आनुवंशिकी

YogeshTiwari40 3,657 views 53 slides Jun 19, 2020
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जीव विज्ञान की वह शाखा जिसके अंतर्गत आनुवंशिक प्रक्रियाओं तथा विभिन्नताओं का अध्ययन किया जाता है उसे आनुवंशिकी (�...


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YOGESH TIWARI M PHARM (PHARMACEUTICS) FACULTY OF BIOLOGY UNIQUE COACHING 1

आनुवंशिकी जीव विज्ञान की वह शाखा जिसके अंतर्गत आनुवंशिक प्रक्रियाओं तथा विभिन्नताओं का अध्ययन किया जाता है उसे आनुवंशिकी (जेनेटिक्स) कहा जाता है| जेनेटिक्स शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग डब्लू बेटसन(1905) द्वारा किया गया| सभी जीवों में कुछ ऐसे लक्षण होते है जो उन्हें आपने जनकों से प्राप्त होते है एवं ये लक्षण पीढ़ी दर पीढ़ी चलते रहते है, ये आनुवंशिक लक्षण या आनुवंशिक विशेषक कहलाते है 2

आनुवंशिकी आनुवंशिकता:- एक जीव की एक पीढ़ी से उसी जीव के दूसरी पीढ़ी में लक्षणों के स्थानांतरण की क्रिया को आनुवंशिकता कहते है| विविधता :- एक जाति एवं एक ही जनकों की संतति पीढ़ी के सदस्यों के बीच समानताओं के बावजूद जो अंतर पाया जाता है उसे विविधता या विभिन्नता कहा जाता है| विभिन्नता के प्रकार :- जीवों में विभिन्नता को उसकी उत्पत्ति में संलग्न कारकों के आधार पर दो प्रकारों में बांटा जाता है: 3

आनुवंशिकी आनुवंशिक विभिन्नता :- एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में जनकों से संतातियों में स्थानांतरित होने वाली भिन्नताए इस श्रेणी में राखी जाती है| या विभिन्नता स्थायी प्रकार की होती है| वातावरणीय विभिन्नता:- ऐसी विभिन्नताए बाह्य वातावरण में परिवर्तन के कारण होती है | ये अस्थायी होती है| ये एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरित नही हो सकती है | 4

आनुवंशिकी भिन्नताओं का महत्त्व:- इनसे नए लक्षण उत्पन्न होते है तथा विकास भी होता है ये जीवों में अनुकूलन पैदा करती है इनके कारण ही प्रत्येक जीव अपनी पहचान पाता है यह नई जाति की उत्पत्ति एवं विकास में सहायक होती है यह जीवो को विकासीय रूप से प्रगतिशील रखती है| 5

विभिन्न तकनीकी शब्द:- कारक: किसी भी आनुवंशिक लक्षण को पीढ़ी दर पीढ़ी ले जाने वाली रचना को कारक कहा गया | वर्तमान में कारक को ही जीन कहा जाता है| युग्म विकल्पी : एक ही गुण के दो वैकल्पिक स्वरुपों के आनुवंशिक कारको को एक दुसरे का युग्म विकल्पी कहते हैं| समयुग्मजी: एक द्विगुणित अवस्था, जिसमे दोनों युग्मविकल्पी एक समान होते है जैसे TT या tt 6

विभिन्न तकनीकी शब्द:- विषमयुग्मजी: एक द्विगुणित अवस्था, जिसमे दोनों युग्मविकल्पी एक असमान होते है जैसे Tt प्रभावी व अप्रभावी : जो लक्षण F1 पीढ़ी में प्रदर्शित होता है वह प्रभावी एवं जो लक्षण छिप जाता है वह अप्रभावी होता है| फीनोटाइप या समलक्षणी : किसी भी लक्षण को बाहर से देखने पर जो रूप दिखाई देता है, अर्थात बाहरी लक्षण , जैसे ; लम्बा , बौना , लाल , पीला आदि 7

