FUNDAMENTAL CONCEPTS OF KAYACHIKITSA

DrSwati7 2,708 views 26 slides Jun 06, 2020
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About This Presentation

Definition of Kayachikitsa
Nirukti of Kaya
Fundamental concept of Kayachikitsa
Vriddhi and kshaya of Dosha
Vriddhi and kshaya of Dhatu
Vriddhi and kshaya of Mala


Slide Content

FUNDAMENTAL CONCEPTS 0F KAYACHIKITSA ( Vriddhi and Kshaya of Dosha , Dhatu , Mala) By: Dr. Swati Dhiryan PG ( Ist yr) Dept. of Kayachikitsa

काय शब्द की निरुक्ति 1. “चीयतेअन्नादिभिरिति काय: ” अर्थात अनादि से जिसका पोषण होता है उसे काय कहते हैं काय शब्द की निष्पत्ति चिञ‌्- चयने  धातु में घञ‌् प्रत्यय लगाने से होती है। इसका अर्थ है देह। 2. काय का एक अर्थ शरीर भी है। 3.“कायति शब्दायते इति कायः।” निरूक्ति से काय का एक अर्थ मन भी है। 4.“ कायतीति कायः” के अनुसार काय का अर्थ हृदय भी किया जाता है। काय का एक अर्थ जठराग्नि भी किया जाता है।

चिकित्सा व्युत्पत्ति - चिकित्सा शब्द “ कित‌् रोगापनयने ” धातु में “ सन‌् ” प्रत्यय लगाने से सिद्ध हुआ है। व्याकरण ग्रंथों में “ कित‌् ” धातु का प्रयोग रोग को दूर करने के अर्थों में प्रयुक्त होता है। निरुक्ति 1. “ चिकित्सा रुक प्रतिक्रिया ” अर्थात रोग के प्रतिकार करने को ही चिकित्सा कहते हैं | ( अमरकोश ) 2. “ केतितुम‌् इच्छति इति चिकित्सति,चिकित्सति इति चिकित्सा। ” 3. “ या क्रिया व्याधिहरणी सा चिकित्सा निगघते |” ( भावप्रकाश ) 4. “ चिकित्सा रोग निदानप्रतिकारे। ” ( वैघक शब्द सिन्धु ) 5. “ चिकित्सा तत् प्रतिकारः। ” ( राज निघण्टू )

चिकित्सा की परिभाषा 1. “ या क्रिया व्याधिहरणी सा चिकित्सा निगघते |” दोषधातुमलानाम वा साम्यक्रत सेव रोगह्रत॥ ( भावप्रकाश ) व्याधि के हरण नाश करने की क्रिया को चिकित्सा कहते हैं। जो क्रिया शरीर के घटक दोष धातु मल के अस्वास्थ्यकर वैषम्य को दूर कर उन्हें सम स्वास्थ्यकर प्रमाण में लाकर धातु साम्य में स्थापित कर रोग दूर करें वह चिकित्सा है। 2 . चतुर्णां भिषगादीनां शस्तानां धातुवैकृते| प्रवृत्तिर्धातुसाम्यार्था चिकित्सेत्यभिधीयते|| ( च.सू.9/5) चिकित्सक औषधि परिचारक रोगी के प्रशस्त रहने पर धातु के विकृत हो जान पर धातु साम्य पुनः स्थापित करने के लिए जो प्रवृत्ति होती है उसे चिकित्सा कहते हैं। 3. याभिः क्रियाभिर्जायन्ते शरीरे धातवः समाः| सा चिकित्सा विकाराणां कर्म तद्भिषजां स्मृतम्|| (च.सू. 16/34) शरीर में विषम हुए दोष धातु एवं मल जिस क्रिया द्वारा शरीर में साम्यवस्था को प्राप्त होते हैं उसे चिकित्सा कहते हैं इसे ही वैद्य कर्म नाम से भी जाना जाता है। 4 . रोगस्तु दोषवैषम्यं दोषसाम्यंआरोग्ता। (अ.ह्र.सू. 1/20) दोष धातु की विषमता ही रोग है एवं उनकी साम्यवस्था आरोग्य है रोग अवस्था में विसम हुए दोष धातु को साम्यावस्था में लाने के लिए की जाने वाली क्रिया चिकित्सा कहलाती है।

