गृहणी रोग.pptx

Shubhamshukla262 1,920 views 17 slides Mar 30, 2022
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Topic for BAMS


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गृहणी रोग NEERAJ SAHU 2017-18 BAMS 2nd YEAR

परिचय “ ग्रहणीमाश्रितोऽग्नि ग्रहणी दोषो । ” ( च.चि. १५/१-२ पर चक्र. की टाका ) आचार्य चक्रपाणि के अनुसार ग्रहणी में स्थित  अग्नि दोष को ही ग्रहणी दोष कहते हैं ग्रहणी  अन्न सेवन के पश्चात अन्न का धारण पाचन  शोषण  तथा  अवशिष्ट  पदार्थ का  मलरूप में विसर्जन करती है । “ षष्ठी पित्तधरानाम या कला परिकीर्तिता । पक्वामाशयमध्यस्था ग्रहणी सा प्रकीर्तिता ।। ” ( सु.उ. ४०/१६९)

आचार्य सुश्रुत मतानुसार पक्वाशय है तथा आमाशय के मध्य में स्थित षष्ठी पित्त धरा कला की ग्रहणी कहलाती है इसी ग्रहणी में होने वाली दुष्टि को ग्रहणी रोग कहते हैं । प्रमुख संदर्भ :- चरक संहिता चिकित्सा स्थान अध्याय - 15 सुश्रुत संहिता उत्तर तंत्र अध्याय - 40 अष्टांग हृदय निदान स्थान अध्याय - 8 अष्टांग हृदय चिकित्सा स्थान अध्याय - 10 माधव निदान अध्याय - 4

निदान :- अतिसार से ग्रसित होना अतिसार से निवृत होना जठराग्नि का मंद होना भोजन नही करना अजीर्ण होने पर भोजन करना विषमाशन , असात्म्य अन्न सेवन गुरु,शीत,दुष्ट,रुक्ष एवं बासी भोजन करना वमन,विरेचन,स्नेह पान का विभ्रम देश,काल , ऋतु का वैषम्य वेगों का धारण अति मात्रा मे भोजन करना

सम्प्राप्ति :- अपक्वं धारयत्यन्नं पक्वं सृजति पार्श्वतः । दुर्बलाग्निबला दुष्टात्वाममेव विमुञ्चति।। ( च.चि. १५/५७) अतिसार अभी शान्त हुआ हो अथवा यह अभी चालू हो ऐसी स्थिति में पुरुष अग्नि को मन्द करने वाले अहित आहार और विहार का अतियोग करे तो उसकी अग्नि मंद हो जाती हैं परिणामतया वह लघु अन्न का भी पूर्णतयाः परिपाक नही कर पाता तत्पश्चात् पित्त धरा कला (ग्रहणी) भी दूषित होकर अन्नपान का पचन होने तक उसे धारण किये रखने का अपना प्राकृत कर्म छोड़ देती हैं। फलस्वरुप, वह अपक्व ही अन्न पान को पुनःपुनः पक्वाशय में छोड़ देती है इसी रोग की ग्रहणी यह संज्ञा होती है।

अतिसार के निदान का सेवन अष्ठ आहार विध विशेषायतनों की उपेक्षा कर निदान सेवन तथा चिन्ता, भय, क्रोध, शोक के कारण अग्निमान्ध अतिसार अग्नि अधिष्ठान दुष्टि (ग्रहणी विकृति ) आहार पाचनाभाव पाचक स्रावों का अल्प स्रवण पाचक माध्यमो की दुष्टि आम की उत्पत्ति साम मल एवं आम विष की उत्पत्ति मुहुर्बद्धं, मुर्हद्रवं शूल के साथ कभी पक्व कभी अपक्व मल प्रवृत्ति

पूर्वरूप :- पूर्वरूपं तु तस्येदं तृष्णालस्यं बलक्षयः। विदाहोऽन्नस्य पाकश्च चिरात् कायस्य गौरवम्।। ( च.चि. १५/५५ ) चरक शुश्रुत वाग्भट्ट तृष्णा आलस्य बलक्षय अन्न विदाह आहार का देर से पचना शरीर मे भारीपन अरूचि कास कर्णक्षवेड आंत्रकूजन सदन भोजन देर से पचना अम्लोद्गार प्रसेक मुखवैरस्य अरूचि तृष्णा क्लम

रूप :- ग्रहणी रोग से पीडित रोगी अत्यन्त पतला, अधिक बार तथा कभी कभी बन्धा हुआ विष्टंभ के साथ मल त्याग करता है रोगी प्यास, अरुचि, मुखवैरस्य, तमक श्वास से ग्रस्त हो जाता है उसके हाथ पैर शोथयुक्त होते है अस्थि, संधियो मे पीडा होती है । रोगी वमन करने लगता है एवं ज्वर हो जाता है लोहे एवं आम के समान गन्ध युक्त तिक्त,अम्ल डकार लेता है।

