लेखिका परिचय मधु कांकरिया मधु कांकरिया का जन्म 23 मार्च 1957 को कोलकाता में हुआ। उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में एम.ए. की शिक्षा प्राप्त की और कोलकाता से ही कंप्यूटर एप्लिकेशन में डिप्लोमा किया। मधु कांकरिया हिन्दी साहित्य की प्रतिष्ठित लेखिका, कथाकार तथा उपन्यासकार हैं। उन्होंने बहुत सुन्दर यात्रा-वृत्तांत भी लिखे हैं। उनकी रचनाओं में विचार और संवेदना की नवीनता तथा समाज में व्याप्त अनेक ज्वलंत समस्याएं जैसे संस्कृति, महानगर की घुटन और असुरक्षा के बीच युवाओं में बढ़ती नशे की आदत, लालबत्ती इलाकों की पीड़ा नारी अभिव्यक्ति उनकी रचनाओं के विषय रहे हैं।
साना साना हाथ जोड़ि पाठ की भूमिका साना साना हाथ जोड़ि’ रचना मधु कांकरिया ने लिखी है। इसमें लेखिका ने अपनी सिक्किम की यात्रा के बारे में बताया है। एक बार लेखिका अपनी सहेली मणि के साथ सिक्किम की राजधानी गंतोक घूमने गई थी। वहाँ से वे यूंगथांग, लायुंग और कटाओ गईं। लेखिका ने सिक्किम की संस्कृति और वहाँ के लोगों के जीवन का विस्तार से वर्णन किया है। प्रस्तुत पाठ में लेखिका ने वहाँ के हिमालय, रात में रोशनी से जगमाता गंतोक शहर, पहाड़ों की बर्फ इत्यादि प्राकृतिक खूबसूरती का बहुत अच्छे ढंग से वर्णन करने के साथ ही पहाड़ों में रहने वाले लोगों की आर्थिक समस्याओं को बखूबी उकेरा है। गंतोक शहर की यात्रा के दौरान लेखिका देखती हैं कि औरतें पत्थर तोड़ रही हैं, छोटे-छोटे बच्चे 3 किलोमीटर पैदल पहाड़ों की चढ़ाई चढ़कर स्कूल जा रहे हैं। देश के फ़ौजी कड़ाके की ठंड में भी सीमा पर पहरा दे रहे हैं।
लेखिका :- मधु कांकरिया मुख्य पात्र। मणि :- लेखिका की सहेली। जितेन नार्गे :- लेखिका की यात्रा के दौरान उनका ड्राइवर और गाइड। नेपाली युवती :- जो लेखिका को साना साना हाथ जोड़ि प्रार्थना सिखाती है। अन्य पात्र :- सिक्क्मी युवती, फ़ौजी, पत्थर तोड़ती पहाड़ी औरतें, स्कूल के बच्चे और वहाँ के स्थानीय निवासी। पाठ के पात्रों का परिचय
लेखिका की सिक्किम यात्रा का आरंभ लेखिका की यात्रा सिक्किम की राजधानी गंतोक से शुरू होती है। लेखिका गंतोक शहर रात को पहुँचती है और अपने कमरे की बालकनी से रात को टिमटिमाते तारों से भरे आसमान को देखकर बहुत खुश हो जाती हैं, और उन जादू भरे क्षणों में खो जाती हैं। लेखिका गंतोक को ‘मेहनती बादशाहों’ का शहर बताती हैं क्योंकि यहाँ के लोग बहुत मेहनत करते हैं।
साना साना हाथ जोड़ि’ प्रार्थना लेखिका ने एक नेपाली युवती से सीखी थी। इस प्रार्थना का अर्थ पूछने पर लेखिका को युवती ने बताया कि “मैं छोटे-छोटे हाथों से प्रार्थना कर रही हूँ कि मेरा सारा जीवन अच्छाईयों को समर्पित हो”। अगले दिन लेखिका को युमथांग के लिए निकलना था। सुबह उठते ही लेखिका बालकनी की तरफ भागी। यहाँ के लोगो ने बताया था कि यदि मौसम साफ़ हो तो बालकनी से भी हिमालय की सबसे बड़ी तीसरी चोटी कंचनजंघा दिखाई देती है। लेकिन मौसम साफ़ न होने की वजह से लेखिका इस दृश्य का आनंद नहीं ले पाईं।
