व्याधि परिचय - प्रमेह मिथ्या आहार विहार से उत्पन्न विक्रत त्रिदोष के द्वारा होने वाले विशिष्ट लक्षण समूह वाली जटिल व्याधि है। आचार्यों ने इसे महागद माना है। “ प्रकर्षेण प्रभूतं मूत्रत्यागं करोती यस्मिन रोगे सा प्रमेह:”।। (मा. नि.) मूत्र की मात्रा में वृद्धि होती है तथा मूत्र प्रवृत्ति की बहुलता होती है इस लिए इस व्याधि को प्रमेह कहते हैं।
निरु क्ति- प्रमेह शब्द प्र उपस र्ग पूर्वक मिहक्षरणे धातु से घञ् प्रत्यय करने पर बना है जिसका अर्थ है प्रभूत मात्रा में विक्रत मूत्र का त्याग करना। प्रमेह का इतिहास - दक्ष प्रजापति के यज्ञ का विध्वंस हो जाने के बाद भयभीत हुए प्राणियों में अफरातफरी मच गई। भगदड़ मचने, तैरने, भागने, कूदने लांघने जैसी शरीर को पीडित करने वाली घटनाएं हो गयी। तत्पश्चात उत्पन्न धातु क्षोभ को शांत करने के लिए किए गए घृत पान से प्रमेह की उत्पत्ति हो गयी।
प्रमेह के निदान आस्यासुखं स्वप्नसुखम दधीनि ग्राम्यौदकानूपरसाः पयांसि । नवान्नपानं गुड वैक्रतम् च प्रमेह हेतु: कफकृच्चसर्वम्।। (च. चि. – 6/4) 1.सुखपूर्वक गद्देदार आसन पर बैठना या शयन करना 2. दधि, ग्राम्य, जलीय एवं अनूप मांस का अतिमात्रा में सेवन 3. अतिदुग्ध का सेवन 4. नूतन अन्न तथा नूतन जल का अत्यधिक सेवन 5. गुड के विकार यथा खंड मिश्री, मिठाई का अतिसेवन 6. कफ वर्धक पदार्थों का अतिसेवन 7. दिवास्वप्न, अव्यायाम तथा आलस्य 8. शीत, स्निग्ध, मधुर पदार्थो का अतिसेवन
संप्राप्ति मेदश्च मांसं च शरीरजं च क्लेदम् कफोवस्तिगतं प्रदूष्य । करोति मेहान समुदीर्णमुष्णैस्तानेव पित्तं प्रदूष्य चापि ।। (च. चि. 6/5) सा प्रकुपित स्तथाविधे शरीरे विसर्पन यदा वसामादाय मूत्रवहानि स्त्रोतांसि प्रतिपद्धते तदा वसामेहम् अभिनिर्वर्तयति; यदा पुनर्मज्जानम् मूत्रवस्तावकर्षती तदा मज्जामेहम् अभिनि र्वर्तयति ; यदा तु लसीकां मूत्राशयेऽभिवहनन्मूत्रमनुबंधम् च्योतयति लसीकातिबहूतवादविक्षेपणाश्च वायोः खलवस्यातिमूत्रप्रवृत्तिसंग करोति, तदा स मत्त इव गजः क्षरत्यस्त्रं मूत्रमवेगं, तं हस्तिमेहिनामाचक्षते; ओज: मधुरस्वभावमं, तद यदा रोक्ष्याद्वायु कषायात्वे नाभिसंसृज्य मूत्राशयऽभिवहति तदा मधुमेहं करोति ।। (च. नि. – 4/37) निदानों के अत्यधिक सेवन से प्रकुपित वात, पित्त तथा कफ दोष मूत्राशय में जा कर मूत्र को दूषित कर स्वलक्षणों वाले वातज, पित्तज तथा कफज प्रमेह की उत्पत्ति करते हैं।
संप्राप्ति घटक – दोष – कफ प्रधान त्रिदोष दूष्य – रस, रक्त, मांस, मेद, मज्जा, शुक्र, वसा, अंबु, ओज तथा लसीका। स्त्रोतस – मेदवह ,मूत्रवह स्त्रोतस दुष्टि – संघ और अतिप्रवृत्ति स्वभाव – चिरकारी अधिष्ठान – बस्ती, सर्व शरीर अग्नि – धातु अग्निमंद साध्य असाध्यता – याप्य/असाध्य
प्रमेह के भेद – प्रमेह मुख्यत 3 प्रकार का होता है : 1.कफ़ज 2. पित्तज 3. वातज
प्रमेह के पूर्वरूप - 1.अतिस्वेद 2. शरीर से विस्त्रगंध आना 3. शिथिलांगता 4. नेत्र, कान, जिह्वा, दाँत के मलों की अधिकता 5. शीतल द्रव्यों की अधिक कामना 6. शरीर व मूत्र में चींटियों का लगना 7. हस्त, पाद तथा तल में दाह 8. आलस्य 9. शरीर में भारीपन 10.तन्द्रा
प्रमेह के सामान्य लक्षण “सामान्यम् लक्षण तेषाम प्रभुत अविल मूत्रता”।। प्रचुर मात्रा में तथा प्रभुत मात्रा में मूत्र निर्गमन अविल मूत्रता श्वेत तथा घन मूत्र की प्रवृत्ति अकस्मात् मूत्र निर्गमन शरीर जाढ्यता
साध्य असाध्यता : 1. समक्रिया होने से कफ़ज प्रमेह साध्य होते हैं अर्थात् समान गुण वाले मेद के आश्रय होने से, कफ की प्रधानता से तथा दोष दूष्यों की समान चिकित्सा से दसों कफज प्रमेह साध्य होते हैं. 2. विषम क्रिय होने से पित्तज प्रमेह याप्य होते हैं। 3. दोष व दूष्यों की चिकित्सा विरुद्ध होने से वाताज प्रमेह असाध्य होता है। 4. उपद्रवों से युक्त प्रमेह असाध्य होता है।