शैव सम्प्रदाय

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About This Presentation

This presentation is prepared for the BA students to get basic information on Shaiv Cult. This presentation is incomplete and students advised to get the further and proper information from subjective books and recommended research article.


Slide Content

शैव सम्प्रदाय डॉ . विराग सोनटक्के सहायक प्राध्यापक प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति और पुरातत्व विभाग बनारस हिंदू विद्यापीठ, वाराणसी B. A. Semester III Unit V: Cult Worship

शैव सम्प्रदाय

शैव सम्प्रदाय का उद्भव शिव की उपासना शैव धर्म की उत्पत्ति वैदिक और अवैदिक तत्वों का संगम है। सिंधु संस्कृति से प्राप्त लिंग, मुद्राओं से शैव अनुमान का प्रयास शैव धर्म के उल्लेख वेदों से ही प्राप्त होने शुरू होते है। ब्रम्हा के क्रोधित आंसुओं से भूत-प्रेतों की सृष्टि हुई, उनके मुख से एकादश रुद्र उत्पन्न हुए “रु” धातु का अर्थ है क्रंदन करना, चिल्लाना, ज़ोर से दहाड़ना ऋग्वेद की स्तुतियों में भी रुद्र के कठोर, भयंकर एवं विनाशक रूप का वर्णन मिलता है। ऋग्वेद के “रुद्र ” मध्यम श्रेणी के देवता है। वास्तविक रूप स्पष्ट नही।

वैदिक काल में शिव ऋग्वेद के रुद्र मध्यम श्रेणी के देवता: तीन पूर्ण सूक्त पशुओं का रक्षक “ पशुपाति ” कहा गया है। ऋग्वेद में रुद्र घने बादलों में चमकती विद्युत इस प्राकृतिक तत्व के प्रतीक थे। ऋग्वेद में रुद्र को महाभिषक (औषधि के देवता) कहा गया है। ऋग्वेद में रुद्र को अग्नि के साथ सम्मिलित स्तुतियाँ उनके वर्षा के देवता के प्रमाण है।

वैदिक काल में रुद्र का स्वरूप रुद्र के वर्णन परस्पर विरोधी है रुद्र ॰॰॰॰ भयावह सौम्य उग्र संहार (मनुष्य एवं पशु) कल्याणकारी जीवनदायी आकाश देवता रुद्र : बादलों का गर्जन आयुध :धनुष धनुष से मनुष्य एवं पशु का वध रुद्र: कपर्दिन (जटाजूटधारी) जटाजूटधारी: आकाश में मेघों की माला महाभिषक: जड़ी-बूटी, पेड़-पौधे वृषभ: वर्षयिता एवं पुरुषत्वपूर्ण

रुद्र के विषय में विद्वानो की अवधारणा वेबर : रुद्र को झंझावत के “रव’ शब्द का प्रतीक माना है। मेकडोनल : रुद्र को विध्वंसक रूप का प्रतीक माना है। किथ : रुद्र को विनाशकारी मानते है। भण्डारकर : रुद्र को “प्रकृति का विनाशकारी” मानते है। विल्सन : अग्नि एवं इंद्र का रूप औडेर : मृत आत्माओं से सम्बन्ध यदुवंशी: वैदिक और अवैदिक तत्वों का सम्मिश्रण

उत्तर वैदिक काल इस काल में रुद्र -शिव की अवधारणा का विकास हुआ। उनके दो रूपों की कल्पना की गयी। शिव : शांत, मंगलमय रुद्र : विनाशक,उग्र अथर्ववेद में उनके रुद्र रूप की अधिक चर्चा है। (भीम राजानाम-आतंककारी, उपहंतु: विनाशक) अथर्ववेद में रुद्र मृत्यु के देवता भी माने गए है। (श्वानो का साहचर्य) अथर्ववेद में रुद्र “महादेव” कहा गया है, जो उनके लोकप्रियता का प्रतीक है। रुद्र की बढ़ती व्यापकता के कारण उनके अनुचरों की कल्पना की गयी रुद्र चतुर्दिक व्याप्त थे भव-पूर्व, पशुपति-पश्चिम, उग्र-उत्तर, शर्व –दक्षिण, रुद्र-भूतल, महादेव-आकाश श॰ब्रा॰: रुद्र,उग्र,अशनि = विध्वंसकारी भव,पशुपति, महादेव,ईशान = कल्याणकारी