गृहणी भेद :- चरक शुश्रुत माधव वातज पित्तज कफज सन्निपातज वातज पित्तज कफज सन्निपातज वातज पित्तज कफज सन्निपातज संग्रह ग्रहणी घटीयंत्र ग्रहणी

अन्य भेद :- स्वतंत्र :- बिना अतिसार के होने वाली परतंत्र :- अतिसार के उपरांत अपथ्य सेवन से उत्पन्न ग्रहणी संग्रह ग्रहणी :- अंत्रकूजन , आलस्य, दुर्बलता, अग्निमांद्य एवं कटि की वेदना होने के साथ रोगी तरल शीत तथा कभी घन, स्निग्ध, आम पिच्छिलता युक्त अत्यधिक मल को शब्द। एवं मंद वेदना के साथ त्यागता है । इसका आक्रमण एक मास, पंद्रह दिन, दस दिन, के पश्चात् या प्रतिदिन भी हो सकता है, इसका प्रकोप दिन मे होता है एवं रात्रि को शांत हो जाता है। यह कठिनता से जानने योग्य,दुश्चिकित्स्य एवं चिरकालीन स्वरूप का रोग है । यह साम वायु से उत्पन्न होता है एवं इसे संग्रह-ग्रहणी या संग्रहणी कहते है

घटीयंत्र ग्रहणी :- लेटने पर पार्श्व मे शूल तथा जल मे डूबते हुए घडे के समान ध्वनि से युक्त ग्रहणी रोग को घटीयंत्र ग्रहणी कहते है उपद्रवः- ज्वर शूल हिक्का वमन आध्मान प्रलाप तीव्र अरोचक श्वास पाण्डु

साध्यासाध्यता :- वातिक,पैत्तिक,कफज ग्रहणी सुखसाध्य है । सन्निपातिक ग्रहणी कृच्छ्रसाध्य घटीयंत्र ग्रहणी असाध्य है संग्रहणी ग्रहणी दुश्चिकित्स्य है

सारांश :- अतिसार की निवृत्ति के पश्चात् उत्पन्न मन्दाग्नि तथा उसके पश्चात् भी मिथ्या आहार बिहार का सेवन ग्रहणी की विकृति का महत्वपूर्ण कारण होता है । इससे वातादि दोषों की विकृति से गहणी रोग की उत्पत्ति बताई गई हैं। ग्रहणी की विकृति मे अग्नि (पाचक रसों) की गुणात्मक विकृति एवं मात्रात्मक विकृति (पाचक रसों का अल्प स्रवण) मिलती हैं । जिसमें आम की उत्पत्ति होती हैं। आम का आम विष में परिवर्तन होता हैं तथा आम विष से एवं धात्वाग्निमान्ध से साम धातुओं की उत्पत्ति होती हैं ग्रहणी की चिकित्सा मे आम का पाचन करने वाली एवं अग्नि को दीप्त करने वाली औषधियों का सेवन करवाया जाता हैं । ग्रहणी में कभी बद्ध मल एवं कभी द्रव मल की प्रवृत्ति होती हैं । अतिसार के कारण द्रव मल की प्रवृत्ति होकर साम दोषों के निकल जाने के पश्चात् बद्व मल की प्रवृत्ति होती हैं । यही क्रम ग्रहणी में चलता रहता है।

आधुनिक मतानुसार :- गृहणी की तुलना Malabsortion Syndrome से की जाती हैं । इसमें तीन प्रकार की स्थिती महत्वपूर्ण रुप से मिलती है । Defective Digestion Defective A bsorption Defective Transfit उपरोक्त तीनों कार्य Small intestine के द्वारा किये जाते हैं। इस रोग में तीनों प्रकार के कार्य में विकृति हो जाती हैं। आयुर्वेद मतानुसार उपरोक्त तीनों कार्य ग्रहणी के द्वारा किये जाते हैं। तथा इसमें। ग्रहणी में विकृति उत्पन्न हो जाती हैं।

सापेक्ष निदान :- गृहणी रोग अतिसार प्रवाहिका चिरकालानुबन्धीव्याधि प्राय: अतिसार के पश्चात् उत्पन्न होती है कभी बद्ध तथा कभी द्रव मल त्याग मल का कभी-कभी कफयुक्त होना मल त्याग के पूर्व ऐंठन नहीं होती शीघ्रकारी व्याधि द्रव मल का अधिक मात्रा में निर्गमन मल का कभी-कभी कफयुक्त होना मल त्याग सरक्त तथा मल त्याग के पूर्व ऐंठन नहीं होती शीघ्रकारी व्याधि मल की मात्रा कम मल सदा कफयुक्त होना मल त्याग के पूर्व ऐंठन होती
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