महादेवी वमाा (26 मार्च, 1907 — 11 सितंबर, 1987) हिन्दी की िर्ाचधिक
प्रततभार्ान कर्तित्रििों में िे िैं। र्े हिन्दी िाहित्ि में छािार्ादी िुग के र्ार प्रमुख
स्तंभों में िे एक मानी जाती िैं।
[१]
आिुतनक हिन्दी की िबिे िशक्त कर्तित्रििों में
िे एक िोने के कारण उन्िें आिुतनक मीरा के नाम िे भी जाना जाता िै।
[२]
कवर्
तनराला ने उन्िें “हिन्दी के वर्शाल मन्न्दर की िरस्र्ती” भी किा िै।
[ख]
मिादेर्ी ने
स्र्तंिता के पिले का भारत भी देखा और उिके बाद का भी। र्े उन कवर्िों में िे एक
िैं न्जन्िोंने व्िापक िमाज में काम करते िुए भारत के भीतर वर्द्िमान िािाकार,
�दन को देखा, परखा और क�ण िोकर अन्िकार को दूर करने र्ाली दृन्टि देने की
कोसशश की।
[३]
न के र्ल उनका काव्ि बन्कक उनके िामाजिुिार के कािच और
महिलाओं के प्रतत र्ेतना भार्ना भी इि दृन्टि िे प्रभावर्त रिे। उन्िोंने मन की पीडा
को इतने स्नेि और श ंगार िे िजािा कक दीपसशखा में र्ि जन जन की पीडा के �प
में स्थावपत िुई और उिने के र्ल पाठकों को िी निीं िमीक्षकों को भी गिराई तक
प्रभावर्त ककिा।
[ग]
उन्िोंने खडी बोली हिन्दी की कवर्ता में उि कोमल शब्दार्ली का वर्काि ककिा जो
अभी तक के र्ल ब जभाषा में िी िंभर् मानी जाती थी। इिके सलए उन्िोंने अपने
िमि के अनुकूल िंस्क त और बांग्ला के कोमल शब्दों को र्ुनकर हिन्दी का जामा
पिनािा। िंगीत की जानकार िोने के कारण उनके गीतों का नाद-िौंदिच और पैनी
उन्क्तिों की व्िंजना शैली अन्िि दुलचभ िै। उन्िोंने अध्िापन िे अपने कािचजीर्न की
शु�आत की और अंततम िमि तक र्े प्रिाग महिला वर्द्िापीठ की प्रिानार्ािाच
बनी रिीं। उनका बाल-वर्र्ाि िुआ परंतु उन्िोंने अवर्र्ाहित की भांतत जीर्न-िापन
ककिा। प्रततभार्ान कर्तििी और गद्ि लेखखका मिादेर्ी र्माच िाहित्ि और िंगीत में
तनपुण िोने के िाथ िाथ
[४]
कुशल धर्िकार और ि जनात्मक अनुर्ादक भी थीं। उन्िें
हिन्दी िाहित्ि के िभी मित्त्र्पूणच पुरस्कार प्राप्त करने का गौरर् प्राप्त िै। भारत के
िाहित्ि आकाश में मिादेर्ी र्माच का नाम ध्रुर् तारे की भांतत प्रकाशमान िै। गत
शताब्दी की िर्ाचधिक लोकवप्रि महिला िाहित्िकार के �प में र्े जीर्न भर पूजनीि
बनी रिीं।
[५]
र्षच 2007 उनकी जन्म शताब्दी के �प में मनािा जा रिा िै।
जन्म और पररवार
मिादेर्ी का जन्म 26 मार्च, 1907 को प्रातः 8 बजे
[६]