कायचिकित्सा-अर्थ, परिभाषा कायचिकित्सा का शाब्दिक अर्थ है काय की चिकित्सा। विभिन्न आचार्य ने इस विषय में भिन्न-भिन्न मत प्रस्तुत किए हैं: कायस्यान्तरग्नेश्र्चिकित्सा। (चक्रपाणि) कायचिकित्सा नाम सर्वाङ्गसंश्रितानां व्याधीनां ज्वररक्तपित्तशोषोन्मादापस्मारकुष्ठमेहातिसारादीनामुपशमनार्थम्   (सु.सू.1/8(3)) काय चिकित्सा इति कायस्य अन्तरगनेश्र्चिकित्सा। (गंगाधर) जाठरः प्राणिनामग्निः कायः इत्यभिधीयते। यस्तं चिकित्सेत‌् सीदन्तं स वै काय चिकित्सकः।। (भोज)

Fundamental Concept of Kayachikitsa includes: Dosa - Dusya vivecana Concept of Dosa Concept of Dusya Satkriyakala Bala , Vyadhi Pratyanika Ksamata,ojus , and immunity Vyadhi with its Samprapti Concept of Ama Concept of Avarana The knowledge of Dosa , Dhatu , Mala vriddhiksaya and its management etc.

दोष धातु मलो की क्षय-वृद्धि निदान एवं चिकित्सा शरीर की वृद्धि , क्षय , आरोग्य , अनारोग्य , सुखायु दुखायु , हितायु व अहितायु का कारण दोष दूष्य मल ओज अग्नि ही है। स्वभावतः त्रिदोष विकृत होकर धातु उपधातु एवं मलो को दूषित करते है। विकारो धातुवैषम्यं, साम्यं प्रकृतिरुच्यते | सुखसञ्ज्ञकमारोग्यं, विकारो दुःखमेव च||४|| ( च.सू.9/4) समदोषः समाग्निश्च समधातुमलक्रियः | प्रसन्नात्मेन्द्रियमनाः स्वस्थ इत्यभिधीयते ||४१| (सु.सू.15/41 ) रोगस्तु दोषवैषम्यं दोषसाम्यंआरोग्ता। (अ.ह्र.सू. 1/20) इन दोषादि का विषम या विकृत होना ही रोग या अस्वास्थ्य है। यह वैषम्य निम्न दो प्रकार का होता है। 1 . क्षय 2. वृद्धि

दोषाः प्रवृद्धाः स्वं लिङ्गं दर्शयन्ति यथाबलम्| क्षीणा जहति लिङ्गं स्वं, समाः स्वं कर्म कुवेते॥ (च.सू.17/62) वाते पित्ते कफे चैव क्षीणे लक्षणमुच्यते| कर्मणः प्राकृताद्धानिर्वृद्धिर्वाऽपि विरोधिनाम्|| ( च.सू.18/52) दोष आदि जब क्षीण होते हैं तब उनके प्राकृत कर्मों का ह्रास हो जाता है एवं विरोधी गुण कर्मों की वृद्धि होती है। जब दोष आदि वृद्ध होते हैं तब वे अपने लक्षणों को यथाबल प्रकट करते हैं अर्थात उनके प्राकृतिक गुण कर्मों का उनके बल के अनुसार आधिक्य हो जाता है। क्षयः स्थानं च वृद्धिश्च दोषाणां त्रिविधा गतिः।। (च.सू.17\112) दोषों की गति निम्न तीन प्रकार की होती है- १.क्षय २.वृद्धि  ३.स्थान (सम)