उत्तर वैदिक काल यजुर्वेद में रुद्र के भयंकर रूपों में किवि (विध्वंसक) कहा है। सूत्र ग्रंथ : शिव, भीम, शंकर ये नाम और इंद्राणी, रुद्राणी, भवानी और शर्वानी चार पत्नियो का उल्लेख आता है। केनोपनिषद :उमा हेमवती का उल्लेख हुआ है। पाणिनि की अष्टाध्यायी : वाक् देवता अर्थशास्त्र : शिव पूजा रामायण : शिव के रूपों का वर्णन (सौम्य वर्णन, नंदी ) रामायण: नंदी का प्रथम उल्लेख महाभारत : पशुपातव्रत, उपासना हमेशा पार्वती के साथ, महाभारत : उपासना मानवाकार और लिंगाकर स्वरूप में शिव: तपस्वी, योगी, कल्याणकारी, वरदाता, सर्वोच्च

ऐतिहासिक काल पतंजलि : मौर्य काल में शिव एवं स्कंद की मूर्तियाँ बिकती थी इंडो-ग्रीक -राजाओं के सिक्कों पर वृषभ का अंकन विम क़दफिसिस : के सिक्कों पर शिव का अंकन अश्वघोष के बुद्धचरित में उल्लेख मनुस्मृति: एकादश रुद्र भारतीय नाट्यशास्त्र : नटराज प्रयाग प्रशस्ति : गंगा अवतरण का उल्लेख स्कंदगुप्त के सिक्कों पर वृषभ का अंकन कालिदास : शैव धर्मनुयायी

पूर्व -मध्ययुग वर्धनवंश के राजा शैव धर्मानुयायी बाणभट्ट : शैव शशांक: शैव पल्लव: शैव चोल: शैव खजुराहो ५ अभिलेख: शिव=एकेश्वर कलचुरी अभिलेख: जगत गुरु, परम-ब्रह्म दक्षिण भारत: सम्बन्दर एवं अप्पर संत (नयनार): पेरिय पुराण

शैव धर्म का विकास अवैदिक देवता प्रारंभ: रुद्र रूप श्वेताश्वतर उपनिषद : शिव का दार्शनिक स्वरूप की चर्चा शिव का परब्रह्म से तात्पर्य पुरुषरूप में शिव सुष्टि का निर्माण शिव की शक्ति , माया रूप में देवी (उमा, पार्वती) रामायण, महाभारत: रौद्र रूप के साथ सौम्य रूप रामायण, महाभारत: अनेक कथाओं की रचना दार्शनिक एवं लोकप्रचलित रूप पार्वती के साथ: कल्याणकारी पुराण काल: एकेश्वरवाद (शिव सर्वोच्च, ब्रह्म) पुराण काल: लिंगपूजा

शिव का स्वरूप शिव : कोमल और विध्वंसक स्वरूपों में प्रदर्शित है। हिमालय उनका निवास है। पत्नी : पार्वती, उमा,दुर्गा, काली, कराली आदि नाम है। वाहन : वृषभ सेवा : गण अत्यंत दानी है । गणेश और कार्तिकेय दो पुत्र है। उपासना : मानवाकार और लिंग रूप में पूजा जाता है। मानवीय स्वरूप: सिर पर जटाजूट, गले में बाँहों में नाग और रुद्राक्ष माला, हाथों में त्रिशूल, डमरू, शरीर पर बाघम्बर,त्रिनेत्र

शिव की उपासना रौद्र और सौम्य रूपों में उपासना की भिन्न विधि गृह्यसूत्र : शिव के रौद्र रूप की उपासना के लिए “शुलगव” यज्ञ किया जाता था। (गो-बलि, अश्वथामा के उल्लेख ) अथर्ववेद : में रुद्र को नर-बलि का उल्लेख है। (महाभारत में जरासंध युद्धबंदियो को शिव की बलि चढ़ाने के उल्लेख, सभापर्व २१/९८) रुद्र के सौम्य रूप में शिव-पार्वती दोनो की उपासना का वर्णन है। सरल और साधारण उपासना पद्धति शिव को धूप,दीप, पुष्प, नैवेद्द आदि अर्पित करे “उमामहेश्वर व्रत” की उपासना विशिष्ट दिनो में व्रत, पूजा

शैव धर्म के सम्प्रदाय शिव - भागवत : पतंजलि के महाभाष्य। यह शैव धर्म का प्राचीनतम सम्प्रदाय था जो नष्ट हो गया। शैवागम एवं वामन पुराण के अनुसार पाशुपत शैव कापालिक कालामुख कश्मीर का शैव-मत दक्षिण भारत का वीर (लिंगायत)