फ़�चखाबाद उत्तर प्रदेश,
भारत में िुआ। उनके पररर्ार में लगभग 200 र्षों िा िात पीह़ििों के बाद पिली बार
पुिी का जन्म िुआ था। अतः बाबा बाबू बााँके वर्िारी जी िषच िे झूम उठे और इन्िें घर
की देर्ी — मिादेर्ी मानते िुए
[६]
पुिी का नाम मिादेर्ी रखा। उनके वपता श्री गोवर्ंद
प्रिाद र्माच भागलपुर के एक कॉलेज में प्राध्िापक थे। उनकी माता का नाम िेमरानी
देर्ी था। िेमरानी देर्ी बडी िमच परािण, कमचतनटठ, भार्ुक एर्ं शाकािारी महिला
थीं।
[६]
वर्र्ाि के िमि अपने िाथ सिंिािनािीन भगर्ान की मूततच भी लािी थीं
[६]
र्े
प्रततहदन कई घंिे पूजा-पाठ तथा रामािण, गीता एर्ं वर्नि पत्रिका का पारािण
करती थीं और िंगीत में भी उनकी अत्िधिक �धर् थी। इिके त्रबककुल वर्परीत उनके
वपता गोवर्न्द प्रिाद र्माच िुन्दर, वर्द्र्ान, िंगीत प्रेमी, नान्स्तक, सशकार करने एर्ं
घूमने के शौकीन, मांिािारी तथा िाँिमुख व्िन्क्त थे। मिादेर्ी र्माच के मानि बंिुओं
में िुसमिानंदन पंत एर्ं [[िूिचकांत त्रिपाठी 'तनराला' |तनराला]] का नाम सलिा जा
िकता िै, जो उनिे राखी बाँिर्ाते रिे।
[७]
तनराला जी िे उनकी अत्िधिक तनकिता
थी,
[८]
उनकी पुटि कलाइिों में मिादेर्ी जी लगभग र्ालीि र्षों तक राखी बााँिती
रिीं।
[९]
शिक्षा
मिादेर्ी जी की सशक्षा इंदौर में समशन स्कूल िे प्रारम्भ िुई िाथ िी िंस्क त, अंग्रेजी,
िंगीत तथा धर्िकला की सशक्षा अध्िापकों द्र्ारा घर पर िी दी जाती रिी। बीर् में
वर्र्ाि जैिी बािा पड जाने के कारण कुछ हदन सशक्षा स्थधगत रिी। वर्र्ािोपरान्त
मिादेर्ी जी ने 1919 में क्रास्थर्ेि कॉलेज इलािाबाद में प्रर्ेश सलिा और कॉलेज के
छािार्ाि में रिने लगीं। 1921 में मिादेर्ी जी ने आठर्ीं कक्षा में प्रान्त भर में प्रथम
स्थान प्राप्त ककिा। ििीं पर उन्िोंने अपने काव्ि जीर्न की शु�आत की। र्े िात र्षच
की अर्स्था िे िी कवर्ता सलखने लगी थीं और 1925 तक जब उन्िोंने मैहिक की
परीक्षा उत्तीणच की, र्े एक िफल कर्तििी के �प में प्रसिद्ि िो र्ुकी थीं। वर्सभन्न
पि-पत्रिकाओं में आपकी कवर्ताओं का प्रकाशन िोने लगा था। कालेज में िुभद्रा
कुमारी र्ौिान के िाथ उनकी घतनटठ समिता िो गई। िुभद्रा कुमारी र्ौिान मिादेर्ी
जी का िाथ पकड कर िखखिों के बीर् में ले जाती और कितीं ― “िुनो, िे कवर्ता भी
सलखती िैं”। 1932 में जब उन्िोंने इलािाबाद वर्श्र्वर्द्िालि िे िंस्क त में एम.ए.
