shoth (1)aaaaaaaaaaauuuuuuuuuuuuuuuu.pptx

RishikaChauhan4 58 views 40 slides Jan 05, 2025
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shoth (1).pptx


Slide Content

Shoth roga 1

प्रकुपित वात, स्वप्रकोपक निदानों से दूषित रक्त, पित्त एवं कफ को उतार सिराओं में ले जाकर उनके द्वारा अवरुद्ध होकर त्वचा तथा मांस के बीच में अश्रित होकर उत्सेध उत्पन्न करता है जिसे शोथ कहते हैं। 2

प्रमुख सन्दर्भ ग्रन्थ १ . चरक संहिता, सूत्रस्थान - अध्याय १८ २. चरक संहिता, चिकित्सास्थान - अध्याय १२ ३. सुश्रुत संहिता, चिकित्सास्थान - अध्याय २३ ४. अष्टाङ्ग हृदय, निदानस्थान- अध्याय १३ ५. माधव निदान - अध्याय ३६ 3

Synonyms उत्सेधं संहतं शोफं तमाहुर्निचयादतः | ..... || अ.सं.नि.१३/१६ || Shopha also known as utsedha and samhata . Other synomyms :- १. शोफ २. श्वयथु ३. दवथु ४. सूजन ५. Oedema 4

Nidana Shopha - संतर्पण जन्य विकार - च . सू . २३ ./ ५ - ७ Sotha - विरुद्ध आहार निमित्त व्याधी - च . सू . २६ ./ १०२ - १०३ Kashyapa mentions moola hetu for all shotha is vaata (ka.khi.17/24) 5

Nidana - निज 6 आहार​ विहार​ व्याधि​ उपक्रम​ अति क्षार​ लवण गुरु अम्ल पिष्टान्न फल शाक राग दधि मद्य मन्दक विरूढ नव शूक शमीधान्य अनूप औदक पिशित​ मृत् पङ्क लोष्ट भक्षण​ वेग धारण छर्दि क्षवथु उद्गार शुक्र वात मूत्र पुरीष अध्व कर्शित​ गर्भ संपीडनात् आम गर्भ प्रपतनात् प्रजातानां मिथ्योपचारात् विषम प्रसूते मर्मोपघात​ कुष्ठ कण्डु पिडक अर्शांसि स्नेह स्वेद वमन विरेचन आस्थापन अनुवासन शिरोविरेचन अयथावत् प्रयोग मिथ्या संसर्जन अति कर्शन in छर्दि अलसक विसूचिक श्वास कास अतिसार शोष पाण्डु उदर ज्वर प्रदर भगन्दर अर्श​​​ उपवास​

Nidana – आगन्तुक 7 बाह्यास्त्वचो दूषयिताऽभिघातः काष्ठाश्मशस्त्राग्निविषायसाद्यैः | आगन्तुहेतुः, ... (ch.chi.12/7) External causative factors of shotha are trauma to skin with wood, stone, weapons, fire, poison etc.

Samprapti बाह्याः सिराः प्राप्य यदाकफासृक पित्तानिसंदूषयतीहवायुः। तैर्वद्धमार्गः स तदाविसर्पत्युत्सेध लिङ्ग श्वयधुं करोति ।। (च.चि. १२/८) - निदानों को प्रकुपित करने से वात प्रकपित होकर बाह्य शिराओं में जाकर कफ, रक्त तथा पित्त को दूषित करता है। दुषित कफ, रक्त तथा पित्त वात के मार्ग का आवरण कर देते हैं फलस्वरूप वात विसर्पित होकर उत्सेध उत्पन्न करता है जिसे शोथ कहते हैं | अति निदान सेवन ↓ वात सहित त्रिदोष प्रकोप ↓ अग्निमांद्य ↓ आमोत्पत्ति ↓ रस तथा रक्तवह स्रोतोसंग ↓ निज शोथ रसधातु का त्वक् मांसान्तर विमार्गगमन ↓ आगन्तुक शोथ शोथ रोग ( Oedema) 8

