
म उ एवं ीकाल म शीतल हो जाते ह । ‘िजस नाियका का शरीर शीतकाल म
उ तथा ीकाल म शीतल रहता है, उसे ‘यामा’ कहा गया है ।’)
उपाचरणाुजे जभृतां िकशोरीगणैर् –
महिरिप पूषैरपिरभाभावोवे ।
अगाधरसधामिन पदपसेवािवधौ
िवधेिह मधुरोलािमव कृितं ममाधीिर ॥१२२॥
सेवा की ाथना –
हे े जवािसय की िकशोरी गण की उपासना योय चरणकमल वाली !
नारदािद महापुष से भी अिच भावोव वाली हे ािमनी ! अबाध रस के ान
आपके ीचरण म सेवा के िलए मेरे मधुर और उल कत का अिधकार दान
कर । (चौथे चरण म 'मधुरोिनिधं' के ान पर 'मधुरोलािमव कृ ितम्' का पाठ
है, उसी के अनुसार अथ है) ।
आनाननचमीिरतगापाटामरम्
िकिद् दिशिशरोवगुठनपटं लीलािवलासाविधम् ।
उीयालकमरीः करहैराल सागर –
ाेऽं तव रािधके सचिकतालोकं कदा लोकये ॥१२३॥
गु िवहार म भी ‘ी-अ’ दशन-इा –
हे ीराधे ! जब चतुर िशरोमिण ीकृ  के ी-अ से आपके ी-अ

श्रीराधासुधा�न�ध
५४
आिलित हगे, म अपने नख से आपकी केश-लट को उठाकर कब देखूँगी िक
आपका कुछ झुका आ ‘ीमुखच’ िजसम कटा की छटा (लावश) कुछ
िशिथल बनी ई, िसर पर थोड़ा-सा घूँघट है, जो लीला-िवलास की सीमा है ।
राकाचो वराको यदनुपमरसानकाननेोस् –
तािकाया अिप िकमिप कलामाकाणुतोऽिप ।
याः शोणाधरीिवधृतनवसुधामाधुरीसारिसुः
सा राधा कामबाधािवधुरमधुपिताणदा ीयतां नः ॥१२४॥
अुत सौय –
बेजोड़ रसान के मूल उस मुखच की अवण नीय चाँदनी की कला के
अणु से भी पूिणमा का चाँद तु है, िजनके लाल अधर ने सुरता की शोभा की
नवीन अमृत माधुरी के सार के भी समु को धारण कर रखा है; वे ‘ीराधा’ काम-
बाधा से पीिड़त (िवधुर) मधुपित कृ  की जीवनदाियनी हम पर स ह ।
राकानेकिविचच उिदतः ेमामृतोितषाम्
वीचीिभः पिरपूरयेदगिणताडकोिटं यिद ।
वृारयिनकुसीमिन तदाभासः परं लते
भावेनैव यदा तदैव तुलये राधे तव ीमुखम् ॥१२५॥
अभूतोपमा अलंकार से प-वणन –
पूि मा के अनेक िविच च उदय को ा होकर अपनी ेमामृत पी
िकरण की ोितमयी लहर से असं ाड को भर द, उस आभास को
ीवृावन के कु की सीमा म भाव भरी ि से देखने पर उस चाँद के साथ हे
ीराधे ! आपके ीमुख की तुलना सव है ।

श्रीराधासुधा�न�ध
५५
(सामा च से अमृतोित का काश होता है िकु यह िविश च ‘ेमामृत से
भरी ोितय’ का काश करता है, इसीिलए इसे ‘िविच च’ कहा गया ।)
कािलीकूलकुमतल िनलयोसेिलका
वृाटां सदैव कटतररहोववीभावभा ।
भानां रोजे मधुररससुधािपादारिवा
साानाकृितनः ुरतु नवनवेमलीरमा ॥१२६॥
कृ पामयी का वैभव –
‘ ुनाजी के तट पर कवृ के नीचे आपके िनवास ल म े
िवलास की मूल पा’ जो ीवन म सवदा कट रहने वाली एका सहचरीगण
लिलता, िवशाखा आिद मुख सिखय की भाव भरी सेवा से गौरवाित ह; जो
आितजन के दयकमल म अपने ीचरण की ापना से मधुर-रस-सुधा को
िनझिरत करती ह; वे सघन आनमूित िन नवीनता यु ेमली (ीराधा) म ेरे
दय म कािशत ह ।
शुेमैकलीलािनिधरहह महातमिते च
ेे िबदुरदतुलकृपाेहमाधुयमूितः ।
ाणालीकोिटनीरािजतपदसुषमामाधुरी माधवेन
ीराधामामगाधामृत रसभिरते किह दाेिभिषेत् ॥१२७॥
रसीली ‘ीराधा’ की सेवा-याचना –
प ेम लीलाओं की एकमा जो उि ान ह, ियतम ीकृ 
की गोद म भी रहते ए जो िवयोग से आशंिकत रहती ह, िजनके ीचरण की
सौय-माधुरी की आरती ‘ माधव’ कोिट-कोिट ाण से िकया करते ह; वे सवािधक

श्रीराधासुधा�न�ध
५६

दीिमती, बेजोड़ कृ पा से माधुरी की मूित ‘ीराधा’ अपने अगाध अमृत से भरे ए
दा-रस से मुझे कब सचने की कृ पा करगी ?
वृारयिनकुसीमसु सदा ानरोवैर् –
माुतमाधवाधरसुधामाीकसंस्वादनैः ।
गोिवियवगगमसखीवृैरनालिता
दां दाित मे कदा नु कृपया वृावनाधीरी ॥१२८॥
‘ीजी’ की कृ पा से दा-ाि –
ीवन के िनकु-देश म अपने ेम-िवलासोव से भरी ई ‘माधव के
अुत अधरामृत के आादन से’ जो उ रहती ह; ीगोिव के ियजन को भी
जो ‘केिल’ लभ है, सखी-समुदाय भी िजसे नह देख पाता; ऐसी ‘वृावनरानी’ मुझे
कब अमृत भरा दा दगी ?
मीदामिनबचाकबरं िसररेखोसत्
सीमं नवरिचितलकं गडोसुडलम् ।
िनीवमुदारहारमणं िबुकूलं नवम्
िवुोिटिनभं रोवमयं राधामीे महः ॥१२९॥
साधन की सफलता (इ-दशन)
िजनका सुर जूड़ा नये बेला (मिका) के फूल की माला से बँधा आ,
‘मांग’ िसंर-रे खा से भरी ई, भाल पर नवीन र से रचा आ िविच ितलक है,
गडमडल (कपोल) पर कुडल उिसत ह, ीवा म कठाभरण और दय पर
सुर हार शोिभत है तथा अण र ंग का नया पा धारण कर रखा है, करोड़
दािमिनय के समान िजनकी भा है; कामोव से पिरपूण िन ेमोवमयी उस
‘ीराधा’ नामक तेज का म दशन कँ ।

श्रीराधासुधा�न�ध
५७
ेमोासैकसीमा परमरसचमारवैिचसीमा
सौयैकसीमा िकमिप नववयोपलावयसीमा ।
लीलामाधुयसीमा िनजजनपरमौदायवासीमा
सा राधा सौसीमा जयित रितकलाकेिलमाधुयसीमा ॥१३०॥
असीम का ससीम वणन –
‘ीराधा’ जो उास भरे ेम की एकमा सीमा ह, परम ेमरस के
चमार की िविचता की सीमा ह, सुरता की अिम सीमा ह; अवणनीय नवीन
अवा, नवीन प, नवीन लावय की सीमा ह; वे आितजन के ित उदारता और
वा की सीमा ह, रित-कला-ीड़ा की माधुरी की सीमा ह, सुख की परम सीमा
ह; उनकी जय हो ।
याुकुमारसुरपदोीलखेटा
लावयैकलवोपजीिवसकलयामामणीमडलम् ।
शुेमिवलासमूितरिधकोीलहामाधुरी
धारासारधुरीणकेिलिवभवा सा रािधका मे गितः ॥१३१॥
ीराधा की अन शरणागित –
िजनके सुकुमार और सुर ीचरण से कािशत नखचमिण के लावय
के लेश से सम मिण पा यामा गुण स नाियकाओं का समूह अनुािणत
हो रहा है, जो शु ेमिवलास की मूित ह और सवािधक प से उमड़ती ई
महामधुरता की धारा के सार की ीड़ा-सि से यु ह; वे ‘ीराधा’ ही मेरी गित
ह ।
किलिगिरनिनीसिललिबसोहभृन्
मृितरितमं िमथुनमुतीडया ।

श्रीराधासुधा�न�ध
५८

अमरसतुिल मरवृवृाटवी –
िनकुवरमिरे िकमिप सुरं नित ॥१३२॥
‘युगल-ीड़ा-व ैभव’ दशन –
ीयमुना के जलकण को धारण िकए ए कोमल िकु अमयािदत गित से
बढ़ी ई रित के म से िमत ‘युगल’ अपनी अुत ीड़ा से रस-पु मर समूह
वाले ीवृावन की िनकु के े मिर म आनित हो रहे ह ।
ाकोशेीवरिवकिसतामहेमारिव
ीमिनरितरसाोिलकपकेिल ।
वृारये नवरससुधािपादारिवम्
ोितं िकमिप परमानकं चकाि ॥१३३॥
‘युगल-ोित’ ीधाम म कािशत –
िवकिसत नीलकमल और पूण फुित णकमल की शोभा वाली िनझिरत
रित-रस से चल बनी ई ेमकेिल वाली, नवीन रस-सुधा को वािहत करने वाली,
अवणनीय परमान की उि ली वाली; ऐसी गौर-याम प ‘युगल-ोित’
ीवृावन म कािशत हो रही है ।
ताूलं िचदपयािम चरणौ संवाहयािम िचन्
मालाैः पिरमडये िचदहो संवीजयािम िचत् ।
कपूरािदसुवािसतं  च पुनः सुा चाोमृतम्
पायाेव गृहे कदा ख भजे ीरािधकामाधवौ ॥१३४॥
सेवा-ाि की इा –
कभी पान-बीड़ा अपण करके, कभी ीचरण को दबा करक े, कभी माला
आिद आभूषण से ृंगार करके, कभी पंखे से हवा करके, कभी कपूर आिद से

श्रीराधासुधा�न�ध
५९

सुगित ािद अमृत-तु जल िपलाकर ‘िनकु भवन म’ म कब िनित प से
‘ीराधा-माधव’ युगल की सेवा कँगी ?
ोललामृतरसेमैकपूणाुिधर् –
लावयैकसुधािनिधः पुकृपावासाराुिधः ।
तायथमवेशिवलसाधुयसााभूर् –
गुः कोऽिप महािनिधिवजयते राधारसैकाविधः ॥१३५॥
महािनिध ‘राधा’ सवृ प से िवरािजत –
ेम का एक बेजोड़ सागर है, िजसके सभी अ व ंग से सदा उवल
अमृतरस उमड़ता रहता है; वह ेम-महािनिध-लावय का भी एक बेजोड़ समु है,
पराकाा की कृ पा और वा का सार भी है । यौवन के थम वेश से िवलिसत
मधुरता के साा की उि ली है, रस की एकमा सीमा है; वही ‘राधा’ नाम
वाली कोई परम गु महािनिध सबसे उृ होकर िवजय को ा हो रही है ।
याः ूजदनख मिणोितरेकटायाः
साेमामृतरसमहािसुकोिटिवलासः ।
सा चेद् राधा रचयित कृपािपातं कदािचन्
मुिुीभवित बशः ाकृतााकृतीः ॥१३६॥
राधा-कृ प ाकटा की सवता –
िजनके कािशत ‘ीचरण-नख-मिण-ोित की एक छटा का
िवलास’घनीभूत ेमामृत रस के करोड़ समु के समान है; वे ‘ीराधा’ यिद कभी
कणा-ि कर द तो सभी लोक-परलोक की शोभाएँ और मुि भी तु बन
जाएँगी ।

श्रीराधासुधा�न�ध
६०

कदा वृारये मधुरमधुरानरसदे
ियेयाः केलीभवननवकुािन मृगये ।
कदा ीराधायाः पदकमलमाीकलहरी –
परीवाहैेतो मधुकरमधीरं मदियता ॥१३७॥
ती इा –
मधुराितमधुर आन-रस दान करने वाले वृावन म ियेरी
ीयामाजी के ीडा-भवन के नवीन कु को म कब खोजूँगी और ीराधारानी के
चरणकमल के मकर की लहर की सतत् वषा से मेरा मन पी भरा कब अधीर व
उ हो जाएगा ?
राधाकेिलिनकुवीिथषु चरन् राधािभधामुरन्
राधाया अनुपमेव परमं धम रसेनाचरन् ।
राधायारणाुजं पिरचरन् नानोपचारैमुदा
किह ां ुितशेखरोपिर चरायचया चरन् ॥१३८॥
‘ीजी’ की सेवा की ती इा –
ीराधा की ीड़ा भरी िनकु गिलय म िवचरण करते ए, ‘ीराधा’ नाम
का उारण करते ए, ीराधा के अनुप अपने परम धम (िकरी प) का
रसपूण आचरण करते ए, उनके चरणकमल की रसानुकूल सामिय से
सतापूवक सेवा करते ए (आय प उपरो सेवा का आचरण करते ए) कब
म वेदातीत आचरण के योय हो जाऊँ गी ?
यातायातशतेन सिमतयोरोवोसच्
चालोकनसभूतबलानाुिधोभयोः ।

श्रीराधासुधा�न�ध
६१

अःकुकुटीरतगतयोिदाुतीडयोः
राधामाधवयोः कदा नु णुयां मीरकाीिनम् ॥१३९॥
‘नूपुर-िन’ वणेा –
िजनका सिखय ने सैकड़ बार आ-जा कर संगम कराया है, िजसम व
ने-ेपण प मुखच-दशन से दोन ओर िवृत काम-समु कट हो रहे ह और
युगल िनभृत कु-कुटीर म ित िद शा पर िवरािजत हो ‘िद अुत ीड़ा’ म
संल ह; िजसम ‘ीजी की मीर और माधव की किट-िकिणी’ दोन की मधुर
सििलत- िन उ हो रही है; म उसे कब सुनूँगी ?
(“वह नूपुर िन कबै सुनैह ।
ियतम स ंग नक झुन बाजत, िससकिन िवषम ताल जो िमलैह ॥” (भोरी सखी)
युगल अिनवचनीय ‘गु-िवहार’ म संल ह ।)
अहो भुवनमोहनं मधुरमाधवीमडपे
मधूवसमुत्सुकं िकमिप नीलपीतिव ।
िवदधिमथुनं िमथोढतरानुरागोसन्
मदं मदयते कदा िचरतरं मदीयं मनः ॥१४०॥
ती इा –
अहो ! मधुर माधवी लता के मडप म िमलनोव के िलए अ
उिठत एवं परर के सुढ़ अनुराग मद से उिसत भ ुवन-मोहन नील एवं पीत
काि यु कोई अकथनीय चतुर युगल (ीराधा -माधव) मेरे मन को कब सवदा के
िलए उ करगे ?
राधानामसुधारसं रसियतुं िजाु मे िवला
पादौ तदकाितासु चरतां वृाटवीवीिथषु ।