पाि ककिा तब तक उनके दो कवर्ता िंग्रि नीिार तथा रन्श्म प्रकासशत िो र्ुके थे।
वैवाहहक जीवन
िन् 1916 में उनके बाबा श्री बााँके वर्िारी ने इनका वर्र्ाि बरेली के पाि नबार् गंज
कस्बे के तनर्ािी श्री स्र्�प नारािण र्माच िे कर हदिा, जो उि िमि दिर्ीं कक्षा के
वर्द्िाथी थे। श्री र्माच इण्िर करके लखनऊ मेडिकल कॉलेज में बोडििंग िाउि में रिने
लगे। मिादेर्ी जी उि िमि क्रास्थर्ेि कॉलेज इलािाबाद के छािार्ाि में थीं। श्रीमती
मिादेर्ी र्माच को वर्र्ाहित जीर्न िे वर्रन्क्त थी। कारण कुछ भी रिा िो पर श्री
स्र्�प नारािण र्माच िे कोई र्ैमनस्ि निीं था। िामान्ि स्िी-पु�ष के �प में उनके
िम्बंि मिुर िी रिे। दोनों में कभी-कभी पिार्ार भी िोता था। िदा-कदा श्री र्माच
इलािाबाद में उनिे समलने भी आते थे। श्री र्माच ने मिादेर्ी जी के किने पर भी दूिरा
वर्र्ाि निीं ककिा। मिादेर्ी जी का जीर्न तो एक िंन्िासिनी का जीर्न था िी।
उन्िोंने जीर्न भर श्र्ेत र्स्ि पिना, तख्त पर िोईं और कभी शीशा निीं देखा। 1966
में पतत की म त्िु के बाद र्े स्थाई �प िे इलािाबाद में रिने लगीं।
मिादेर्ी का कािचक्षेि लेखन, िंपादन और अध्िापन रिा। उन्िोंने इलािाबाद में प्रिाग
महिला वर्द्िापीठ के वर्काि में मित्र्पूणच िोगदान ककिा। िि कािच अपने िमि में
महिला-सशक्षा के क्षेि में क्रांततकारी कदम था। इिकी र्े प्रिानार्ािच एर्ं कुलपतत भी
रिीं। 1932 में उन्िोंने महिलाओं की प्रमुख पत्रिका ‘र्ााँद’ का कािचभार िंभाला। 1930
में नीिार, 1932 में रन्श्म, 1934 में नीरजा, तथा 1936 में िांध्िगीत नामक उनके र्ार
कवर्ता िंग्रि प्रकासशत िुए। 1939 में इन र्ारों काव्ि िंग्रिों को उनकी कलाक ततिों
के िाथ र् िदाकार में िामा शीषचक िे प्रकासशत ककिा गिा। उन्िोंने गद्ि, काव्ि,
सशक्षा और धर्िकला िभी क्षेिों में नए आिाम स्थावपत ककिे। इिके अततररक्त
उनकी 18 काव्ि और गद्ि क ततिां िैं न्जनमें मेरा पररर्ार, स्म तत की रेखाएं, पथ के
िाथी, श ंखला की कडडिााँ और अतीत के र्लधर्ि प्रमुख िैं। िन 1955 में मिादेर्ी
जी ने इलािाबाद में िाहित्िकार िंिद की स्थापना की और पं इलार्ंद्र जोशी के
िििोग िे िाहित्िकार का िंपादन िंभाला। िि इि िंस्था का मुखपि था। उन्िोंने
भारत में महिला कवर् िम्मेलनों की नीर् रखी।
[१०]
इि प्रकार का पिला अखखल
भारतर्षीि कवर् िम्मेलन 15 अप्रैल 1933 को िुभद्रा कुमारी र्ौिान की अध्िक्षता
में प्रिाग महिला वर्द्िापीठ में िंपन्न िुआ।
[११]
र्े हिंदी िाहित्ि में रिस्िाद की
प्रर्ततचका भी मानी जाती िैं।
[१२]
मिादेर्ी बौद्ि िमच िे बिुत प्रभावर्त थीं। मिात्मा
गांिी के प्रभार् िे उन्िोंने जनिेर्ा का व्रत लेकर झूिी में कािच ककिा और भारतीि
स्र्तंिता िंग्राम में भी हिस्िा सलिा। 1936 में नैनीताल िे 25 ककलोमीिर दूर