उसके बाद लेखिका गंतोक से 148 किलोमीटर दूर यूनथांग देखने अपनी सहेली मणि और गाइड जितेन नार्गे के साथ रवाना होती है। जगह-जगह गदराए पाईन व धूपी के खुबसूरत नुकीले पेड़ों को देखते हुए वे धीरे-धीरे पहाड़ी रास्तों से आगे बढ़ने लगते हैं। गंतोक से लेखिका को एक कतार में लगी सफेद रंग की बौद्ध पताकाएं दिखाई देती हैं, जो किसी झंडे की तरह लहरा रही थी। ये शांति और अहिंसा का प्रतीक थीं और उन पताकाओं पर मन्त्र लिखे हुए थे। लेखिका के गाइड ने उन्हें बताया कि जब किसी बुद्धिस्ट की मृत्यु होती है, तो उसकी आत्मा की शांति के लिए शहर से दूर किसी भी पवित्र स्थान पर 108 श्वेत पताकाएँ फहराई जाती हैं। इन्हें उतारा नहीं जाता, ये खुद नष्ट हो जाती हैं। लेकिन नए अवसर या शुभ कार्य की शुरुआत करने पर श्वेत(सफेद) रंगीन पताकाएं फहराई जाती हैं। यूनथांग का द्र श्य
उनके गाइड जितेन ने बताया कि ‘लोंग स्टॉक’ स्थान पर गाइड फिल्म की शूटिंग हुई थी। इन्ही रास्तों से आगे जाते हुए लेखिका ने एक कुटिया के भीतर धर्म चक्र(प्रेयर व्हील) को घूमते हुए देखा, तो लेखिका ने गाइड से उसके बारे में जानने की कोशिश की। उनके गाइड ने बताया कि धर्म चक्र को घुमाने से सारे पाप धुल जाते हैं। यह सुनकर लेखिका को लगा कि “पहाड़ हो या मैदान कोई भी जगह हो, इस देश की आत्मा एक जैसी ही है।
जैसे-जैसे लेखिका अपनी यात्रा में पहाड़ों की ऊंचाई की तरफ बढ़ने लगी। वैसे-वैसे बाज़ार, लोग और बस्तियां पीछे छुटने लगे। अब लेखिका को नीचे घाटियों में पेड़-पौधों के बीच बने घर ताश के पत्तों की तरह छोटे-छोटे दिख रहे थे। अब उन्हें हिमालय पल-पल बदलता हुआ नज़र आ रहा था। लेखिका अब खुबसूरत नजारों, आसमान छूते शिखरों, झरनों और चाँदी की तरह चमकती तिस्ता नदी को देखकर रोमांचित महसूस कर रही थीं। तभी उनकी जीप ‘सेवेन सिस्टर वॉटर फॉल’ के सामने आकर रुक गई। लेखिका को यहाँ आकर ऐसा लग रहा था जैसे उनके अंदर की सारी बुराई इस झरने के निर्मल धारा में बह गई हो। यह दृश्य उनके मन को शान्ति देने वाला था। धीरे-धीरे लेखिका का सफर आगे बढ़ता गया और प्रकृति पल में बदल रही थी जैसे कोई जादू की छड़ी घुमाकर इन दृश्यों को बदल रहा हो। पर्वत, झरने, घाटियों के नजारे बेहद खुबसूरत थे। प्रकृति का सुंदर चित्रण
लेखिका की नजर ‘थिंक ग्रीन” बोर्ड पर पड़ी। सबकुछ कल्पनाओं से भी ज्यादा सुन्दर था। तभी लेखिका को जमीनी हक्कीकत का एक दृश्य अंदर से झकझोर गया। जब उन्होंने देखा कि कुछ पहाड़ी औरतें कुदाल और हथौड़ों से पत्थर तोड़ रही थीं। कुछ औरतों की पीठ पर बड़ी सी टोकरियाँ बंधी हुई थी और उन टोकरियों में उनके बच्चे थे। यह रूप देखकर लेखिका को बड़ा आघात हुआ। लेखिका को पूछने पर पता चला कि ये औरतें पहाड़ी रास्तों को चौड़ा बनाने का काम कर रही हैं और यह बड़ा जोखिम भरा काम है। क्योंकि रास्तों को चौड़ा बनाने के लिए डायनामाइट से चट्टानों को उड़ा दिया जाता है और कई बार इसमें मजदूरों की मौत भी हो जाती है। फिर लेखिका सोचने लगती है कि कितना कम लेकर ये लोग समाज को कितना अधिक वापिस करते हैं। लेखिका की श्रमिक औरतों के प्रति संवेदना