यह क्षय वृद्धि निम्न दो प्रकार से होती है 1. चय या संचय 2. प्रकोप चय संचय  दोष का अपने प्राकृत या स्वाभाविक स्थान पर रहकर ही बढ़ना चय या संचय कहलाता है। जैसे पक्वाशय में वायु का नाभि स्थान में पित्त का एवं आमाशय में कफ का संचय होता है। वात संचय- स्तब्धपूर्णकोष्ठता पित संचय- पीतावभासता मन्दोष्मता  कफ संचय- चाङ्गानां गौरवमालस्यं चयकारणविद्वेषश्चेति लिङ्गानि भवन्ति व्यक्ति को जिन कारणों से दोष चय हुआ है उनके प्रति द्वेष होता है अर्थात उनके सेवन की अनिच्छा होती है। आधुनिक जीवाणु विज्ञान में वर्णित incubation period से संचय अवस्था का सामंजस्य स्थापित किया जाता है। प्रकोप संचित दोष जब अधिक बलपूर्वक प्रकुपित होकर उन्मार्गी हो जाते हैं एवं स्वस्थान से अन्य स्थान की ओर जाने की तैयारी करते हैं तब उस अवस्था को प्रकोप कहते हैं। तेषां प्रकोपात् कोष्ठतोदसञ्चरणाम्लीकापिपासापरिदाहान्नद्वेषहृदयोत्क्लेदाश्च जायन्ते। तत्र द्वितीयः क्रियाकालः || ( सुसू.21/२७|| समावस्था  स्व स्थान पर दोष जब सम अवस्था में रहता है तब संहिताओं में उसके साम्य के जो कर्म एवं लक्षण कहे गए है वे प्राकृत रूप में होते हैं अन्य स्थानगत सम दोष भी रोग उत्पादक होता है इसे ‘आशयापकर्ष’ कहते है।

त्रिदोष की क्षय-वृद्धि

वातक्षय वातक्षये मन्दचेष्टताऽल्पवाक्त्वमप्रहर्षो मूढसञ्ज्ञता च। (सु.सू.15/7) जब वात कम हो जाता है, चेष्टताओ मे अल्पता शरीर की दुर्बलता, व्यक्ति बहुत कम बोलता है और बहुत कम गतिविधि करता है (हर्ष का अभाव),संवेदनाओं की हानि,चेतना की हानि। वातवृद्धि वातवृद्धौ वाक्पारुष्यं कार्श्यं कार्ष्ण्यं गात्रस्फुरणमुष्णकामि(म)ता निद्रानाशोऽल्पबलत्वं गाढवर्चस्त्वं च। (सु.सू.15/13) जब वात बढ़ता है तो त्वचा का खुरदरापन, शरीर का क्षीण होना, गहरा रंग, अंगों का कांपना। ऐसा व्यक्ति गर्म चीजों के लिए तरसता है। वह अनिद्रा से पीड़ित है। वह उत्साहहानि मेह्सूस करता है। वह कठिन मल पास करता है।   

पित्तक्षय   पित्तक्षये मन्दोष्माग्निता निष्प्रभता च। (सु.सू.15/7) शरीर का तापक्रम उष्मा सामान्य से कम पाया जाता है शरीर की अग्निया मुख्यता जठराग्नि मंद हो जाती है परिणाम स्वरूप पाचन शक्ति कम हो जाती है त्वचा प्रभा एवं कांति रहित हो जाती है। पित्तवृद्धि पित्तवृद्धौ पीतावभासता सन्तापः शीतकामित्वमल्पनिद्रता मूर्च्छा बलहानिरिन्द्रियदौर्बल्यं पीतविण्मूत्रनेत्रत्वं।  (सु.सू.15/13) त्वचा के साथ-साथ नेत्र मल मूत्र आदि का वर्ण पीताभ हो जाता है संताप अर्थात शरीर का ताप बढ़ने के साथ साथ दाह की अनुभूति होती है शीत आहार-विहार की इच्छा होती है, नींद थोड़ी आती है, भ्रम और तम के परिणाम स्वरूप मूर्छा का अनुभव होता है, शारीरिक बल की कमी हो जाती है, इंद्रियों की सामर्थ्य या शक्ति अल्प हो जाती है। 