पाशुपत शैवधर्म का प्राचीनतम तथा सर्वप्रधान सम्प्रदाय शांतिपर्व : स्वतः शिव ने पाशुपत सिद्धांत प्रकट किया। शिव ने स्मशान के एक शव में प्रवेश किया और लकुलिश के रूप में अवतरित हुए। पुराणों में, तथा अभिलेखों में लकुलीश को शिव का अवतार बताया गया है। वायु ,लिंग पुराण : लकुलिन या लकुलीश नामक ब्रह्मचारी ने इस सम्प्रदाय का प्रवर्तन किया। सर्वदर्शनसंग्रह ग्रंथ : लकुलीश को पाशुपत सम्प्रदाय का संस्थापक पाशुपत सम्प्रदाय को माहेश्वर नाम से जानते है। लकुलिन : लगुड (दंड) या लकुल (लंगोट) धारण करने वाला। इस सम्प्रदाय के लोग शिव के प्रतीक के रूप में हाथ में दंड धारण करते है। प्रारम्भ ये यह सम्प्रदाय लकुलीश पाशुपत के नाम से प्रचलित था कालांतर में केवल पाशुपत ही कहा जाने लगा।

पाशुपत सम्प्रदाय के उल्लेख तथा उदाहरण बाणभट्ट ने पाशुपत सम्प्रदाय के अनुयायियों के मस्तक पर भस्म,हाथ में रुद्राक्ष की माला धारण किए वर्णित किया है। हेनत्साँग: पाशुपत सम्प्रदाय के अनुयायियों को भस्म लगाने का उल्लेख किया है। वायु पुराण में पाशुपत मतसिद्धांत, योगपक्ष और उपासना का वर्णन मिलता है। ईसा ८ वी शती के भासवर्स्व द्वारा लिखित “गुणकारिका” और “पाशुपतसूत्र” में पाशुपत सम्प्रदाय की विस्तृत चर्चा है। अभिलेख तथा स्थापत्य उदाहरण: चहमान राजा विगढ़पल के अभिलेख में पाशुपत सम्प्रदाय के लिए शिव मंदिर का उल्लेख कलचुरी राजा गांगेय देव की रानी अल्हना देवी द्वारा निर्मित शिव मंदिर की व्यवस्था पाशुपत सम्प्रदाय के अनुयायी करते थे। चेदि अभिलेख में भाव नामक पाशुपत सन्यासी द्वारा निर्मित शिव मंदिर का उल्लेख है। दक्षिण भारत में भी प्रसिद्ध

पाशुपत सम्प्रदाय का सिद्धांत शंकराचार्य : पाशुपत सम्प्रदाय के ५ सिद्धांतो का उल्लेख किया है। कार्य : स्वतंत्र नही हो सकता, ईश्वर पर आश्रित। ३ प्रकार: विद्या (वेदना), अविद्या (इंद्रिया) एवं पशु (जीव/आत्मा) कारण : कारण पर ही सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति, एवं संहार निर्भर है। समस्त वस्तुओं का निर्माता तथा संसार और अनुग्रह करने वाला तत्व। इसे परमेश्वर और महेश्वर कहा गया है। २ प्रकार (कर्म, कर्मक्षय) योग : चीत्त के माध्यम से ईश्वर को जोड़नेवाला तत्व। जप, तप, ध्यान, विधि : यह व्यापार है जिससे धर्म कि प्राप्ति होती है। इसे चर्या कहा जाता है क्योंकि यही धर्म का साक्षात कारण है। इसमें शरीर पर भस्म, भस्म में सोना, हास्य, गीत, नृत्य, दंडवत, प्रणाम, शृंगारण (अश्लील चेष्टाओं द्वारा काम भावना व्यक्त करना इत्यादि। दु:खान्त : दु:खों से मुक्ति पाकर मुक्त हो जाना, मिथ्यज्ञान,अधर्म,विषयासक्ती से छुटकारा। २ प्रकार (दुखो का नाश और ज्ञान प्राप्ति) उपयुक्त क्रियाओं के द्वारा पाशुपत सम्प्रदाय में परमपद की प्राप्ति वर्णित है।