रामग़ि किबे के उमाग़ि नामक गााँर् में मिादेर्ी र्माच ने एक बाँगला बनर्ािा था।
न्जिका नाम उन्िोंने मीरा मंहदर रखा था। न्जतने हदन र्े ििााँ रिीं इि छोिे िे गााँर्
की सशक्षा और वर्काि के सलए काम करती रिीं। वर्शेष �प िे महिलाओं की सशक्षा
और उनकी आधथचक आत्मतनभचरता के सलए उन्िोंने बिुत काम ककिा। आजकल इि
बंगले को मिादेर्ी िाहित्ि िंग्रिालि के नाम िे जाना जाता िै।
[१३][१४]
श ंखला की
कडडिााँ में न्स्ििों की मुन्क्त और वर्काि के सलए उन्िोंने न्जि िािि र् दृ़िता िे
आर्ाज उठाई िैं और न्जि प्रकार िामान्जक �ह़ििों की तनंदा की िै उििे उन्िें
महिला मुन्क्तर्ादी भी किा गिा।
[१५]
महिलाओं र् सशक्षा के वर्काि के कािों और
जनिेर्ा के कारण उन्िें िमाज-िुिारक भी किा गिा िै।
[१६]
उनके िंपूणच गद्ि
िाहित्ि में पीडा िा र्ेदना के किीं दशचन निीं िोते बन्कक अदम्ि रर्नात्मक रोष
िमाज में बदलार् की अदम्ि आकांक्षा और वर्काि के प्रतत ििज लगार् पररलक्षक्षत
िोता िै।
[१७]
उन्िोंने अपने जीर्न का अधिकांश िमि उत्तर प्रदेश के इलािाबाद नगर में त्रबतािा।
11 सितंबर, 1987 को इलािाबाद में रात 9 बजकर 30 समनि पर उनका देिांत िो
गिा।
कववता संग्रह
1. नीिार (1930)
2. रन्श्म (1932)
3. नीरजा (1934)
4. िांध्िगीत (1936)
5. दीपसशखा (1942)
6. िप्तपणाच (अनूहदत-1959)
7. प्रथम आिाम (1974)
8. अन्ग्नरेखा (1990)
श्रीमती मिादेर्ी र्माच के अन्ि अनेक काव्ि िंकलन भी प्रकासशत िैं, न्जनमें उपिुचक्त
रर्नाओं में िे र्ुने िुए गीत िंकसलत ककिे गिे िैं, जैिे आन्त्मका, पररक्रमा,
िन्न्िनी (1965), िामा (1936), गीतपर्च, दीपगीत, स्माररका, नीलांबरा और
आिुतनक कवर् मिादेर्ी आहद।
महादेवी वमाा का गद्य साहहत्य
रेखाचित्र: अतीत के र्लधर्ि (1941) और स्म तत की रेखाएं (1943),
संस्मरण: पथ के िाथी (1956) और मेरा पररर्ार (1972 और िंस्मरण
(1983))
िुने हुए भाषणों का संकलन: िंभाषण (1974)
ननबंध: श ंखला की कडडिााँ (1942), वर्र्ेर्नात्मक गद्ि (1942),
िाहित्िकार की आस्था तथा अन्ि तनबंि (1962), िंकन्कपता (1969)
लशलत ननबंध: क्षणदा (1956)
कहाननयााँ: धगकलू
संस्मरण, रेखाचित्र और ननबंधों का संग्रह: हिमालि (1963),
अन्ि तनबंि में िंकन्कपता तथा वर्वर्ि िंकलनों में स्माररका, स्म तत धर्ि, िंभाषण,
िंर्िन, दृन्टिबोि उकलेखनीि िैं। र्े अपने िमि की लोकवप्रि पत्रिका ‘र्ााँद’ तथा
‘िाहित्िकार’ मासिक की भी िंपादक रिीं। हिन्दी के प्रर्ार-प्रिार के सलए उन्िोंने
प्रिाग में ‘िाहित्िकार िंिद’ और रंगर्ाणी नाट्ि िंस्था की भी स्थापना की।
महादेवी वमाा का बाल साहहत्य
मिादेर्ी र्माच की बाल कवर्ताओं के दो िंकलन छपे िैं।
ठाकुरजी भोले िैं
आज खरीदेंगे िम ज्र्ाला
समालोिना
मिादेर्ी की कलाक तत िे िजा मुखप टठ
आिुतनक गीत काव्ि में मिादेर्ी जी का स्थान िर्ोपरर िै। उनकी कवर्ता में प्रेम की