Samprapti ghatak दोष - वात प्रधान त्रिदोष दूष्य - रस, रक्त स्रोतस - रसवह स्रोतस (निजशोथ) रक्तवह स्रोतस (आगन्तुक शोथ) स्रोतोदुष्टि प्रकार - संग के पश्चात् विमार्गगमन अधिष्ठान - त्वक्मांसान्तर मध्य अग्नि - अग्निमांद्य व्याधिस्वभाव - चिरकारी (निजशोथ), आशुकारी (आगन्तुक शोथ) 9

Acc. To acharya charak 1 .द्विविध भेद (क) निजशोथ, (ख) आगन्तुक शोथ 2 . त्रिविध भेद (क) वातज शोथ, (ख) पित्तज शोथ , (ग) कफज शोथ 3 . निज शोथ के त्रिविध भेद (क) एकांग (अवयवाश्रित), (ख) सर्वांग शोथ, २ (ग) अर्धांग शोथ 4 . सप्तविध भेद (दोषानुसार) (क) वातज शोथ, (ख) पित्तज शोथ, (ग) कफज शोथ, (घ) द्वन्द्वज शोथ - वात-पित्तज शोथ , वातकफज शोथ , कफ - पित्तज शोथ 10 Types of shoth

Acc to acharya shushrut 1. वातज २. पित्तज 3. कफज ४. सत्रिपातज ५. विषजन्य 1. आम 2. पच्यमान 3. पक्व Acc to acharya vagbhatt द्विविध भेद 1. एकाङ्ग, 2. सर्वाङ्ग द्विविध भेद 1. निज शोथ, 2. आगन्तुक शोथ त्रिविधि भेद 1. पृथु (चौड़ा), 2. उन्नत (उठा हुआ), 3. ग्रथित (गोठदार) नवविध भेद 1. वातज 2. पित्तज 3. श्लेष्मज 4. वातपित्तज 5. वातश्लेष्मज 6. पित्तश्लेष्मज 7. सन्निपातज 8. अभिघातज 9. विषज 11

Poorva roopa ऊष्मा तथा स्याद्दवथुः सिराणामायाम इत्येव च पूर्वरूपम्। सर्वस्त्रिदोषोऽधिक दोष लिङ्गैस्तच्छब्धमभ्येतिभिषग्जितं च।। (च.चि. १२/१०) तत्पूर्वरूपं दवथुः सिरायामोऽङ्गगौरवम् ।। तत्पूर्वरूपं दवथुः सिरायामोऽङ्गगौरवम् || अ.हृ.नि.१३/३० | १. शोथ के स्थान से उष्मा वृद्धि ( Feeling of increased warmth around the affected area) २. दवथुः (चक्षु आदि इन्द्रियों में जलन) ( Burning sensation in eyes) ३. सिरायाम ( Vasodilation) ४. अंगों में भारीपन ( Heaviness in the affected part) 12

Samaanya Roopa सगौरवं स्यादनवस्थितत्वं सोत्सेधमुष्माऽथ सिरातनुत्वम्| सलोमहर्षाऽङ्गविवर्णता च सामान्यलिङ्गं श्वयथोः प्रदिष्टम्|| (ch.chi.12/11) 1. गौरव (heaviness of affected area) २. शोथ का कभी घटना कभी बढ़ना ( Irregular oedema Pitting/ Nonpitting) ३. उत्सेध ( Swelling) ४. ऊष्मा ( Heat/Warmth) ५. सिरा तनुत्व ( Increased capillary permeability) ६. लोम हर्ष ( Horripilation) ७. अंगों में विवर्णता ( Discolouration of the skin) 13