पाशुपत सम्प्रदाय के अनुयायी शरीर पर भस्म हेनत्साँग : भस्मधारी, जटाधारी वस्त्रहीन अवस्था कादम्बरी : रक्तवर्ण के वस्त्र अनुयायी : मस्तक, वक्ष, नाभि, और भुजाओं पर शिवलिंग का चिन्ह अंकित करते थे।

शैव सिद्धान्त सम्प्रदाय शैव सम्प्रदाय के ३ मूल: पति, पशु एवं पाश पति पति : पति का अर्थ शिव माना है। जीवात्मा का शरीर दूषित रहता है लेकिन शिव का शरीर विशुद्ध शक्ति का रूप है। उनके शरीर अवयवों का निर्माण ईशान से मस्तक, तत्पुरुष से मुख,घोर से हृदय, कामदेव से गुप्तांग, तथा सद्योजात से चरण निर्मित है। शिव के पाँच कार्य सृष्टि :उद्भव, पालन , संहार , तिरोभाव : आवरण, प्रसाद : अनुग्रह शिव जीवात्माओं को क्रमानुसार भोग प्रदान करते है

शैव सिद्धान्त /सम्प्रदाय पशु पशु का अर्थ जीवात्मा है , जो सीमित शक्ति सम्पन्न है। पशु ३ प्रकार विज्ञानाकल : जिन्होंने ज्ञानयोग से कर्मो का नाश किया हो। ( विज्ञानाकल पशु को विधेश्वर पद प्राप्त ) प्रलयाकल : वह पशु जिसकी कलाओं का नाश संसार की प्रलय के द्वारा होता है। (मल एवं कर्म उचित रहे तो मोक्ष प्राप्ति) सकल पशु: जो मल, कर्म और माया से मुक्त है। (रोध शक्ति विनष्ट होने पर मोक्ष प्राप्ति) इन सब के दो-दो प्रकार है।

शैव सिद्धान्त /सम्प्रदाय पाश पाश का अर्थ है बंधन । जो पाश में रहते है वह शिवरूप नही प्राप्त कर सकते । इसके चार प्रकार मल : वह पाश जो जीवात्मा कि शक्ति और क्रिया में बाधा उत्पन्न करे। कर्म : फल प्राप्ति की आकाँक्षा से किए जाने वाले कर्म माया : रोध शक्ति : शिव की वह शक्ति जो तिनो पाशों से जीवात्मा के स्वरूपों का बचाव करती है। शैव सिद्धान्त के अनुसार पशु (जीव) वस्तुतः शिव ही है, परंतु पाशों के बंधन में फँसा रहता है। मुक्ति के चार उपाय विद्या : सही स्वरूप का ज्ञान क्रिया : मंत्र, पूजा, तप,हवन कार्यों से शिव की उपासना योगपद : ध्यान और योग की साधना चर्यापद : तप, शिवलिंगो की उपासना, उमा-शिव की पूजा, गणपति, स्कंद, नंदी की पूजा। शैव सिद्धान्त के अनुयायी शिव के तीन रत्न शिव : कर्ता शक्ति : करण बिंदु : उपादान है। इसी त्रिरत्न से ज्ञान प्राप्ति एवं परमतत्व शिव को प्राप्त करने कि कल्पना की गयी है।

कापालिक कापालिक सम्प्रदाय के इष्टदेव शिव का भैरव रूप है । कापालिक सम्प्रदाय में भैरव को ही सृष्टि का सर्जन और संहार करने वाला बताया गया है। स्वरूप : अभक्ष्य भोजन, सुरापान, शरीर पर भस्म, रुद्राक्ष माला, सिर पर जटाजूट, हाथ में नर कपाल। तामसिक क्रियायें: स्वयं को भैरव तथा स्त्रियों जो भैरवी मानकर उच्छल काम-क्रीड़ा करना। लौकिक और पारलौकिक इच्छापूर्ति हेतु नर-कंकाल में भोजन, सुरापान, भस्म, लगुड धारण इत्यादि कार्य भवभूति ने श्रीशैल को कापालिक का प्रधान पीठ बताया है। कापालिक सम्प्रदाय में नरबलि के उल्लेख मिलते है। कापालिक सम्प्रदाय में स्त्रियाँ भी अनुयायी होती थी। इस सम्प्रदाय की क्रियायें रुद्र के जंगली और भयंकर स्वरूप को व्यक्त करती है। जनसामान्य इसे “ वाममार्गी साधना ” कहते है।