विभिन्न तकनीकी शब्द:- जीनोटाइप या समजीनी : जीन से सम्बंधित लक्षण संकरण : जब विभिन्न लक्षणों वाले पौधों में क्रॉस करवाते है तो इस विधि को संकरण कहते है एक संकरक्रॉस: जब एक जोड़ी लक्षणों के मध्य क्रॉस कराया जाए द्विसंकर क्रॉस : दो जोड़ी लक्षणों को लेकर कराया गया क्रॉस| घातक जीन : जीन जो किसी जीव की मृत्यु का कारण बने 8

विभिन्न तकनीकी शब्द:- क्लोन : एक ही जनक से अलैंगिक जनन द्वारा बनने वाला जीव प्लाज्मोन: गुणसूत्रों के बाहर स्थित आनुवंशिक पदार्थ 9

मेण्डलवाद ग्रेगर जोहन मेंडल का जन्म 22 जुलाई 1822 में हुआ | यह गणित के प्राध्यापक के साथ आस्ट्रिया के चर्च के पादरी भी थे| इन्होने चर्च की वाटिका में मटर के पौधे के लक्षणों के बीच आनुवंशिक स्थानांतरण का अध्ययन किया (1857-64) मेंडल को आनुवंशिकी का जनक कहा जाता है | 10

मेण्डल के द्वारा मटर के पौधे के चयन का कारण:- मेण्डल ने अपने प्रयोगों के लिए मटर का चुनाव काफी सोच विचार कर के किया था | मटर के चयन के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं :- इसे आसानी से उद्यान मे उगाया जा सकता है | यह एक वर्षीय पौधा है अतः इसको वर्ष में दो बार भी उगाया जा सकता है , जिससे प्रयोगों का परिणाम शीघ्र ही प्राप्त होगा इस पौधे में स्पष्ट विपरीत लक्षणों का पाया जाना | इसके पुष्प द्विलिंगी होते है अतः इनमें अधिकांशतः स्वपरागण होता है एवं पर-परागण भी आसानी से कराया जा सकता है| इसमें संकरण से प्राप्त संतानें जननक्षम होती हैं | इसमें अधिक फल एवं फूल लगते हैं जिस कारण अधिक बीजों को आसानी से प्राप्त किया जा सकता है | 11

मेण्डल द्वारा मटर के पौधे मे चुने गये सात विपरीत (विपर्यायी) लक्षण: क्र.सं. लक्षण प्रभावी अप्रभावी 1 पौधे की ऊँचाई लम्बा ( Tall ) बौना ( Dwarf ) 2 पुष्प का रंग लाल ( Red ) सफ़ेद ( White ) 3 फली का आकार फूला हुआ ( Inflated ) संकुचित( Constricted ) 4 फली का रंग हरा ( Green ) पीला ( Yellow ) 5 बीज का आकार गोल ( Round ) झुर्रीदार( Wrinkled ) 6 बीजपत्र का रंग पीला ( Yellow ) हरा ( Green ) 7 पुष्प की स्थिति कक्षीय ( Axial ) अग्रस्थ ( Terminal ) 12

मेण्डल के आनुवंशिकता के नियम :- प्रभाविता का नियम पृथक्करण का नियम स्वतंत्र अपव्यूहन का नियम प्रभाविता का नियम:- “जब एक जोड़ा विपरीत लक्षणों को ध्यान मे रखकर किन्हीं दो शुद्ध जीवों में क्रॉस कराया जाता है तो जोड़े का केवल एक लक्षण ही प्रथम पुत्री (F1) पीढ़ी में दिखाई देता है |” इस प्रकार F1 पीढ़ी मे केवल एक ही प्रकार का लक्षणप्रारूप दिखाई पड़ता है अतः F1 पीढ़ी मे दिखाई देने वाला लक्षण प्रभावी एवं न दिखाई देने वाला लक्षण अप्रभावी कहलाता है| यह नियम उन सभी जगह लागू होता है जहाँ पर एक लक्षण दूसरे लक्षण पर पूर्णरूप से प्रभावी होता है| 13

