मध्यम और माध्यत्य आगद तंत्र (Agad Tantra) - द्वितीय वर्ष BAMS प्रस्तुति
परिचय आगद तंत्र आयुर्वेद की आठ प्रमुख शाखाओं में से एक है , जो विषविज्ञान अर्थात् विष के कारण उत्पन्न रोगों , विष उपचार तथा विभिन्न विषों की पहचान आदि का अध्ययन कराता है । आधुनिक युग में विभिन्न प्रकार के व्यसनों में वृद्धि हुई है , जिनमें मद्यपान प्रमुख है । मद्य का अत्यधिक सेवन मदात्यय रोग को उत्पन्न करता है , जो शरीर , मन और समाज – तीनों पर गंभीर प्रभाव डालता है । आयुर्वेद में मद्य को एक औषधीय एवं विशेष परिस्थिति में हितकारी पदार्थ माना गया है , परंतु अनुचित सेवन करने पर यह एक गंभीर विष के समान कार्य करता है । चरक संहिता , सुश्रुत संहिता तथा माधव निदान जैसे ग्रंथों में मद्य एवं मदात्यय का विस्तृत वर्णन किया गया है ।
मध्यम का अर्थ “ मद्य ” शब्द संस्कृत धातु ‘ मद् ’ से बना है , जिसका अर्थ है – उत्साह , नशा या प्रमाद उत्पन्न करना । चरक संहिता में कहा गया है :
“ मद्यं नाम हि तत् यत् प्रमादकरं बलवर्णकरं च भवति ।” ( चरक संहिता , सूत्रस्थान 24/30) अर्थात् – मद्य वह पदार्थ है जो प्रमाद ( नशा ), बल और वर्ण को उत्पन्न करता है ।
उदाहरण (मध्यम) उदाहरण: - मध्यम रोगी: न अति दुर्बल, न अति स्थूल - मध्यम औषधि: जिसका प्रभाव neither too strong nor too mild हो
श्लोक (मध्यम) आयुर्वेद में मद्य के विभिन्न प्रकारों का वर्गीकरण उसके स्रोत , गुण , और प्रभाव के आधार पर किया गया है । मुख्यतः मद्य के भेद निम्नलिखित हैं :
1. स्रोत के आधार पर भेदः स्रोत मद्य का नाम उदाहरण फल जन्य द्राक्षासव , आम्रसव अंगूर , आम धान्य जन्य सुरासव , शोकतासव चावल , गेहूँ मूल जन्य इक्षुमूलासव गन्ना मधु जन्य मध्वासव शुद्ध शहद श्लोकः “ मधु , द्राक्षा , तुन्दिकेरी , इक्षु , धान्यादयः स्मृताः । एतेभ्यो यः समुत्पन्नः स मद्य इति कथ्यते ॥”
आयुर्वेद में जिन पदार्थों के किण्वन (fermentation) से मद्य बनता है , वे इस प्रकार हैं – धान्य ( अन्न ) जन्यः जौ , चावल , मक्का फल जन्यः आम्र , द्राक्षा ( अंगूर ), जामुन , केले मधु जन्यः शुद्ध शहद से निर्मित मद्य मूलकंद जन्यः गन्ना , खजूर आदि श्लोक ( माधव निधान ) –
2. गुण एवं प्रभाव के आधार पर भेदः उष्ण वीर्य युक्त – पाचन व अग्नि को तेज करता है तीव्र प्रभावी – प्रमाद एवं मद उत्पन्न करता है मन्द प्रभावी – औषधीय प्रयोग हेतु उपयोगी दोष विशेष को प्रभावित करने वाले वातशामक मद्य पित्तशामक मद्य कफशामक मद्य 3. परिणाम के आधार पर भेदः हितकारी ( मात्रायुक्त सेवन में लाभकारी ) अहितकारी ( अति सेवन में
. मद्य निर्माण विधि (Preparation of Madya ) मद्य निर्माण की प्रक्रिया को आयुर्वेद में “ सन्धान विधि ” कहा गया है । यह एक विशेष किण्वन (fermentation) प्रक्रिया है । मुख्य चरणः 1. द्रव्यों का चयनः फल , अन्न , मधु , जल आदि 2. संधान द्रव्य (fermenting agent): धातकी पुष्प ( Woodfordia fruticosa ) मद्यजनक जड़ी-बूटियाँ 3. क्वाथ बनानाः सभी द्रव्यों को जल के साथ उबालकर क्वाथ बनाते हैं ।
4. संधान कालः क्वाथ को मिट्टी या काष्ठ पात्र में भरकर गर्म स्थान पर रखा जाता है ।
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. किण्वन काल : 15-30 दिनों के अंदर प्राकृतिक किण्वन से मद्य उत्पन्न होता है । श्लोक ( चरक संहिता ):