कापालिक शिव का स्वरूप : दिगम्बर अवस्था, कपाल कमंडलु, शरीर पर भस्म, स्मशान भूमि में निवास सौरपुराण : विधर्मी कहा गया है॰॰ सीमित सम्प्रदाय घोर पाप के प्रायश्चित के लिये अनुयायी कापालिक सम्प्रदाय के अनुयायी हो गए। इनके मंदिर स्मशान भूमि में होते है। भवभूति ने “मालतीमाधव” में कापालिक सम्प्रदाय का चित्रण किया है। नर बलि देने की प्रथा, नरबली के विभिन्न अंग भैरव को चढ़ाने की प्रथा समाज से गर्हित (निंदनीय): जनसाधारण से विरोध स्त्रियाँ भी सम्मिलित होती थी वर्ण भेद को स्थान नही उपासक : जटाधारी, जटाओं में नवचंद्र प्रतिमा, हाथ में कपाल का कमंडल, गले में मुंडो की माला उपासक: मांस एवं मदिरा का सेवन, देवता को मदिरा चढ़ाते थे। उपासक: शस्त्रों से सुस्सजित

कालमुख कापालिकों का ही एक सम्प्रदाय । प्रारंभिक नाम “ कारकसिद्धांति ” कलमुख सम्प्रदाय के अनुयायी कापालिक सम्प्रदाय से भी अतिवादी और क्रूरकर्मी थे। शिवपुराण में इन्हें “ महाव्रतधर ” कहा गया है। कलमुख सम्प्रदाय के अनुयायी: कपाल में अभक्ष्य भोजन, सुरापान, शरीर पर भस्म, रुद्राक्ष माला, सिर पर जटाजूट, हाथ में नर कपाल लट्ठ लेके चलते थे नरबलि और सुरापान से आराधना करते थे। दक्षिण भारत में भी प्रभावी

काश्मीरी शैवमत शैव संप्रदायों में उचित सिद्धांत काश्मीरी शैवमत को दो शाखा १) स्पंदशास्त्र, २) प्रत्यभिज्ञाशास्त्र स्पंदशास्त्र: के प्रवर्तक “ वसुगुप्त ” थे। उन्होंने संभवतः ८-९ वी शताब्दी के अंत में इस पंथ का प्रवर्तन किया। उन्होंने शिवसूत्रमणि ग्रंथ में इस पंथ की विस्तृत चर्चा की है। दूसरा ग्रंथ है स्पंदकारिका । (वसुगुप्त के शिष्य कल्वट) इस पंथ के अनुयायी दोनो ग्रंथ को प्रमाण मानते है। स्पंदशास्त्र पंथ का सिद्धांत: शिव ही एकमात्र सत्य जीवात्मा को ज्ञान नही (की वह शिव है)। क्योंकि मल का आवरण रहता है। (आवरण, मायीय एवं कार्म) ध्यान और साधना से परम शिव का दर्शन से मल नष्ट होता है।

काश्मीरी शैवमत प्रत्यभिज्ञाशास्त्र इसके प्रवर्तक सोमानंद एवं उनके शिष्य उत्पल, अभिनव –गुप्त थे। काल १० वी सदी ग्रंथ : शिवदृष्टि वसुगुप्त तथा कल्लट के कश्मीरी शैवमत के सिद्धांतो की तार्किक विवेचना। सिद्धांत: जीव को ईश्वर का अंश मल के आवरण से ईश्वर की अभिन्नता की पहचान नही। गुरु के उपदेश से ईश्वर की पहचान सम्भव ध्यान-अवस्था में भैरव के दर्शन होने पर समस्त मल नष्ट । काश्मीरी शैवमत में परमतत्व परमेश्वर को शिव-शक्ति का संयुक्त रूप माना है। वास्तविकता के ज्ञान से शिव के परमपद की प्राप्ति होती है। काश्मीरी शैवमत अन्य संप्रदायों के विपरीत अधिक मानवतापूर्ण एवं बुद्धिवादी है।

वीर शैवमत अथवा लिंगायत सम्प्रदाय दक्षिण भारत का सम्प्रदाय २८ शैव आगमो पर आधारित लिंगायत सम्प्रदाय के स्थापना का श्रेय कल्याणी के शासक कलचुरी विज्जल के प्रधानमंत्री वासव को जाता है । लेकिन लिंगायत सम्प्रदाय के अनुयायी इसे अति प्राचीन मानते है और इसके संस्थापक ५ ऋषि जो शिव के पाँच शीर्ष से उत्पन्न हुए थे और मैसूर,उज्जैन, केदारनाथ, श्रीशैल और काशी में प्रतिष्ठा की थी। लिंगायत सम्प्रदाय में शिव के पाँच मुख सधोजत ,वमदेव,अधीर,तत्पुरुष और ईशान के स्वरूप मानते है।