श्लेष्मक्षय श्लेष्मक्षये रूक्षताऽन्तर्दाह आमाशयेतरश्लेष्माशयशून्यता सन्धिशैथिल्यं तृष्णा दौर्बल्यं प्रजागरणं च ॥ (सु.सू.15/7) शरीर के अंग प्रत्यय विशेष रुप से त्वचा आदि में स्नेह अंश कम हो जाने पर रुक्ष हो जाते हैं, श्लेष्मा की कमी होने पर स्वभावता पैतिक लक्षणों मे वृद्धि हो जाती है, परिणाम स्वरूप अंतर्दाह तथा पिपासा की अनुभूति अधिक होती है अमाशय को छोड़कर श्लेष्मा के अन्य स्थान में शून्यता सी रहती है,अस्थि संधिया शिथिल हो जाती हैं, दुर्बलता की अनुभूति होती है पूर्वअपेक्षा नींद कम आती है। श्लेष्मवृद्धि  शौक्ल्यं शैत्यं स्थैर्यं गौरवमवसादस्तन्द्रा निद्रा सन्धिविश्लेषश्च || (सु.सू.15/13) श्लेष्मा की वृद्धि के कारण  शरीर का वर्ण श्वेताभ हो जाता है शीतलता की अनुभूति होती है स्थैरय गुण के कारण शरीर अंगों में विशेष रूप से संधियों में जकड़न रहती है गौरव अर्थात शरीर के भार में वद्धि हो जाती है अवसाद यानी शरीर और मन शिथिल हो जाते हैं तंद्रा निद्रा संधियों में दुर्बलता उत्पन्न हो जाती है।

धातु की क्षय-वृद्धि

रस धातु 1.रसस्तुष्टिं प्रीणनं रक्तपुष्टिं च करोति || ( सू.सु.15/4 ) 2.रसक्षये हृत्पीडाकम्पशून्यतास्तृष्णा च || ( सू.सु.15/9 ) 3.घट्टते सहतेशब्दं नोच्चैर्द्रवतिशूल्यते। हृदयं ताम्यति स्वल्पचेष्टस्यापि रसक्षये||(च.सू.17/64) 4.रसोऽतिवृद्धो हृदयोत्क्लेदं प्रसेकं चापादयति॥ (सू.सु.15/14) धातु प्राकृत कर्म व लक्षण क्षय लक्षण वृद्धि लक्षण रस प्रीणन, तुष्टि, तर्पण, रक्त पुष्टि।(1) शब्द असहिष्णुता, हृद्द्रव, हृदय पीड़ा, ग्लानि, क्लम, शून्यता, श्रम, तृष्णा, शोष, प्राकृत कर्म ह्रास, रक्त आदि धातु अपचय आदि । (2)(3) अग्निमांद्य प्रसेक उत्कलेद आलस्य गौरव श्वैत्य कास श्वास शैथिल्य अतिनिद्रा(4)आदि।

रक्त धातु रक्तं वर्णप्रसादं मांसपुष्टिं जीवयति च। (सू.सु.15/4) शोणितक्षये त्वक्पारुष्यमम्लशीतप्रार्थना सिराशैथिल्यं च। (सू.सु.15/9) परुषा स्फुटिता म्लाना त्वग्रूक्षा रक्तसङ्क्षये| (च.सू.17/65) रक्तं रक्ताङ्गाक्षितां सिरापूर्णत्वं च। (सू.सु.15/14)   धातु प्राकृत कर्म व लक्षण क्षय लक्षण वृद्धि लक्षण रक्त जीवन  वर्ण प्रसादन मांस पुष्टि रक्त अल्पता त्वक रूक्षता त्वकपारूष्य त्वकस्फोटन शिराशैथिल्य त्वकम्लानता अग्निमाद्य शिराकंप भ्रम तिमिर बाधिरय तृष्णा पाण्डू संज्ञा नाश दौर्बल्य आदि। शिरा पूर्णता त्वक नेत्र रक्तिमा कुष्ठ विसर्प वातरक्त रक्तपित्त कामला विद्रधि प्लीहा वृद्धि मूर्छा आदि।