लेखिका की बच्चों के प्रति चिंता लेखिका ने थोड़ा-सा और ऊंचाई पर चलने के बाद देखा कि सात-आठ साल के बच्चे अपने स्कूल से घर लौटते हुए उनसे लिफ्ट माँग रहे थे। लेखिका के स्कूल बस के बारे में पूछने पर जितेन ने बताया कि पहाड़ी इलाकों में जनजीवन बहुत कठिन होता है। ये बच्चे रोज 3-4 किलोमीटर पहाड़ी रास्तों से पैदल स्कूल जाते हैं और शाम को घर आकर अपनी माँ के साथ मवेशियों को चराने जंगल जाते है। जंगल से भारी-भारी लकड़ी के गट्ठर सिर पर लादकर घर लाते हैं।
लायुंग का दृश्य हमारी जीप धीरे-धीरे पहाड़ी रास्तों से बढ़ने लगी तभी सूरज ढलने लगा। लेखिका ने देखा कि कुछ पहाड़ी औरतें गायों को चराकर वापिस अपने घर लौट रही थीं। जीप चाय के बागानों से गुजरने लगी। सिक्किम वस्त्र पहने कुछ औरतें बागानों से चाय की पत्तियाँ तोड़ रही थी। चटक हरियाली के बीच चटकीला लाल रंग, डूबते सूरज की स्वर्णिम और सात्विक आभा में इन्द्रधनुष छटा बिखेर रहा था।
यूनथांग पहुँचने से पहले लेखिका को एक रात लायुंग में बितानी थी। लायुंग गगनचुंबी पहाड़ों के नीचे एक छोटी सी शांत बस्ती थी। दौड़ भाग भरी जिंदगी से दूर शांत और एकांत जगह। लेखिका अपनी थकान उतारने के लिए तिस्ता नदी के किनारे एक पत्थर पर बैठ गईं। रात होने पर गाइड नार्गे के साथ अन्य लोगों ने नाचना-गाना शुरू कर दिया। लायुंग में लोगों की जीविका का मुख्य साधन पहाड़ी आलू, धान की खेती और शराब ही है।
लेखिका यहाँ पर बर्फ देखना चाहती थी लेकिन उन्हें कहीं भी बर्फ नहीं दिखाई दी। तभी एक युवक ने लेखिका को बताया कि प्रदूषण के कारण अब यहाँ बर्फ़बारी बहुत कम होती है। अगर आपको बर्फ देखनी है, तो कटाओ (जिसे भारत का स्विट्जरलैंड कहा जाता है) जाना पड़ेगा। उस समय कटाओ पर्यटन स्थल नहीं था और उतना विकसित नहीं हुआ था। फिर भी वहां का प्राकृतिक सौंदर्य देखते ही बनता था।
लायुंग से कटाओ का सफ़र लगभग 2 घंटे का था लेकिन वहाँ पहुँचने का रास्ता बहुत खतरनाक था। कटाओ में बर्फ से ढके पहाड़ चाँदी की तरह चमक रहे थे। वहाँ लोग बर्फ के सुंदर दृश्य में फोटो खिंचवा रहे थे लेकिन लेखिका इस नजारे को अपनी आँखों में भर लेना चाहती थी। उन्हें ऐसा लग रहा था जैसे ऋषि-मुनियों को वेदों की रचना करने की प्रेरणा यहाँ से मिली है। लेखिका की सहेली मणि के मन में भी भाव पनपने लगे और वह कहने लगी कि प्राकृतिक जल संचय व्यवस्था कितनी शानदार है। वह अपने अनोखे ढंग से जल संचय करती है। यह हिमशिखर जल स्तंभ है। पूरे ऐशिया में जाड़ों के मौसम में ऊँची-ऊँची चोटियों में बर्फ जम जाती है और गर्मी आते ही बर्फ पिघलकर पानी के रूप में नदियों से बहकर हम तक पानी पहुंचाती है। लेखिका का कटाओ की ओर प्रस्थान