प्रभाविता का नियम:- उदाहरण:- जब एक लम्बे (TT) एवं एक बौने (tt) पौधे के मध्य क्रॉस कराया जाता है तो F1 पीढ़ी के पौधों के जीनोटाइप में लम्बेपन(T) तथा बौनेपन(t) दोनों कारक साथ साथ (हेटेरोजायगस आवस्था) रहते है लेकिन F1 पीढ़ी के सभी पौधों का केवल लम्बा होना पौधे के लम्बेपन की प्रभावित को सूचित करता है एवं यह बतलाता है कि लम्बापन बौनेपन के ऊपर प्रभावी होता है| 14

15 Tt लम्बा पौधा (TT) बौना पौधा (tt) T T t t Tt Tt Tt युग्मक F1 पीढ़ी सभी लम्बे पौधे

2 पृथक्करण का नियम इस नियमानुसार जब दो विपर्यायी लक्षणों वाले जनकों के जोड़ों के मध्य क्रॉस कराया जाता है तो पहली पीढ़ी (F1) में अप्रभावी लक्षण छिप जाते हैं, परन्तु अगली पीढ़ी (F2) में अलग हो कर स्वयं को अभिव्यक्त करते हैं | अर्थात अप्रभावी लक्षणों का F2 पीढ़ी मे स्वतंत्र रूप से पुनः अभिव्यक्त हो जाने की क्रिया ही पृथक्करण का नियम कहलाती है| 16

पृथक्करण का नियम उदाहरण:- जब एक लम्बे (TT) एवं एक बौने (tt) पौधे के मध्य क्रॉस कराया जाता है तो F1 पीढ़ी मे प्राप्त पौधों के बीच स्वपरागण के फलस्वरुप F2 पीढ़ी में 3:1 अनुपात में लम्बे एवं बौने दोनों प्रकार के पौधे प्राप्त होते हैं | बौने पौधों का F2 पीढ़ी में उत्पन्न हो जाना पृथक्करण का उदाहरण है 17

18 युग्मक F1 पीढ़ी सभी लम्बे पौधे Tt Tt Tt लम्बा पौधा (TT) बौना पौधा (tt) T T t t Tt

19 संकरित लम्बे युग्मक F2 पीढ़ी Tt Tt tt (Tt) (Tt) T t t T TT शुद्ध लम्बे शुद्ध बौने जीनोटाइप का अनुपात :- शुद्ध लम्बे : संकरित लम्बे : शुद्ध बौने 1 : 2 : 1 फीनोटाइप का अनुपात :- लम्बे : बौने 3 : 1

3 स्वतंत्र अपव्यूहन का नियम “जब दो या दो से अधिक लक्षणों या जीन्स की वंशानुगति एक साथ होती है तब युग्मकों एवं अगली पीढ़ी में इन लक्षणों अथवा जीनों की वंशागति अथवा वितरण स्वतंत्र रूप से होता है तथा एक लक्षण या जीन की वंशानुगति दूसरे लक्षण या जीन की वंशानुगति निर्भर नहीं होती है | ” उदाहरण:- मेण्डल ने गोल और पीले बीज (RRYY) वाले समयुग्मजी मटर के पौधे को झुर्रीदार एवं हरे ( rryy ) बीज वाले समयुग्मजी मटर के पौधे से क्रॉस कराया | इस क्रॉस से उत्पन्न हुए सभी F1 संतति के पौधे पीले एवं गोल बीज वाले हुए जब F1 पीढ़ी के पौधों के बीच स्वपरागण से उत्पन्न होने वाले F 2 संतति पीढ़ी मे निम्न संयोजन वाले पौधे उत्पन्न हुए 20

21 युग्मक F 1 पीढ़ी सभी पौधे पीले एवं गोल बीज वाले पीले एवं गोल बीज ( YYRR ) झुर्रीदार एवं हरे बीज ( yyrr ) YR yr yr YyRr YR YyRr YyRr YyRr

22 युग्मक YYRR (शुद्ध पीले गोल) YYRr (शुद्ध पीले संकरित गोल) YyRR (संकरित पीले गोल) YyRr (संकरित पीले गोल) YYRr (शुद्ध पीले संकरित गोल) YYrr (शुद्ध पीले शुद्ध झुर्रीदार) YyRr (संकरित पीले गोल) Yyrr (संकरित पीले शुद्ध झुर्रीदार) YyRR (संकरित पीले शुद्ध गोल) YyRr (संकरित पीले गोल) yyRR (शुद्ध हरे गोल) yyRr (शुद्ध हरे संकरित गोल) YyRr (संकरित पीले गोल) Yyrr (संकरित पीले शुद्ध झुर्रीदार) yyRr (शुद्ध हरे संकरित गोल) yyrr (शुद्ध हरे झुर्रीदार) yr yR Yr YR Yr YR yr yR