मांस धातु मांस शरीरपुष्टिं मेदसश्च। ( सू.सु.15/4 ) मांसक्षये स्फिग्गण्डौष्ठोपस्थोरुवक्षः कक्षापिण्डिकोदरग्रीवाशुष्कता रौक्ष्यतोदौ गात्राणां  सदनं धमनीशैथिल्य॥ (सू.सु.15/9) मांसक्षये विशेषेण स्फिग्ग्रीवोदरशुष्कता | (च.सू.17/65) मांसं अतिवृद्धिं स्फिग्गण्डौष्ठोपस्थोरुबाहुजङ्घासुवृद्धिं गुरुगात्रतां च। (सू.सु.15/14) धातु प्राकृत कर्म व लक्षण क्षय लक्षण वृद्धि लक्षण मांस शरीरपुष्टि , मेदपुष्टि, अस्थि, स्नायु, नाड़ी एवं सिरा की रक्षा करना।  स्फिग-गण्ड- ओष्ठ, शिशन, वक्ष, ग्रीवा, कक्षा, उरु, उदर में शुष्कता, शरीर में रुक्षता, तोद, अंग थकावट, धमनी शैथिल्य, संधिवेदना, संधिस्फुटन, नेत्र गलानि भार क्षय आदि। स्फिग-गण्ड-ओष्ठ शिशन, उरू, बाहु जंघा आदि अंगों की स्थूलता, शरीर में गुरुता, अधिमांस, अर्बुद, अर्श, औष्ठ प्रकोप, मांसलता आदि

मेद धातु मेदः स्नेहस्वेदौ दृढत्वं पुष्टिमस्थ्नां च। ( सु.सू.15/4 ) मेदःक्षये प्लीहाभिवृद्धिः  सन्धिशून्यता रौक्ष्यं मेदुरमांसप्रार्थना च। ( सु.सू.15/9 ) सन्धीनां स्फुटनं ग्लानिरक्ष्णोरायास एव च| लक्षणं मेदसि क्षीणे तनुत्वं चोदरस्य च|| (च.सू.17/66) मेदःस्निग्धाङ्गतामुदरपार्श्ववृद्धिं कासश्वासादीन् दौर्गन्ध्यं च॥ (सु.सू.15/14)   धातु प्राकृत कर्म व लक्षण क्षय लक्षण वृद्धि लक्षण मेद स्नेहन स्वेदन शरीर की दृढ़ता मार्दवता एवं अस्थि पुष्टि प्लीहा वृद्धि संधिशून्यता,रूक्षता मांस खाने की इच्छा,संधि स्फुटन, कृशता, गलानि, नेत्रों में ग्लानि,श्रम, उदर तनुत्व, प्राकृत कर्म का ह्रास आदि स्निग्ध अंगता उदरपार्श्व वृद्धि कास श्वास दौर्गन्ध्य

अस्थि धातु अस्थीनि देहधारणं मज्ज्ञः पुष्टिं च। (सु.सू.15/4) अस्थिक्षयेऽस्थिशूलं दन्तनखभङ्गो रौक्ष्यं च। (सु.सू.15/9) केशलोमनखश्मश्रुद्विजप्रपतनं श्रमः| ज्ञेयमस्थिक्षये लिङ्गं सन्धिशैथिल्यमेव च || (च.सू.17/67) अस्थ्यध्यस्थीन्यधिदन्तांश्च। (सु.सू.15/14)  धातु प्राकृत कर्म व लक्षण क्षय लक्षण वृद्धि लक्षण अस्थि देह धारण एवं मज्जा पुष्टि आदि अस्थि शूल,संधिशूल, संधिशिथिलता, केश लोम नख श्मश्रु रोमादि का गिरना व थकावट आदि  अध्यस्थि अधिदंत केश व नख अतिवृद्धि आदि

मज्जा धातु मज्जा स्नेहं बलं शुक्रपुष्टिं पूरणमस्थ्नां च करोति। (सु.सू.15/4) मज्जक्षयेऽल्पशुक्रता पर्वभेदोऽस्थिनिस्तोदोऽस्थिशून्यता च। (सु.सू.15/9) शीर्यन्त इव चास्थीनि दुर्बलानि लघूनि च| प्रततं वातरोगीणि क्षीणे मज्जनि देहिनाम्|| (च.सू. 17/68) मज्जा सर्वाङ्गनेत्रगौरवं च। (सु.सू. 15/14) धातु प्राकृत कर्म व लक्षण क्षय लक्षण वृद्धि लक्षण मज्जा शरीर स्नेहन बल संपादन शुक्र पुष्टि अस्थि पूरण आदि अल्प शुक्रता पर्वभेद, अस्थिछिद्रता अस्थि निस्तोद भ्रम तिमिर तम वात रोग व प्राकृत कर्म हृास आदि सर्वांग व नेत्र में गौरव तमो दर्शन भ्रम मूर्च्छा, अस्थि पर्व पर व्रण उत्पत्ति आदि