5. मद्य के गुण , कर्म एवं प्रभाव गुण (Properties): आयुर्वेद में मद्य को विशेष गुणों से युक्त बताया गया है । चरक संहिता में इसके गुणों का उल्लेख इस प्रकार किया गया है : श्लोकः “ लघु तीक्ष्णं सरं रूक्षं , विकाशी अशुचिप्रियं । उष्णं दीपनो हृद्यं च, मद्यं दोषविबन्धनम् ॥” ( चरक संहिता , सूत्रस्थान 24/30) प्रमुख गुणः लघु ( पचने में हल्का ) तीक्ष्ण ( तीव्र प्रभावशाली ) उष्ण ( गर्म प्रवृत्ति ) दीपन ( अग्नि को बढ़ाने वाला ) सर ( शरीर में प्रवाही )
कर्म (Actions): अग्निदीपन ( पाचनशक्ति को बढ़ाना ) विषहर ( कुछ विषों को शिथिल करना ) हृदयविकारों में सहायक प्रमाद , मद , मोह उत्पन्न करता है प्रभाव (Effects): मद्य का प्रभाव मात्रा , व्यक्ति की प्रकृति , अवस्था तथा सेवन विधि पर निर्भर करता है । अल्प मात्रा में – बलवर्धन , आनन्ददायक , भोजनपाचन में सहायक अति मात्रा में – मद , मोह , अवसाद , अग्निमांद्य , रोग उत्पत्ति
हानियाँ ( अत्यधिक सेवन से ): हानि लक्षण पाचन तंत्र पर प्रभाव अग्निमांद्य , अजीर्ण , अम्लपित्त मानसिक विकार भ्रम , क्रोध , मोह , शोक यकृत रोग लिवर सिरोसिस , जिगर में सूजन सामाजिक हानि व्यवहार असामान्यता , विवाद शारीरिक दुर्बलता रक्ताल्पता , श्लोक ( चरक संहिता ):
मद्य सेवन के लाभ और हानि लाभ ( यदि मात्रा और समय अनुसार सेवन हो ): लाभ विवरण पाचन शक्ति में वृद्धि अग्निदीपन और आमपाचन बल एवं उत्साह शरीर को थोड़ी मात्रा में उर्जा शोक और चिंता में राहत मानसिक तनाव में उपयोगी निद्राजनक प्रभाव नींद लाने में सहायक श्लोक ( सुश्रुत संहिता ):
“ यथासंख्यं हितं मद्यं युक्तियुक्तं सुपाचकं । सुखं हर्षकरं च स्यात् , व्याधीनां च विनाशनम् ।।”
मदात्यय की परिभाषा एवं प्रकार परिभाषाः “ मदात्यय ” वह अवस्था है जब अत्यधिक , अनुचित या अनियमित मद्य सेवन से शारीरिक , मानसिक तथा सामाजिक विकार उत्पन्न होते हैं । यह एक प्रकार का विषरोग है जिसे आयुर्वेद में प्रमादजन्य रोग माना गया है । श्लोक ( चरक संहिता ):
“ मद्यसेवनानन्तरं , यः प्रमादो जायते देहे । स मदात्ययः प्रोक्तः तद्विषं यद्यनुपायसम् ।।” ( चरक संहिता , चिकित्सा स्थान 24/1) मदात्यय के कारणः अत्यधिक मात्रा में मद्य सेवन उपवास या क्षीण अवस्था में सेवन एक ही समय में विभिन्न प्रकार के मद्य का सेवन असमय अथवा खाली पेट सेवन
प्रकार (Types of Madatyaya ):
1. वातज मदात्ययः लक्षणः शरीर में कंपन , बेचैनी , अनियमित वाणी कारणः अत्यंत तीव्र मद्य या शीतकाल में सेवन 2. पित्तज मदात्ययः लक्षणः अधिक प्यास , जलन , क्रोध , भ्रम कारणः उष्ण प्रकृति का मद्य या ग्रीष्मकाल में सेवन 3. कफज मदात्ययः लक्षणः तंद्रा , आलस्य , वाणी की मंदता कारणः गुरु और अधिक मीठे मद्य का सेवन 4. सन्निपातज मदात्ययः सभी दोषों का मिश्र प्रभाव गंभीर अवस्था लक्षणः मूर्छा , भ्रम , उच्च श्रेणी की मानसिक विकृति श्लोकः “ त्रिविधं मदात्ययं मन्यते तत्र तज्ज्ञः । वातजं , पित्तजं , कफजं , सन्निपातजं च ॥
लक्षण (Symptoms of Madatyaya ) शारीरिक लक्षणः शारीरिक लक्षणः अत्यधिक कमजोरी अग्निमांद्य ( भूख न लगना ) सिरदर्द , शरीर में कंपकंपी आँखों की लाली , धुंधलापन उल्टी या जी मिचलाना मानसिक लक्षणः भ्रम (Confusion) चंचलता या अवसाद तर्कशक्ति में कमी स्मृति लोप क्रोध या डर
सामाजिक लक्षणः अनुचित व्यवहार विवाद , झगड़ा अपराध प्रवृत्ति श्लोक ( चरक संहिता ):
मदात्यय की चिकित्सा (Treatment of Madatyaya ) चिकित्सा के सिद्धांतः चरक संहिता में स्पष्ट कहा गया है कि –” यथा दोषं , यथा कालं , यथा रोगं च मानवम् । भिषक् तदनुरूपं तु कुर्यात् चिकित्सितं बुधः ॥” मदात्यय की चिकित्सा दोषों की प्रकृति ( वात , पित्त , कफ ) के अनुसार की जाती है । इसमें तीन प्रमुख उपाय होते हैं :