3 स्वतंत्र अपव्यूहन का नियम 1 पीले एवं गोल बीज = 9/16 2 पीले एवं झुर्रीदार बीज = 3/16 3 हरे एवं गोल बीज = 3/16 4 हरे तथा झुर्रीदार बीज = 1/16 जीनोटाइप अनुपात = 1:2:2:4:1:2:1:2:1 फीनोटाइप अनुपात = 9:3:3:1 23

मेण्डलवाद के अपवाद / मेण्डलवाद से विचलन 1 अपूर्ण प्रभाविता 2 सहप्रभाविता 3 बहुविकल्पिता 1 अपूर्ण प्रभाविता:- कुछ पेड़ पौधों व जंतुओं में F1 पीढ़ी की संतति में कोई भी लक्षण पूर्णतः प्रभावी नहीं होता अर्थात मध्यवर्ती होता है, इसे अपूर्ण प्रभाविता कहते हैं | कोरेंस ने गुलाबांस मे देखा कि लाल फूल वाले पौधे को सफ़ेद फूल वाले पौधे से क्रॉस कराने पर गुलाबी फूल वाले पौधे उत्पन्न होते है और ये F2 पीढ़ी मे 1:2:1 का फीनोटाइप व जीनोटाइप अनुपात दर्शाते हैं | 24

25 युग्मक F 1 पीढ़ी सभी पौधे गुलाबी पुष्प लाल पुष्प ( RR ) सफ़ेद पुष्प ( rr ) R r r Rr R Rr Rr Rr

26 गुलाबी पुष्प युग्मक F2 पीढ़ी Rr Rr rr ( Rr ) ( Rr ) R r r R RR लाल पुष्प सफ़ेद लाल : गुलाबी : सफ़ेद = 1 : 2 : 1

2 सहप्रभाविता: इसमें दोनों जनकों के लक्षण पृथक रूप से F1 पीढ़ी में प्रकट होते हैं| उदाहरण:- यदि एक लाल रंग के पशु का श्वेत रंग के पशु के साथ क्रॉस कराया जाता है, तो F1 पीढ़ी में चितकबरी संतान पैदा होती है| 27 युग्म क F1 पीढ़ी C R C R C W C W C R C R C w C w C R C W C R C W C R C W C R C W चितकबरी संतान

28 युग्म क F2 पीढ़ी C R C W C R C W C R C w C w C R C R C R C R C W C R C W C W C W चितकबरी संतान लाल संतान श्वेत संतान लाल : चितकबरी : सफ़ेद = 1 : 2 : 1

3 बहुविकल्पिता मेंण्डल के अनुसार जीन के दो विकल्पी रूप होते हैं, परन्तु एक ही जीन के एक ही लोकस पर दो से अधिक युग्म हो सकते हैं जो बहुविकल्पी कहलाते हैं| उदाहरण : मनुष्य में रुधिर समूह ( A, B, AB व O ) के लिए तीन युग्म ( I A , I B I O ) एक ही लोकस पर स्थित होते हैं| डॉ. कार्ल लैण्डस्टीनर ने 1900 मे यह खोज की , कि सभी व्यक्तियों का रुधिर समान नही होता| व्यक्तियों के लाल रुधिराणुओं पर विभिन्न प्रकार के प्रतिजन (प्रोटीन) पाए जाते है ये दो प्रकार के होते है A एवं B| प्लाज्मा मे दो प्रकार के प्रतिरक्षी a तथा b पाई जाती है| 29

