प्याज़े का संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त.pptx

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प्याज़े का संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त Reena Gupta B.Ed. 1st

Agenda Presentation title 2 जीन पियाजे का संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत संज्ञानात्मक विकास की अवस्थाएँ पियाजे के संज्ञानात्मक विकास के सिद्धान्त की विशेषताएँ जीन पियाजे के सिद्धान्त के शैक्षिक निहितार्थ पियाजे के संज्ञानात्मक विकास के सिद्धान्त के दोष जीन पियाजे चित्र A

जीन पियाजे का संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत जीन प्याज़े द्वारा प्रतिपादित संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त ( theory of cognitive development) मानव बुद्धि की प्रकृति एवं उसके विकास से सम्बन्धित एक विशद सिद्धान्त है। प्याज़े का मानना था कि व्यक्ति के विकास में उसका बचपन एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। प्याज़े का सिद्धान्त, विकास अवस्था सिद्धान्त ( developmental stage theory) कहलाता है। यह सिद्धान्त ज्ञान की प्रकृति के बारे में है और बतलाता है कि मानव कैसे ज्ञान क्रमशः इसका अर्जन करता है, कैसे इसे एक-एक कर जोड़ता है और कैसे इसका उपयोग करता है। Presentation title 3

जीन पियाजे का संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत जीन प्याजे ने व्यापक स्तर पर संज्ञानात्मक विकास का अध्ययन किया। पियाजे के अनुसार, बालक द्वारा अर्जित ज्ञान के भण्डार का स्वरूप विकास की प्रत्येक अवस्था में बदलता हैं और परिमार्जित होता रहता है। पियाजे के संज्ञानात्मक सिद्धान्त को विकासात्मक सिद्धान्त भी कहा जाता है। चूंकि उसके अनुसार, बालक के भीतर संज्ञान का विकास अनेक अवस्थाओ से होकर गुजरता है, इसलिये इसे अवस्था सिद्धान्त ( STAGE THEORY ) भी कहा जाता है। 2002 के एक सर्वेक्षण में पियाजे को बीसवीं शताब्दी के दूसरे सबसे प्रभावशाली मनोवैज्ञानिक के रूप में स्थान दिया गया था। Presentation title 4

संज्ञानात्मक विकास की अवस्थाओं जीन पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास को चार अवस्थाओं में विभाजित किया है- (१) संवेदिक पेशीय अवस्था ( Sensory Motor) : जन्म के 2 वर्ष (२) पूर्व-संक्रियात्मक अवस्था ( Pre-operational) : 2-7 वर्ष (३) मूर्त संक्रियात्मक अवस्था ( Concrete Operational) : 7 से12 वर्ष (४) अमूर्त संक्रियात्मक अवस्था ( Formal Operational) : 12 से 15 वर्ष Presentation title 5

संवेदिक पेशीय अवस्था जन्म के समय शिशु वाह जगत के प्रति अनभिज्ञ होता है धीरे-धीरे व आयु के साथ साथ अपनी संवेदनाएं वह शारीरिक क्रियाओं के माध्यम से बाय जगत का ज्ञान ग्रहण करता है वह वस्तुओं को देखकर सुनकर स्पर्श करके गंध के द्वारा तथा स्वाद के माध्यम से ज्ञान ग्रहण करता है छोटे छोटे शब्दों को बोलने लगता है परिचितों का मुस्कान के साथ स्वागत करता है तथा आप परिचितों को देख कर भय का प्रदर्शन करता है 6

पूर्व-संक्रियात्मक अवस्था अवस्था में दूसरे के संपर्क में खिलौनों से अनुकरण के माध्यम से सीखता है खिलौनों की आयु इसी अवस्था को कहा जाता है शिशु, गिनती गिनना रंगों को पहचानना वस्तुओं को क्रम से रखना हल्के भारी का ज्ञान होना माता पिता की आज्ञा मानना, पूछने पर नाम बताना घर के छोटे छोटे कार्यों में मदद करना आदि सीख जाता है लेकिन वह तर्क वितर्क करने योग्य नहीं होता इसीलिए इसे आतार्किक चिंतन की अवस्था के नाम से भी जाना जाता है वस्तु स्थायित्व का भाव जागृत हो जाता है निर्जीव वस्तुओं में संजीव चिंतन करने लगता है इसे जीव वाद कहते हैं प्रतीकात्मक सोच पाई जाती है शिशु अहम वादी होता है तथा दूसरों को कम महत्व देता है 7