Vatik shotha lakshan चलस्तनुत्वक्परूषोऽरूणोसितः प्रसुप्तिहर्षार्तियुतोऽनिमित्तः। प्रशाम्यति प्रोन्नमति प्रतीडितो च श्वयथुः समीरणात्।। (च.चि. १२/१२) १. वातजन्य शोथ शीघ्र उत्पन्न होता है तथा शीघ्र ही शान्त हो जाता है। २. तनु, श्याम तथा अरूण वर्ण की त्वचा ३. छेदनवत्, भेदनवत् तथा पीड़नवत् वेदना ४. तोद ( Pricking pain) ५. सर्षप कल्क के लेप के समान चिमचिमायन संकोच तथा आयाम की प्रतीति होना ६. शोधयुक्त भाग को दबाने पर दबना ( Rapidely pitting) किन्तु शीघ्र उन्नत होना ७. स्पन्दनयुक्त शोथ ( Pulsations) ८. त्वक प्रसुप्ति ( Anaesthesia), हर्ष ( Horripilation) तथा वेदना ९ . दिवावली शोथ तथा रात्रि में शान्त होने वाला शोथ १०. चल/अस्थिर शोथ ( Mobile oedema) ११. स्नेहन, स्वेदन तथा मर्दनादि से शमन 14

Pittaj shoth lakshan मृदुः सगन्धोऽसितपीतरागवान् भ्रमज्वरस्वेदतृषामदान्वितः। य उष्यतेस्पर्शरूगक्षिरागकृत सपित्तशोथो भृशदाहपाकवान्।। (च.चि. १२/१३) 1 . तृष्णा तथा ज्वर पीड़ित पुरुष के शोथ में यदि दाह, जलन, स्वेदाधिक्य, क्लेदता, दुर्गन्ध हो तो पित्तजन्य शोथ होता है। २. अतिसार ( Diarrhoea) ३. शोथ मध्य शरीर से उत्पन्न होता है ( Hepatic origin) ४. नेत्र, मुख, त्वक् पीतता ( Yellowish colour of eyes, mouth and skin) ५. शोथ कोमल, काला या पीला तथा पाक व दाहयुक्त पैत्तिक शोथ का सामञ्जस्य व्रणशोथ से कर सकते हैं। आचार्य वाग्भट्ट द्वारा वर्णित विषज तथा अभिघातज शोथ के लक्षणों से इसकी समानता है 15

Kaphaj shoth lakshan गुरुः स्थिरः पाण्डुररोचकान्वितः प्रसेकनिद्रावमिवह्निमांद्यकृत। स कृच्छ्रजन्मप्रशमोनिपीडितो न चोन्नमेद्रात्रिवलीकफात्मकः ।। (च.चि. १२/१४) १. शोथ गुरू, स्थिर तथा पाण्डुवर्णी होना २. रोगी को अरूचि, प्रसेक, निद्रा, वमन तथा अग्निमांद्य रहता है। ३ . रात्रिबली शोथ ( Lying down decubitus oedema) ४. शोथ दबाने पर दबता है परन्तु देर से उन्नत होता है। ५. कण्ड्युक्त शोथ ( Itching) 16

द्वन्द्वज तथा सन्निपातज शोथ के लक्षण मिश्रित दोषों के अनुसार प्रकट होते हैं | दोष तथा रोगमार्ग १. आमाशय स्थित दोष उर्ध्वाग में शोथ उत्पन्न करते हैं ऐसे शोथ की आमाशयोत्थ शोथ कहा जाता है। २. पित्तज शोथ पक्वाशय में स्थित दोषों द्वारा शरीर के मध्य भाग में उत् होता है। ३. वातज शोथ वर्चस्थानगत दोषों के द्वारा शरीर के अधोभाग में उत्ख होता है। ४. सन्निपातज शोथ सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त दोषों द्वारा सर्व शरीर में उत्पव होता है। 17