प्रतिजन एवं प्रतिरक्षी की उपस्थिति के आधार पर मानव जनसँख्या में चार प्रकार के रुधिर समूह पाए जाते हैं 30 रुधिर समूह लाल रुधिराणु में प्रतिजन प्लाज्मा में प्रतिरक्षी रुधिर दे सकता है रुधिर ले सकता है O कोई नहीं a ,b O , A , B , AB O A A b A , AB A,O B B a B , AB B ,O AB A & B कोई नहीं AB O , A , B , AB

रुधिर समूहों की वंशागति लाल रुधिराणुओं पर उपस्थित प्रतिजन एक प्रभावी जीन ‘ I ’ के कारण होते हैं | यदि अप्रभावी जीन ‘ i ’ उपस्थित होता है तब लाल रुधिराणुओं पर कोई प्रतिजन नही होता है , यह O रुधिर समूह है | जीन ‘ i ’ जीन ‘ I ’ के समक्ष अप्रभावी होता है | जीन I A प्रतिजन ‘ A ’ एवं जीन I B प्रतिजन ‘ B ’ का निर्माण करती हैं| जीन I A तथा I B सह्प्रभावी हैं अतः एक विषमयुग्मजी व्यक्ति जिसका जीनोटाइप [I A I B ] है में प्रतिजन ‘ A ’ तथा ‘ B ’ दोनों ही पाए जाते है जिस कारण उसका रुधिर समूह ‘ AB ’ होता है| 31

रुधिर समूहों की वंशागति आर एच कारक ( Rh Factor) : 1940 मे लैण्डस्टीनर तथा वीनर ने मनुष्य के लाल रुधिराणुओं पर एक और प्रतिजन की खोज की , जो रीसस बन्दर में भी पाया जाता है| अतः उसे रीसस कारक भी कहा गया | भारतीय जनसँख्या के 85% में यह कारक पाया जाता है, अतः उन्हें Rh + तथा बाकी 15% जिनमें यह कारक नहीं पाया जाता उन्हें Rh – कहा जाता है| 32

मेण्डलवाद का महत्त्व इसके आधार पर उच्च लक्षणों वाली संतानों की प्राप्त किया जा सकता है| रोग प्रतिरोधी पौधों की किस्मों का विकास किया जा सकता है| आनुवंशिक रोग की खोज एवं उसका निदान में इसका प्रयोग होता है | इसके द्वारा आनुवांशिकता के आधुनिक सिद्धांत को बनाने मे काफी मदद मिली है| 33

वंशागति का गुणसूत्रीय आधार गुणसूत्र   या क्रोमोज़ोम ( Chromosome) सभी वनस्पतियों व प्राणियों की कोशिकाओं में पाये जाने वाले तंतु रूपी पिंड होते हैं , जो कि सभी आनुवांशिक गुणों को निर्धारित व संचारित करते हैं। गुणसूत्र की खोज कार्ल विलहलम वोन नागीली ने 1842 में की थी क्रोमोसोम शब्द ग्रीक शब्द क्रोमा (कलर) और सोम (बॉडी) से मिलकर बना है। गुणसूत्र को ये नाम दिए जाने का कारण इनका विशेष प्रकार की डाइ से गहरा रंग लेने की प्रकृति है। गुणसूत्र केन्द्रक में पायी जाने वाली धागेनुमा संरचना होती है। इसमें 2 महत्वपूर्ण पदार्थ पाए जाते हैं- डीएनए (डिऑक्सीराइबो न्यूक्लिक एसिड) एवं हिस्टोन प्रोटीन 34

वंशागति का गुणसूत्रीय आधार गुणसूत्र की संरचना में पाए जाने वाले भाग पेलिकल और मैट्रिक्स क्रोमोनिमैटा क्रोमोमियर्स सेंट्रोमीयर सैटेलाइट 35

वंशागति का गुणसूत्रीय आधार जीवों की सभी कोशिकाओं के गुणसूत्रों में निम्नलिखित विशेषतायें पाई जाती हैं। वे जोड़े में मौजूद होते है, एक पिता से व दूसरा माता से मिलता है।  गुणसूत्र कोशिका विभाजन के दौरान ही देखे जा सकते हैं। विभाजन के समय के अतिरिक्त कोशिका के नाभिक में यह क्रोमेटिन जाल के रूप में दिखाई देते हैं।  गुणसूत्र जोड़े एक निश्चित संख्या में मौजूद हैं। गुणसूत्रों का एक निश्चित सेट द्विगुणित संख्या कहलाता है और 2 n के रूप में मनोनीत हैं।  प्रत्येक गुणसूत्र डी.एन.ए. या डी आक्सी राइबोन्यूक्लिक एसिड के एक अणु और कुछ प्रोटीन से बना है।  36