लेखिका को आगे चलकर कुछ फ़ौजीयों के टेंट दिखाई दिए, उन्हें ध्यान आया कि यह बॉर्डर एरिया है। यहाँ चीन की सीमा भारत से लगती है। जब लेखिका ने फ़ौजी से पूछा कि आप इस कड़कड़ाती ठंड में यहाँ कैसे रहते हैं? तब फ़ौजी ने हँसकर जवाब दिया कि “आप चैन से इसलिए सोते है क्योंकि हम यहाँ पहरा देते हैं। लेखिका सोचने लगी जब इस ठंड में हम थोड़ी देर भी यहाँ ठहर नहीं पा रहे हैं, तो ये फ़ौजी कैसे अपनी ड्यूटी करते होंगे। लेखिका का सिर सम्मान से झुक गया उन्होंने फ़ौजी से “फेरी भेटुला यानि फिर मिलेंगे’’ कहकर विदा ली। इसके बाद वे यूमथांग की और लौट पड़े।
जितेन (गाइड) द्वारा लेखिका को महत्वपूर्ण जानकारियां यूमथांग की घाटियों में ढेरों प्रियुता, रूडोडेंड्रो के खुबसूरत फूल खिले थे। लेकिन यूमथांग वापिस आकर उनको सब कुछ फीका लग रहा था क्योंकि यूमथांग कटाओ जैसा सुंदर नहीं था। लेखिका ने चिप्स बेचती एक सिक्कमी युवती से पूछा “क्या तुम सिक्कमी हो” युवती ने जवाब दिया “नहीं मैं इंडियन हूँ” यह सुनकर लेखिका को बहुत अच्छा लगा कि सिक्किम के लोग भारत में मिलकर खुश हैं। दरअसल सिक्किम भारत का हिस्सा नहीं था। सिक्किम पहले स्वतंत्र रजवाड़ा था लेकिन अब सिक्किम भारत में कुछ इस तरह घुलमिल गया है, ऐसा लगता ही नहीं कि सिक्किम पहले भारत में नहीं था।
जीप आगे बढ़ती जा रही थी कि तभी एक पहाड़ी कुत्ते ने रास्ता काट दिया। मणि ने बताया कि ये पहाड़ी कुत्ते सिर्फ चाँदनी रात में ही भौंकते हैं। लेखिका यह सुनकर हैरान थी। फिर थोड़ा आगे चलने पर नार्गे ने लेखिका को गुरुनानक देव जी के फुट प्रिंट वाला पत्थर दिखाया। उसने बताया कि ऐसा माना जाता है कि इस जगह पर गुरु नानकदेव जी की थाली से थोड़े से चावल छिटक कर गिर गए थे। जहाँ-जहाँ चावल छिटक कर गिरे वहाँ अब चावल की खेती होती है।
यहाँ से तीन किलोमीटर आगे चलने के बाद वे खेदुम पहुँचे। यह लगभग एक किलोमीटर का क्षेत्र था। इस स्थान पर देवी-देवताओं का निवास है। यहाँ कोई गन्दगी नहीं फैलाता है। जो भी गंदगी फैलाता है, वह मर जाता है। उसने यह भी बताया कि हम पहाड़, नदी, झरने इन सबकी पूजा करते हैं। हम इन्हें गंदा नहीं कर सकते। लेखिका के कहने पर कि गैंगटॉक शहर इतना सुंदर है, तभी नार्गे ने लेखिका को कहा मैडम ‘गैंगटॉक’ नहीं ‘गंतोक’ है। जिसका अर्थ होता है- ‘पहाड़’। उसने बताया कि सिक्किम के भारत में मिलने के कई वर्षों बाद भारतीय आर्मी के एक कप्तान शेखर दत्ता ने इसे पर्यटन स्थल बनाने का निर्णय लिया। इसके बाद से ही सिक्किम में पहाड़ों को काटकर रास्ते बनाए जा रहे हैं। लेखिका कहती है कि अभी भी नए-नए स्थानों की खोज जारी है, शायद मनुष्य की इसी असमाप्त खोज का नाम सौंदर्य है।
लेखिका ने अपने इस यात्रावृतांत के माध्यम से हमें यह बताने का प्रयास किया है कि सुंदर दिखने वाले पहाड़ी इलाकों में स्थानीय लोगों का जनजीवन कितना कठिन है। उनकी यात्रा में अनेक ऐसे दृश्य आते हैं जैसे- औरतों का पत्थर तोड़ना, बच्चों का पहाड़ों पर चढ़कर पैदल स्कूल जाना इत्त्यादि। साना साना हाथ जोड़ि पाठ का उद्देश्य