वापसी-- लेखिका उषा प्रियंवदा MP TET 2025

PrasunDwivedi1 514 views 7 slides Mar 30, 2025
Slide 1
Slide 1 of 7
Slide 1
1
Slide 2
2
Slide 3
3
Slide 4
4
Slide 5
5
Slide 6
6
Slide 7
7

About This Presentation

लेखक का संक्षिप्त परिचय; उषा प्रियंवदा का जन्म 24 दिसंबर, 1930 को कानपुर, उत्तर प्रदेश में हुआ था। इलाहाबाद विश्वविद्य�...


Slide Content

1

लेखक का संक्षिप्त परिचय; उषा प्रियंवदा का जन्म 24 ददसंबर, 1930 को कानपुर, उत्तर िदेश में हुआ
था। इलाहाबाद प्रवश्वप्रवद्यालय से अँग्रेज़ी में स्नातकोत्तर की उपाधि िाप्त की और अँग्रेज़ी में ही प़ीएचड़ी हुई।
ममरांडा हाउस, ददल्ली और इलाहाबाद प्रवश्वप्रवद्यालय में अध्यापन ककया। तत्पश्चात, फुलब्राइट स्कालरमशप पर
पोस्टडॉक करने अमेररका के ब्लूममंगटन, इंडडयाना गईं। वहीं प्रवस्कांमसन प्रवश्वप्रवद्यालय, मैड़ीसन के दक्षिण
एमशयाई प्रवभाग में िोफे सर के पद से सेवाननवृत्त हुईं और वहीं रहत़ी हैं।इलाहाबाद प्रवश्व प्रवद्यालय से ही
उन्होंने अंग्रेज़ी मे स्नातकोत्तर उपाधि अर्जित की। "ककतना बडा झूठ" "र्जन्दग़ी और गुलाब" किर बसंत आया"
उनके कहाऩी संग्रह है। " पचपन खंभे लाल दीवािे " तथा �कोग़ी नही राधिका" उनके उपन्यास है।
(नई कहानी के दौि की चर्चित महहला कहानीकािों की त्रयी में से एक; अन्य दो, मन्नू भंडािी औि कृष्णा सोबती
हैं।)
कहानी संग्रह :- वनवास, ककतना बडा झूठ, शून्य, र्जंदग़ी और गुलाब के िूल(1961), एक कोई दूसरा(1966), किर
वसंत आया (1961), ककतना बडा झूठ (1972)।
उपन्यास :- पचपन खंभे लाल दीवारे (1961), �कोग़ी नहीं राधिका (1967), शेषयात्रा (1984), अंतवंश़ी (2000),
भया कब़ीर उदास (2007), नदी (2013)।

2007 में केंद्रीय दहंदी संस्थान द्वारा पद्मभूषण डॉ. मोटूरर सत्यनारायण पुरस्कार से सम्माननत। दहंदी चेतना का
अंतरराष्ट्रीय सादहत्य सम्मान – (ढींगरा िाउंडेशन द्वारा)


(वापसी)
िचनाकाि: उषा प्रियंवदा
गजािर बाबू ने कमरे में जमा सामान पर एक नजर दौडाई - दो बक्स, डोलच़ी, बाल्टी। ''यह डडब्बा कै सा है,
गनेश़ी?'' उन्होंने पूछा। गनेश़ी बबस्तर बाँिता हुआ, कुछ गवि, कुछ दु:ख, कुछ लज्जा से बोला, ''घरवाली ने साथ
में कुछ बेसन के लड्डू रख ददए हैं। कहा, बाबूज़ी को पसन्द थे, अब कहाँ हम गरीब लोग आपकी कुछ खानतर
कर पाएँगे।'' घर जाने की खुश़ी में भ़ी गजािर बाबू ने एक प्रवषाद का अनुभव ककया जैसे एक पररधचत, स्नेह,
आदरमय, सहज संसार से उनका नाता टूट रहा था।
''कभ़ी-कभ़ी हम लोगों की भ़ी खबर लेते रदहएगा।'' गनेश़ी बबस्तर में रस्स़ी बाँिता हुआ बोला।
''कभ़ी कुछ ज�रत हो तो मलखना गनेश़ी, इस अगहन तक बबदटया की शादी कर दो।''
गनेश़ी ने अंगोछे के छोर से आँखे पोछी, ''अब आप लोग सहारा न देंगे, तो कौन देगा। आप यहाँ रहते तो शादी
में कुछ हौसला रहता।''
गजािर बाबू चलने को तैयार बैठे थे। रेलवे क्वाटिर का वह कमरा र्जसमें उन्होंने ककतने वषि बबताए थे, उनका
सामान हट जाने से कु�प और नग्न लग रहा था। आँगन में रोपे पौिे भ़ी जान-पहचान के लोग ले गए थे और
जगह-जगह ममट्टी बबखरी हुई थ़ी। पर पत्ऩी, बाल-बच्चों के साथ रहने की कल्पना में यह बबछोह एक दुबिल
लहर की तरह उठ कर प्रवलीन हो गया।
गजािर बाबू खुश थे¸ पैंत़ीस साल की नौकरी के बाद वह ररटायर हो कर जा रहे थे। इन वषों में अधिकांश
समय उन्होंने अके ले रह कर काटा था। उन अके ले िणों में उन्होंने इस़ी समय की कल्पना की थ़ी¸ जब वह
अपने पररवार के साथ रह सकें गे। इस़ी आशा के सहारे वह अपने अभाव का बोझ ढो रहे थे। संसार की दृर्ष्ट्ट