श्रीराधासुधा�न�ध
६२
तमव करः करोतु दयं ताः पदं ायतात्
तावोवतः परं भवतु मे ताणनाथे रितः ॥१४१॥
उट इा –
‘ -रस’ के सवदा आादन के िलए मेरी िजा लालसा से
भर जाए; मेरे पग ीचरणांिकत ीवन की गिलय म ही िवचर; मेरे हाथ उनकी सेवा
म ही लगे रह; मेरा दय सदा उनके ीचरण के ान म रहे और उ के ित
उाह भरे भाव से उनके ाणनाथ ीकृ  म मेरी ीित हो ।
मीकृ मुकुसुरपदारिवामल –
ेमानममिमितलकाुादकं परम् ।
राधाकेिलकथारसाुिधचलीचीिभराोिलतम्
वृारयिनकुमिरवरािले मनो नतु ॥१४२॥
‘ीराधा-रस’ की सवता –
ीमुकु के सुर युगल चरणकमल का िनमल ेमान, चमौिल
भगवान् शंकर आिद के िलए भी परम उाद का मूल है िकु मेरा मन उसे भी
िशिथल करके ‘ीराधा-कथा-चचा’ के रस-समु की चल लहर से झकझोरा आ
वृावन म ित िनकु-भवन के भ आँगन म आन ा करे ।
राधानामैव काय नुिदनिमिलतं साधनाधीशकोिटस् –
ाज्यो नीरा राधापदकमलसुधासुमथाकोिटः ।
राधापादालीलाभुिव जयित सदा ममारकोिटः
ीराधािकरीणां ठितचरणयोरुता िसिकोिटः ॥१४३॥
‘ीराधा’ की मिहमा का पर –
यिद ‘ीराधा’ नाम वण-कीतन आिद के प म िमले तो करोड़  े

श्रीराधासुधा�न�ध
६३

साधन भी छोड़ िदए जायगे । ‘ीराधापदकमल-सुधा’ पर करोड़ मो आिद पुषाथ
वार िदए जाएँगे । ‘ीराधाचरणकमललीला-भूिम ीवृावन’ म अ वैभवशाली
करोड़ कवृ िवमान रहते ह । ‘ीराधा-िकरी’ के ीचरण म अुत करोड़
िसियाँ लोटती रहती ह अथात् ‘ीराधा-यश’ के आगे ये सब िनरथक ह ।
िमथोभीकोिटवहदनुरागामृतरसो –
रूभुिभतबिहररमहो ।
मदाघूणें रचयित िविचं रितकला –
िवलासंतुे जयित नवकैशोरिमथुनम् ॥१४४॥
युगल नव-िकशोर की सवेता –
िया-ियतम के परर के हाव-भाव िवार से ‘ेमामृत-रस’ बह चला,
िजसकी तरंग युगल िकशोर को भीतर और बाहर से ेम का ोभ उ कर रही ह;
िजसम भौह का नचाना ही लहर ह, इससे दोन के ने मदभरे गितशील हो रहे ह ।
इस कार नव-िकशोर-युगल िनकु भवन के म म रित-िवलास की रचना करके
सवता को ा हो रहे ह ।
कािचद् वृावननवलतामिरे नसूनोर् –
ोलढपरीरिनगाी ।
िदानाुतरसकलाः कयािवराे
साानामृतरसघनेममूितः िकशोरी ॥१४५॥
ेमपा ‘िकशोरीजी’ की िनता –
ननन ीकृ  की गवली बालताओं के गाढ़ आिलन से िजनके
ी-अ न रिहत अथात् िशिथलता को ा हो गए ह, जो अुत एवं अन
रस-कलाओं को उ करती ह, घनीभूत आनामृत-रस एवं ेम की सघन मूित

श्रीराधासुधा�न�ध
६४
अिनवचनीय कोई िकशोरी ीवृावन क े नवीन-लता-मिर म िन
िवराजमान ह ।
न जानीते लोकं न च िनगमजातं कुलपरं –
परां वा नो जानाहह न सतां चािप चिरतम् ।
रसं राधायामाभजित िकल भावं जमणौ
रहे तद् य िितरिप न साधारणगितः ॥१४६॥
ीराधा के रिसक का प –
जो महानुभाव इस एका ज म जमिण कृ म भाव और ‘ ीराधा’ का
िनित प से सरस भजन करते ह, वे तो न लोक को जानते ह, न वेद समूह को, न
कुल-पररा को और न साधुजन के चिर को; ऐसे रिसकजन की िित
असाधारण होती है ।
ानैकवादाः कितचन भगवनानमाः
केिचद् गोिवसानुपमपरमानमे दे ।
ीराधािकरीणां िखलसुखचमारसारैकसीमा
तादाोजराजखमिणिवलसोितरेकटािप ॥१४७॥
ीजी की िकरी भाव की ेता –
कोई एकमा ानवादी है, कोई भगव द्-वना के आन म उ है,
कोई ीगोिव के स भाव आिद म अनुपम परमान मानकर उसके आादन
म लगे ए ह िकु ‘ीराधा-िकिरय’ के सम सुख ‘चमार के सार की
एकमा सीमा ीराधाचरणकमल म िवलिसत ीनखोित की’ एक िकरण मा ही
है ।

श्रीराधासुधा�न�ध
६५
न देवैाैन ख हिरभैन सुदा –
िदिभयद् वै राधामधुपितरहं सुिविदतम् ।
तयोदासीभूा तपिचतकेलीरसमये
राः ाशा हर हर शोगचरियतुम् ॥१४८॥
‘राधा-भाव’ ही सवे –
ीराधामाधव की िनभृत िनकुलीला के रह को न तो ा आिद देवता
ही जान सके और न हिर-भ और न ीकृ के िमगण आिद भी िनित प से
जान पाए ह (भगवान् शंकर भी गोपी प से रास-ीडा तक ही सीिमत रहे) ।
ीराधामाधव के ारा पिरपु एवं ितण वमान अरंग केिल-रस को उ की
दासी बनकर ने से देखने की अद उट अिभलाषा (अन मनोरथ) मुझे है; हे
युगल सरकार मेरी इस आशा को केिल-रस का आादन कराकर शा कीिजए ।
(‘हर-हर’ क ी िरावृि ाथनाितशय की ोतक है । ‘रसकुा म’ - इस
ोक के थमचरण म “न व ेद ै ...” पद है तथा चतुथचरण म “हिर हिर...” पद है;
“हिर हिर...” पाठ अस ंगत तीत हो रहा है ।)
िय यामे िनणियिन िवदधे रसिनधौ
िये भूयो भूयः सुढमितरागो भवतु मे ।
इित ेेनोा रमण मम िचे तव वचो
वदीित ेरा मम मनिस राधा िवलसतु ॥१४९॥
ीयुगल की परर वाता –
“हे यामे ! हे िन णियनी !! हे िवदधे !!! हे िये !!! हे रस की िनिध !!!
मेरा बारार आपम ढ़ अनुराग हो ।” आपके ित इस कार ियतम यामसुंदर

श्रीराधासुधा�न�ध
६६

के कहे जाने पर, ‘मेरे दय म भी आपके ित ये ही वचन ह’ ऐसा कहती ई मंद
हाा ीराधा मेरे दय म सवदा िवलास कर ।
सदानं वृावननवलतामिरवरे् –
अमैः कपदरितकलाकौतुकरसम् ।
िकशोरं तोितयुगलमितघोरं मम भव –
लालं शीतैः पदमकरैः शमयतु ॥१५०॥
‘ीचरण-मकर-रस’ से भवाि की शाि –
ीवृावन की नवीन लता के े मिर म ती काम से उ, रित की
कलापूण कौतुक रस वाली, आनमय िकशोर आकृ ित वाली ‘युगल-ोित’ अपने
चरणकमल के शीतल मकर से मेरे चड और घोर ालापूण ििवध भव-ताप
को शांत करे ।
उीलवमिदामिवलसिभारे बृहच् –
ोणीमडलमेखलाकलरवे िशुमीिरिण ।
केयूरादकणाविललसोविदीिटे
हेमाोहकुलिन कदा राधे शा पीयसे ॥१५१॥
दशनेा –
िखली ई नयी मी की माला से शोभायमान केशपाश वाली ! हे पृथु
िनत मडल पर िकिणी की मधुर िन वाली ! बजते ए नूपुर धारण करने
वाली ! हे बाजूब अद तथा कण के समूह से शोिभत भुज-लताओं की दीिमान्
छटा वाली ! हे णकमल की कली जैसे न वाली ! हे ीराधे ! आपके ऐसे ‘प-
रस’ को म कब अपने ने से पीऊँ गी ?

श्रीराधासुधा�न�ध
६७

अमयादोीलुरतरसपीयूषजलधेः
तरैुैिरव िकमिप दोलाियततनुः ।
ुरी ेयोे ुटकनकपेहमुखी
सखीनां नो राधे नयनसुखमाधािस कदा ॥१५२॥
ािमनी से ाथना –
मयादा को तोड़कर उमड़ते ए ेमान प अमृत-सागर की उछलती ई
तरंग से आपका ीवपु अवणनीय प-यौवन से आोिलत हो रहा है । आप
ियतम के अंक म चल हो रही ह । णकमल के समान मुखवाली हे ीराधे !
आप हम सब सिखय के ने को कब आन दगी ?
रीव रमनुपमेमजलिधम्
सुधाधारावृीिरव िवदधती ोपुटयोः ।
रसाा सृी परमसुखदा शीतलतरा
भिवी िकं राधे तव सह मया कािप सुकथा ॥१५३॥
‘ािमनी’ से साषण की इा –
िजसके ेक अर से अनुपम ेम-समु िनझर की तरह बह रहा है, जो
कान म अमृतधारा की वषा का मानो िवधान करता है । हे ीराधे ! ऐसी
अिनवचनीय, रसीली, परम कोमल, अ शीतल और सुखभरी सुर वाता
आपके साथ ा कभी होगी ?
अनुिानानिप सदपराधान् मधुपितर् –
महाेमािवव परमदेयं िवमृशित ।
तवैकं ीराधे गृणत इह नामामृतरसम्
मिहः कः सीमां ृशित तव दाैकमनसाम् ॥१५४॥

श्रीराधासुधा�न�ध
६८
‘राधा-नाम’ माहा –
ज ‘ीराधा’ आपके इस एक ही नाम पी अमृत-रस को गाता है या
रण करता है, उसके अन महद् अपराध की भी गणना न करके मधुपित कृ
महान ेम म आिव होकर यह िवचार करते ह – इस नामोारक को ा दे द, िफर
िजने एकमा आपके दा-भाव को िच म ल कर रखा है, उनकी मिहमा की
सीमा कौन  सकता है ?
िलतनवलवोदारकपूरपूरम्
ियतममुखचोीणताूलखडम् ।
घनपुलककपोला ादयी मदाे –
पयतु िकमिप दासीवला किह राधा ॥१५५॥
‘ािमनी’ का अुत वा –
ीि े मुखच ारा चिबत नव लवंग चूण एवं भरपूर कपूर से यु
ताूल खड का आादन करने से िजनके कपोल पर रोमा हो रहा है; ऐसी
अवणनीय ‘दासी-वला ीजी’ कब चिबत उस ताूल (पान बीड़ा) को मेरे मुख म
दगी ?
सौयामृतरािशरुतमहालावयलीलाकला
कािलीवरवीिचडरपिरूजटािवः ।
सा कािप रकेिलकोमलकलावैिचकोिटुरत्
ेमानघनाकृितिदशतु मे दां िकशोरीमिणः ॥१५६॥
‘कै य’ की याचना –
ि े ने की कटा छटा मनोहर यमुना की लहर से िवलिसत है, जो
काम-ीड़ाओं की करोड़ कोमल कलाओं की िविचताओं का िवकास करती ह ।

श्रीराधासुधा�न�ध
६९

अा अुत महम लावय-लीला भी िजनकी एक अंशमा ह; वे ेमान
सघनमूित और सौयामृत की रािश अवणनीय िकशोरीमिण मुझे अपना
दाािधकार देकर दासी प से ीकार कर ।
कूलमितकोमलं कलयदेव कौसुकम्
िनबमधुमिकालिलतमाधिकम् ।
बृहिटतटुरुखरमेखलालतम्
कदा नु कलयािम तनकचकाभं महः ॥१५७॥
दशनेा –
कसूंभी (गुलाबी) रंग का कोमल पा धारण कर रखा है । िजसका जूड़ा
बासंती मिका की सुर मालाओं से बँधा आ है । िवशाल किटतट (िनत भाग)
पर चमकती और बजती ई कधनी शोिभत है । सुनहरे चा जैसी काि वाली उस
िकशोर-ोित को म कब देखूँगी ?
कदा रासे ेमोदरसिवलासेऽुतमये
शोमे ाजधुपितसखीवृवलये ।
मुदाः काेन रिचतमहालाकलया
िनषेवे नृ जननवताूलशकलैः ॥१५८॥
रास म सेवा की इा –
उद ेम के वश से रसीले अुत रास म, जहाँ मधुपित कृ  के चार
ओर कणाकार शोिभत सिखयाँ ह और िजसम मुिदत िच वाले का कृ के साथ
अपने ही ारा रिचत ला गित के साथ ीजी नृ कर रही ह; म कब पंखा, नव
ताूल, सुपारी आिद से उनकी सेवा कँगी ?