मूर्त संक्रियात्मक अवस्था (7-12)वर्ष इस अवस्था में बालक विद्यालय जाना प्रारम्भ कर लेता है एवं वस्तुओं एव घटनाओं के बीच समानता, भिन्नता समझने की क्षमता उत्पन हो जाती है। इस अवस्था में बालकों में संख्या बोध, वर्गीकरण, क्रमानुसार व्यवस्था, किसी भी वस्तु ,व्यक्ति के मध्य पारस्परिक संबंध का ज्ञान हो जाता है। वह तर्क कर सकता है। संक्षेप में वह अपने चारों ओर के पर्यावरण के साथ अनुकूल करने के लिये अनेक नियम को सीख लेता है| Presentation title 8

औपचारिक या अमूर्त संक्रियात्मक अवस्था यह अवस्था 12 वर्ष के बाद की है इस अवस्था की विशेषता निम्न है :- तार्किक चिन्तन की क्षमता का विकास समस्या समाधान की क्षमता का विकास वास्तविक-आवास्तविक में अन्तर समझने की क्षमता का विकास वास्तविक अनुभवों को काल्पनिक परिस्थितियों में ढालने की क्षमता का विकास परिकल्पना विकसित करने की क्षमता का विकास विसंगतियों के संबंध में विचार करने की क्षमता का विकास जीन पियाजे ने इस अवस्था को अन्तर्ज्ञान कहा है Presentation title 9

पियाजे के संज्ञानात्मक विकास के सिद्धान्त की विशेषताएँ इस सिद्धान्त की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं ( i ) पियाजे के अनुसार संज्ञानात्मक विकास चार भिन्न और सार्वभौमिक अवस्थाओं की शृखला या क्रम में होता है। जिनमें विचारों का अमूर्त स्तर बढता जाता है। ये अवस्थाये सदैव एक ही क्रम में होती हैं तथा प्रत्येक अवस्था पिछली अवस्था में सीखी वस्तुओं पर आधारित होती है। Presentation title 10

Presentation title 11 ii) संज्ञानात्मक विकास में आत्मसातीकरण और संयोजन में समन्वय पर बल दिया जाता है। ( iii) पियाजे ने बालक के ज्ञान को "स्कीमा' से निर्मित माना है। स्कीमा ज्ञान की वह मूल इकाई है जिसका प्रयोग पूर्व अनुभवों को संगठित करने के लिए किया जाता है। जो नये ज्ञान के लिए आधार का काम करती है। ( iv) संज्ञानात्मक विकास में मानसिक कल्पना, भाषा, चिन्तन, स्मृति-विकास, तर्क, समस्या समाधान आदि समाहित होते हैं। ( v) यह सिद्धान्त बताता है कि सीखने हेतु पर्यावरण और क्रिया की आवश्यकता होती है। ( vi) इस सिद्धान्त के अनुसार बालकों में चिंतन एवं खोज करने की शक्ति उनकी जैविक परिपक्वता एवं अनुभव इन दोनों की अन्तःक्रिया पर निर्भर है। (vii) पियाजे के अनुसार सीखना क्रमिक एवं आरोही प्रक्रिया होती है।