Shopha paka - Sushrutha Nidana -Increased doshas ,Negligence, Improper treatment कालान्तरेणाभ्युदितं तु पित्तं कृत्वा वशे वातकफौ प्रसह्य | पचत्यतः शोणितमेव पाको मतोऽपरेषां विदुषां द्वितीयः (su.su.17/8) Pitta gets bala by kalantara ( समन्ततो भावेन पुनरुद्गतं पित्तं , प्रकोपप्रसरस्थानसंश्रयकालावधिना ) ↓ Supress Vata and kapha ( वातश्लेष्माणौ हीनौ कृत्वा, बलात्कारेण वशे कृत्वा, ‘क्रोडीकृत्य’ ) ↓ Does pachana of shonitha ↓ Shopha Paka (डल्हण) 18

19 आमलिङ्गं ​ पच्यमानलिङ्गं पक्वलिङ्गम् मन्दोष्मता त्वक्सवर्णता शीतशोफता स्थैर्यं मन्दवेदनता अल्पशोफता सूचिभिरिव निस्तुद्यते दश्यत इव पिपीलिकाभिः ताभिश्च संसर्प्यत इव, छिद्यत इव शस्त्रेण, भिद्यत इव शक्तिभिः, ताड्यत इव दण्डेन, पीड्यत इव पाणिना, घट्यत इव चाङ्गुल्या, दह्यते पच्यत इव चाग्निक्षाराभ्याम्, ओषचोषपरीदाहाश्च भवन्ति, वृश्चिकविद्ध इव च स्थानासनशयनेषु न शान्तिमुपैति, आध्मातबस्तिरिवाततश्च शोफो भवति , त्वग्वैवर्ण्यं शोफाभिवृद्धिर्ज्वरदाहपिपासा भक्तारुचिश्च वेदनोपशान्तिः पाण्डुताऽल्पशोफता वलीप्रादुर्भाव त्व​क्परिपुटनं निम्नदर्शनमङ्गुल्याऽवपीडिते प्रत्युन्नमनं, बस्ताविवोदकसञ्चरणं पूयस्य प्रपीडयत्येकमन्तमन्ते चावपीडिते, मुहुर्मुहुस्तोदः कण्डूरुन्नतता व्याधेरुपद्रवशान्तिर्भक्ताभिकाङ्क्षा Paakavastha of shopha – according to Sushrut

एक देशीय शोथ आचार्य चरक ने विभिन्न एक देशीय ( Localised) शोथों का वर्णन किया है जो निम्न प्रकार हैं- उपजिह्विका २. गलगण्ड ३. गलशुण्डी ४. विसर्प ५. पिडका ६. तिलक ७. पिप्लु ८. व्यंग ९. नीलिका १०. शंखक ११. कर्णमूलिक शोथ १२. प्लीहावृद्धि १३. गुल्म १४. वृद्धिरोग १५. उदर रोग १६. आनाह १७. उत्सेध १८ जालगर्दभ आदि 20

Shotha lakshana to specific nidana अभिघातेन ........ संस्पर्शाच्छ्वयथुः स्याद्विसर्पवान् | भृशोष्मा लोहिताभासः प्रायशः पित्तलक्षणः | || अ.हृ.नि.१३/३८ - ३९ || Swelling spreads from place to place, very hot to touch, resembles blood in colour and usually having symptoms of pitta . विषजः ..... मृदुश्चलोऽवलम्बी च शीघ्रो दाहरुजाकरः | || अ.हृ.नि.१३/४०-४२ || Swelling is soft, movable, drooping down, quick to manifest and causing burning and pain. * Different types of pain and colours of vrana are explained in Sushrutha and these are also applicable to shopha . || सु . सू . २२ / १३ || 21

साध्य - असाध्यत​ साध्यता १. एक दोषज शोथ २. बलवान रोगी तथा उपद्रव रहित नवीन शोथ ३. रोगी का मांस क्षीण न हुआ हो होते हैं। 4 . शरीर के मध्य भाग में उत्पन्न शोथ तथा सर्वशरीरगत शोथ कृच्छ्रसाध्य Saddhya - nava , 22