श्रीराधासुधा�न�ध
७०
सृमरपटवासे ेमसीमािवकासे
मधुरमधुरहासे िदभूषािवलासे ।
पुलिकतदियतांसे संवलापाशे
तदितलिलतरासे किह राधामुपासे ॥१५९॥
रास म ‘ािमनी’ की सेवा –
जह ुगित चूण (िपसा आ सुगित पदाथ) िबखरा आ है, ेम
अपनी पूण सीमा तक िवकिसत है; मधुर-मधुर हास-पिरहास हो रहा है, जहाँ िद
बजने-गहन की शोभा और रोमाित क पर पुलिकत भुजाएँ ह जो परर िलपटी
ई ह; उस कमनीय रास म कब म ीराधा की अचना कँगी ?
यिद कनकसरोजं कोिटचांशुपूणम्
नवनवमकरिसौयधाम ।
भवित लिसतचनमाम्
तदिप मधुरहां ददां न ताः ॥१६०॥
‘ीमुख’ रण –
य ुरता का धाम कोई ‘सुनहरा कमल’ करोड़ चमाओं की िकरण
से भरा आ है, िजससे नया-नया मकर िवत हो रहा है, िजसम दो चल खन
खेल रहे ह; ऐसा अनुपम कमल भी ‘ीजी के मुखकमल’ के मुुराहट की दासता
भी नह कर सकता है ।
सुधाकरमुधाकरं ितपदुराधुरी –
धुरीणनवचिकाजलिधतुिलं रािधके ।
अतृहिरलोचनयचकोरपेयं कदा
रसाुिधसमुतं वदनचमीे तव ॥१६१॥

श्रीराधासुधा�न�ध
७१

‘ीमुख’ की दशनेा –
जो ‘ीमुख’ चमा को भी थ करने वाला है, ितण चमकती ई
मधुरता के सार प ेतम िकरण के समु को बढ़ाने वाला है, जो ीकृ  के  ा से
दोन ने-चकोर से पान करने योय रस-समु ारा सक् उत है । हे ीराधे !
म उस मुखच को कब देखूँगी ?
अिरधुरतरमहाकीितपीयूषिसोर् –
इोः कोिटिविनदनमितमदालोलनें दधाः ।
राधायाः सौकुमायाुतलिलततनोः केिलकोिलनीनाम्
आनिनीनां णयरसमयान् िकं िवगाहे वाहान् ॥१६२॥
‘युगल-केिल’ दशन –
िजनके  से (प सौय के) मधुर से मधुर िवशाल वैभव वाले, कीित
पी अमृत-सागर बहते रहते ह; करोड़ चमाओं को लित करने वाला िजनका
‘ीमुख’ मद से भरे चंचल ने से यु है; अुत सुकुमारता और सुरता भरा िद
वपु है; उन ीराधा की ेमरस भरी, आन की िनझरणी केिल-सिरता के ेमरसमय
वाह म ा म कभी अवगाहन कँगी ?
मठे िकं नखरिशखया दैराजोऽि नाहम्
मैवं पीडां कु कुचतटे पूतना नाहमि ।
इं कीरैरनुकृतवचः ेयसा सतायाः
ातः ोे तव सिख कदा केिलकु जे मृजी ॥१६३॥
कु ‘कीर-वचन’ वणेा –
मेरे कठ म नख के अभाग से  पीड़ा देते हो, म कोई दैराज
(तृणावत) नह ँ । अरे, मेरे कुच-मडल म पीड़ा मत करो, म पूतना नह ँ ।

श्रीराधासुधा�न�ध
७२

हे सखी ! ियतम के समागम म तुारे तोताओं से अनुकरण िकये ए वचन को म
ातःकाल केिल-कु का माजन करती ई कब सुनूँगी ?
जासुषुिषु ुरतु मे राधापदाटा
वैकुठे नरकेथवा मम गितनााु राधां िवना ।
राधाकेिलकथा सुधाुिधमहावीचीिभराोिलतम्
कािलीतटकुमिरवरािले मनो िवतु ॥१६४॥
अनता की भावना –
ीराधा की केिल-कथा-समु की उाल तरंग म झकोरा लेता मेरा मन
ीयमुना के िकनारे ित लतामिर के ाण म ही आनित हो । जागते, सोते
और सुषुि (गहरी नद) म भी ीराधारानी के चरणकमल की छटा ही मेरे मन म
ुिरत होती रहे, उसके िबना वैकुठ अथवा नरक म भी मेरे मन की ‘ीराधा’ के
िबना अ गित न हो ।
अिले कािलीतटनवलतामिरगते
रतामदद्भूतमजलभरापूणवपुषोः ।
सुखशनामीिलतनयनयोः शीतमतुलम्
कदा कुया संवीजनमहह राधामुरिभदोः ॥१६५॥
सेवा की भावना –
अहो ! यमुना तटवत नए लता मिर के ाण म रित-ीड़ा-मदन से
कट ई म-जल-धारा से पिरपूण वपुवाले और श-आन से कुछ मुंदे ए नयन
वाले ीराधा-माधव की जोड़ी को म कब अनुपम शीतल पंखा झँगी ?

श्रीराधासुधा�न�ध
७३
णं मधुरगानतः णममिहोलतः
णं कुसुमवायुतः सुरतकेिलिशैः णम् ।
अहो मधुरससणयकेिलवृावने
िवदधवरनागरी रिसकशेखरौ खेलतः ॥१६६॥
िवहार की िनता –
आय है मधुर एवं सद् रस से पिरपूण ेमीडा से मनोरम वृावन म
चतुरिशरोमिण ीरािधका एवं रिसकिसरमौर ीकृ  णभर म मधुरगान के ारा,
िकसी ण म झूलनोव म ले झोटा लेते ए, िकसी ण पु से सुगित वायु
का सेवन करते ए और िकसी ण अद् भुत सुरत-केिल करते ए िवहार कर रह े ह ।
अ यामिकशोरमौिलरहह ाो रजा मुखे
नीा तां करयोः गृ सहसा नीपाटव ािवशत् ।
ोे तिमलहारितभरे ाेिप शीािरतम्
तीचीसुखतजनं िकमु हरेः ोराितम् ॥१६७॥
िवहार-चातुरी –
अ े ! आज संा समय अचानक ‘याम’ जो िकशोरिशरोमिण ह, वे
ीराधा की युगल भुजाओं को पकड़कर कदवन म वेश कर गये; वहाँ ीड़ा-
शा पर िमलने से जो महान-रित का वाह चला, उसके बढ़ने पर ीलालजी के
वण-रं की आय प ‘ीराधा की सुखभरी लहर के गजन के समान शीार’
को ा म िनकट से सुनूँगी ?
ीमाधे मथ मधुरं ीयशोदाकुमारे
ाे कैशोरकमितरसाद् वसे साधुयोगम् ।

श्रीराधासुधा�न�ध
७४
इं बाले महिस कथया िनलीलावयःीः
जातावेशा कटसहजा िकं नु या िकशोरी ॥१६८॥
‘कै शोर-ाक’ के दशन की इा –
“हे ीमित राधे ! यशोदानन ीकृ िकशोर अवा को ा हो चुके ह
और आप भी ेम की अिधकता के कारण उसी मधुर सुर योग को ा हो गई
ह ।” ऐसा कहते ही उनका िनलीला के अनुकूल िकशोर-आवेश कट आ;
उनकी िकशोरावा की ाि ा हम िगोचर होगी ?
एकं कानचकिव परं नीलाुदयामलम्
कपरलं तथैकमपरं नैवानुकूलं बिहः ।
िकं चैकं बमानभि रसवाटूिन कुवरम्
वीे ीडिनकुसीि तदहो ं महामोहनम् ॥१६९॥
युगल का िन िवहार –
एक (ीराधा) छिव ‘सुनहरी चा’ की तरह है और सरी छिव ‘सजल व
सघन नील मेघवत्’ है । एक (याम) कामर से चल है और सरा भीतर से
अनुकूल होकर भी बाहर से ितकूल है (वामागित को ा है) । एक मानभरी
भिमाओं से भरा आ है (मािननी राधा) तो सरा रस भरे वचन से चाटुकारी-
परायण है ( कृ ) । अहो ! ा म ीडा-िनकु की सीमा म उन महामोहन युगल
(ीराधा- मोहन) को देखूँगी ?
िविचरितिवमं दधदनुमाद् आकुलम्
महामदनवेगतो िनभृतमुकुोदरे ।
अहो िविनमयन् नवं िकमिप नीलपीतं पटम्
िमथो िमिलतमुतं जयित पीतनीलं महः ॥१७०॥

श्रीराधासुधा�न�ध
७५

युगल की रित-ीड़ा –
एका कु के भीतरी भाग म काम के महावेग से ाकुल दोन म से
(एक के बाद सरा) िविच रित-पराम को धारण करते ए िकसी अिनवचनीय ढंग
से नीलार का िविनमय भी करते ह; इस कार िनभृत-िनकु-मिर म अुत
अलौिकक प से िमली ई कोई अिनवचनीय ‘नीली और पीली ोित’ िवजय को
ा हो रही ह ।
करे कमलमुतं मयतोिमथऽसािपत –
ुरुलकदोलतायुगलयोः रोयोः ।
सहासरसपेशलं मदकरीभीशतैर् –
गितं रिसकयोयोः रत चावृावने ॥१७१॥
िनिवहार म युगल –
रमणीय वृावन म अुत कमल को अुत कार से घुमाते ए, परर
ंध पर रोमा भरी भुज-लताओं को अिपत िकए ए, काम से मतवाले ीवन के
िवहारी रिसकयुगल हँसी से सुर बने ए, उनकी सैकड़ म गजराज की मद भरी
भिमाओं के समान दोन रिसक की गित का हे मेरे मन ! तू रण कर ।
खेलुधािमीनुरदधरमणीिवुमोिणभार –
ीपायामोररकलभकटाटोपवोहायाः ।
गीरावतनाभेबहलहिरमहाेमपीयूषिसोः
ीराधायाः पदाोहपिरचरणे योयतामेव मृये ॥१७२॥
‘सेवा-योयता’ की चाह –
िजनके भोले ने ही दो चल मीन ह, िजनके मूंगामिण की तरह अधर
चमक रहे ह, िजनके पृथु िनत मडल ही ीप ह, उस ीप-िवार के तरंगाियत

श्रीराधासुधा�न�ध
७६
देश म काम पी हाथी के ब के गडल के समान दोन नमडल ह ;
िजनकी नािभ गीर भँवर के समान है; ऐसी ीकृ  की महाेमामृतिसु पा
‘ीराधा’ क े दोन चरणकमल की सेवा की योयता म चाहती ँ ।
िवेदाभासमानादहह िनिमषतो गािवंसनादौ
चंचािकोिटिलतिमव भवेद् बामरं च ।
गाढेहानुबिथतिमव ययोरुतेममूः
ीराधामाधवां परिमह मधुरं तयं धाम जाने ॥१७३॥
िवरहशू एकाभाव –
आय है केवल देह से िवलग होने के िनिमषमा िवयोग के आभास से ही
िजनके मन और शरीर म कािशत करोड़ लय की अि-ालाय धधक उठती ह ।
बस, गाढ़ ेह के बंधन से गुँथे ए अुत ेमिवह ‘ीराधा-माधव’ नाम वाले युगल
को ही इस संसार म अपना परम मधुर आय जानती ँ ।
कदा रुुं कचभरमहं संयमियता
कदा वा संधाे ुिटतनवमुाविलमिप ।
कदा वा कूयािलकमिप भूयो रचियता
िनकुावृे नवरितरणे यौवनमणेः ॥१७४॥
‘अरंग-सेवा’ की इा –
क ु म नये रित-रण के बाद युवितमिण ‘ीराधा’ के उु
केशपाश को बाँधूंगी ? उनकी टूटी मुामाला कब िपरोऊँ गी और कब कूरी से
पुनः ितलक की रचना कँगी ?

श्रीराधासुधा�न�ध
७७

िकं ूमोऽ कुठीकृतक जनपदे धािप ीिवकुठे
राधामाधुयवेा मधुपितरथ ताधुर वेि राधा ।
वृारयलीयं परमरससुधामाधुरीणां धुरीणा
तं ादनीयं सकलमिप ददौ रािधकािकरीः ॥१७५॥
‘ीधाम’ मिहमा –
(ीराधारानी के माधुय के अभाव से) अ की तो बात ा, वैकुठधाम
भी कुिठत हो गया है िक ‘ीराधा’ की मधुरता को ीमाधव ही जानते ह और
‘ीमाधव’ की मधुरता को केवल ीराधा ही जानती ह तथा इन आादन योय
युगल को परमरस की अमृतमयी माधुरी म सबसे अगय ीवृावन की भूिम ने
ीराधा-िकरीगण को आादन के िलए दान कर िदया है ।
लसदनपजा नवगभीरनािभमा
िनतपुिलनोसुखरकािकादिनी ।
िवशुरसवािहनी रिसकिसुसोदा
सदा सुरतरिणी जयित कािप वृावने ॥१७६॥
रसगंगा ‘ीराधा’ की जय – िजसम
फुित मुख ही कमल है, नयी गीर नािभ ही भँवर है, िनत ही पुिलन है; उस
देश म गूँजती ई ‘ कधनी’ मेघमाला है, िजसम केवल िवशु ेमरस ही बहता
रहता है और जो रस-सागर ीकृ  से संगम करने के िलए उ बह रही ह;
ीवृावन म बहने वाली उस अिनवचनीया रस-गंगा की सदा जय हो ।
अननवरिणीरसतरिणीसताम्
दधत् सुखसुधामये तनुनीरधौ रािधकाम् ।

श्रीराधासुधा�न�ध
७८
अहो मधुपकाकलीमधुरमाधवीमडपे
रुिभतमेधते सुरतसीधुमं महः ॥१७७॥
ीराधारस-तरंिगणी –
आ  है ! भौर के मंद गुन से भरे मधुर माधवीमडप म सुरतामृत से
म िद ‘नील-ोित’ काम-पीड़ा से ु होकर भी बढ़ रही है; उस िद ोित ने
अपने सुख भरे अमृतमय शरीर-समु म नए अन को भी अनुरित करने वाली
रस-तरिणी ‘ीराधा’ को धारण कर रखा है ।
रोमालीिमिहराजा सुलिलते बूकबुभा
सवाे ुटचकिवरहो नाभीसरःशोभना ।
वोजवका लसुजलता िशापतितः
ीराधा हरते मनो मधुपतेरेव वृाटवी ॥१७८॥
धामी ही धाम है –
ि रोमावली ही सूयपुी यमुनावत् है, िजनकी अकाि बूक-बु
(पु िवशेष) के समान है, िजनके सुर सभी लिलत अ म सुनहरी चा की छिव
कट हो रही है जो नािभ -सरोवर के कारण दशनीया बन गयी है; िजनके ीन ही
पु-गु ह, शोिभत भुजा ही लता है, आभूषण का श ही पिय की झंकार है;
ऐसी ‘ीराधा’ सरी वृाटवी की भाँित माधव के मन को हर रह ह ।
राधामाधवयोिविचसुरतारे िनकुोदर –
रसतैवपुरलवऽरागैः कदा ।
तैव ुिटताः जो िनपितताः साय भूयः कदा
कठे धारियताि माजनकृते ातः िवाहम् ॥१७९॥

श्रीराधासुधा�न�ध
७९

सुरतांत की सेवा –
ातःकाल िनकु-मिर के म भाग को सािजत करने के िलए वेश
कर ीराधामाधव की िविच लीला के आर म िबखरी ई शा म लगे सादी
‘अराग’ से कब अपने शरीर को सजाऊँगी और वह टूट कर िगरी ई ‘ पु-
मालाओं’ को िफर से गूँथकर कब अपने कठ म पहनूँगी ?
ोकाेयशोिताृहशुकानापयेिहिचद्
गुामुलहारबहमुकुटं िनमाित काले िचत् ।
आिल ियमूितमाकुलकुचौ सयेद् वा कदा् –
एवं ापृितिभिदनं नयित मे राधा ियािमनी ॥१८०॥
िवरह-लीला –
कभी िनकु-भवन के तोत को ियतम के यश का गान करने वाले ोक
को पढ़ाती ह, कभी गुाओं से सुर हार और मोरम ुकुट बनाती ह, कभी ियतम की
ियमूित का िचण करके उसे अपने सटे ए दोन न म लगा लेती ह; इस कार
के िया-कलाप से मेरी ािमनी ‘ीराधा’ अपने िवयोग भरे िदन िबताती ह ।
ेयःससुधासदानुभिवनी भूयोभवािवनी
लीलापमरािगणी रितकलाभीशतोािवनी ।
कायवभािवनी किटतटे काीकलारािवणी
राधैव गितममाु पदयोः ेमामृतािवणी ॥१८१॥
इ म सूण समपण –
जो सदा ही ियतम के िमलन सुख का आादन करती ह, जो पुनः होने
वाले संगम की कामना करती ह; जो लीलाकाल म राग ‘ पंचम’ गाती ह । जो रित-
कला की सैकड़ भिमाओं की भावना म लगी रहती ह, जो कणरस को कट करने

श्रीराधासुधा�न�ध
८०

वाली ह । जो किटदेश म करधनी की कलरव वाली ह, िजनके ीचरण से ेमामृत
झरता रहता है; वे ‘ीराधा’ ही मेरी एकमा गित ह ।
कोटीिवहािसनी नवसुधासारसािषणी
वोजितयेन हेमकलशीगविनवािसनी ।
िचामिनवािसनी नवनवेमोवोािसनी
वृारयिवलािसनी िकमुरहोभूयाृािसनी ॥१८२॥
प-वणनपूवक ‘ीजी’ से सिवास आशा –
जो करोड़ चमाओं की छिव का उपहास करने वाली ह, िजनका
साषण नए अमृत- सुधासमूह से भरा आ है; जो अपने दोन ीन से
णकलश की शोभा का ितरार करती ह; ेम के उव से उास भरी,
िचाम (वृहानु बरसाना) म िनवास करने वाली ह; वे ीवृावनिवलािसनी
(ीराधा) ा कभी मेरे िलए दय को उास देने वाली हगी ?
कदा गोिवाराधनलिलतताूलशकलम्
मुदा ादं ादं पुलिकततनुम ियसखी ।
कूलेनोीलवकमलिकिचना
िनवीताी सीतकिनजकलाः िशयित माम् ॥१८३॥
संगीत-िशिका ‘ीराधा’ –
ीगोिव की सता हे तु उनके ारा अिपत सुर पान-बीड़ी का
आादन लेने से िजनका शरीर बार- बार रोमाित हो रहा है, िजने नवीन कमल
के केशर के रंग वाला (पीला) पा अपने ीअ म धारण कर रखा है; वह हमारी
िय सखी ‘ीराधा’ कब अपनी संगीत-कलाओं की िशा मुझे दगी ?