वंशागति का गुणसूत्रीय आधार बैक्टीरिया में केवल एक ही गुणसूत्र (डीएनए का केवल एक अणु) मौजूद है क्योंकि वहां कोई निश्चित नाभिक नहीं है। एक गुण सूत्र कोशिका द्रव्य में न्यूक्लिआयड नामक स्थान में मौजूद होता है। जीन जीन गुणसूत्रों पर मौजूद है। ‘मेंडल के कारक’ के नाम से जाने वाले ‘जीन’ गुणसूत्रों पर जोड़ों में (एक पिता से प्राप्त, दूसरा मां से प्राप्त) मौजूद होते हैं। इस प्रकार गुणसूत्रों पर मौजूद जीन की जोड़ी के दोनों सदस्य समजात गुणसूत्रों पर एक ही स्थान पर मौजूद होते हैं। जीन वंशानुगत लक्षणों के धारक या वंशागति की इकाई हैं। यह पहले ही उल्लेख किया गया है कि गुणसूत्र में डीएनए नामक रसायन का एक अणु मौजूद होता है। गुणसूत्र पर मौजूद जीन डीएनए अणु के खण्ड होते हैं। 37

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गुणसूत्रों के प्रकार 39

गुणसूत्रों के प्रकार 40 अलिंग गुणसूत्र ( Autosomal Chromosome) यह लिंग से संबंधित लक्षणों को छोड़कर सभी प्रकार के कायिक लक्षणों ( Somatic symptoms) का निर्धारण करते हैं। इनकी संख्या मानव में 44 होती है। लिंग गुणसूत्र ( Sex Chromosome) यह लिंग का निर्धारण ( Sex determination) करते है इनकी संख्या में दो होती है। पुरुष में XY तथा मादा में XX । सहायक गुणसूत्र ( Acessory Chromosome) यह गुणसूत्रों के छोटे-छोटे टुकड़े होते हैं , जिनमें गुणसूत्रबिंदु नहीं पाया जाता। यह अर्धसूत्री विभाजन ( Meiosis) में भाग नहीं लेते। अनुवांशिक रूप से निष्क्रिय होते हैं। इनकी खोज विल्सन द्वारा की गई।

गुणसूत्रों के प्रकार 41 4 विशालकाय गुणसूत्र ( Giant  chromoses ) A पॉलीटीन गुणसूत्र ( Polytene Chromosome) इसकी खोज ई.जी. बालबियानी ( E.G. balbiani ) ने डायप्टेरा ( diapteron ) कीटों के लार्वा की लार ग्रंथि में की। पॉलीटीन गुणसूत्र कोल्लर ( koller ) द्वारा दिया गया। इसमें कई क्रोमोनिमा ( chromonema ) होते हैं , इसलिए इसे पॉलीटीन गुणसूत्र कहा जाता है। इनके कई क्रोमोनिमा क्रोमोमियर से जुड़े रहते हैं। प्रत्येक क्रोमोनिमा में पफ क्षेत्र और गैर-पफ (पफ विहीन) क्षेत्र ( puffed region & non-puffed regions) होते हैं। पफ क्षेत्र में बालबियानी छल्ले ( Balabiani rings) होते हैं जो डीएनए , आरएनए और प्रोटीन से बने होते हैं।