असाध्यता १. अतिस्थूल तथा अतिखर शोथ तथा सिराजाल युक्त शोथ २. बाल, वृद्ध, कृश तथा दुर्बल व्यक्ति में उत्पन्न शोथ ३. कुक्षि, उदर, गला तथा मर्मस्थानगत् शोथ ४. पुरुषों में अर्धांगगत शोथ तथा ऊर्ध्वगामी शोथ ५. उपद्रवयुक्त तथा पादोत्पन्न शोथ ६. स्त्रियों में मुखोत्पन्न तथा अधोगामी शोथ ७. गुद्धास्थान में उत्पन्न शोथ स्त्री तथा पुरुष दोनों में असाध्य होता है। ८. ज्वर, तृष्णा, छर्दि, दौर्बल्य, श्वास व अरूचि से युक्त शोथ असाध्य होता है। 23

Updrav आचार्य चरक वमन. श्वास अरूचि तृष्णा ज्वर अतिसार. दौर्बल्य आचार्य सुश्रुत वमन श्वास अरूचि तृष्णा ज्वर अतिसार दौर्बल्य हिक्का कास 24

उपशय अनुपशय​​ उपशय अनुपशय ​​ 25 वातज पूर्वाह्न सायंकाल​ पित्तज​ सायंकाल​ मध्याह्न​ कफज​ मध्याह्न​ पूर्वाह्न

सामान्य चिकित्सा सूत्र शोथ की चिकित्सा करते समय निम्न सिद्धान्तों का पालन करना चाहिए। यथा- निदानदोषर्तुविपर्ययक्रमैरूपाचरेत्तंअथामजंबलदोषकालवित् ॥ लङ्घनपाचनक्रमैर्विशोधनैरुल्बणदोषमादितः । शिरोगतं शीर्षविरेचनैरधो विरेचनेरूर्ध्वहरैस्तथोर्ध्वजम् ॥ उपाचरेत् स्नेहभवं विरूक्षणैः प्रकल्पयेत् स्नेहविधिं च रूक्षजे । विबद्धविट्‌केऽनिलजे निरूहणं घृतं तु पित्तानिलजे सतिक्तकम् ।। पयश्च मूर्च्छारतिदाहतर्षिते विशोधनीये तु समूत्रमिष्यते । कफोत्थितं क्षारकदृष्णसंयुतैः समूत्रतक्रासवयुक्तिभिर्जयेत् ॥(च.चि. 12/16-19) 1 . शोथोत्पादक निदान का त्याग तथा दोष का बलाबल एवं ऋतु आदि को जानकर ही चिकित्सा में प्रवृत्ति होना चाहिए । 2. चिकित्सक को आतुर के बल, दोष एवं काल का निर्धारण करना चाहिए । 3. आमदोष जन्य शोथ में लंघन पाचन करना चाहिए । 4. दोषोल्वण अधिक हो तो विशोधन (वमन-विरेचन) के द्वारा प्रथम चिकित्सा करनी चाहिए । 5 . शिरोप्रदेश में शोथ हो तो- शिरोविरेचन नस्य केद्वारा चिकित्सा करनी चाहिए । 26

6 . अधःप्रदेश में शोथ हो तो विरेचन नस्य के द्वारा चिकित्सा करनी चाहिए । 7 . ऊर्ध्वप्रदेश में शोथ हो तो वमन नस्य के द्वारा चिकित्सा करनी चाहिए । 8. अतिस्नेह जन्य शोथ में रुक्ष चिकित्सा तथा रुक्षजन्य शोथ में स्नेहन के द्वारा चिकित्सा करनी चाहिए । 9. वातज शोथ में मल बिवद्धता की स्थिति में निरुह बस्ति का प्रयोग करें। 10. वात पित्तज शोथ में तिक्त द्रव्यों से सिद्ध घृत का प्रयोग करें। 11. कफज शोथ में क्षार, कटु-उष्ण द्रव्यों से युक्त, त्रिमूत्र, तक्र तथा आसव का प्रयोग करें। 12. कफ पित्तज शोथ में यदि मूर्च्छा, अरति, दाह एवं तृष्णा हो तो तिक्त द्रव्य साधित क्षीर दें। यदि शोधन आवश्यक हो मूत्र के साथ शोधन योग दें। 27