श्रीराधासुधा�न�ध
८१
लसद्दशनमौिकवरकािपूरुरन् –
मनोनवपवाधरमिणटासुरम् ।
चरकरकुडलं चिकतचानेालम्
रािम तव रािधके वदनमडलं िनमलम् ॥१८४॥
‘ीराधामुखमडल’ रण –
हे राधे ! म आपके उस िनमल वदन-मडल का रण करती ँ, िजसम
शोिभत दपंि मोितय की उल काि से भरी ई है, अधर-पव बड़े
िचहारी ह, जो दीिमान िवुममिण (मूंगा) की छटा से भी अिधक सुर ह ।
कपोल पर चल मकर- कुडल और मुखमडल पर चिकत, सुर ने की कोर की
अुत शोभा है ।
चलुिटलकुलं ितलकशोिभभाललम्
ितलसवनािसकापुटिवरािजमुाफलम् ।
कलरिहतामृतिवसमुलं रािधके
तवाितरितपेशलं वदनमडलं भावये ॥१८५॥
‘ीमुख’ की भावना –
हे राधे ! चल घुँघराली लट वाली, ितलक से शोिभत ललाटवाली,
नासा के अभाग म ितल के फूल भाँित शोिभत मोती वाली, कलंक रिहत
अमृतिव से जो उल है, आपके उस रसीले और सुर ‘मुखमडल’ की म
भावना करती ँ ।
पूणेमामृतरससमुाससौभायसारम्
कुे कुे नवरितकलाकौतुकेनाकेिल ।

श्रीराधासुधा�न�ध
८२

उुेीवरकनकयोः कािचौरं िकशोरम्
ोितं िकमिप परमानकं चकाि ॥१८६॥
‘युगल-ोित’ भावना –
‘युगल-ोित’ ेमामृतरस की पूणता के उासपूण सुरता की भी सार
पा है, िजने नई-नई रित-कला के कौतुक से कु म केिल करना ीकार िकया
है; जो िखले ए नीले कमल और सोने की काि को भी हरण करने वाली है; वह
अवणनीय परमान का मूल िकशोर-आकार वाली ‘युगल-ोित’ अद् भुत शोभा को
ा हो रही है ।
ययोीलेलीिवलिसतकटाैककलया
कृ तो बी वृािविपनकलभेो मदकलः ।
जडीभूतः ीडामृग इव यदाालवकृते
कृती नः सा राधा िशिथलयतु साधारणगितम् ॥१८७॥
कृ पा से भव-िनवृि की याचना –
िजने िवकिसत ीड़ा-िवलास म उ कटा की एक ही कला से
ीवृावन के मद भरे ए िकशोर गजराज (ीकृ ) को बंदी बना िलया है; जो अित
नागर होते ए भी उनकी सांकेितक आा के वश म होकर ीड़ामृग (िखलौना) की
भाँित जड़ हो जाते ह; वही ‘ीराधा’ मेरी सांसािरक गित को गितहीन कर ।
ीगोपेकुमारमोहनमहािवे ुराधुरी –
साराररसाुरािशसहजिनेाले ।
कायाकटाभिमधुरेराननाोहे
हा हा ािमिन रािधके मिय कृपािं मना िनिप ॥१८८॥

श्रीराधासुधा�न�ध
८३
कृ प ा-कोर की याचना –
हे गोपराज कुमार को मोिहत करने वाली महािवा ! दीिमती माधुरी के
सार का भी िवार करने वाले रस-समु का सहज वाह करने वाले नेकमल वाली
हे िये ! “िजनकी कटा भिमाएँ कणा से भीगी ई ह; िजनका ‘मुखकमल’ मीठी
मुुराहट से भरा रहता है” हे ािमिन ीराधे ! हा ऽऽऽ हा ऽऽऽ (क ंजक
संबोधन) मुझ पर अपनी थोड़ी-स ी कृ प ाि कर ।
ओाोिलतदियतोीणताूलरागा
रागानुैिनजरिचतया िचभोयी ।
ितयीवा िचरिचरोददाकुितूः
ेयःपा िवपुलपुलकैमिडता भाित राधा ॥१८९॥
संगीत-िशिका की शोभा –
ज ेने के िलए अपना चिवत ताूल अधर तक ला
चुकी ह, िजससे ओ-ा म ललायी कािशत हो रही है । जो िविच भिमाओं के
साथ अपने ारा रिचत िविभ राग का उ र से गान कर रही ह, इससे ीवा कुछ
ितरछी हो रही है और दोन सुर भह कुछ मुड़ी ई ऊपर की ओर चढ़ रही ह ।
मधुर-रस िसि के आन से अिधक रोमाित होकर ‘ीराधा’ अपने ियतम के
पास म शोिभत हो रही ह ।
िकं रे धूवर िनकटं यािस नः ाणसा
नूनं बाला कुचतटकरशमााद् िवमुेत् ।
इं राधे पिथ पिथ रसान् नागरं तेऽनुलम्
िा भा दयमुभयोः किह संमोहिये ॥१९०॥

श्रीराधासुधा�न�ध
८४

सखी का अिधकार –
ीकृ को भी ंय म लताड़ती है – “ रे धूत-िशरोमिण, हमारी ाण
ारी सखी के पास  आते हो, र ही रहो । तुम नह जानते हो िक सुकुमारी बाला
ीन के शमा से ही तुम मूित हो जाओगे ।” हे ीराधे ! इस कार की
अपनी वाणी की चतुरता के ारा म चतुर रिसक को र हटा करके दोन के दय को
कब भलीभाँित आनित कँगी ?
कदा वा राधायाः पदकमलमायो दये
दयेशं िनःशेषं िनयतिमह जामुपिविधम् ।
कदा वा गोिवः सकलसुखदः ेमकरणाद्
अने धे वै यमुपनयेत रकलाम् ॥१९१॥
ीकृ  से क ा म-कला की िशा –
म कब ीराधा के दयापूण चरणकमल को दय म धारण करके इस संसार
म िनयिमत वेद-िविधय को पूणतः छोड़ूँगी और सभी सुख को देने वाले ‘गोिव’
काम-भावोीपक (गायन-वादन आिद) कलाओं की िशा ‘राधाजी के ित अनता
से ध मुझ दासी’ को िनित ही दगे ।
कदा वा ोामरसमरसंररभस –
ढेदाःुतिलतिचािखलतनू ।
गतौ कुारे सुखमित संवी परया
मुदाहं ीराधारिसकितलकौ ां सुकृितनी ॥१९२॥
सेवा का प –
उट सुरत-संाम म आिव वेग से उ ेद से िजनके वपु गीले और

श्रीराधासुधा�न�ध
८५

िशिथल से िचित हो रहे ह; उन ीराधा और रिसकशेखर ीकृ  को ‘जो कु म
ित ह’ म कब हष म भरकर पंखा कर पुयशािलनी बनूँगी ?
िमथःेमावेशाद् घनपुलकदोविरिचत –
गाढाेषेणोवरसभरोीिलतशौ ।
िनकुे वै नवकुसुमतेऽिभशियतौ
कदा पंवाहािदिभरहमधीशौ नु सुखये ॥१९३॥
चरण-सेवा की अिभलाषा –
‘िनकु-भवन के भीतर ित नए-नए पु से रची ई शा पर शयन
करते ए, दोन ही एक-सरे के ेमावेश से उ घनीभूत पुलकावली यु भुजाओं
से भरे ए, गाढ़ आिलन के उव-रस से यु, आन से मुँदी ई ि वाले दोन
अधीर’ को कब चरण-दबाने की सेवा से सुखी कँगी ?
मदाणिवलोचनं कनकदपकामोचनम्
महाणयमाधुरीरसिवलासिनोुकम् ।
लसववयःिया लिलतभिलीलामयम्
दा तदहमुहे िकमिप हेमगौरं महः ॥१९४॥
‘गौर-ोित’ दशन –
िजनके दोन ने मद से कुछ लाल हो रहे ह, िजनकी ‘गौरता’ कुन की भी
मदमोचनी है; जो महान ेम-माधुरी से यु रस-िवलास के िलए सदा उिठत
रहने वाली ह, िजनकी उास भरी कैशोर-शोभा अ सुर और ीड़ामयी है;
उन अिनवचनीय सुनहरी ‘गौर-ोित’ को म दय म धारण करती ँ ।

श्रीराधासुधा�न�ध
८६
मदाघूणें नवरितरसावेशिववशो –
सां ाणणयपिरपाां परतरम् ।
िमथोगाढाेषाद् वलयिमव जातं मरकत –
ुतणायं ुरतु िमथुनं तम िद ॥१९५॥
युगल का शा-िवहार –
म े झूमते ए ने वाले, नये ेमावेश से जो िववश और फुित हो रहे
ह; जो ाण से भी िय णय-पिरपाटी म परम े ह । पारिरक आिलन से
कणाकार बने ए इनीलमिण ‘याम’ और िपघले ए सोने की छिव वाली ‘गौर’
दोन मेरे दय म ुिरत ह ।
पररं ेमरसे िनमम् अशेषसोहनपकेिल ।
वृावनानवकुगेहे तीलपीतं िमथुनं चकाि ॥१९६॥
युगल रस –
प े ेमरस म िनम, सुरता भरी ीड़ाओं से मोिहत करने वाले
याम एवं गौर युगल ीवृावन के नव िनकु-भवन म कािशत ह ।
आशा दां वृषभानुजाया –
ीरे समा च भानुजायाः ।
कदा नु वृावनकुवीथी –
हं नु राधे ितिथभवेयम् ॥१९७॥
‘िकरी भाव’ की सफलता –
सूयपुी ीयमुना के तट पर ‘वृषभानुनिनी के दा-भाव को धारण
करके’ म ीमद् वृावन की क ु-गिलय म ा कभी अागत होऊँ गी ?

श्रीराधासुधा�न�ध
८७

कािलीतटकुे पुीभूतं रसामृतं िकमिप ।
अुतकेिलिनधानं िनरविध राधािभधानमुसित ॥१९८॥
ीराधारसामृत –
ीयमुना तट पर ित कु म अवणनीय केिल का आकर ‘ीराधा’ नाम
वाला अद् भुत रसामृत उमड़कर बह रहा है ।
ीितरेव मूितमती रसिसोः सारसिदव िवमला ।
वैदधीनां दयं काचन वृावनािधकािरणी जयित ॥१९९॥
वृावनरानी का वणन –
मूितमती ीितपा, रस-समु की सार-सि एवं चतुरिशरोमिण
सिखय की दयपा कोई ‘ीवृावन की ािमनी’ िवजय को ा हो रही ह ।
रसघनमोहनमूित िविचकेिलमहोवोिसतम् ।
राधाचरणिवलोिडतिचरिशखडं ह�रं वे ॥२००॥
िनकुिवहारी का प –
जो घनीभूत रस की मोहनी मूित ह तथा अद् भुत केिल-महोव से अलत
ह तथा िजनका मनोहर मयूरिप यु मुकुट ‘वृषभानुनिनी के चरण’ म लोटता
है; ऐसे ीकृ  की म वना करती ँ ।
कदा गायं गायं मधुरमधुरीा मधुिभदश् –
चिरािण ारामृतरसिविचािण बशः ।
मृजी तेलीभवनमिभरामं मलयज –
टािभः िसी रसदिनमाि भिवता ॥२०१॥

श्रीराधासुधा�न�ध
८८
सेवा म गान यु भावना –
‘मधुसूदन’ के घ नीभूत अमृत भरे इस पूण िविच और अन चिर को
मधुर से मधुर शैली से पुनः पुनः अनेक कार से गाती ई, उनके सुर केिल-भवन
का माजन करती ई, चन और पु रस से सचती ई, म कब रस-सरोवर म
िनम हो जाऊँ गी ?
उदोमाचयखिचतां वेपथुमतीम्
दधानां ीराधामितमधुरलीलामयतनुम् ।
कदा वा कूया िकमिप रचयेव कुचयोर् –
िविचां पालीमहमहह वीे सुकृितनी ॥२०२॥
‘राधारानी के प’ का वणन –
क ूरी से अपने न पर अवणनीय िविच पावली बनाने से
पुयशािलनी होकर म कब पुलिकत रोमावली से शोिभत, कित, अ मधुर
लीलामय तनु धारण करने वाली ‘ीराधा’ का दशन कँगी ?
णं सीत्कुवी णमथ महावेपथुमती
णं याम यामेमुमिभलपी पुलिकता ।
महाेमा कािप मदमदनोामरसदा
सदाना मूितजयित वृषभानोः कुलमिणः ॥२०३॥
ेम-वैिची –
अवणनीय कोई महाराज वृषभानु के कुल की मिण पा ‘ िकशोरीजी ’ की
जय हो; जो सदा आन की मूित ह, महाेम िपणी ह और कृ मद वाले
कामदेव को भी ेतम रस देने वाली ह । ेम-वैिची के कारण कभी सीार करने