पीर और भार्ों की तीव्रता र्तचमान िोने के कारण भार्, भाषा और िंगीत की जैिी
त्रिर्ेणी उनके गीतों में प्रर्ाहित िोती िै र्ैिी अन्िि दुलचभ िै। मिादेर्ी के गीतों की
र्ेदना, प्रणिानुभूतत, क�णा और रिस्िर्ाद काव्िानुराधगिों को आकवषचत करते िैं।
पर इन रर्नाओं की वर्रोिी आलोर्नाएाँ िामान्ि पाठक को हदग्रसमत करती िैं।
आलोर्कों का एक र्गच र्ि िै, जो िि मानकर र्लते िैं कक मिादेर्ी का काव्ि
तनतान्त र्ैिन्क्तक िै। उनकी पीडा, र्ेदना, क�णा, क त्रिम और बनार्िी िै।
आर्ािच रामर्ंद्र शुक्ल जैिे मूिचन्ि आलोर्कों ने उनकी र्ेदना और अनुभूततिों
की िच्र्ाई पर प्रश्न धर्ह्न लगािा िै —
[घ]
दूिरी ओर
आर्ािच िजारी प्रिाद द्वर्र्ेदी जैिे िमीक्षक उनके काव्ि को िमन्टि परक
मानते िैं।
[ङ]
शोमेर ने ‘दीप’ (नीिार), मिुर मिुर मेरे दीपक जल (नीरजा) और मोम िा तन
गल र्ुका िै कवर्ताओं को उद्ि त करते िुए तनटकषच तनकाला िै कक िे कवर्ताएं
मिादेर्ी के ‘आत्मभक्षी दीप’ असभप्राि को िी व्िाख्िातित निीं करतीं बन्कक
उनकी कवर्ता की िामान्ि मुद्रा और बुनार्ि का प्रतततनधि �प भी मानी जा
िकती िैं।
ित्िप्रकाश समश्र छािार्ाद िे िंबंधित उनकी शास्ि मीमांिा के वर्षि में किते
िैं ― “मिादेर्ी ने र्ैदुटि िुक्त ताककचकता और उदािरणों के द्र्ारा छािार्ाद
और रिस्िर्ाद के र्स्तु सशकप की पूर्चर्ती काव्ि िे सभन्नता तथा वर्सशटिता
िी निीं बतािी, िि भी बतािा कक र्ि ककन अथों में मानर्ीि िंर्ेदन के बदलार्
और असभव्िन्क्त के निेपन का काव्ि िै। उन्िोंने ककिी पर भार् िाम्ि,
भार्ोपिरण आहद का आरोप निीं लगािा के र्ल छािार्ाद के स्र्भार्, र्ररि,
स्र्�प और वर्सशटिता का र्णचन ककिा।”
[१८]
प्रभाकर श्रोत्रिि जैिे मनीषी का मानना िै कक जो लोग उन्िें पीडा और तनराशा
की कर्तििी मानते िैं र्े िि निीं जानते कक उि पीडा में ककतनी आग िै जो
जीर्न के ित्ि को उजागर करती िै।
[र्]
िि िर् िै कक मिादेर्ी का काव्ि िंिार छािार्ाद की पररधि में आता िै, पर उनके
काव्ि को उनके िुग िे एकदम अिम्प क्त करके देखना, उनके िाथ अन्िाि करना
िोगा। मिादेर्ी एक िजग रर्नाकार िैं। बंगाल के अकाल के िमि 1943 में इन्िोंने
एक काव्ि िंकलन प्रकासशत ककिा था और बंगाल िे िम्बंधित “बंग भू शत र्ंदना”
नामक कवर्ता भी सलखी थी। इिी प्रकार र्ीन के आक्रमण के प्रततर्ाद में हिमालि
नामक काव्ि िंग्रि का िंपादन ककिा था। िि िंकलन उनके िुगबोि का प्रमाण िै।
गद्ि िाहित्ि के क्षेि में भी उन्िोंने कम काम निीं ककिा। उनका आलोर्ना िाहित्ि
उनके काव्ि की भांतत िी मित्र्पूणच िै। उनके िंस्मरण भारतीि जीर्न के िंस्मरण
धर्ि िैं।
उन्िोंने धर्िकला का काम अधिक निीं ककिा कफर भी जलरंगों में ‘र्ॉश’ शैली िे
बनाए गए उनके धर्ि िुंिले रंगों और लिपूणच रेखाओं का कारण कला के िुंदर नमूने
