रचनकार दोहे निशान्त रोहतगी कक्षा सातवी अ क्रमांक 25
कबीर के दोहे माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रौंदे मोय। एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोय॥ माला फेरत जुग गया, गया न मन का फेर । कर का मन का डारि दे, मन का मनका फेर॥ तिनका कबहुं ना निंदए, जो पांव तले होए। कबहुं उड़ अंखियन पड़े, पीर घनेरी होए॥ गुरु गोविंद दोऊं खड़े, काके लागूं पांय। बलिहारी गुरु आपकी, गोविंद दियो बताय॥ साईं इतना दीजिए, जा मे कुटुम समाय। मैं भी भूखा न रहूं, साधु ना भूखा जाय॥
गुरुनानक के दोहे * एक ओंकार सतिनाम, करता पुरखु निरभऊ। निरबैर, अकाल मूरति, अजूनी, सैभं गुर प्रसादि ।। हुकमी उत्तम नीचु हुकमि लिखित दुखसुख पाई अहि। इकना हुकमी बक्शीस इकि हुकमी सदा भवाई अहि ॥ सालाही सालाही एती सुरति न पाइया। नदिआ अते वाह पवहि समुंदि न जाणी अहि ॥ पवणु गुरु पानी पिता माता धरति महतु। दिवस रात दुई दाई दाइआ खेले सगलु जगतु ॥
तुलसीदास के दोहे तुलसी अपने राम को, भजन करौ निरसंक आदि अन्त निरबाहिवो जैसे नौ को अंक ।। आवत ही हर्षे नही नैनन नही सनेह! तुलसी तहां न जाइए कंचन बरसे मेह!! तुलसी मीठे बचन ते सुख उपजत चहु ओर! बसीकरण एक मंत्र है परिहरु बचन कठोर!! बिना तेज के पुरूष अवशी अवज्ञा होय! आगि बुझे ज्यों रख की आप छुवे सब कोय!!
बिहारी के दोहे सतसइया के दोहरा ज्यों नावक के तीर। देखन में छोटे लगैं घाव करैं गम्भीर ।। नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास यहि काल। अली कली में ही बिन्ध्यो आगे कौन हवाल।। घर घर तुरकिनि हिन्दुनी देतिं असीस सराहि। पतिनु राति चादर चुरी तैं राखो जयसाहि।। मोर मुकुट कटि काछनी कर मुरली उर माल। यहि बानिक मो मन बसौ सदा बिहारीलाल।।
रसखान के दोहे प्रेम प्रेम सब कोउ कहत, प्रेम न जानत कोइ। जो जन जानै प्रेम तो, मरै जगत क्यों रोइ॥ कमल तंतु सो छीन अरु, कठिन खड़ग की धार। अति सूधो टढ़ौ बहुरि, प्रेमपंथ अनिवार॥ काम क्रोध मद मोह भय, लोभ द्रोह मात्सर्य। इन सबहीं ते प्रेम है, परे कहत मुनिवर्य॥ बिन गुन जोबन रूप धन, बिन स्वारथ हित जानि। सुद्ध कामना ते रहित, प्रेम सकल रसखानि॥ अति सूक्ष्म कोमल अतिहि, अति पतरौ अति दूर। प्रेम कठिन सब ते सदा, नित इकरस भरपूर॥
रहीम के दोहे छिमा बड़न को चाहिये, छोटन को उतपात। कह रहीम हरि का घट्यौ, जो भृगु मारी लात॥1॥ तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहि न पान। कहि रहीम पर काज हित, संपति सँचहि सुजान॥2॥ दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय। जो सुख में सुमिरन करे, तो दुख काहे होय॥3॥ खैर, खून, खाँसी, खुसी, बैर, प्रीति, मदपान। रहिमन दाबे न दबै, जानत सकल जहान॥4॥ जो रहीम ओछो बढ़ै, तौ अति ही इतराय। प्यादे सों फरजी भयो, टेढ़ो टेढ़ो जाय॥5॥