2

से उनका ज़ीवन सिल कहा जा सकता था। उन्होंने शहर में एक मकान बनवा मलया था¸ बडे लडके अमर और
लडकी कार्न्त की शाददयाँ कर दी थ़ीं¸ दो बच्चे ऊँच़ी किाओं में पढ़ रहे थे। गजािर बाबू नौकरी के कारण
िाय: छोटे स्टेशनों पर रहे, और उनके बच्चे तथा पत्ऩी शहर में¸ र्जससे पढ़ाई में बािा न हो। गजािर बाबू
स्वभाव से बहुत स्नेही व्यर्क्त थे और स्नेह के आकांि़ी भ़ी। जब पररवार साथ था¸ डयूटी से लौट कर बच्चों से
हँसते-बोलते, पत्ऩी से कुछ मनोप्रवनोद करते। उन सबके चले जाने से उनके ज़ीवन में गहन सूनापन भर उठा।
खाली िणों में उनसे घर में दटका न जाता। कप्रव िकृनत के न होने पर भ़ी उन्हें पत्ऩी की स्नेहपूणि बातें याद
आत़ी रहत़ीं। दोपहर में गमी होने पर भ़ी, दो बजे तक आग जलाए रहत़ी और उनके स्टेशन से वापस आने पर
गमि-गमि रोदटयाँ सेकत़ी, उनके खा चुकने और मना करने पर भ़ी थोडा-सा कुछ और थाली में परोस देत़ी और
बडे प्यार से आग्रह करत़ी। जब वह थके-हारे बाहर से आते¸ तो उनकी आहट पा वह रसोई के द्वार पर ननकल
आत़ी, और उनकी सलज्ज आँखें मुस्करा उठत़ीं। गजािर बाबू को तब हर छोटी बात भ़ी याद आत़ी और उदास
हो उठते ...... अब ककतने वषों बाद वह अवसर आया था जब वह किर उस़ी स्नेह और आदर के मध्य रहने जा
रहे थे।
टोप़ी उतार कर गजािर बाबू ने चारपाई पर रख दी¸ जूते खोल कर ऩीचे खखसका ददए¸ अन्दर से रह-रह कर
कहकहों की आवाज आ रही थ़ी¸ इतवार का ददन था और उनके सब बच्चे इकट्ठे होकर नाश्ता कर रहे थे।
गजािर बाबू के सूखे होठों पर र्स्नग्ि मुस्कान आ गई। उस़ी तरह मुस्काते हुए, वह बबना खाँसे हुए अन्दर चले
गए। उन्होंने देखा कक नरेन्द्र कमर पर हाथ रखे शायद रात की किल्म में देखे गए ककस़ी नृत्य की नकल कर
रहा था, और बसन्त़ी हँस-हँस कर दुहरी हो रही थ़ी। अमर की बहू को अपने तन-बदन¸ आँचल या घूंघट का
कोई होश न था और वह उन्मुक्त �प से हँस रही थ़ी। गजािर बाबू को देखते ही नरेंद्र िप से बैठ गया और
चाय का प्याला उठा कर मुँह से लगा मलया। बहू को होश आया और उसने झट से माथा ढँक मलया¸ के वल
बसन्त़ी का शरीर रह-रह कर हँस़ी दबाने के ियत्न में दहलता रहा।
गजािर बाबू ने मुसकुराते हुए उन लोगों को देखा। किर कहा¸ "क्यों नरेन्द्र¸ क्या नकल हो रही थ़ी? "
"कुछ नहीं, बाबूज़ी।" नरेन्द्र ने मसटप्रपटा कर कहा। गजािर बाबू ने चाहा था कक वह भ़ी इस मनोप्रवनोद में भाग
लेते¸ पर उनके आते ही जैसे सब कुर्ठठत हो चुप हो गए¸ इससे उनके मन में थोड़ी-स़ी खखन्नता उपज आई।
बैठते हुए बोले¸ "बसन्त़ी¸ चाय मुझे भ़ी देना। तुम्हारी अम्मा की पूजा अभ़ी चल रही है क्या?"
बसन्त़ी ने माँ की कोठरी की ओर देखा¸ अभ़ी आत़ी ही होंग़ी, और प्याले में उनके मलए चाय छानने लग़ी। बहू
चुपचाप पहले ही चली गई थ़ी¸ अब नरेन्द्र भ़ी चाय का आखखरी घूँट प़ी कर उठ खडा हुआ। केवल बसन्त़ी, प्रपता
के मलहाज में¸ चौके में बैठी माँ की राह देखने लग़ी। गजािर बाबू ने एक घूँट चाय प़ी¸ किर कहा¸ "बेटी - चाय
तो िीकी है।"
"लाइए¸ च़ीऩी और डाल दूँ।" बसन्त़ी बोली।
"रहने दो¸ तुम्हारी अम्मा जब आएग़ी¸ तभ़ी प़ी लूँगा।"
थोड़ी देर में उनकी पत्ऩी हाथ में अर्घयि का लोटा मलए ननकली और अशुद्ि स्तुनत कहते हुए तुलस़ी में डाल
ददया। उन्हें देखते ही बसन्त़ी भ़ी उठ गई। पत्ऩी ने आकर गजािर बाबू को देखा और कहा¸ "अरे, आप अके ले