13. आगन्तुज शोथ में विसर्पनाशक तथा वातरक्तनाशक द्रव्यों का प्रयोग करें तथा विषज शोथ में विषनाशक चिकित्सा करें। विसर्पनुन्मारुतरक्तनुच्च कार्यं विषघ्नं विषजे च कर्म ।। (च.चि. 12/102 ) 1 4. शोथ रोगी के विबंध में भोजन पूर्व एरण्ड तैल दुग्ध या मांस रस में मिलाकर पिलाना चाहिए। विड्वातसङ्गे पयसा रसैर्वा प्राग्भक्तमद्यादुरुबूकतैलम् । (च.चि. 12/28) 15. स्रोतावरोध पूर्वक अग्निमांद्य एवं अरुचि में सविधि निर्मित मदिरा तथा अरिष्टों का प्रयोग करें। स्त्रोतोविबन्धेऽग्निरुचिप्रणाशे मद्यान्यरिष्टांश्च पिबेत् सुजातान् ।। (च.चि. 12/28) 28

विशेष चिकितसा सूत्र वातज शोथ स्नेहान् प्रदेहान् परिषेचनानि स्वेदांश्च वातप्रबलस्य कुर्यात् ।। (च.चि. 12/64) शुण्ठीपुनर्नवैरण्डपञ्चमूलश्रृतं जलम् । वातिके श्वयथौ शस्तं पानाहारपरिग्रहे ॥ दशमूलं सर्वथा च वातशोथे विशेषतः ॥ (च.द. 39/1) 1. वातज शोथ में स्नेहनाभ्यङ्ग, स्वेदन, प्रदेह एवं परिषेचन करना चाहिए । 2. शुण्ठी, पुनर्नवा, एरण्ड मूल तथा बृहत् पंचमूल सिद्ध क्वाथ का पान करायें। 3. वातिक शोथ में विशेषकर दशमूल क्वाथ का प्रयोग विविध रूप में करना चाहिए । 4. एरण्ड तैल, आसव व अरिष्टों का प्रयोग करें। 29

पित्तज शोथ सवेतसाः क्षीरवतां द्रुमाणां त्वचः समञ्जिष्ठलतामृणालाः । सचन्दनाः पद्मकवालकी च पैत्ते प्रदेहस्तु सतैलपाकः ॥ आक्तस्य तेनाम्बु रविप्रतप्तं सचन्दनं साभयपद्मकं च । स्नाने हितं क्षीरवतां कषायः क्षीरोदकं चन्दनलेपनं च ॥(च.चि. 12/68-69) न्यग्रोधादिकषायसिद्धं सर्पिः पित्तश्वयथौ। (सु.चि. 23/11) क्षीराशनः पित्तकृतेऽय शोथे त्रिवृद् गुडूचीत्रिफलाकषायम् । पिबेद्गवां मूत्रविमिश्रितं वा फलत्रिकाच्चूर्णमथाक्षमात्रम् ॥ ( च.द. 39/2) 1. पैत्तिक शोथ में अभ्यङ्ग, लेप, मर्दन, प्रदेह एवं स्नान में शीत वीर्य द्रव्यों का प्रयोग करें। 2. न्यग्रोधादि गण कषाय सिद्ध घृत का पान करायें । 3 . दुग्धपान करायें । 4. त्रिवृत्त, गुडूची एवं त्रिफला कषाय का पान गोमूत्र से करायें । 5. क्षीरीवृक्ष कषाय का पान करायें। 6. श्वेत चन्दन का लेप करना चाहिए । 30