श्रीराधासुधा�न�ध
८९
लगती ह, िकसी समय म अ कित हो जाती ह और िकसी ण म ‘ हे याम !
हे याम !!’ ऐसा लाप करके पुलिकत होने लगती ह ।
याः ेमघनाकृतेः पदनखोाभरािपत –
ाानां समुदेित कािप सरसा भिमािरणी ।
सा मे गोकुल भूपननमनोरी िकशोरी कदा
दां दाित सववेदिशरसां यहं परम् ॥२०४॥
सेवा-ाि की ती इा –
िजन घनीभूत ेममय िकशोरी के चरण के नख की चाँदनी के वाह म
ान करने से अंतःकरण म कोई अवणनीय चमािरणी भि का उदय होता है ।
गोकुल राजकुमार के भी िच को हरने वाली वे ‘िकशोरी’ कब मुझे वेदिशरोमिण
उपिनषद का परम रहप अपना दा दगी ?
कामं तूिलकया करेण हिरणा यालकैरिता
नानाकेिलिवदधगोपरमणीवृे तथा विता ।
या सुतया तथोपिनषदां ेव िवोतते
सा राधाचरणयी मम गितलाैकलीलामयी ॥२०५॥
सव ल की अनता –
ीकृ  के क रकमल ारा तूिलका से िजसम अनुकूल िच की रचना की
गई, जो अनेक ीड़ा-चतुर गोिपय के समूह म   ी कृ  से वित ह; जो वेद
िशरोप उपिनषद के दय म गु-भाव-रीित से िवमान ह; एकमा वही
लागित से लीलामय नृ करने वाले ‘ीराधा’ के युगलचरण मेरी गित ह ।

श्रीराधासुधा�न�ध
९०

साेमरसौघविषिण नवोीलहामाधुरी –
सााैकधुरीणकेिलिवभवायकोिलिन ।
ीवृावनचिचहिरणीबुरागुरे
ीराधे नवकुनागिर तव ीताि दाोवैः ॥२०६॥
ीजी के चरण की अनता –
हे घनीभूत ेमरस वाह को बरसाने वाली ! हे नवीन-िवकास से भरी महामाधुरी के
साा की सवे केिल (ृंगार केिल) के वैभव से यु कणा की सिरता ! हे
वृावनच के िच को हरण करने वाली ुिरत बंधन पा (री या बँधनी) ! हे
नये कु की चतुर नाियके ! हे ीराधे ! आपके दा के ‘भावोव म’ म िबक चुकी
ँ ।
ेदापूरः कुसुमचयनैरतः कटकाो
वोजेऽािलकिवलयो ह घमासैव ।
ओः सा िहमपवनतः सणो रािधके ते
ूराेवं घिटतमहो गोपये ेसम् ॥२०७॥
दा भाव की िवदधता –
िय सखी ीराधाजी के शरीर म पसीना र से पु-चयन के कारण है
(रित-म से नह) तथा न पर कंटक से िच (ण) हो गया है (नख-त से नह)
और इनका ितलक पसीने से ही धुल गया है (रित-ीडा से नह) और अधरो शीत
पवन से णयु हो गया है (द-त से नह); हे ीराधे ! आपके ारा यं िकए
गए िय संग को ूर (अनिधकािरणी) िय से इस कार कह कर िछपाऊँ गी ।

श्रीराधासुधा�न�ध
९१
पातं पातं पदकमलयोः कृभृेण ताः
ेराेोमुकुिलतकुचहेमारिवम् ।
पीा वाुजमितरसूनमः वेुम्
अावेशान् नखरिशखया पामानं िकमीे ॥२०८॥
िन िवलास की झाँकी –
ा “ियाजी के मुखकमल का मधुपान करके अ ेमावेश म
भरे ए ‘ीकृ  पी मधुकर’ को िनकु-भवन म वेश पाने के िलए बार-बार
ीचरणकमल म िगरकर ाथना करते ए और िव होने के बाद मधुरहामयी
चमुखी (ीराधा) के मुकुिलत दोन न प णकमल को अपने नख के
अभाग से िवदीण करते ए” देखूँगी ?
अहो तेऽमी कुादनुपमरासलिमदम्
िगिरोणी सैव ुरित रितरे णियनी ।
न वीे ीराधां हर हर कुतोपीित शतधा
िवदीयत ाणेिर मम कदा ह दयम् ॥२०९॥
काणमयी इा –
“अरे ! बड़े आय की बात है ! ये सब वही कु ह ! वही अनुपम रासल
है ! वही रितरंग णियनी ी गोवधन की गुहाय ह ! परु हाय ! हाय !! बत बड़ा
खेद है िक ीराधा के दशन नह हो रहे ह ।” हे ाणेरी ! इस क से मेरा दय
सैकड़ टुकड़ म खिडत होकर कब िबखर जाएगा ?
(ीवभ आिद आचाय ने ‘जीवमा’ को कािलयनाग बताया है, िजसकी
दस इियाँ िमलकर कािलय के १०० फन बन जाती ह; इन पर कृ नृ कर तो
सभी िवष-मु हो जायगी जो िक ‘ जवास’ से सव है, उसी िया का यह ोक
है ।)

श्रीराधासुधा�न�ध
९२

इहैवाभूत् कुे नवरितकलामोहनतनोर् –
अहो अानृद् दियतसिहता सा रसिनिधः ।
इित ारं ारं तव चिरतपीयूषलहरीम्
कदा ां ीराधे चिकत इह वृावनभुिव ॥२१०॥
धामवास की शैली –
(ेक कु म यही भाव आवे) इसी कु (गरवन-कु) म मोहनाी
ीराधा की नवीन रितकला की कुशलता कट ई थी; अहो ! रससागर पा
(ीराधा) ने इसी ल (रासमडल) पर ियतम के साथ नृ िकया था; इस कार
आपके चिरतामृत की लहर का बार-बार रण करती ई इस ‘ीवनभूिम म’ म कब
चिकत होकर रँगी ?
ीमिाधरे ते ुरित नवसुधामाधुरीिसुकोिटर् –
नेाे िवकीणाुतकुसुमधनुडसाडकोिटः ।
ीवोजे तवाितमदरसकलासारसवकोिटः
ीराधे दाात् वित िनरविधेमपीयूषकोिटः ॥२११॥
ीराधा का िद ऐय –
हे ीराधे ! आपके ी यु अधर िब से नयी-नयी अमृत माधुरी के
करोड़ िसु कट होते रहते ह । आपके नयन-कटा से पुधा कामदेव के
करोड़ अमोघ बाण चलते रहते ह । आपके ीन म अित उम मदभरी रितकला
का सार सव करोड़ कार से शोिभत होता है एव ं आपके ीचरणकमल से
िनरर िद  ेमामृत झरता रहता है ।
साानोदरसघनेमपीयूषमूः
ीराधाया अथ मधुपतेः सुयोः कुते ।

श्रीराधासुधा�न�ध
९३

कुवाणाहं मृमृपदाोजसंवाहनािन
शाे िकं िकमिप पितता ाता भवेयम् ॥२१२॥
‘तुखी सेवाभाव’ म अुत कृ पा-ाि –
‘घनीभूत आन के रस की उता स े भरे ेमामृत मूित ीराधा और
मधुपित ीकृ  को कु-शा पर नद आने पर’ युगल के अित कोमल
ीचरणकमल को दबाती ई शा के िनकट म ा ता ा होने से ढ़क
पड़ूँगी ?
राधापादारिवोिलतनवरसेमपीयूषपुे
कािलीकूलकुे िद किलतमहोदारमाधुयभावः ।
ीवृारयवीथीलिलतरितकलानागर तां गरीयो
गीरैकानुरागां मनिस पिरचरन् िवृताः कदा ाम् ॥२१३॥
सेवाफल ‘सविवृित’ –
यमुना तट पर िवमान िनकु म जो िक ीराधा के ीचरणकमल से
अंिकत एवं िनःसृत नवीन-रस-ेमामृत का समूह है । ‘अ उदार भावना से भरा
आ मेरा दय’ िजस भावना म ‘ीवृावन के कु की सुर गिलय म लिलत
कला म चतुर और अतुल गीर अनुराग की एकमा ािमनी ीराधा’ की मानसी
सेवा करता आ म अ सब कुछ कब भूल ज ा ऊँगा ?
अा राधाे िनिमषमिप तं नागरमिणम्
तया वा खेलं लिलतलिलतानकलया ।
कदाहं ःखाौ सपिद पितता मूितवती
न तामाास्याा सुिचरमनुशोचे िनजदशाम् ॥२१४॥

श्रीराधासुधा�न�ध
९४
िवयोग ृंगार रस –
नागर िशरोमिण ीकृ  ‘ीराधा’ के साथ अित सुर काम-कला म रत
थे िकु िनिमषमा के िलए ािमनी के अंक म उनको न देखकर मूित होकर
ःख सागर म सहसा िगरने से म ‘ीियाजी’ को धैय न बँधाने के कारण अपनी उस
िवलता की दशा का कब पाताप कँगी ?
भूयोभूयः कमलनयने िकं मुधा वायतेऽसौ
वाङ्माेण दनुगमनं न जेव धूः ।
िकिद् राधे कु कुचतटीाम दीयश् –
चुारा तमनुपिततं चूणतामेतु चेतः ॥२१५॥
सल ृंगार की पूणता –
(व से ािमनी से) आप केवल वचन से ही बार-बार इनको हटा
रही ह िकु ये धूतिशरोमिण, आपका पीछा िकसी कार छोड़ते ही नह ह, अतः
आप अपने कुचमंडल का थोड़ा दशन करा द, िजससे इनका कोमल िच इनकी
आँख से िनकलकर ‘ूल व गीर कुच-तटा’ म िगरकर चूर-चूर हो जाए ।
िकं वा नैः सुशाैः िकमथ तिदतैविभः सृहीतैर् –
याि ेममूनिह मिहमसुधा नािप भावदीयः ।
िकं वा वैकुठलाहह परमया य मे नाि राधा
िकाशाु वृावनभुिव मधुरा कोिटजारेिप ॥२१६॥
जवास की ती कामना –
ज ेम मूित राधारानी के मिहमामृत अथवा उनके भाव का वणन नह है,
उन सुर शा से हमारा ा योजन है अथवा उनका पालन करने वाले साधु-
पुष से भी हम ा, और तो और ीराधा रिहत वैकुठ की शोभा से भी हमारा ा

श्रीराधासुधा�न�ध
९५

योजन िकु करोड़ ज भी लग जाएँ, वृावन धाम के िवषय म मधुर आशा ही
िच म रहे ।
याम यामेनुपमरसापूणवणजपी
िा िा मधुरमधुरोारमुारयी ।
मुाूलायनगिलतानुिबही
ोमा ितपदचमुवती पातु राधा ॥२१७॥
ेम-वैिची –
ीकृ ेम-िवला ीराधा ‘याम-याम’ इन अनुपम रस भरे अर को
ित ण जपती ई, कभी अपने िवशाल ने से उस जप म क-क कर तार-र
से उारण करती ई ूल मोितय के समान अु-िबओं की वषा करती ई, िय
के आने के सम से चमृत होती ई, हष भरे पुलिकत रोमावली वाली ‘ीराधा’
हमारी रा कर ।
ताूितजपितसुतः पादयोम पिता
दाेणाथ धृततृणकं काकुवादावीित ।
िनं चानुजित कुते समायोमं चे
ुेगं मे णियिन िकमावेदयेयं नु राधे ॥२१८॥
ेम-वैिची –
हे णियनी ीराधे ! जराजनन मोहनमूित मेरे चरण म िगरकर दांत
के अभाग म ितनका दबाकर कपट रिहत अ चाटुकारी के श कहा करते ह;
‘म आपके साथ उनका िमलन करा ँ’ इस ल से मेरा पीछा भी करते ह; म उनके
इस द ै-वहार से उ उेग का आपसे कैसे िनवेदन कँ ?

श्रीराधासुधा�न�ध
९६
चलीलागा िचदनुचलंसिमथुनम्
िचत् केिके कृतनटनचनुकृित ।
लतािं शािखवरमनुकुवत् िचदहो
िवदधं तद् रमत इह वृावनभुिव ॥२१९॥
युगल का िन िवहार –
व ुर जोड़ी ीवृावनभूिम म लीलापरायण होकर कभी गित म हंस
की जोड़ी का अनुकरण करती है, कभी मयूर के आगे उनके नृ-भी का अनुकरण
करती है और कभी वृ से िलपटी लताओं का अनुकरण करके ीड़ारत है ।
ाकोशेीवराापदकमलचाहािर काा या
यत् कािलीयं सुरिभमिनलं शीतलं सेवमानम् ।
साानं नवनवरसं ोसेिलवृम्
ोितं मधुरमधुरं ेमकं चकाि ॥२२०॥
युगल-ोित की िन िवहारलीला –
ि ुगल ने अपनी काि से िखले ए नील एवं पीत कमल की शोभा को
चुरा िलया है, जो कािली की सुगित व शीतल वायु का सेवन करते रहते ह, वह
सघन आनमय नये-नये रस से पिरपूण एवं मधुर से मधुर ेम का उम ान है;
ऐसी वह ेम का आय प ‘युगल-ोित’ ीवृावन म िवराज रही है ।
कदा मधुरसािरकाः रसपमापयत्
दाय करतािलकाः चन नतयत् केिकनम् ।
िचत् कनकवरीवृततमाललीलाधनम्
िवदधिमथुनं तदुतमुदेित वृावने ॥२२१॥

श्रीराधासुधा�न�ध
९७

जोड़ी की िवहारलीला –
कभी मधुर र वाली सािरका (मना) को िनज रस के प को पढ़ाते ए,
कभी बार-बार ताली बजाकर मोर को नचाते ए, कभी सुनहरी लता से आिलित
तमाल-त के लीलानुकरण से चतुर एवं अद् भुत जोड़ी ीवृावन म जगमगा
रही है ।
पाल लिलतां कपोलफलके नेाुजे कलम्
रं िबफलाधरे च कुचयोः कामीरजालेपनम् ।
ीराधे नवसमाय तरले पादाुलीपिषु
ी णयादलकरसं पूणा कदा ामहम् ॥२२२॥
ती मनोरथ –
हे ीराधे ! आपके कपोल फलक पर सुर पावली, आपक े कमल-दल-
ने म काजल, िबाफल जैसे अधरो म रंग एवं युगल न पर केसर का लेप,
नये संगम के िलए उिठत चरण की अुिलय म ीितपूवक महावर लगाती ई
म कब मनोरथ से पूण बनूँगी ?
ीगोवधन एक एव भवता पाणौ याद् धृतो –
राधाविण हेमशैलयुगले ेऽिप ते ाद् भयम् ।
तद् गोपेकुमार मा कु वृथा गव परीहासतः
कवं वृषभानुनििन तव ेयांसमाभाषये ॥२२३॥
सुर स पिरहास –
हे गोपे कुमार ! तुारा गव करना थ है, तुमने तो एक ही गोवधन
पवत बड़े य से धारण िकया था िकु ‘ीराधा’ अपने सुर शरीर पर एक नह

श्रीराधासुधा�न�ध
९८
दो ण-पवत को धारण कर रही ह, िज देखकर के तुम भयभीत हो जाते हो ।
हेवृषभानुलािड़ली ! म कब ऐसा पिरहास आपके ियतम से कँगी ?
अनजयमलिनतिकिणीिडिडमः
नािदवरताडनैनखरदघातैयुतः ।
अहो चतुरनागरीनविकशोरयोमुले
िनकुिनलयािजरे रितरणोवो जृते ॥२२४॥
युगल की िन िवलासपरता –
सु ु भवन के आँगन म ‘चतुर नागरी और नवल िकशोर’ के काम-
िवजय घोिषत करता आ दोन की िकििणय का श, नािद अ का रस भरा
मदन एवं उन पर ीनख व दाँत से िकया गया वृण यु रित-यु पी उव
कािशत हो रहा है ।
यूनोव दरपानटकलामादीयी शो –
वृवाना चिकतेन सितमहारनं चाुरः ।
सा कािचद् वृषभानुवेमिन सखीमालासु बालावली
मौिलः खेलित िवमोहनमहासामािचती ॥२२५॥
िन यौवन का ाक –
िक दो युवक-युवती की नटकला को देखकर ला और भय से अपने नये
उ महार जैसे नमडल को चिकत भाव से ढकती ई मानो यौवन की
पाठशाला म ने ारा थम दीा हण की है; इस कार अिखल िव को मोिहत
करने वाले महाप-लावय का संह करती ई कोई अवणनीय ‘ललना-समूह
िकशोिरय की िशरोमिण’ अपनी सिखय के समूह के साथ वृषभानुभवन म ीड़ा कर
रही है ।