गुणसूत्रों के प्रकार 42 गैर-पफ क्षेत्र छल्ले के होते हैं लेकिन वे बैंड (पट्टी) और इंटरबैंड से बने होते हैं। ये क्रोमोसोम एंडोमाइटोसिस ( endomostosi s ) द्वारा बनते हैं। ये कीटों के  लार्वा में कायान्तरण (मेटामॉर्फोसिस) को बढ़ावा देते हैं। B लैंपब्रश गुणसूत्र ( Lampbrush Chromosomes) यह लैम्प ( Lamp) की सफाई करने वाले ब्रश की तरह दिखाई देता है। इसलिए इनको लैंप ब्रश गुणसूत्र ( Lampbrush Chromosome) नाम दिया गया। इनकी खोज रुकर्ट ने की। ये शार्क , उभयचर , सरीसृप और पक्षियों के प्राथमिक अण्डक ( oocytes ) में अर्द्धसूत्री विभाजन के प्रोफेज- I की डिप्लोटिन अवस्था में पाये जाते है।

अनुवांशिकी के लिए गुणसूत्रीय सिद्धांत:- 43 सटन-बावेरी ने 1903 में मेण्डलियन आनुवंशिकता के लिए गुणसूत्रीय सिद्धांत प्रतिपादित किया, जिसे सटन बावेरी परिकल्पना के नाम से भी जाना जाता है | इस सिद्धांत की प्रमुख बाते निम्नानुसार हैं:- 1 गुणसूत्रों पर जीन व्यवस्थित होते है एवं तथा गुणसूत्र जीन के कारक होते हैं| 2 द्विगुणित कोशिकाओं में गुणसूत्र एवं कारक जोड़ों में पाए जाते है | 3 युग्मकों के निर्माण के समय दोनों आनुवंशिक कारक पृथक्कृत हो जाते हैं

“ सहलग्नता ” :- 44 सहलग्नता की खोज बैटेसन ने की थी | एक ही गुणसूत्र पर स्थित जीनों में एक साथ वंशगत होने की प्रवृत्ति पायी जाती है जीनों की इस प्रवृत्ति को “ सहलग्नता ” (linkage) कहते हैं . जबकि जीन जो एक ही गुणसूत्र पर स्थापित होते हैं और एक साथ वंशानुगत होते हैं , उन्हें सहलग्न जीन ( Linked genes) कहते हैं .. सहलग्नता को सहलग्न जीनों की शक्ति के आधार पर निम्न वर्गों मे वर्गीकृत करते हैं :- 1 पूर्ण सहलग्नता 2 अपूर्ण सहलग्नता – लिंग सहलग्नता , अंतरागुणसूत्रीय सहलग्नता

“ सहलग्नता ” :- 45 लिंग - सहलग्नता की सर्वप्रथम विस्त्रत व्याख्या मॉर्गन ने 1910 में की थी . मनुष्यों में कई लिंग - सहलग्नता गुण जैसे - रंगवर्णान्धता , गंजापन , हिमोफिलिया , मायोपिया , आदि पाये जाते हैं | लिंग - सहलग्नता गुण स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों में ज्यादा प्रकट होते हैं|

“ सहलग्नता ” :- 46 1 पूर्ण सहलग्नता :- जब सहलग्न जीनों के अलग अलग होने की सम्भावना बिलकुल भी न हो एवं वे हमेशा एक साथ रहे तब इसे पूर्ण सहलग्नता कहते हैं| ऐसा तभी संभव होता है जब सहलग्न जीन अत्यंत पास पास स्थित होते है| जिस कारण जीन अर्द्धसूत्री विभाजन में पृथक नहीं होते है| (ड्रोसोफिला में पूर्णसहलग्नता पाई जाती है ) 2 अपूर्ण सहलग्नता :- जब सहलग्न जीनों के पृथक होने की सम्भावना ज्यादा होती है , तब उसे अपूर्ण सहलग्नता कहते है| ऐसा तभी संभव होता है जब जीन एक-दूसरे से बहुत दूर दूर स्थित होते है | (मक्का में अपूर्ण सहलग्नता पायी जाती है)

“ सहलग्नता ” :- 47 गुणसूत्रों की प्रकृति के आधार पर सहलग्नता को पुनः दो वर्गों में बांटा जाता है :- 1 लिंग सहलग्नता : इस प्रकार की सहलग्नता उन जीनों में पायी जाती है जो लिंग गुणसूत्रों पर स्थित होते है | 2 अंतरागुणसूत्रीय सहलग्नता : वह सहलग्नता जो एक जोड़े सहलग्न जीनों के सदस्यों में एक दूसरे के प्रति होती है, जिस कारण इसे सहलग्न क्रम कहा जाता है| इसमें अर्द्धसूत्री विभाजन से गुणसूत्रों में अचानक परिवर्तन आ जाता है |