3

बैंठें हैं। ये सब कहाँ गए?" गजािर बाबू के मन में िाँस-स़ी कसक उठी¸ "अपने-अपने काम में लग गए हैं -
आखखर बच्चे ही हैं।"
पत्ऩी आकर चौके में बैठ गई। उन्होंने नाक-भौं चढ़ाकर चारों ओर जूठे बतिनों को देखा। किर कहा¸ "सारे जूठे
बतिन पडे हैं। इस घर में िरम-करम कुछ नहीं। पूजा करके स़ीिे चौके में घुसो।" किर उन्होंने नौकर को पुकारा¸
जब उत्तर न ममला तो एक बार और उच्च स्वर में पुकारा, किर पनत की ओर देखकर बोली¸ "बहू ने भेजा होगा
बाजार।" और एक लम्ब़ी साँस ले कर चुप हो रहीं।
गजािर बाबू बैठ कर चाय और नाश्ते का इन्तजार करते रहे। उन्हें अचानक ही गनेश़ी की याद आ गई। रोज
सुबह¸ पॅसेंजर आने से पहले यह गरम-गरम पूररयां और जलेबबयां और चाय लाकर रख देता था। चाय भ़ी
ककतऩी बदढ़या¸ कांच के धगलास में उपर तक भरी लबालब¸ पूरे ढ़ाई चम्मच च़ीऩी और गाढ़ी मलाई। पैसेंजर
भले ही राऩीपुर लेट पहुँचे¸ गनेश़ी ने चाय पहुँचाने में कभ़ी देर नहीं की। क्या मजाल कक कभ़ी उससे कुछ
कहना पडे।
पत्ऩी का मशकायत भरा स्वर सुन उनके प्रवचारों में व्याघात पहुँचा। वह कह रही थ़ी¸ "सारा ददन इस़ी खखच-
खखच में ननकल जाता है। इस गृहस्थ़ी का िन्िा प़ीटते-प़ीटते उम्र ब़ीत गई। कोई जरा हाथ भ़ी नहीं बटाता।"
"बहू क्या ककया करत़ी हैं?" गजािर बाबू ने पूछा।
"पड़ी रहत़ी है। बसन्त़ी को तो¸ कहेग़ी कक कॉलेज जाना होता हैं।"
गजािर बाबू ने जोश में आकर बसन्त़ी को आवाज दी। बसन्त़ी भाभ़ी के कमरे से ननकली तो गजािर बाबू ने
कहा¸ "बसन्त़ी¸ आज से शाम का खाना बनाने की र्जम्मेदारी तुम पर है। सुबह का भोजन तुम्हारी भाभ़ी
बनाएग़ी।" बसन्त़ी मुँह लटका कर बोली¸ "बाबूज़ी¸ पढ़ना भ़ी तो होता है।"
गजािर बाबू ने प्यार से समझाया¸ "तुम सुबह पढ़ मलया करो। तुम्हारी माँ बूढ़ी हुई¸ अब वह शर्क्त नहीं बच़ी
है। तुम हो¸ तुम्हारी भाभ़ी हैं¸ दोनों को ममलकर काम में हाथ बंटाना चादहए।"
बसन्त़ी चुप रह गई। उसके जाने के बाद उसकी माँ ने ि़ीरे से कहा¸ "पढ़ने का तो बहाना है। कभ़ी ज़ी ही नहीं
लगता¸ लगे कै से? श़ीला से ही िुरसत नहीं। बडे-बडे लडके है उस घर में¸ हर वक्त वहाँ घुसा रहना मुझे नहीं