जीन पियाजे के सिद्धान्त के शैक्षिक निहितार्थ पियाजे के सिद्धान्त का शिक्षा के सैद्धान्तिक और व्यावहारिक पक्ष पर बहुत प्रभाव है। यह एक ऐसे दृष्टिकोण के सृजन में सहयोग देता है जिसका उन्नतशील उपयुक्त शिक्षा के विचार पर केन्द्रित रहता है। इसका सम्बन्ध शैक्षिक के साथ वातावरण, पाठ्यक्रम, सामग्रियों और अनुदेशन से होता है जोकि विद्यार्थी शारीरिक और संज्ञानात्मक योग्यताओं के साथ-साथ उनकी सामाजिक और भावात्मक आवश्यकताओं से संगतता रखता है। शिक्षकों के लिए इस सिद्धान्त का विशेष महत्व है क्योंकि यह शिक्षकों के शिक्षण को विशेष दिशा प्रदान करता है। इस सिद्धान्त का कक्षागत परिस्थिति में निम्न शैक्षिक निहितार्थ स्वीकार किया जाता है | Presentation title 12

Presentation title 13 (1). बच्चों की चिन्तन प्रक्रिया में अवधान केन्द्रित होना चाहिए न | कि बस उनके उत्पादों या उपलब्धियों पर । बच्चों द्वारा किसी प्रश्न या समस्या पर दी गई प्रतिक्रिया या उत्तर की सत्यता जाँच करने के अतिरिक्त शिक्षक को बच्चों द्वारा समस्या या प्रश्न के उत्तर को प्राप्त करने में प्रयोग में लायी गई प्रक्रिया को समझना चाहिए। बच्चों की मौजूदा स्तर की संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं पर ही उपयुक्त अधिगम अनुभव गठित होते हैं और केवल जब शिक्षक बच्चों के किसी विशेष निष्कर्ष में पहुँचने के तरीके की सराहना करते हैं तो बच्चे स्व-प्रोत्साहित होकर उचित संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं की संरचना करते हैं। (2 ). अधिगम क्रियाओं में बच्चों की स्व-पहल तथा सक्रिय सहभागिता को निर्णायक भूमिका की मान्यता देनी चाहिए। पियाजे के अनुसार कक्षा में रेडीमेड या तैयार ज्ञान के प्रस्तुतीकरण पर कम महत्व दिया जाए एवं बच्चों को वातावरण के साथ सहज अंतःक्रिया के माध्यम से स्वयं के लिए खोज करने हेतु प्रोत्साहित किया जाता है। इसीलिए, उपदेशात्मक शिक्षण के स्थान पर शिक्षक इसमें क्रियाओं को समृद्ध विविधता प्रदान करता है जोकि बच्चों को भौतिक संसार पर प्रत्यक्ष कार्य करने की अनुमति देता है। (3) उन परिपाटियों को महत्व न देना जो बच्चों के चिन्तन को वयस्क जैसा बनाने का उद्देश्य रखती हों। इस सम्बन्ध में पियाजे की प्रसिद्ध उक्ति जिसे अमेरिकन प्रश्न के नाम से जाना जाता है। जोकि है "हम कैसे विकास की तेज गति पकड़ सकते हैं ?" उनका विश्वास था कि बच्चों से अधिक गति एवं चरणों में अधिक शीघ्रता करवाने का हमारा प्रयास शिक्षण को बेहतर कर सकता है।

पियाजे के संज्ञानात्मक विकास के सिद्धान्त के दोष ( i ) इस सिद्धान्त में केवल ज्ञानात्मक सम्प्रत्ययों की ही व्याख्या की गई है। यहाँ कुछ कमी-सी प्रतीत होती है। ( ii) यह सिद्धान्त बताता है कि मूर्त संक्रियात्मक अवस्था से पहले तार्किक और क्रमबद्ध चिन्तन नहीं कर सकता, जबकि शोधों से यह प्रदर्शित है कि वह पहले भी चिन्तन कर सकता है। (iii) इस सिद्धान्त में संज्ञानात्मक विकास का एक विशेष क्रम बताया गया है जबकि यह तथ्य भी आलोचना से नही बच सकता है। Presentation title 14

Presentation title 15 (iv) यह सिद्धान्त वस्तुनिष्ठ कम व्यक्तिनिष्ठ अधिक है। ( v) इस सिद्धान्त में विकास के अन्य पक्षों पर ध्यान नहीं दिया गया है। ( vi) पियाजे ने कहा कि संज्ञानात्मक विकास व्यक्ति की जैविक परिपक्वता से सम्बन्धित है।

जीन पियाजे Presentation title 16

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