वीर शैवमत अथवा लिंगायत सम्प्रदाय सिद्धांत : शिव ही परब्रम्ह है, जो स्वतंत्र और अनश्वर है। शिव ही विश्व है। समस्त प्राणियों का निवास शिव के दो भेद है। ( लिंगस्थल और अंगस्थल ) लिंगस्थल : रुद्ररूप, भावलिंग :सूक्ष्म केवल श्रद्धा द्वारा दर्शन, परमतत्व प्राणलिंग : बुद्धि अथवा मन के द्वारा दर्शन, सूक्ष्म रूप इष्टलिंग : दुःख निवारक, नेत्रों द्वारा दर्शन, स्थूल रूप अंगस्थल : उपासक या जीवात्मा, योगांग : जिसके द्वारा मनुष्य शिव से सम्पर्क स्थापित करता है, तथा आनंद प्राप्त करता है। समस्त भोगो का त्याग। भोगांग : भोगांग द्वारा जीव शिव के साथ आनन्दपभोग करता है। यह सूक्ष्म शरीर और स्वप्नावस्था है। त्यागांग : इसमें जीव नश्वर शरीर का त्याग करता है। यह स्थूल शरीर है और जागृत अवस्था में रहता है। इछा त्याग, व्रत,नियम, सत्य, पवित्रता

वीर शैवमत अथवा लिंगायत सम्प्रदाय शैव पंथ का परिशुद्ध एवं सरल सम्प्रदाय वीर सम्प्रदाय के अनुयायी को लिंग धारण करना अनिवार्य है । वीर सम्प्रदाय में दीक्षा का संस्कार महत्वपूर्ण है। दीक्षा गुरु द्वारा शिष्य को दि जाती है। लिंगायत सम्प्रदाय के अनुयायी मासं –मदिरा का सेवन नही करते। लिंगायत सम्प्रदाय के अनुयायी को मंदिर में लिंगपूजा अनिवार्य नही। लिंगायत सम्प्रदाय के आचार्यों को “आराध्य” कहते थे लड़कियों का भी उपनयन संस्कार यज्ञोपवीत के स्थान पर शिवलिंग धारण करते थे वर्णभेद अस्वीकार विधवा विवाह के पक्षधर

विलुप्त हुए शैव सम्प्रदाय भारशिव शिव लिंग को मस्तक पर धारण करने वाले अनुयायी ॰ वाकाटक राजाओं से संबंध अन्य सम्प्रदाय: शिव-भागवत जंगम भाट उग्र रौद्र

शिव का अंकन : पुरातात्विक कुषाण राजा विम कदफिसिस के सिक्कों पर शिव का अंकन मिलता है “सर्वलोकेश्वरस्य माहेश्वरस्य”। मुखलिंग की आराधना के प्रमाण अश्वघोष के बुद्धचरित , मनुस्मृति, भारतीय नाट्यशास्त्र, कालिदास, गुप्त युग के समुद्रगुप्त के प्रयाग-प्रशस्ति में गंगावतरण का उल्लेख है। पुराणों में शिव के दार्शनिक तथा लोक-प्रचलित रूपों का वर्णन है।अर्धनारीश्वर, हरिहर,त्रिमूर्ति ब्रम्हाण्ड पुराण : लिंगपूजा का उल्लेख हेनत्साँग : वाराणसी में १०० शिव मंदिर अन्य विवरण, ताम्रपट, अभिलेख, मंदिर इत्यादि प्रमाण

उपसंहार शैव धर्म भारत का प्राचीन एवं महत्वपूर्ण धर्म वैदिक एवं अवैदिक तत्वों का मिश्रण उत्तर वैदिक काल से अत्यधिक लोकप्रिय धर्म के सिद्धांतो के अनुरूप भिन्न संप्रदायों का विकास शैव धर्म के संप्रदायों का सरल से लेके क्रूर स्वरूप भारतीय जनमानस में लोकप्रिय धर्म वर्तमान काल में भी अत्याधिक पूजनीय भारत के विस्तीर्ण भूभाग में शिव मंदिरो की संख्या से शैव धर्म की लोकप्रियता का आकलन किया जा सकता है।