िमझे जाते िैं। उन्िोंने रेखाधर्ि भी बनाए िैं। दाहिनी ओर करीन शोमर की क़िताब के
मुखप टठ पर मिादेर्ी द्र्ारा बनािा गिा रेखाधर्ि िी रखा गिा िै। उनके अपने
कवर्ता िंग्रिों िामा और दीपसशखा में उनके रंगीन धर्िों और रेखांकनों को देखा जा
िकता िै।
पुरस्कार व सम्मान
मिादेर्ी — मागचरेि थैर्र िे ज्ञानपीठ पुरस्कार लेते िुए
िाकहिकि
उन्िें प्रशाितनक, अिचप्रशाितनक और व्िन्क्तगत िभी िंस्थाओँ िे पुरस्कार र्
िम्मान समले।
1943 में उन्िें ‘मंगलाप्रिाद पाररतोवषक’ एर्ं ‘भारत भारती’ पुरस्कार िे
िम्मातनत ककिा गिा। स्र्ािीनता प्रान्प्त के बाद 1952 में र्े उत्तर प्रदेश वर्िान
पररषद की िदस्िा मनोनीत की गिीं। 1956 में भारत िरकार ने उनकी
िाहिन्त्िक िेर्ा के सलिे ‘पद्म भूषण’ की उपाधि दी। 1979 में िाहित्ि
अकादमी की िदस्िता ग्रिण करने र्ाली र्े पिली महिला थीं।
[१९]
1988 में
उन्िें मरणोपरांत भारत िरकार की पद्म वर्भूषण उपाधि िे िम्मातनत ककिा
गिा।
[७]
िन 1969 में वर्क्रम वर्श्र्वर्द्िालि, 1977 में कुमाऊं वर्श्र्वर्द्िालि,
नैनीताल, 1980 में हदकली वर्श्र्वर्द्िालि तथा 1984 में बनारि हिंदू
वर्श्र्वर्द्िालि, र्ाराणिी ने उन्िें िी.सलि की उपाधि िे िम्मातनत ककिा।
इििे पूर्च मिादेर्ी र्माच को ‘नीरजा’ के सलिे 1934 में ‘िक्िेररिा पुरस्कार’,
1942 में ‘स्म तत की रेखाएाँ’ के सलिे ‘द्वर्र्ेदी पदक’ प्राप्त िुए। ‘िामा’
नामक काव्ि िंकलन के सलिे उन्िें भारत का िर्ोच्र् िाहिन्त्िक िम्मान
‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ प्राप्त िुआ।
[२०]
र्े भारत की 50 िबिे िशस्र्ी महिलाओं
में भी शासमल िैं।
[२१]
1968 में िुप्रसिद्ि भारतीि कफ़कमकार म णाल िेन ने उनके िंस्मरण ‘र्ि
र्ीनी भाई’
[२२]
पर एक बांग्ला कफ़कम का तनमाचण ककिा था न्जिका नाम था
नील आकाशेर नीर्े।
[२३]
16 सितंबर 1991 को भारत िरकार के िाकतार वर्भाग ने जिशंकर प्रिाद के
िाथ उनके िम्मान में 2 �पए का एक िुगल हिकि भी जारी ककिा िै।
[२४]
महादेवी वमाा का योगदान
मिादेर्ी िे जुडे वर्सशटि स्थल
िाहित्ि में मिादेर्ी र्माच का आवर्भाचर् उि िमि िुआ जब खडी बोली का आकार
पररटक त िो रिा था। उन्िोंने हिन्दी कवर्ता को ब जभाषा की कोमलता दी, छंदों के नए
दौर को गीतों का भंिार हदिा और भारतीि दशचन को र्ेदना की िाहदचक स्र्ीक तत दी।
इि प्रकार उन्िोंने भाषा िाहित्ि और दशचन तीनों क्षेिों में ऐिा मित्र्पूणच काम ककिा
न्जिने आनेर्ाली एक पूरी पीढी को प्रभावर्त ककिा। शर्ीरानी गुिूच ने भी उनकी
कवर्ता को िुिन्ज्तत भाषा का अनुपम उदािरण माना िै।
[छ]
उन्िोंने अपने गीतों की
रर्ना शैली और भाषा में अनोखी लि और िरलता भरी िै, िाथ िी प्रतीकों और त्रबंबों
का ऐिा िुंदर और स्र्ाभावर्क प्रिोग ककिा िै जो पाठक के मन में धर्ि िा खींर् देता
िै।
[ज]
छािार्ादी काव्ि की िम द्धि में उनका िोगदान अत्िंत मित्र्पूणच िै।