सुहाता। मना क�ँ तो सुनत़ी नहीं।"
घर में गजािर बाबू के रहने के मलए कोई स्थान न बचा था। जैसे ककस़ी मेहमान के मलए कुछ अस्थाय़ी िबन्ि
कर ददया जाता है¸ उस़ी िकार बैठक में कुमसियों को दीवार से सटाकर ब़ीच में गजािर बाबू के मलए पतली-स़ी
चारपाई डाल दी गई थ़ी। गजािर बाबू उस कमरे में पडे पडे कभ़ी-कभ़ी अनायास ही, इस अस्थानयत्व का
अनुभव करने लगते। उन्हें याद आत़ी उन रेलगाडडयों की जो आत़ी और थोड़ी देर �क कर ककस़ी और लक्ष्य की
ओर चली जात़ी।
घर छोटा होने के कारण बैठक में ही अब वह िबन्ि ककया गया था। उनकी पत्ऩी के पास अन्दर एक छोटा
कमरा अवश्य था¸ पर वह एक ओर अचारों के मतिबान¸ दाल¸ चावल के कनस्तर और घ़ी के डडब्बों से नघरा था -
दूसरी ओर पुराऩी रजाइयाँ¸ दररयों में मलपटी और रस्स़ी से बंि़ी रख़ी थ़ी, उनके पास एक बडे से टीन के बक्स
में घर-भर के गमि कपडे थे। ब़ींच में एक अलगऩी बंि़ी हुई थ़ी¸ र्जस पर िाय: बसन्त़ी के कपडे लापरवाही से
पडे रहते थे। वह अकसर उस कमरे में नहीं जाते थे। घर का दूसरा कमरा अमर और उसकी बहू के पास था।

4

त़ीसरा कमरा¸ जो सामने की ओर था, बैठक था। गजािर बाबू के आने से पहले उसमें अमर के ससुराल से
आया बेंत का त़ीन कुरमसयों का सेट पडा था। कुमसियों पर ऩीली गद्ददयां और बहू के हाथों के कढ़े कुशन थे।
जब कभ़ी उनकी पत्ऩी को कोई लम्ब़ी मशकायत करऩी होत़ी¸ तो अपऩी चटाई बैठक में डाल पड जात़ी थ़ीं। वह
एक ददन चटाई ले कर आ गई तो गजा िर बाबू ने घर-गृहस्थ़ी की बातें छेड़ी, वह घर का रवैया देख रहे थे।
बहुत हलके से उन्होंने कहा कक अब हाथ में पैसा कम रहेगा¸ कुछ खचाि कम करना चादहए।
"सभ़ी खचि तो वार्जब-वार्जब है¸ न मन का पहना¸ न ओढ़ा।"
गजािर बाबू ने आहत¸ प्रवर्स्मत दृर्ष्ट्ट से पत्ऩी को देखा। उनसे अपऩी हैमसयत नछप़ी न थ़ी। उनकी पत्ऩी तंग़ी
का अनुभव कर उसका उल्लेख करत़ीं। यह स्वाभाप्रवक था¸ लेककन उनमें सहानुभूनत का पूणि अभाव गजािर बाबू
को बहुत खतका। उनसे र्दद राय-बात की जात़ी कक िबन्ि कै से हो¸ तो उनहें धचन्ता कम¸ संतोष अधिक होता
लेककन उनसे तो के वल मशकायत की जात़ी थ़ी¸ जैसे पररवार की सब परेशाननयों के मलए वही र्जम्मेदार थे।