◆ (1) शोधन चिकित्सा (Cleansing Therapy) यदि रोगी में बल है और दोष उर्ध्वगामी हो रहे हैं , तो शोधन आवश्यक होता है :
(2) शमन चिकित्सा (Palliative Treatment) यदि रोगी दुर्बल हो या शोधन संभव न हो , तो शमन किया जाता है : लक्षण औषधियाँ / उपाय तृषा , जलन शीतल जल , धन्वन्तरि तैल मानसिक भ्रम ब्राह्मी , शंखपुष्पी , अश्वगंधा जी मिचलाना अदरक , धनिया , लवण उदरशूल अजवाइन , हिंग्वाष्टक चूर्ण नींद न आना सर्पगन्धा , जटामांसी चूर्ण
◆ (3) आहार-विहार (Diet & Lifestyle Regulation) व्रत या उपवास से बचाव हल्का सुपाच्य भोजन मांड , यवागू , मूंग की खिचड़ी शीतल , मधुर रसयुक्त पदार्थों का सेवन दिन में अधिक सोने से बचें , रात को शांत निद्रा लें मानसिक शांति हेतु ध्यान , प्रार्थना , सत्संग
ग्रंथों में उल्लिखित विशेष चिकित्सा (Textual Treatments) चरक संहिता में वर्णितः “ तृषार्तस्य शीतं तोयं , मूर्च्छितस्य च शोधनम् । बलिनस्तु विशेषेण , बस्तिः स्नेहविपाचनम् ॥” अर्थात् – प्यास से पीड़ित को शीतल जल मूर्छा हो तो पहले दोषों का शोधन बलवान व्यक्ति को बस्ति चिकित्सा दी जाए सुश्रुत संहिता के अनुसारः मदात्यय को दोष , मन और इन्द्रियों से संबंधित रोग माना गया है इसमें तैल स्नान , सिर का अभ्यंग , नस्य ( नाक में औषधि ) का प्रयोग वर्णित है
. निष्कर्ष (Conclusion) आयुर्वेद ने मद्य को एक दुधारी तलवार के रूप में वर्णित किया है – उचित मात्रा और विधि से सेवन करने पर यह औषधि के समान लाभकारी है , जबकि अनुचित सेवन से यह विष के समान घातक बन जाता है । मदात्यय का वर्णन आयुर्वेद में विषविकारों की श्रेणी में किया गया है , और इसकी चिकित्सा त्रिदोष सिद्धांत के आधार पर विस्तार से दी गई है । इससे यह सिद्ध होता है कि प्राचीन ऋषियों को नशा जनित विकारों की गहन समझ थी , जो आज के सामाजिक स्वास्थ्य संकटों से मेल खाती है ।
आधुनिक दृष्टिकोण (Modern View):
Detoxification Activated charcoal
Hydration Therapy – IV fluids
Sedatives – For calming anxiety
-Liver support Liv-52, herbal tonics
Psychological counselling
माध्यत्य के प्रकार १. अंकगणितीय माध्य (Arithmetic Mean) २. माध्यमिक माध्य (Median) ३. बहुलक (Mode)
उदाहरण (माध्यत्य) यदि किसी समूह में रोगियों की आयु 20, 22, 24, 26, 28 है, तो माध्य = (20+22+24+26+28)/5 = 24 वर्ष
माध्यम और माध्यत्य में अंतर मध्यम - आयुर्वेदिक दृष्टिकोण से विश्लेषण माध्यत्य - सांख्यिकी दृष्टिकोण से औसत
महत्व (मध्यम) १. औषध चयन में सहायक २. उपचार की तीव्रता निर्धारित करने में उपयोगी
महत्व (माध्यत्य) १. अनुसंधान में आवश्यक २. तुलनात्मक अध्ययन में उपयोगी
श्लोक (संदर्भ) च.विमान.८/८२: “दोषैर्देहे स्थितै: कार्यं निदानं समुपाश्रयम्। तत्र माध्यवस्था कार्यं, ना तितीव्रं न मन्दतम्॥”
प्रश्नोत्तर १. मध्यम का उपयोग कहाँ होता है? २. माध्यत्य कितने प्रकार के होते हैं? ३. दोनों में मूलभूत अंतर क्या है?
निष्कर्ष मध्यम और माध्यत्य दोनों ही चिकित्सा विज्ञान में निर्णय की दृष्टि से आवश्यक हैं। एक प्राचीन दृष्टिकोण से तो दूसरा आधुनिक सांख्यिकीय विचारधारा से जुड़ा है।
संदर्भ १. चरक संहिता - सूत्र स्थान, विमान स्थान २. आगद तंत्र ग्रंथ ३. आयुर्वेदिक सांख्यिकी पुस्तकें
धन्यवाद! प्रस्तुति समाप्त। कोई प्रश्न हो तो कृपया पूछें।