कफज शोथ व्योषं त्रिवृत्तिक्तकरोहिणी च सायोरजस्का त्रिफलारसेन । पीतं कफोत्थं शमयेत्तु शोफं गव्येन मूत्रेण हरीतकी च ॥ (च.चि. 12/21 ) आरग्वधादिसिद्धं सर्पिः श्लेष्मश्वयथौ ।। (सु.चि. 23/11) कफे तु कृष्णासिकतापुराणपिण्याकशिग्नुत्वगुमा प्रलेपः । कुलत्थशुण्ठीजलमूत्रसेकश्चण्डा गुरुभ्यामनुलेपनं च ॥ (च.चि. 12/70) 1. कफज शोथ में लेप, प्रलेप एवं परिषेक में उष्ण वीर्य द्रव्यों का प्रयोग करें। 2. आरग्वधादि सिद्ध घृत का पान करायें । 3. गोमूत्र के साथ हरीतकी चूर्ण का सेवन करायें । 4. शुण्ठी, त्रिवृत्त, कटुकी चूर्ण में अनेकविध विविध लौह योगों का त्रिफला क्वाथ से सेवन करायें । 31

विविध शोथनाशक संशमन योग चूर्ण-कृष्णादि चूर्ण, त्रिफला चूर्ण, पुर्नवादि चूर्ण, शोथारि चूर्ण आदि । वटी/गुग्गुलु-पुनर्नवादि वटी, क्षारवटी, गोक्षुरादि गुग्गुलु, सप्तविंशति गुग्गुलु, प्रभाकर वटी, तक्रवटी, आरोग्यवर्धनी वटी, फलत्रिकादिघन वटी, शिलाजत्वादि वटी । क्वाथ/आसव/अरिष्ट- फलत्रिकादि क्वाथ, पुनर्नवाष्टक क्वाथ, पटोलमूलादि व दशमूल क्वाथ, अष्टशतारिष्ट, पुनर्नवाद्यारिष्ट, त्रिफलाद्यारिष्ट, गण्डीराद्यारिष्ट आदि | घृत तैल-शुण्ठी घृत, पुनर्नवाद्य घृत, चित्रक घृत, चित्रकादि घृत, चन्दानादि तैल, पंचतिक्त घृत | लेह-कंसहरीतकी, गुड़ाईक, पुनर्नवादि लेह रस/भस्म शोथारि लौहे, (नवायस लाहे, पुनर्नवा मण्डूर , यूषणादि लौह, शोथकालानल रस, हृदयार्णव रस, चन्द्रकला रस, श्रृंगभस्म, श्वेतपर्पटी, अभ्रक भस्म आदि । ) एकल औषध-शिलाजातु, हरीतकी, पुनर्नवा, कुटकी पिप्पली आदि का प्रयोग कल्प के रूप में । 32

पथ्यापथ्य पथ्य- कुलत्थयूषश्च सपिप्पलीको मौद्गश्च सत्र्यूषणयावशूकः । रसस्तथा विष्किरजाङ्गलानां सकूर्मगोधाशिखिशल्लकानाम् ।। सुवर्चला गृञ्जनकं पटोलं सवायसीमूलकवेत्रनिम्बम् । शाकार्थिनां शाकमिति प्रशस्तं भोज्ये पुराणश्च यवः सशालिः ॥ (च.चि. 12/62-63) दुग्धपान, षष्टिकशाली, मूंग, यव, पटोल, पुनर्नवा, शित्रु, बालमूलक, जांगल मांस आदि पथ्य है। पूर्ण विश्राम करना चाहिए । 33