"तुम्हे कम़ी ककस बात की है अमर की माँ - घर में बहू है¸ लडके-बच्चे हैं¸ मसिि �पये से ही आदम़ी अम़ीर नहीं
होता।" गजािर बाबू ने कहा और कहने के साथ ही अनुभव ककया। यह उनकी आन्तररक अमभव्यर्क्त थ़ी -
ऐस़ी कक उनकी पत्ऩी नहीं समझ सकत़ी।
"हाँ ¸ बडा सुख है न बहू से। आज रसोई करने गई है¸ देखो क्या होता हैं?" कहकार पत्ऩी ने आंखे मूंदी और सो
गई। गजािर बाबू बैठे हुए पत्ऩी को देखते रह गए। यही थ़ी क्या उनकी पत्ऩी¸ र्जसके हाथों के कोमल स्पशि¸
र्जसकी मुस्कान की याद में उन्होंने सम्पूणि ज़ीवन काट ददया था? उन्हें लगा कक वह लावठयमय़ी युवत़ी ज़ीवन
की राह में कहीं खो गई और उसकी जगह आज जो स्त्ऱी है¸ वह उनके मन और िाणों के मलए ननतान्त
अपररधचता है। गाढ़ी ऩींद में डूब़ी उनकी पत्ऩी का भारी शरीर बहुत बेडौल और कु�प लग रहा था¸ श्ऱीहीन और
�खा था। गजािर बाबू देर तक ननस्वंग दृर्ष्ट्ट से पत्ऩी को देखते रहें और किर लेट कर छत की ओर ताकने
लगे।
अन्दर कुछ धगरा और उनकी पत्ऩी हडबडा कर उठ बैठी, "लो बबल्ली ने कुछ धगरा ददया शायद," और कह अंदर
भाग़ी। थोड़ी देर में लौट कर आई तो उनका मुँह िूला हुआ था। "देखा बहू को¸ चौका खुला छोड आई¸ बबल्ली ने
दाल की पत़ीली धगरा दी। सभ़ी खाने को है¸ अब क्या मसखाऊं ग़ी?" वह सांस लेने को �की और बोली¸ "एक
तरकारी और चार पराठे बनाने में सारा डडब्बा घ़ी उंडेलकर रख ददया। जरा-सा ददि नहीं हैं¸ कमानेवाला हाड तोडे,
और यहाँ च़ीजें लुटें। मुझे तो मालूम था कक यह सब काम ककस़ी के बस का नहीं हैं।"
गजािर बाबू को लगा कक पत्ऩी कुछ और बोलेंग़ी तो उनके कान झनझना उठेंगे। ओंठ भ़ींच, करवट ले कर
उन्होंने पत्ऩी की ओेर प़ीठ कर ली।
रात का भोजन बसन्त़ी ने जान-बूझकर ऐसा बनाया था कक कौर तक ननगला न जा सके। गजािर बाबू चुपचाप
खा कर उठ गये, पर नरेन्द्र थाली सरका कर उठ खडा हुआ और बोला¸ "मैं ऐसा खाना नहीं खा सकता।"
बसन्त़ी तुनककर बोली¸ "तो न खाओ¸ कौन तुम्हारी खुशामद कर रहा है।"
"तुमसे खाना बनाने को ककसने कहा था?" नरेंद्र धचल्लाया।