सहलग्नता के सिद्धांत :- 48 1 विभेदाकीय बहुगुणन सिद्धांत :- इस सिद्धांत को बैटसन ने दिया था | इनके अनुसार जीवों में सहलग्नता उनकी कोशिकाओं के विभेदकीय बहुगुणन द्वारा नियंत्रित होती है | इनमें गुणों के अनेक जोड़े पाए जाते है जो युग्मकों के निर्माण के पहले ही अलग हो जाते है | तत्पश्चात युग्मक समूह तीव्रता गुणन करते हैं इसी के कारण ही मेंडल के द्वि-संकर संकरण के अनुपात में परिवर्तन हो जाता है |

सहलग्नता के सिद्धांत :- 49 2. गुणसूत्रीय सिद्धांत : इससे मॉर्गन ने दिया था उनके अनुसार सहलग्नता प्रदर्शित करने वाले समस्त जीन गुणसूत्रों के एक जोड़े पर स्थित होते है | गुणसूत्रीय पदार्थ जीनों को वंशागति के समय एक ही स्थान पर बाँध कर रखता है | सहलग्नता की शक्ति : D α 1/S Or S α 1/D यहाँ ( D ) = दो सहलग्न जीनों के बीच की दूरी ( S )= सहलग्नता की शक्ति या S = k. 1/D   ( K ) = स्थिरांक (सहलग्नता स्थिरांक)

सहलग्नता का महत्व :- 50 सहलग्नता :- इसके द्वारा निम्न अध्ययनों में मदद मिलती है :- 1 जनक लक्षण :- इसके द्वारा जनक के लक्षणों का पता लगाया जा सकता है 2 नये संकर : इसके द्वारा संततियों में बनने वाले नये लक्षणों की संभावना का पता लगाया जा सकता है | 3 गुणों का नियंत्रण : सहलग्न समूहों की वंशागति पर नियंत्रण रख कर जीवों के कई गुणों को नियंत्रित किया जा सकता है |

प्र. आनुवंशिकी में टी.एच मॉर्गन का योगदान 51 मॉर्गन ने लिंग-सहलग्न लक्षणों को समझने में योगदान दिया | उन्होंने फल-मक्खियों का संकरण भूरे शरीर और लाल आँखों मक्खियों वाली के साथ किया और फिर F 1   संततियों को आपस में द्विसंकर क्रॉस करवाने पर दो जीन जोड़ी एक दूसरे से स्वतंत्र विसंयोजित नहीं हुई और F 2   का अनुपात 9:3:3:1 से काफी भिन्न मिला | उन्होंने यह भी जान लिया कि जब द्विसंकर क्रॉस में दो जीन जोड़ी एक ही क्रोमोसोम में स्थित होती हैं तो जनकीय जीन संयोजनों का अनुपात अजनकीय प्रकार से काफी ऊँचा रहता है | उन्होंने संकरण सहलग्नता संबंधों तथा वंशागति लिंग-सहलग्न के सिद्धांत की व्याख्या की तथा संबंधों की खोज की | उन्होंने क्रोमोसोम मानचित्र के तकनीक की स्थापना की | उन्होंने उत्परिवर्तन को देखा तथा उस पर काम किया | 

लिंग निर्धारण की स्थिति एवं प्रकार : 52 1 XY एवं XX प्रकार : नर विषमयुग्मजी (XY) एवं मादा समयुग्मजी ( XX) [ मानव एवं अन्य स्तनी ] 2 XY एवं XX प्रकार : मादा विषमयुग्मजी (XY) एवं नर समयुग्मजी ( XX ) [ मत्स्य वर्ग सरीसृप एवं पक्षी ] 3 XX एवं XO प्रकार : समयुग्मजी (XX) एवं केवल एक ही लिंग गुणसूत्र की उपस्थिति पर नर ( XO ) [ टिड्डा ]

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