छािार्ादी काव्ि को जिााँ प्रिाद ने प्रक तततत्र् हदिा, तनराला ने उिमें मुक्तछंद की
अर्तारणा की और पंत ने उिे िुकोमल कला प्रदान की र्िााँ छािार्ाद के कलेर्र में
प्राण-प्रततटठा करने का गौरर् मिादेर्ी जी को िी प्राप्त िै। भार्ात्मकता एर्ं अनुभूतत
की गिनता उनके काव्ि की िर्ाचधिक प्रमुख वर्शेषता िै। हृदि की िूक्ष्माततिूक्ष्म
भार्-हिलोरों का ऐिा िजीर् और मूतच असभव्िंजन िी छािार्ादी कवर्िों में उन्िें
‘मिादेर्ी’ बनाता िै।
[२५]
र्े हिन्दी बोलने र्ालों में अपने भाषणों के सलए िम्मान के
िाथ िाद की जाती िैं। उनके भाषण जन िामान्ि के प्रतत िंर्ेदना और िच्र्ाई के
प्रतत दृ़िता िे पररपूणच िोते थे। र्े हदकली में 1986 में आिोन्जत तीिरे वर्श्र् हिंदी
िम्मेलन के िमापन िमारोि की मुख्ि अततधथ थीं। इि अर्िर पर हदए गए उनके
भाषण में उनके इि गुण को देखा जा िकता िै।
[२६]
िद्िवप मिादेर्ी ने कोई उपन्िाि, किानी िा नािक निीं सलखा तो भी उनके लेख,
तनबंि, रेखाधर्ि, िंस्मरण, भूसमकाओं और लसलत तनबंिों में जो गद्ि सलखा िै र्ि
श्रेटठतम गद्ि का उत्क टि उदािरण िै।
[झ]
उिमें जीर्न का िंपूणच र्ैवर्ध्ि िमािा िै।
त्रबना ककपना और काव्ि�पों का ििारा सलए कोई रर्नाकार गद्ि में ककतना कुछ
अन्जचत कर िकता िै, िि मिादेर्ी को प़िकर िी जाना जा िकता िै। उनके गद्ि में
र्ैर्ाररक पररपक्र्ता इतनी िै कक र्ि आज भी प्रािंधगक िै।
[ञ]
िमाज िुिार और
नारी स्र्तंिता िे िंबंधित उनके वर्र्ारों में दृ़िता और वर्काि का अनुपम िामंजस्ि
समलता िै। िामान्जक जीर्न की गिरी परतों को छूने र्ाली इतनी तीव्र दृन्टि, नारी
जीर्न के र्ैषम्ि और शोषण को तीखेपन िे आंकने र्ाली इतनी जाग�क प्रततभा और
तनम्न र्गच के तनरीि, िािनिीन प्राखणिों के अनूठे धर्ि उन्िोंने िी पिली बार हिंदी
िाहित्ि को हदए।
मौसलक रर्नाकार के अलार्ा उनका एक �प ि जनात्मक अनुर्ादक का भी िै न्जिके
दशचन उनकी अनुर्ाद-क त ‘िप्तपणाच’ (1960) में िोते िैं। अपनी िांस्क ततक र्ेतना के
ििारे उन्िोंने र्ेद, रामािण, थेरगाथा तथा अश्र्घोष, कासलदाि, भर्भूतत एर्ं
जिदेर् की क ततिों िे तादात्म्ि स्थावपत करके 39 र्ितनत मित्र्पूणच अंशों का
हिन्दी काव्िानुर्ाद इि क तत में प्रस्तुत ककिा िै। आरंभ में 61 प टठीि ‘अपनी बात’ में
उन्िोंने भारतीि मनीषा और िाहित्ि की इि अमूकि िरोिर के िंबंि में गिन
शोिपूणच वर्मषच ककिा िै जो के र्ल स्िी-लेखन को िी निीं हिंदी के िमग्र धर्ंतनपरक
और लसलत लेखन को िम द्ि करता िै।
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तुम मुझ्मे विय ! फ़िर पररच्य क्या
तुम मुझ्मे वप्रि ! कफ़र पररच्ि क्िा
ताकच मे छवर्, प्राणों में स्रुतत
पलकों में नीरर् पद की गतत
लघु उर में पुलकों की िंि तत
भर लाई िूाँ तेरी र्ंच्ल
ऒर क�ाँ ज्ग में िंच्ि क्िा !