5

"बाबूज़ी ने"
"बाबू ज़ी को बैठे बैठे यही सूझता है।"
बसन्त़ी को उठा कर माँ ने नरेंद्र को मनाया और अपने हाथ से कुछ बना कर खखलाया। गजािर बाबू ने बाद
में पत्ऩी से कहा¸ "इतऩी बड़ी लडकी हो गई और उसे खाना बनाने तक का सहूर नहीं आया?"
"अरे आता सब कुछ है¸ करना नहीं चाहत़ी।" पत्ऩी ने उत्तर ददया। अगली शाम माँ को रसोई में देख कपडे बदल
कर बसन्त़ी बाहर आई तो बैठक में गजािर बाबू ने टोंक ददया¸ " कहाँ जा रही हो?"
"पडोस में श़ीला के घर।" बसन्त़ी ने कहा।
"कोई ज�रत नहीं हैं¸ अन्दर जा कर पढ़ो।" गजािर बाबू ने कडे स्वर में कहा। कुछ देर अननर्श्चत खडे रह कर
बसन्त़ी अन्दर चली गई। गजािर बाबू शाम को रोज टहलने चले जाते थे¸ लौट कर आये तो पत्ऩी ने कहा¸
"क्या कह ददया बसन्त़ी से? शाम से मुँह लपेटे पड़ी है। खाना भ़ी नहीं खाया।"
गजािर बाबू खखन्न हो आए। पत्ऩी की बात का उन्होंने उत्तर नहीं ददया। उन्होंने मन में ननश्चय कर मलया कक
बसन्त़ी की शादी जल्दी ही कर देऩी है। उस ददन के बाद बसन्त़ी प्रपता से बच़ी-बच़ी रहने लग़ी। जाना हो तो
प्रपछवाडे से जात़ी। गजािर बाबू ने दो-एक बार पत्ऩी से पूछा तो उत्तर ममला¸ "�ठी हुई हैं।" गजािर बाबू को
और रोष हुआ। लडकी के इतने ममजाज¸ जाने को रोक ददया तो प्रपता से बोलेग़ी नहीं। किर उनकी पत्ऩी ने ही
सूचना दी कक अमर अलग होने की सोच रहा हैं।
"क्यों?" गजािर बाबू ने चककत हो कर पूछा।
पत्ऩी ने साि-साि उत्तर नहीं ददया। अमर और उसकी बहू की मशकायतें बहुत थ़ी। उनका कहना था कक
गजािर बाबू हमेशा बैठक में ही पडे रहते हैं¸ कोई आने-जानेवाला हो तो कहीं बबठाने की जगह नहीं। अमर को
अब भ़ी वह छोटा सा समझते थे और मौके-बेमौके टोक देते थे। बहू को काम करना पडता था और सास जब-
तब िूहडपन पर ताने देत़ी रहत़ी थ़ीं। "हमारे आने के पहले भ़ी कभ़ी ऐस़ी बात हुई थ़ी?" गजािर बाबू ने पूछा।
पत्ऩी ने मसर दहलाकर जताया, "नहीं!" पहले अमर घर का मामलक बन कर रहता था¸ बहू को कोई रोक-टोक न
थ़ी¸ अमर के दोस्तों का िाय: यहीं अड्डा जमा रहता था और अन्दर से चाय नाश्ता तैयार हो कर जाता था।
बसन्त़ी को भ़ी वही अच्छा लगता था।
गजािर बाबू ने बहुत ि़ीरे से कहा¸ "अमर से कहो¸ जल्दबाज़ी की कोई ज�रत नहीं है।"
अगले ददन सुबह घूम कर लौटे तो उन्होंने पाया कक बैठक में उनकी चारपाई नहीं हैं। अन्दर आकर पूछने वाले
ही थे कक उनकी दृर्ष्ट्ट रसोई के अन्दर बैठी पत्ऩी पर पड़ी। उन्होंने यह कहने को मुँह खोला कक बहू कहाँ है;
पर कुछ याद कर चुप हो गए। पत्ऩी की कोठरी में झांका तो अचार¸ रजाइयों और कनस्तरों के मध्य अपऩी
चारपाई लग़ी पाई। गजािर बाबू ने कोट उतारा और कहीं टांगने के मलए दीवार पर नजर दौडाई। किर उसपर
मोड कर अलगऩी के कुछ कपडे खखसका कर एक ककनारे टांग ददया।
कुछ खाए बबना ही अपऩी चारपाई पर लेट गए। कुछ भ़ी हो¸ तन आखखरकार बूढ़ा ही था। सुबह शाम कुछ दूर
टहलने अवश्य चले जाते¸ पर आते आते थक उठते थे। गजािर बाबू को अपना बडा सा¸ खुला हुआ क्वाटिर याद

