घीरे-घीरे हमारे शासकों की मानलसक
क्स्थनत पढ़ी उन्होंने, पता चला
कुछ ही ददनों में मात्र आाँिले की टोकरी यह,
मन में बसा है स्िाथय, केिल स्िाथय,
लालच, लोभ लसिा इन भािों गुणों के
न ही ममत्ि है, न प्रेम है, न गिय है
पर हााँ ! घमण्ड है, औरों को ड़ुबोने की ताक है |
हम कहते न थकते पर ... अनेकता में एकता !
आज बाप का राज्य नछना, तो कल बेटे का लसंहासन
न चाचा रहा, न ताऊ, न भतीजा रहा,
न भानजा, सभी मरे, ककले टूटे, महल हुए
मदटयामेट, शोषण हुआ खूब लोगों का |
सारा भारत देश हुआ गुलाम, माललक बने अंग्रेज़ |
हमारे हीरे लुटे, ‘कोदहनूर’ हमारा, मंद
रोशनी में बबखेर रहा उजली ककरणें |
ताज में बेबस हो बैठा है अंग्रेज़ शासकों के,
लगा देखकर मुझे कक कैद में आाँसू बहा रहा |
याद कर अपनी क्स्थनत पुरानी-जन्मभूलम की
कारण तया था, संसार भर को विददत है |
हम कहते न थकते पर ... अनेकता में एकता !
जब नछन गया सियस्ि अपना तब,
जगे भारतीय, तन-मन-धन
क्षीण पड़ गया तब, स्िदेश प्रेम का िूटा अंकुर
लमले सब साथ, भूले उत्तर-दक्तखन का भेद
भेद जानत-धमय का भी लमट चला,