शुक्र धातु शुक्रं धैर्यं च्यवनं प्रीतिं देहबलं हर्षं बीजार्थं च। (सु.सू.15/4) शुक्रक्षये मेढ्रवृषणवेदनाऽशक्तिर्मैथुने चिराद्वा प्रसेकः प्रसेके चाल्परक्तशुक्रदर्शनम् (सु.सू. 15/9) दौर्बल्यं मुखशोषश्च पाण्डुत्वं सदनं श्रमः| क्लैब्यं शुक्राविसर्गश्च क्षीणशुक्रस्य लक्षणम्|| (च.सू.17/69) शुक्रं शुक्राश्मरीमतिप्रादुर्भावं च। (सु.सू.15/14) धातु प्राकृत कर्म व लक्षण क्षय लक्षण वृद्धि लक्षण शुक्र धैर्य च्यवन प्रीति देहबल हर्ष आदि दौबल्य मुखशोष पाण्डू सदन श्रम क्लैब्य शुक्र का देर से स्त्राव मेढ् वृषण वेदना शुक्र रक्तता आदि शुक्राश्मरी शुक्र अति प्रवृत्ति स्वप्नदोष मैथुन की अति इच्छा शुक्र प्रदोषज विकार आदि।

मल की क्षय-वृद्धि

पुरीष प्राकृत कर्म व लक्षण पुरीषमुपस्तम्भं  वाय्वग्निधारणं च। (सु.सू.15/5)   उपस्तम्भ, वायु-अग्नि धारण पुरीषक्षय   पुरीषक्षये हृदयपार्श्वपीडा सशब्दस्य च वायोरूर्ध्वगमनं कुक्षौ सञ्चरणं च। (सु.सू.15/11) हृदय पार्श्व मे पीडा, शब्द के साथ वायु का ऊध्व अधः एवं तिर्यक गमन एवं कुक्षी में संचरण पुरीषवृद्धि पुरीषमाटोपं कुक्षौ शूलं च।(सु.सू.15/15) आटोप, कुक्षिशूल

मूत्र प्राकृत कर्म व लक्षण बस्तिपूरणविक्लेदकृन्मूत्रं (सु.सू.15/5)   बस्तिपूरण,विक्लेदकृत मूत्रक्षय मूत्रक्षये बस्तितोदोऽल्पमूत्रता च | ( सु.सू.15/11 ) मूत्रक्षये मूत्रकृच्छ्रं मूत्रवैवर्ण्यमेव च| पिपासा बाधते चास्य मुखं च परिशुष्यति|| (च.सू.17/71) बस्ती तोद, अल्पमूत्रता,मूत्रकृच्छ, मूत्रवैवण्र्य, प्यास, मुख शुष्कता मूत्रवृद्धि मूत्रं मूत्रवृद्धिं मुहुर्मुहुः प्रवृत्तिं बस्तितोदमाध्मानं च | (सु.सू.15/15) मूत्र आधिक्य, मूत्र स्त्राव की बार-बार प्रवृत्ति, बस्तितोद,आध्मान

स्वेद प्राकृत कर्म व लक्षण स्वेदः क्लेदत्वक्सौकुमार्यकृत्॥ (सु.सू.15/5) स्वेदक्षय स्वेदक्षये स्तब्धरोमकूपता त्वक्शोषः स्पर्शवैगुण्यं स्वेदनाशश्च; तत्राभ्यङ्गः स्वेदोपयोगश्च || (सु.सू.15/11) स्तब्धरोमकूपता,त्वक शुष्कता,स्पर्श में वैगुण्य,स्वेद का नाश स्वेदवृद्धि स्वेदस्त्वचो दौर्गन्ध्यं कण्डूं च || (सु.सू.15/15) त्वचा में दुर्गंध, खुजली