6

आ गया। ननर्श्चत ज़ीवन - सुबह पॅसेंजर रेन आने पर स्टेशन पर की चहल-पहल¸ धचर-पररधचत चेहरे और
पटरी पर रेल के पदहयों की खट् -खट् जो उनके मलए मिुर संग़ीत की तरह था। तूिान और डाक गाड़ी के
इंर्जनों की धचंघाड उनकी अकेली रातों की साथ़ी थ़ी। सेठ रामज़ीमल की ममल के कुछ लोग कभ़ी कभ़ी पास आ
बैठते¸ वह उनका दायरा था¸ वही उनके साथ़ी। वह ज़ीवन अब उन्हें खोई प्रवधि-सा ित़ीत हुआ। उन्हें लगा कक
वह र्जन्दग़ी द्वारा ठगे गए हैं। उन्होंने जो कुछ चाहा उसमें से उन्हें एक बूंद भ़ी न ममली।
लेटे हुए वह घर के अन्दर से आते प्रवप्रवि स्वरों को सुनते रहे। बहू और सास की छोटी-स़ी झडप¸ बाल्टी पर
खुले नल की आवाज¸ रसोई के बतिनों की खटपट और उस़ी में गौरैयों का वातािलाप - और अचानक ही उन्होंने
ननश्चय कर मलया कक अब घर की ककस़ी बात में दखल न देंगे। यदद गृहस्वाम़ी के मलए पूरे घर में एक
चारपाई की जगह यहीं हैं¸ तो यहीं पडे रहेंगे। अगर कहीं और डाल दी गई तो वहाँ चले जाएंगे। यदद बच्चों के
ज़ीवन में उनके मलए कहीं स्थान नहीं¸ तो अपने ही घर में परदेस़ी की तरह पडे रहेंगे। और उस ददन के बाद
सचमुच गजािर बाबू कुछ नहीं बोले। नरेंद्र माँगने आया तो उसे बबना कारण पूछे �पये दे ददये बसन्त़ी कािी
अंिेरा हो जाने के बाद भ़ी पडोस में रही तो भ़ी उन्होंने कुछ नहीं कहा - पर उन्हें सबसे बडा गम यह था कक
उनकी पत्ऩी ने भ़ी उनमें कुछ पररवतिन लक्ष्य नहीं ककया। वह मन ही मन ककतना भार ढो रहे हैं¸ इससे वह
अनजान बऩी रहीं। बर्ल्क उन्हें पनत के घर के मामले में हस्तिेप न करने के कारण शार्न्त ही थ़ी। कभ़ी-कभ़ी
कह भ़ी उठत़ी¸ "ठीक ही हैं¸ आप ब़ीच में न पडा कीर्जए¸ बच्चे बडे हो गए हैं¸ हमारा जो कतिव्य था¸ कर रहें हैं।
पढ़ा रहें हैं¸ शादी कर देंगे।"
गजािर बाबू ने आहत दृर्ष्ट्ट से पत्ऩी को देखा। उन्होंने अनुभव ककया कक वह पत्ऩी व बच्चों के मलए केवल
िनोपाजिन के ननममत्तमात्र हैं। र्जस व्यर्क्त के अर्स्तत्व से पत्ऩी माँग में मसन्दूर डालने की अधिकारी हैं¸ समाज
में उसकी िनतष्ट्ठा है¸ उसके सामने वह दो वक्त का भोजन की थाली रख देने से सारे कतिव्यों से छुट्टी पा
जात़ी हैं। वह घ़ी और च़ीऩी के डब्बों में इतना रम़ी हुई हैं कक अब वही उनकी सम्पूणि दुननया बन गई हैं।
गजािर बाबू उनके ज़ीवन के केंद्र नहीं हो सकते¸ उन्हें तो अब बेटी की शादी के मलए भ़ी उत्साह बुझ गया।
ककस़ी बात में हस्तिेप न करने के ननश्चय के बाद भ़ी उनका अर्स्तत्व उस वातावरण का एक भाग न बन
सका। उनकी उपर्स्थनत उस घर में ऐस़ी असंगत लगने लग़ी थ़ी¸ जैसे सज़ी हुई बैठक में उनकी चारपाई थ़ी।
उनकी सारी खुश़ी एक गहरी उदास़ीनता में डूब गई।
इतने सब ननश्चयों के बावजूद भ़ी गजािर बाबू एक ददन ब़ीच में दखल दे बैठे। पत्ऩी स्वभावानुसार नौकर की
मशकायत कर रही थ़ी¸ "ककतना कामचोर है¸ बाजार की हर च़ीज में पैसा बनाता है¸ खाना खाने बैठता है तो
खाता ही चला जाता हैं। "गजािर बाबू को बराबर यह महसूस होता रहता था कक उनके रहन सहन और खचि
उनकी हैमसयत से कहीं ज्यादा हैं। पत्ऩी की बात सुन कर लगा कक नौकर का खचि बबलकुल बेकार हैं। छोटा-
मोटा काम हैं¸ घर में त़ीन मदि हैं¸ कोई-न-कोई कर ही देगा। उन्होंने उस़ी ददन नौकर का दहसाब कर ददया।
अमर दफ्तर से आया तो नौकर को पुकारने लगा। अमर की बहू बोली¸ "बाबूज़ी ने नौकर छुडा ददया हैं।"
"क्यों?"
"कहते हैं¸ खचि बहुत है।"
यह वातािलाप बहुत स़ीिा-सा था¸ पर र्जस टोन में बहू बोली¸ गजािर बाबू को खटक गया। उस ददन ज़ी भारी
होने के कारण गजािर बाबू टहलने नहीं गये थे। आलस्य में उठ कर बत्त़ी भ़ी नहीं जलाई - इस बात से बेखबर