श्रीराधासुधा�न�ध
९९

ोितःपुयिमदमहो मडलाकारमाः
वुादयित दयं िकं फलदे ।
ू कोदडं नकृतघटनं सटाौघबाणैः
ाणान् हात् िकमु परमतो भािव भूयो न जाने ॥२२६॥
अात यौवना –
एक आय ! इस बाला के वःल पर दो मडलाकार ोित-पु अभी
से ही दय को उ बना रहे ह; आगे इस उाद से अिधक ा पिरणाम होगा ?
पता नह । ये ‘भह का धनुष’ कटा पी बाण-समूह के संयोग िबना ही ाण को
छीन रहा है, िफर बाण के साथ ा फल देगा ?
भोः ीदामुबल वृषभ ोककृाजुनााः
िकं वो ं मम नु चिकता गता नैव कुे ।
कािचद् देवी सकलभुवनाािवलावयपूरा
राद् एवािखलमहरत ेयसो वु सुः ॥२२७॥
‘ीरािधका’ का सवापहारी प –
(यामसुर की उि) हे ीदामा, सुबल, वृषभ, ोक कृ, अजुन आिद
सखाओ ! ा तुमने देखा, मेरी चिकत ि कु म वेश नह कर पायी । अपने
सौय के वाह से सूण लोक को डुबाने वाली िकसी अवणनीया देवी ने तुारे
िय सखा ीकृ  का सब कूछ ट िलया है ।
गता रे गावो िदनमिप तुरीयांशमभजद्
वयं हातुं ााव च जननी वनयना ।
अकात् तूीके सजलनयने दीनवदने
ठां भूमौ िय निह वयं ािणिणषवः॥२२८॥

श्रीराधासुधा�न�ध
१००

राधाप-दशन का कृ  पर भाव –
(सखाओं ने कहा - हे कृ  !) हमारी गाय र चली गयी ह, िदन भी अपने
चौथे भाग म पँच गया है अथात् समा-सा हो गया है । हम लोग भी तु छोड़कर
नह जा सकते । तुारी माँ (यशोदा) भी तुारे आने की आशा म माग पर ि
लगाए बैठी है । तुारे मूित होकर भूिम पर िगरने से और चुप हो जाने से , आँख
म अु और उदास हो जाने से यह िनित है िक हम लोग भी अब ाण धारण नह
करना चाहते ।
(रसकुा म ‘दातुम्’ के ान पर ‘ हातुम्’ पाठ माना है, वही यहाँ िलया
गया है या ‘दैप्, दाप् शोधने धातु’ से ‘दातुम्’ पाठ म भावाथ आ – ‘तुारे शोधन म
थक गए ह ।)
नासाे नवमौिकं सुिचरं णलं िबती
नानाभिरनरिवलसीलातराविलः ।
राधे ं िवलोभय जमिणं रटामरी
िचोदितकुकिगतयोवोजयोः शोभया ॥२२९॥
‘राधाप’ वणन –
हे ीराधे ! नािसका के अभाग म ण-जिटत उल नयी मुा को
धारण करने वाली आप यं अनेक कार के हाव-भाव से यु काम के रस-िवलास
से यु लीला-तरंग की पंि ह । आपके ‘युगल न’ रमयी िच-िविच चोली
से ढके ह; आप इनकी शोभा से जमिण कृ  को भलीभाँित लोिभत कर ।
अेे कृतिनयािप सुिचरं वीेत ोणतो
मौने दाढ्यमुपाितािप िनगदेत् तामेव याहीहो ।

श्रीराधासुधा�न�ध
१०१
अश सुधृताशयािप करयोधृा बिहयापयेद्
राधाया इित मानः िितमहं ेे हसी कदा ॥२३०॥
मानलीला की िविचता –
अ  है !!) यिप ीजी ियतम की ओर न देखने का िनय कर
चुकी ह, िफर भी ने की कोर से उ देर तक देखती रहती ह; ढ़तापूवक मौन
धारण करके भी ‘उसी के पास चले जाओ’ ऐसा कह देती ह । श न करने का
िनय करके भी ियतम के दोन हाथ पकड़कर कुभवन से बाहर िनकालती ह । म
हँसती ई ीराधारानी के मान की इस अिर व कठोर िित को कब देखूँगी ?
रसागाधे राधािद सरिस हंसः करतले
लसंशोतमृतगुणसः ितपदम् ।
चलिोंसः सुरिचतवतंसः मदया
ुरुागुः स िह रिसकमौिलिमलतु माम् ॥२३१॥
रिसकशेखर कृ  का दशन –
अ े दयपी अगाध रस से भरे सरोवर के जो हंस ह,
िजनके करकमल म शोिभत वंशी के िछ से अमृतगुण (आन) का पल-पल म
वण होता रहता है और िजनके मक पर चल मयूरचिका (मोरमुकुट), कृ 
मद वाली ीराधा ारा पहनाए गए स ुर कणफूल चमक रहे ह तथा गल े म
कािशत गुामाला शोिभत है; वे रिसक-चूड़ामिण मुझे ा ह ।
अकात् कािन् नववसनमाकषित परम्
मुरा धिे ृशित कुतेाकरधृितम् ।
पतन् िनं राधापदकमलमूले जपुरे
तिदं वीथीषु मित स महालटमिणः ॥२३२॥

श्रीराधासुधा�न�ध
१०२

बनायक की राधावशता –
वे अचानक िकसी (गोपी) की नयी चूनरी को खचने लगते ह और सरे के
जूड़े को मुरली से श करते ह, िकसी का हाथ पकड़ते ह िकु वही राधारानी के
पदकमल-मूल म सदा लोटते रहते ह; इस कार जपुर (वृषभानुपुर) की गिलय म
महालट के िशरोमिण (ीकृ ) घूमते रहते ह ।
एका रितचौर एव चिकतं चाानाे करम्
कृ ा कषित वेणुनासुशो धिमीजम् ।
धेाभुजविमुुलिकतां सेतयया
राधायाः पदयोठलममुं जाने महालटम् ॥२३३॥
बनायक की राधा-आधीनता –
सखी बोली – “इस महालट को म भलीभाँित जानती ँ, यह िकसी सखी
का रित-चोर है तो िकसी अ के न को चिकत होकर श करता है; िकसी सुर
ने वाली के जूड़े म लगी बेला के फूल की माला को अपनी वंशी से खचता है तो
िकसी अ की रोमाित भुजलता को पकड़कर धारण करता है; िकसी सरी को
कु के भीतर चलने का संकेत करता है िकु हमारी ‘ीराधा के चरण’ म पूणप
से लोटता ही रहता है ।”
ियांसे िनिोुलकभुजदडः िचदिप
मृारये मदकलकरीाुतगितः ।
िनजां ुतसुरतिशां िचदहो
रहः कुे गुञ्जािनतमधुपे ीडित हिरः ॥२३४॥
ीवनिवहार –
अहो ! वे ीकृ  कभी अपनी ियतमा के कंधे पर अपने रोमाित

श्रीराधासुधा�न�ध
१०३
भुजदड को डालकर मतवाले गजराज के समान ीवन म घूमा करते ह और कभी
भर से गुित एका कु म अपनी अ अुत सुरत-िशा को कट करते ए
ीड़ा करते ह ।
रे सृािदवाा न कलयित मनाारदादीन् भान्
ीदामाैः सुिन िमलित हरित ेहवृिं िपोः ।
िकु ेमैकसीमां मधुररससुधािसुसारैरगाधाम्
ीराधामेव जानधुपितरिनशं कुवीथीमुपाे ॥२३५॥
कुिवहारी की कुोपासना -
ीक े सृि आिद की बात को तो र कर िदया है । नारद आिद अपन े
भ का थोड़ा भी िवचार नह करते । ीदामा आिद सखाओं के साथ भी नह िमलते
ह और अपने माता-िपता (न-यशोदा) के ेहवृि को भी नह चाहते िकु वही
मधुपित (कृ) मधुर रस पी अमृतसागर के सार प अगाध ेम की एकमा
सीमा ‘राधारानी’ को ही जानकर िदन-रात कु गिलय म ही उपासना िकया
करते ह ।
सुासुरसतुिलिमीवरवृसुरं िकमिप ।
अिधवृाटिव नित राधावोजभूषणं ोितः ॥२३६॥
िन िया ‘ीराधा’–
सुर आ ादनीय सुर रस से पु, नील-कमल समूह के समान सुर,
ीराधा के वःल की आभूषण पा कोई अवणनीया ोित (  ी कृ )
ीवृावन म आनित हो रही है |

श्रीराधासुधा�न�ध
१०४

कािः कािप परोला नविमलीचिकोािसनी
रामाुतवणकाितिचिनािधकािवः ।
लानतनुः येन मधुरा ीणाित केिलटा
सुाफलचाहारसुिचः ाापणेनाुतम् ॥२३७॥
 ी कृ -तोषणी ‘ीराधा’ –
पल-पल म उल और नवीन शोभा यु चाँदनी को कािशत करने वाली,
अुत प रंग वाली ली आिद रमिणयाँ भी िजनकी काि को पूजा करती ह,
पल-पल म अिधक िवकिसत अ-ुित से जो यु रहती ह, ला से जो झुकी रहती
ह, मीठी मुान से मधुर ीड़ा-िवलास की छटा से यु ह । सुर मोितय के हार
से जो दीिमती ह, उल अवणनीय काि से जो यु ह, सव समपण के ारा
अुत (कृ ) को सु कर रही ह ।
यन् नारदाजेशशुकैरगं वृावने वुलमुकुे ।
तत् कृ चेतोहरणैकिवमाि िकित् परमं रहम् ॥२३८॥
रहमयी ीराधा –
इसी ीवन म मनोहर बत की कु म (‘बत’ का अथ अशोक वृ भी िलखा
है) नारद, ा, शंकर और शुकदेव आिद को भी अग ीकृ के िच को हरण
करने वाला रह (ी राधा) िवमान है ।
ला य न गोचरीभवित यापुः सखायः भोः
साोिप िवरिनारदिशवायुवाैन यः ।
यो वृावननागरीपशुपितीभावलः कथम्
राधामाधवयोममाु स रहोदाािधकारोवः ॥२३९॥

श्रीराधासुधा�न�ध
१०५

ीराधामाधव की िनकु-दासी होने का मनोरथ –
जो ली से भी अलित ह, ीकृ  के सखाओं को भी ा नह ह; ा,
नारद, शंकर, सनकािदक के ारा भी ा नह ह िकु वही ीवन की कुशल
गोिपकाओं (लिलतािद) के िकसी कार के भाव (सखीभाव) से ही ा ह । मुझे
उ राधा-माधव के एका दा का अिधकार-उव ा हो; ऐसा ल है ।
उिामृतभुवैव चिरतं वंवैव रन्
पादाोजरजवैव िवचरन् कुांवैवालयान् ।
गायन् िदगुणांवैव रसदे पयंवैवाकृितम्
ीराधे तनुवानोिभरमलैः सोऽहं तवैवाितः ॥२४०॥
अन शरणागित के िधा प का वणन –
हे ीराधे ! हे िद रस (दा रस) देने वाली ! आपके अमृतमय उि
(जूठन) को लेता आ, आपके चिर को ही सुनता आ, आपके चरणकमल की रज
का रण करता आ, आपके ही रासल-कु म िवचरण करता आ, आपक े ही
िद गुण-समूह का गान करता आ, आपकी ही रसमयी छिव का (भावना से)
दशन करता आ, शु काय-मन-वचन ारा म आपक े ही आित ँ ।
(इस ोक म ‘सखाभाव’ से ाथना की गई है ।)
ीडीनयााः ुरदधरमणीिवुमोिणभार –
ीपायामोरालरकलभकटाटोपवोहायाः ।
गीरावनाभेबलहिरमहाेमपीयूषिसोः
ीराधायाः पदाोहपिरचरणे योयतामेव िचे ॥२४१॥
सहचरी भाव का अेषण (साधना) – उन
ीराधा के दोन चरणारिव की पिरचया की योयता का अेषण करती ँ , िजसम

श्रीराधासुधा�न�ध
१०६
युगल ने, ीड़ा करती ई दो मछिलय के समान ह, दीिमान अधर ही िवुम मिण
(मूंगामिण) ह । िजनके पृथुल दोन िनत दो िवृत ीप ह, िजनके बीच म
कामपी गजशावक (हाथी के बे) के दो गडल के आडर (उभार) सश
दोन न ह । िजनकी नािभ ही गीर भँवर है, जो ीहिर के िलए िवशाल ेमामृत
की िसु पा ह ।
मालानिशया मृमृीखडिनघषणा –
देशेनाुतमोदकािदिविधिभः कुञ्जासाजनैः ।
वृारयरहःलीषु िववशा ेमाितभारोमात्
ाणेशं पिरचािरकैः ख कदा दाा मयाधीरी ॥२४२॥
ीजी की ीकृ ित से ही ‘सहचरीभाव’ की ाि –
ीव े िनभृत-िनकु म िवराजती ई अपने िय की ेम-ीड़ा के भार के
उदय से िववश ािमनी ‘ीराधा’ ियतम के िलए पुमाला गूँथने की िशा देती
ई, धीरे-धीरे कोमल चन िघसने का आदेश देती ई, अुत मोदक आिद बनाने
की िविध बताती ई, कु-ा के भीतर बुहारी लगाने की आा देती ई, सेवा-
सी िवृत काय म कब दासी प से मुझे ीकार करगी ?
ेमाोिधरसोसिणमारेण गीरग् –
भेदा भिमृितामृतनवोाित ीमुखी ।
ीराधा सुखधामिन िवलसृाटवीसीमिन
ेयोऽे रितकौतुकािन कुते कपलीलािनिधः ॥२४३॥
कुिवहािरणी ‘ीराधा’ –
ेमसमु के रस से उिसत तणावा के ार के कारण िजनकी ि -
भिमा गीर हो गई है, उस भिमा से यु मृ-मुान पी अमृत की नई चाँदनी