अपथ्य- ग्राम्याब्जानूपं पिशितमबलं शुष्कशाकं नवान्नं गौडं पिष्टान्नं दधि तिलकृतं विज्जलं मद्यमम्लम । धाना वल्लूरं समशनमथो गुर्वसात्म्यं विदाहि स्वप्नं चारात्रौ श्वयथुगदवान् वर्जयेन्मैथुनं च ॥ (च.चि. 12/20) विशेषकर लवण वर्जित आहार दें तथा दिवाशयन, व्यायाम एवं अतिमैथुन अपथ्यकर होता है। 34

Chikitsa sutra- aganthuja shotha बन्धमन्त्रागदप्रलेपप्रतापनिर्वापणादिभिश्चोपक्रमैरुपक्रम्यमाणाः प्रशान्तिमापद्यन्ते ||Ch.Su.18/5|| 1.Bandha- bandage 2. Mantra- hymns 3. Agada - antitoxic pastes 4.Pralepa-warm or cold 5. Nirvapana - washing with liquids 35

Chikitsa sutra- Charaka 36 Avastha Chikitsa Aamaja Langana paachana Ulbana dosha Shodhana Shirogata dosha Shirovirechana Dosha in adha pradesha Virechana Dosha in urdva pradesha Vamana snebhavam Virukshana Ruksha bhavam Snehana Vibadda vit Niruha pitta Tiktaka sarpi Murcha arati daaha Payas kaphotitta Kshaara katu ushana dravya , mootra

Chikitsa sutra- Sushrutha आदौ विम्लापनं कुर्याद्द्वितीय मवसेचनम् | तृतीय मुपनाहं तु चतुर्थीं पाटनक्रियाम् || पञ्चमं शोधनं कुर्यात् षष्ठं रोपण मिष्यते | एते क्रमा व्रणस्योक्ताः सप्तमं वैकृतापहम् || su.su.17/17-18 37 Stage vise treatment 1. विम्लापनं - विम्लापनमङ्गुल्यादिमर्दनेन शोफविलयनम्| 2. अवसेचनं - अवसेचनं जलौकादिभी रक्तविस्रावणम्| 3 . उपनाह ​ - उपनाहो बन्धनं पाचनाय| 4. पाटनक्रियाम् 5. शोधनं 6. रोपण 7. वैकृतापहम् - वैकृतापहमिति सवर्णकरणरोमसञ्जननादि

Nidana parivarjana in shotha ( disease aggravating factors) ग्राम्याब्जानूपं पिशितमबलं , वल्लूरं meat of animals-domestic, aquatic and marshy lands and which are debilitated; dried meat शुष्कशाकं dry vegetables तिलान्नं गौडं पिष्टान्नं mess prepared from tila , guda and pishta दधि curds सलवणं विज्जलं मद्यमम्लम् wine mixed with salts, devoid of water and which is sour समशनमथो गुर्वसात्म्यं विदाहि food containing both healthy and unhealthy substances, which are difficult to digest, which produce burning sensation during digestion स्वप्नं चारात्रौ श्वयथुगदवान् वर्जयेन्मैथुनंच || sleeping not during nights and sexual intercourse. अ.हृ.चि.१७/४२ || अ.सं. चि.१९/१७ || 38

शोफिनः सर्व एव परिहरेयुरम्ललवणदधिगुड वसापयस्तैल घृतपिष्टमयगुरूणि | ||सु . चि . २३ / १० || The person having shotha should avoid Rasa – amla , lavana Dravya - dadi , guda , vasaa , paya , taila , ghrita , pishta , guru ahara 39

Bahirparimaarjana Moolaka rasa or naktamaala or arka moola or aaragvadha Kashaya for parimaarjana (bh.ch.17/26) Udvarthana with suvarchala , kushta , kaakamaachi , katukarohini , punarnava , rasna , triphala , haridra , vidanga etc.. (bh.ch.17/28-30) Kshaara sutra is done (ch.chi.12) Vrana vat chikitsa is done if it is opened(ch.chi.12) 40
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