7

नरेंद्र माँ से कहने लगा¸ "अम्मां¸ तुम बाबूज़ी से कहत़ी क्यों नहीं? बैठे-बबठाये कुछ नहीं तो नौकर ही छुडा ददया।
अगर बाबूज़ी यह समझें कक मैं साइककल पर गेंहूं रख आटा प्रपसाने जाऊंगा तो मुझसे यह नहीं होगा।"
"हाँ अम्मा¸" बसन्त़ी का स्वर था¸ " मैं कॉलेज भ़ी जाऊं और लौट कर घर में झाडू भ़ी लगाऊं¸ यह मेरे बस की
बात नहीं है।"
"बूढ़े आदम़ी हैं" अमर भुनभुनाया¸ "चुपचाप पडे रहें। हर च़ीज में दखल क्यों देते हैं?" पत्ऩी ने बडे व्यंग से
कहा¸ "और कुछ नहीं सूझा तो तुम्हारी बहू को ही चौके में भेज ददया। वह गई तो पंद्रह ददन का राशन पांच
ददन में बना कर रख ददया।" बहू कुछ कहे¸ इससे पहले वह चौके में घुस गई। कुछ देर में अपऩी कोठरी में
आई और बबजली जलाई तो गजािर बाबू को लेटे देख बड़ी मसटप्रपटाई। गजािर बाबू की मुखमुद्रा से वह उनके
भावों का अनुमान न लगा सकी। वह चुप¸ आंखे बंद ककये लेटे रहे।
गजािर बाबू धचठ्ठी हाथ में मलए अन्दर आये और पत्ऩी को पुकारा। वह भ़ीगे हाााथ मलये ननकलीं और
आंचल से पोंछत़ी हुई पास आ खड़ी हुई। गजािर बाबू ने बबना ककस़ी भूममका के कहा¸ "मुझे सेठ रामज़ीमल की
च़ीऩी ममल में नौकरी ममल गई हैं। खाली बैठे रहने से तो चार पैसे घर में आएं¸ वहीं अच्छा हैं। उन्होंने तो
पहले ही कहा था¸ मैंने मना कर ददया था।" किर कुछ �क कर¸ जैस़ी बुझ़ी हुई आग में एक धचनगारी चमक
उठे¸ उन्होंने ि़ीमे स्वर में कहा¸ "मैंने सोचा था¸ बरसों तुम सबसे अलग रहने के बाद¸ अवकाश पा कर पररवार
के साथ रहूंगा। खैर¸ परसों जाना हैं। तुम भ़ी चलोग़ी?"
"मैं?" पत्ऩी ने सकपकाकर कहा¸ "मैं चलूंग़ी तो यहाँ क्या होगा? इतऩी बड़ी गृहस्थ़ी¸ किर सयाऩी लडकी . . . .."
बात ब़ीच में काट कर गजािर बाबू ने हताश स्वर में कहा¸ "ठीक हैं¸ तुम यहीं रहो। मैंने तो ऐसे ही कहा था।"
और गहरे मौन में डूब गए।
नरेंद्र ने बड़ी तत्परता से बबस्तर बांिा और ररक्शा बुला लाया। गजािर बाबू का टीन का बक्स और पतला सा
बबस्तर उस पर रख ददया गया। नाश्ते के मलए लड् डू और मठरी की डमलया हाथ में मलए गजािर बाबू ररक्शे में
बैठ गए। एक दृर्ष्ट्ट उन्होंने अपने पररवार पर डाली और किर दूसरी ओर देखने लगे और ररक्शा चल पडा।
उनके जाने के बाद सब अन्दर लौट आये ¸ बहू ने अमर से पूछा¸ "मसनेमा चमलएगा न?"
बसन्त़ी ने उछल कर कहा¸ "भैया¸ हमें भ़ी।"
गजािर बाबू की पत्ऩी स़ीिे चौके में चली गई। बच़ी हुई मठररयों को कटोरदान में रखकर अपने कमरे में लाई
और कनस्तरों के पास रख ददया। किर बाहर आ कर कहा¸ "अरे नरेन्द्र¸ बाबूज़ी की चारपाई कमरे से ननकाल दे¸
उसमें चलने तक को जगह नहीं है।"