श्रीराधासुधा�न�ध
१०७

से िजनका ीमुख शोभा को ा हो रहा है, वही काम-कलाओं की िनिध ‘ीराधा’
शोिभत वृावन की सुखधाम-कु म ियतम के अंक म कौतुकभरी रित-ीड़ा कर
रही ह ।
शुेमिवलासवैभविनिधः कैशोरशोभािनिधः
वैदधीमधुराभिमिनिधलावयसििधः ।
ीराधा जयतान् महारसिनिधः कपलीलािनिधः
सौयकसुधािनिधमधुपतेः सवभूतो िनिधः ॥२४४॥
ीकृ  स व ा ‘राधा’ की जय –
उल-ेम-रस-िवलास के वैभव की िनिध, िकशोरावा की शोभा की
िनिध, चतुरताभरी मधुर अ की भिमाओं की िनिध, लावय पी सि की
िनिध, महारास की िनिध, काम लीला की िनिध, सुरता की एकमा अमृतमयी
िनिध और मधुपित कृ  की सवभूत िनिध ‘ीराधारानी’ की जय हो ।
नीलेीवरवृकािलहरीचौरं िकशोरयम्
ेतुचयोकाि िकिमदं पेण संमोहनम् ।
तामासख कु ितणीयं नौ ढं िित
ायामिभवी मुित हरौ राधाितं पातु नः ॥२४५॥
िवमोिहनी कृ  छिव –
ीियाजी के दोन नमडल म अपना ितिब देखकर ीलालजी
बोले – हे िये ! तुारे युगल न म नीलकमल की काि को हरण करने वाले दो
नव िकशोर शोिभत हो रहे ह, उनके इस प से मेरा मन सोिहत हो रहा है, अतः
आप मुझे अपनी सखी बना ल, िजससे ये दोन िकशोर हम दोन तिणय का ढ

श्रीराधासुधा�न�ध
१०८

आिलन करगे; इस कार ीकृ के मोह को देखकर किटत ‘ ीराधा का मृ
हा’ हमारी रा करे ।
सािप महोवेन मधुराकारां िद ेयसः
ायामिभवी कौुभमणौ सूतशोका ुधा ।
उिियपािणमेव िवनयेुा गताया बिहः
सै सा िनवेदनािन िकमहं ोािम ते रािधके ॥२४६॥
सम मानवती ‘ीराधा’ –
हे ीराधे ! तुारे सुख भरे िमलन-महोव म सििलत होने पर ियतम
के दय ल पर ित कौुभमिण म आप अपनी ितिबित मधुर छिव देखकर
उ ए ोध और शोक के कारण ीकृ के हाथ को झटककर ‘ अरे ढीठ’ ऐसा
कहकर कु के बाहर आय । आपके ारा इस घटना से आँसू भरे सिखय से िकए
गए िनवेदन को ा म सुनूँगी ?
महामिणवरजं कुसुमसयैरितम्
महामरकतभा िथत मोिहत यामलम् ।
महारसमहीपतेिरव िविचिसासनम्
कदा नु तव रािधके कबरभारमालोकये ॥२४७॥
कबरी (जूड़ा) छिव वणन –
हे ीराधे ! महामिणय की े माला और फूल के समूह से शोिभत, े
मरकतमिण की काि से यु ीयामसुर ारा गूँथे ए और उ की यामता
को मोिहत करने वाले रसराज ृंगार के िसासनवत् आपके उस कबरी (जूड़ा) भार
को म कब देखूँगी ?

श्रीराधासुधा�न�ध
१०९
मे मे कुसुमखिचतं रदाा िनबम्
मीमाैघनपिरमलैभूिषतं लमानैः ।
पााजिणवरकृतोदारमािणगुम्
धिं ते हिरकरधृतं किह पयािम राधे ॥२४८॥
वेणी (जूड़े) की छिव –
बीच-बीच म फूल ारा रिचत र की माला से जो बँधी ई है, घने पिरमल
वाली ली मालती-माला से शोिभत, पीछे के भाग म महामिण के गु से शोिभत
और ीकृ  के हाथ से बनायी ई आपकी वेणी को म कब देखूँगी ?
िविचािभभीिवतितिभरहो चेतिस परम्
चमारं यंल् लिलतमिणमुािदलिलतः ।
रसावेशाद्िवः रमधुरवृािखलमहो –
ुते सीमे नवकनकपं िवजयते ॥२४९॥
सीम म सुनहरी पी –
हे राधे ! सीम म ित अुत सुनहरी पी ही चार ओर जय को ा
हो रही है, वह सुनहरी पी सुर मिणमुाओं से जड़ी ई है, रस के आवेश से
िस है, सभी काम चिर से भरी ई है । हे राधे ! वह सुनहरी पी आपकी रस-
भिमाओं से हमारे िच को परम आय और आन दे रही है ।
अहो ैधीकतु कृितिभरनुरागामृतरस –
वाहैः सुिधैः कुिटलिचर याम उिचतः ।
इतीयं सीमे नविचरिसररिचता
सुरेखा नः ापियतुिमव राधे िवजयते ॥२५०॥

श्रीराधासुधा�न�ध
११०

सीम म ित िसर-रेखा का वणन –
हे ीराधे ! अतीव ेहयु पिरप अनुराग पी अमृत रस के अन
वाह से कुिटल (कुित), परम कमनीय एवं यामवण  के आपके केश को दो भाग
म िवभ करने के िलए मांग म नवीन मनोरम िसर से पुयाा गोपीजन ारा
िवरिचत ‘अण वण की सुर रेखा’ कुिटल (िभंगी) परम कमनीय यामसुर के
मन को दो भाग म िवभ करने के िलए सवथा अनुप (उिचत) ही है, यह हम
सखीजन को अवगत कराने के िलए यह ‘सुभग-सुर िसर रे खा’ िवजय को ा
हो रही है । ‘िसर-रे खा ’ ीिकशोरीजी के केश एवं यामसुर के मन को दो भाग
म िवभ कर चिरताथ (कृ तकृ ) होकर सवृ िवजय-भाव को ा हो रही है ।
(अनुरागामृत रस के अिवरल वाह का मूलोत िया-ियतम उभयिन ह । इस
‘अनुराग की अिणमा’ िसर-रे खा को रमणीय बना रही है, इसका अवलोकन कर
ियतम का मन िवधा म पड़ गया है – िकशोरीजी की कृ पा ा करने के िलए
गोिपय का सहारा ँ अथवा यं उनसे िनवेदन कँ ?
यह ‘अनुराग’ अमृत प होने से सनातन है अथात् काल-बा है, रस-
प होने से वत् ापक है तथा आा है ।
इस ोक म ‘ कुिटल िचर याम’ एवं ‘ैधी कतु’ म ेष है, अतः यह
उभयप म अित है ।
यामा-याम का ऐबोध, आन एवं रसव सिखय को आय म
डाल रहा है । “रसो वै सः” । “एकं ोितरभूद् े धा राधामाधव पकम्”।)
चकोरे वामृतिकरणिबे मधुकरस् –
तव ीपादाे जघनपुिलने खनवरः ।

श्रीराधासुधा�न�ध
१११
ुरीनो जातिय रससरां मधुपतेः
सुखाटां राधे िय च हिरण नयनम् ॥२५१॥
युगल की पारिरक ेमासि –
हे ीराधे ! ‘मधुपित ीकृ क े नयन’ तुारे मुखच के चकोर ह, तुारे
ीचरण के मधुकर ह, जंघा पी पुिलन के े खन ह । आपकी रस सरसी
(कुिडका – छोटे सरोवर) के चलमीन; आपका ‘ ीवपु’ जो सुख की अटवी है,
उसके हिरण हो रहे ह ।
ृा ृा मृकरतलेनामं सुशीतम्
साानामृतरसदे मतो माधव ।
अे पेहसुनयना ेममूितः ुरी
गाढाेषोिमतिचबुका चुिता पातु राधा ॥२५२॥
‘ीराधा’ से रा की ाथना –
 े कोमल करकमल से ीजी के अ शीतल सभी अ-
ंग के बार-बार श ारा घनीभूत आनामृत रससागर म म हो जाते ह और
जो अपने ियतम की गोद म िवरािजता ह, गाढ़ आिलन के कारण िजनका िचबुक
कुछ ऊपर उठ गया है; िजससे ीकृ ने उसका चुन िकया है, इससे वे और
चल हो उठी ह; वह कमलदललोचनी ेममूित ‘ीराधा’ हम सब की रा कर ।
सदा गायं गायं मधुरतरराधािययशः
सदा सााना नवरसदराधापितकथाः ।
सदा ायं ायं नविनभृतराधारितवने
सदा ायं ायं िववशिद राधापदसुधाः ॥२५३॥

श्रीराधासुधा�न�ध
११२

ती साधनपरता –
ीराधा की नयी िनभृत-केिल-कु के कानन म रहती ई, सदा मधुरतर
उनके ियरस का और नयी- नयी आनदाियनी ीराधावभ की कथाओ ं का बार-
बार गान करती ई, ीराधाचरणामृत का सदा ान करती ई म कब िववश दय
वाली हो जाऊँ गी ?
याम यामेमृतरससंािववणापि
ेमौात् णमिप सरोमामुैलपी ।
सवोाटनिमव गता ःखःखेन पारम्
काो िदनकरमलं ुती पातु राधा ॥२५४॥
ीराधा की िवरह-दशा –
‘याम ! याम !!’ इस अमृतरस को वािहत करने वाले वण को जपती
ई, सरे ही ण म ेमोठा से रोमाित होकर उर से आलाप करने लगती
ह; िच सभी ओर से उाटन को ा होता है । िदन के बीत जाने की इा करती
ह, इसीिलए िदनकर के ित अ कुिपत हो जाती ह; ऐसी िवला ‘ीराधा’ हमारी
रक बन ।
कदािचद् गायी ियरितकलावैभवगितम्
कदािचद् ायी ियसहभिविलिसतम् ।
अलं मुामुेितमधुरमुधलिपतैर् –
नयी ीराधा िदनिमह कदानयतु नः ॥२५५॥
िवरह म तदाकारता –
कभी ियतम की रितकला के व ैभव की गित का गान करती ह, कभी उनके
साथ होने वाले भावी िवलास म िनम हो जाती ह । कभी “छोड़ो ! मुझे छोड़ो !! बस

श्रीराधासुधा�न�ध
११३
हो गया ।” इस कार मीठा और मधुर लाप करती ई िदवस िबताती ह; वे ीराधा
हम कब आनित करगी ?
ीगोिव जवरवधूवृचूडामिणे
कोिटाणािधकपरमेपादालीः ।
कैयणाुतनवरसेनैव मां ीकरोतु
भूयो भूयः ितमुरिधािम संाथयेहम् ॥२५६॥
ीकृ  से ाथना –
हे ीगोिव ! ज की े नाियकाओं के समूह की जो च ूड़ामिण ह
(ीराधा), िजनके ‘चरणकमल की शोभा’ आपको अपने करोड़ ाण से भी अिधक
ारी है; वे मुझे अपने अुत और िन-नवीन कै य म ीकार कर, यही मेरी
बारार ाथना है ।
अनेन ीता मे िदशित िनजकैयपदवीम्
दवीयो ीनां पदमहह राधा सुखमयी ।
िनधायैवं िचेकुवलयिचं बहमुकुटम्
िकशोरं ायािम ुतकनकपीतिवपटम् ॥२५७॥
कृ ोपासना के फल प ‘राधादा-ाि’ –
ज ुखमयी राधा सभी की ि से अ र ह, वे स होकर अपनी
‘कै य पदवी’ मुझे दान कर िक म िपघले ए ण के समान पीतारधारी और
मयूरपंख रिचत मुकुटधारी, नीलेकमल की काि वाले कृ को दय म धारण
करके उनका ान करती ँ ।

श्रीराधासुधा�न�ध
११४

ायंं िशिखिपमौिलमिनशं ताम सीतयन्
िनं तरणाुजं पिरचरंवय जपन् ।
ीराधापददामेव परमाभीं दा धारयन्
किहां तदनुहेण परमोद्भूतानुरागोवः ॥२५८॥
‘युगल-पाता’ की साधनचया –
मक पर मोरप ंखधारी ीकृ  का ान करता आ, उनका नाम-कीतन
करता आ, उनके चरणकमल की िन सेवा करता आ, उनके मंराज का जप
करता आ, सव ल ीराधाचरण-कै य को दय म धारण करता आ; म कब
उनकी कृ पा से परम अनुरागोवशाली ह ो ऊँगा ?
ीराधारिसकेपगुणवीतािन संावयन्
गुामुलहारबहमुकुटाावेदयंातः ।
यामेिषतपूगमानवगाै संीणयंस् –
ादानखटारसदे मा कदा ामहम् ॥२५९॥
युग ल कृ प ा-ाि ‘शीलता’ का माग –
ीराधा और रिसक चूड़ामिण के प, गुण आिद से यु गीत-समूह को
सुनती ई तथा रिसक ीकृ क े आगे सुर गुामिणय का सुर हार व
मोरमुकुट आिद समिपत करती ई, यामसु र कृ  से भेजे ए सुपारी, माला, इ
आिद के ारा आपको स करती ई म कब आपके ीचरणकमल की नखमिण
छटा प ‘ रस-सरोवर’ म म हो जाऊँ गी ?
ासौ राधा िनगमपदवीरगा कु चासौ
कृाः कुचमुकुलयोररैकावासः ।

श्रीराधासुधा�न�ध
११५
ाहं तुः परममधमः ायहो गकमा
यत् तन् नाम ुरित मिहमा एष वृावन ॥२६०॥
धाम की मिहमा –
कहाँ तो वैिदक माग से अ र ीराधा और कहाँ उनके
ीयुगलनकमल के म म एका-भाव से रहने वाले ीकृ  । अरे ! कहाँ तो म
परम अधम िनित कम करने वाला तु ाणी, इतने पर भी उनका नाम (ीराधा)
मुझसे ुिरत होता है; यह िनय ही ‘ीवृावन धाम’ की मिहमा है ।
वृारये नवरसकला कोमलेममूः
ीराधायारणकमलामोदमाधुसीमा ।
राधां ायन् रिसकितलकेनाकेलीिवलासाम्
तामेवाहं कथिमह तनुं  दासी भवेयम् ॥२६१॥
सव कृ पा-ाि –
ीवृावन म नवीन-रस-कला की ेममूित ‘राधारानी’ का ान करती ई,
िजने रिसकशेखर ीकृ  के साथ केिल-िवलास करना ीकार कर िलया है; ऐसे
इस धाम म देहाग के बाद उनके चरणकमल के आमोद-माधुरी की सीमा पा
‘दासी’ म कब होऊँ गी ?
हा कािलि िय मम िनिधः ेयसा ािलतोभूद्
भो भो िदाुततलतारशभाजः ।
हे राधाया रितगृहशुका हे मृगा हे मयूराः
भूयो भूयः णितिभरहं ाथये वोऽनुकाम् ॥२६२॥
धाम-िनवासी सभी से ाथना –
हे ीयमुने ! आपके जल म मेरी सव िनिध पा ािमनी ीराधा,

श्रीराधासुधा�न�ध
११६
िजनका ालन यं ियतम कृ  ने िकया है, िजनके साथ आपने जल-िवहार
िकया है । अरे ! िद, अुत वृ और लतागण !! तुम सभी उनके कोमल करश
भागी हो । राधारानी के रितगृह म रहने वाले हे शुको ! हे मृगो !! हे मयूरो !!! म
बार-बार आप सबकी कृ पा-ाि के िलए णितपूवक ाथना करती ँ ।
वही राधायाः कुचकलशकामीरजमहो
जलीडावेशाद् गिलतमतुलेमरसदम् ।
इयं सा कािली िवकिसतनवेीवरिच –
दा मीभूतं दयिमह सीपयतु मे ॥२६३॥
ीयमुना की कृ पा-याचना –
अरे ! जो जल-ीड़ा म आिव होकर ािलत  और अनुपम न
कलश म लगी ई ेम-रस-दाियनी केसर को वािहत करती रहती ह, वही िखले ए
नीलकमल की शोभावाली किलनिनी यमुना मेरे मंद-दय को कािशत कर ।
सोगी सुयसारसदानैकसन्मूयः
सवऽुतसिहि मधुरे वृावने सताः ।
ये ूरा अिप पािपनो न च सतां सा या ये
सवान् वुतया िनरी परमाराबुिमम ॥२६४॥
धाम-मिहमा –
अ ुत मिहमा से भरे ए मधुर वृावन म िजनका वास है, वे भले ही ूर,
पापी व सन के दशन और साषण के अयोय ह िकु वे भी योगी के समूह
के सुर दशन योय सघन-रस देने वाले एकमा आन की मूित ह; तािक ि
से देखकर उनके ित मेरी परम आरा बुि रहे ।

श्रीराधासुधा�न�ध
११७
यद् राधापदिकरीकृतदां सवेद् गोचरम्
ेयं नैव कदािप यद् धृिद िवना ताः कृपाशतः ।
यत् ेमामृतिसुसाररसदं पापैकभाजामिप
तद्वृावनवेशमिहमाय िद ूजतु ॥२६५॥
ीधाम-माहा –
ीधाम की वह आयमयी वेश मिहमा मेरे दय म ुिरत हो, जो
ीराधाचरण म िकरी-भाव भरे दय वाल के िलए सक् कार से िगोचर हो
सकती है, जो ीराधा की कृपा के श के िबना दय म नह आती है और जो
एकमा पापभागी महापािपय को भी  ेमामृत पी समु का सार “रस” दान करती
है ।
राधाकेिलकलासु साििण कदा वृावने पावने
वािम ुटमुलाुतरसे ेमैकमाकृितः ।
तेजोपिनकु एव कलयन् नेािदिपडितम्
ताोिचतिदकोमलवपुः ीयं समालोकये ॥२६६॥
धामवास का फल ‘प-ाि’ –
म कब ेम के िववश आकार वाली होकर ीराधा की ीड़ाओं के साी
कट, उवल अुत रस से भरे ए पिव ीवन म िनवास कँगी तथा ने आिद
िपड म ित तेजोमय िनकु की भावना करती ई उसी के फलप उपयोगी
अपना कोमल (िकरी) वपु देखूँगी ?
य य मम जकमिभनारकेऽथ परमे पदेऽथ वा ।
रािधकारितिनकुमडली त त िद मे िवराजताम् ॥२६७॥

श्रीराधासुधा�न�ध
११८
धामिना से सूण कम-िनवृि और परमपद-ाि –
जहाँ-जहाँ मेरा ज हो – ‘ कमवश’ नरक म, ग म अथवा परमपद पर
जाकर भी ी राधा-केिल की कु-मडली (युगल, सहचरी और वृावन) मेरे दय
म सदा िवरािजत रहे ।
ाहं मूढमितः  नाम परमानैकसारं रसः
ीराधाचरणानुभावकथया िनमाना िगरः ।
लाः कोमलकुपुिवलसृाटवीमडले
ीडीवृषभानुजापदनखोितछटाः ायशः ॥२६८॥
दैपूण ीजी का ान –
कहाँ तो मंदबुि म और कहाँ परमान का भी सार रसप उनका
‘ीनाम’, िफर भी ीराधारानी के चरण-भाव-कथन वाला आोिलत हो रहा यह
मेरा वा-समूह जो िक कोमल कुसमूह म ीवृावन म संल ायः
ीड़ापरायण वृषभानुलािड़ली की पद-नख-ोित की छटा से यु है ।
ीराधे ुितिभबुधैभगवताामृय सैभवे
ोकृपात एव सहजो योयोहं कािरतः ।
पेनैव सदापरािधिन महाग िव दे –
काशे ेहजलाकुलाि िकमिप ीितं सादीकु ॥२६९॥
अिम ाथना –
हे राधे ! आपका वैभव ुितय, बुजन और यं भगवान् के ारा भी
ढूँढा जाता है; ऐसे व ैभव का वणन आपकी कृ पा से ो पप म करने के िलए म
सरलता से योय बना िदया गया ँ । अतः ेहजल से पूण व दया से ाकुल ने

श्रीराधासुधा�न�ध
११९
वाली ‘ीराधा’ मुझ महत् अपराधी और महत् माग के िवरोधी िकु एकमा
तुारी ही आशा रखने वाला म ुझे अवणनीय कृ पा-ीित का साद दान कर ।
अुतानलोभेन् नाा रससुधािनिधः ।
वोऽयं कणकलशैगृहीा पीयतां बुधाः ॥२७०॥
-फलुित और आदेश –
हे ि ! यिद आपको अुत आन का लोभ है तो इस ‘रस-सुधा-
िनिध’ ो को हण करके अपने कण-कलश से पान कर ।

श्रीराधासुधा�न�ध
१२०


ुत  म यु छ का िववरण
अनुुप् लणम् –
ोके षं गु ेयं सव लघु पमम् ।
िचतुादयों समं दीघ मयोः ॥
इस वृ के ेक पाद म ८ अर होते ह । सव ५वाँ वण लघु एवं ६वां गु होता है ।
ितीय एवं चतुथ पाद म ७ वां वण  तथा थम व तृतीय पाद म सम वण गु या
दीघ होता है ।
(ुत  का ोक २७० 'अनुुप् छ' म है ।)
आयावृम् –
याः पादे थमे ादश माा था तृतीयेऽिप ।
अादश ितीये चतुथके पदश साऽऽया ॥
अथात् – िजसके थम एवं तृतीय पाद म १२- १२ माा होती ह तथा ितीय पाद म १८
माा चतुथ पाद म १५ माा होती ह । उसे आया कहते ह । यह मािक छ है ।
(ुत  का ोक २०० आया छ म है ।)
गीित वृ लणम् –
आय थम दलों, यिद कथमिप लणं भवेभयोः ।
दलयोः कृ तयितशोभां, तां गीितं गीतवान् भुजेशः ॥
अथात् – िजस छ के पूवा एवं उराध म आया के पूवा का लण घिटत होता है,
उसे 'गीित वृ छ' कहते ह । आया के थम पाद म १२ माा एवं ितीय पाद म १८
माा होती ह । यह मािक छ है ।
उदाहरण –  कृ त  का १९८ वां ोक ।
ऽऽ। ।।। ऽऽ, ।।। ।।। ऽ।ऽ ।ऽ। ।ऽ

श्रीराधासुधा�न�ध
१२१


[ुत  के २ ोक (ोक संा – १९८, २३६) 'गीित छ' म ह ।]
गाथा वृम् –
िवषमार पादं वा पादै रसमं दशधमवत् ।
यो नोम गाथेित तत् सूिरिभः ोम् ॥
अथात् – िवषम अर एवं िवषम पाद ४ पाद से िभ-पाद होते ह उ गाथा छ कहते
ह ।
उदाहरण –  कृ त का का १९९ वां ोक िवषमार है ।

(ुत  का ोक १९९ 'गाथा छ' म है ।)




इवा और उपेवा के चरण जब एक ही छ म यु ह तो उस छ को
उपजाित कहते ह।
[ुत  के २ ोक (ोक संा – १९६,१९७) 'उपजाित छ' म ह ।]


'इवा छ' एक सम वण वृ छ है, इसके ेक चरण म ११- ११ वण होते ह ।
'इवा' के ेक चरण म दो तगण, एक जगण और दो गु के म से वण रखे जाते
ह ।
(ुत  का ोक २३८ 'इवा छ' म है ।)
उपजाित –
। ऽ । ऽ ऽ । ।ऽ । ऽ ऽ
अनरोदीिरतलभाजौ
ऽ ऽ । ऽ ऽ ।। ऽ । ऽ ऽ
पादौ यदीयावुपजातयाः

इवा –
ऽ ऽ । ऽ ऽ । । ऽ । ऽ ऽ
ािदवा यिद तौ जगौ गः

श्रीराधासुधा�न�ध
१२२





िजस छ म मशः जगण सगण जगण लघु एवं अंत म गु होता है तथा ८ एवं ९
वण पर िवराम होता है, उसे 'पृी छ' कहते ह ।
[ुत  के २७ ोक (ोक संा –
५७,५८,८१,८३,९०,९२,१०९,१११,११२,११३,११९,१२२,१३२,१४०,१५७,१६१,१६६,
१७०,१७१,१७६,१७७,१८४,१८५,१९४,२२१,२२४,२४७) 'पृी छ' म ह ।]




'मााा छ' के ेक चरण म मशः मगण भगण नगण दो तगण एवं अंत म
दो गु वण होते ह तथा ४, ६ एवं ७ वण पर यित होता है ।
[ुत  के ३२ ोक (ोक संा –
६२,६६,८४,८६,८८,९९,१०३,१०७,१३३,१३६,१४५,१६३,१६८,१८६,१८९,१९०,२०७,
२०८,२१२,२१५,२१७,२१८,२२०,२२६,२२७,२४८,२५२,२५४,२५६,२६०,२६१,२६२)
'मााा छ ' म ह ।]




िजस छ के ेक चरण म मशः रगण नगण रगण लघु एवं गु होता है, वह
'रथोता' कहा जाता है ।
(ुत  का ोक २६७ 'रथोता छ' म है ।)
पृी –
। ऽ । । । ऽ । ऽ।। ।ऽ । ऽ ऽ ।ऽ
जसौ जसयला वसुहयित पृी गुः

मााा –
ऽ ऽ ऽ ऽ ।। । ।।ऽ ऽ । ऽ ऽ । ऽ ऽ
माााऽ ुिधरसनगैम भनौ तौ गयुमम्

रथोता –
ऽ। ऽ ।। । ऽ । ऽ । ऽ
रारािवह रथोता लगौ

श्रीराधासुधा�न�ध
१२३







िजस छ के ेक चरण म मशः 'तगण', 'भगण', 'जगण', 'जगण' और अंत म दो
गु वण होते ह उसे 'वसितलक छ' कहते ह ।
[ुत  के ४९ ोक (ोक संा १-४९) 'वसितलक' छ म ह ।]



'िशखिरणी छ' के ेक पाद म मशः यगण मगण नगण सगण भगण लघु एवं
अंत म एक गु वण होता है तथा ६ एवं ११ वण पर यित होता है ।
[ुत  के ४७ ोक (ोक संा –
५०,५१,५२,५३,५४,५५,६५,१०४,१०५,१०६,११५,१३७,१४४,१४६,१४८,१४९,१५०,
१५८,१५२,१५३,१५४,१६५,१७४,१८३,१८७,१९१,१९२,१९३,१९५,२०१,२०२,२०३,
२०९, २१०,२१४,२१९,२२८,२३१,२३२,२३४,२४९,२५०,२५१,२५३,२५५,२५७,२६३)
'िशखिरणी छ' म ह ।]



'शालिवीिडत छ' के ेक पाद म मशः मगण सगण जगण सगण दो तगण
एवं अंत म गु वण होता है तथा १२ एवं ७ वण पर यित का िनयम है ।
वसितलक –
ऽ ऽ । ऽ । । । ऽ । । ऽ । ऽ ऽ
ेयं वसितलकं तभजा जगौ गः

िशखिरणी –
। ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ । । । । । ऽ ऽ । । । ऽ
रसै ैिछा यमनसभला गः िशखिरणी

शालिवीिडत –
ऽ ऽ ऽ । । ऽ । ऽ । । । ऽ ऽ ऽ। ऽ ऽ । ऽ
सूया ैयिद मः सजौ सततगाः शालिवीिडतम्

श्रीराधासुधा�न�ध
१२४


[ुत  के ८७ ोक (ोक संा –
५६,५९,६०,६१,६३,६४,६७,६८,६९,७०,७१,७२,७३,७४,७५,७६,७७,७८,७९,८०,८२,८५,
८७,८९,९३,९४,९५,९६,९७,९८,१००,१०१,१०२,१०८,११०,११४,११६,११७,११८,१२०,
१२१,१२३,१२५,१२८,१२९,१३१,१३४,१३५,१३८,१३९,१४१,१४२,१५१,१५६,१६४,
१६७,१६९,१७८,१७९,१८०,१८१,१८२,१८८,२०४,२०५,२०६,२२२,२२३,२२५,२२९,
२३०,२३३,२३७,२३९,२४०,२४२,२४३,२४४,२४५,२४६,२५८,२५९,२६४,२६५,२६६,
२६८, २६९) 'शालिवीिडत छ' म ह ।]



'धरा छ' के ेक पाद म मशः मगण रगण भगण नगण और तीन यगण होते
ह तथा ७-७ वण पर यित का िनयम है ।
[ुत  के १६ ोक (ोक संा –
९१,१२४,१२६,१२७,१३०,१४३,१४७,१६२,१७२,१७३,१७५,२११,२१३,२१६,
२३५,२४१) 'धरा छ' म ह ।]


'मािलनी छ' के ेक चरण म मशः दो नगण एक मगण एवं दो यगण होते ह तथा
८ एवं ७ वण पर िवराम होता है ।
[ुत  के ३ ोक (ोक संा – १५५,१५९,१६० ) 'मािलनी छ' म ह ।]
धरा –
ऽ ऽ ऽ ऽ । ऽ ऽ । । । । । ।ऽ ऽ । ऽ ऽ । ऽ ऽ
 ैयानां येण िमुिनयितयुता धरा कीिततेयम्

मािलनी वृम् –
। ।।। । ।ऽऽ ऽ । ऽ ऽ । ऽ ऽ
ननमयययुतेयं मािलनी भोिगलोकैः

१२५

राधे िकशोरी दया करो
हे िकशोरी राधारानी ! आप मेरे ऊपर दया किरये । इस जगत म मुझसे अिधक
दीन-हीन कोई नह है अतः आप अपने सहज कण भाव से मेरे ऊपर भी तिनक
दया ि कीिजये ।
राधे िकशोरी दया करो ।
हम से दीन न कोई जग म, बान दया की तनक ढरो ।
सदा ढरी दीनन पै यामा, यह िवास जो मनिह खरो ।
िवषम िवषय िवष ाल माल म, िविवध ताप तापिन ज ु जरो ।
दीनन िहत अवतरी जगत म, दीनपािलनी िहय िवचरो ।
दास तुारो आस और (िवषय) की, हरो िवमुख गित को झगरो ।
कबँ तो कणा करोगी यामा, यही आस त े ार पर् यो ॥

मेरे मन म यह सा िवास है िक यामा जू सदा से दीन पर दया करती आई
ह । म अनािदकाल से माया के िवषम िवष पी िवषय की ालाओं से उ अनेक
कार के ताप की आग म जलता आया ँ । इस जगत म आपका अवतार दीन के
काण के िलए आ है । हे दीन का पालन करने वाली ी राधे ! कृ प ा करके आप
मेरे दय म िनवास कीिजये । म आपका दास होकर भी संसार के िवषय और िवषयी
ािणय से सुख पाने की आशा िकया करता ँ । आप मेरी इस िवमुखता के ेश का
हरण कर लीिजए । हे यामा जू ! जीवन म कभी तो ऐसा अवसर आएगा जब आप
मेरे ऊपर कणा करग, इसी आशा के बल पर मने आपके ार पर डेरा जमा िलया
है ।