çàæßÙæ âæçãUçˆØ·¤è अटबर-िदसबर 202549 48 çàæßÙæ âæçãUçˆØ·¤è अटबर-िदसबर 2025
उठती रहगी। किवता कोई शौक नह ह, न ही
कोई उपादकता का औज़ार। हमम से कछ
लोग इसे उसक उपयोिगता से नह, उस
अ य क से जानते ह, जो सीधे आमा से
जुड़ती ह। किवताएँ जैसे कोई दरवेश, कोई
पीर जो चुपचाप हमार िलए दुआ करती रहती
ह। कभी िकसी पुराने घाव पर फाहा रखती ह,
कभी िकसी बुझे कोने म रोशनी भर देती ह।
और कभी-कभी तो बस इसिलए साथ देती ह
िक कोई तो ह जो समझता ह, िबना कह, िबना
माँगे।
"िलखना सबसे बड़ी यातना ह, और
उससे मु भी िसफ़ और िसफ़ िलखना ही
ह।" र म भाराज जब यह िलखती ह, तब वे
कवल एक िवचार नह रख रह; वे एक
लेखक क भीतरी उथल-पुथल, उसक
रचनामक पीड़ा और गहराई से महसूस िकए
गए अ तव-संकट को शद दे रही होती ह।
यह डायरी बार-बार हम बताती ह िक लेखन
कोई सुखद वाह नह, ब क एक सतत
झंझावात ह। रचना क ? ?? म लेखक को
वयं को अनिगनत बार तोड़ना पड़ता ह,
िगराना पड़ता ह, और िफर उसी मलबे से कछ
नया उठाना होता ह। इसीिलए वे िलखती ह -
"एक लेखक क मृयु कोई और तय नह कर
सकता। रचने क यंणा से गुज़रता आ वह
?द कई बार अपनी िणक मृयु से गुज़रता
ह।" यह िणक मृयु- एक कार का
रचनामक िवरचन ह, जहाँ हर बार एक नया
'व' जम लेता ह। यहाँ लेखन एक अनंत
आम-संधान ह, जहाँ मु क राह भी वही
ह, िजसने बंधन क पीड़ा दी - िलखना।
र म भाराज क डायरी कवल अनुभूित
क परत नह खोलती, ब क समकालीन
लेखन क उस अंतिवरोध को भी उजागर
करती ह िजसम लेखक से यह अपेा क
जाती ह िक वह हर पर थित को उमीद,
ेरणा और सकारामकता क चमे से देखे। वे
तीखेपन से िलखती ह-
"िलखते ए जो चीज़ सबसे यादा
क़लम को रोकने आती ह, वह ह हर तरफ़
सकारामक देखने और उसे उसी प म
लौटाने का आह।"
यह पं उस मानिसक थकावट क ओर
इशारा करती ह, जो तब होती ह जब रचनाकार
को बार-बार उमीद का ठकदार बना िदया
जाता ह। जबिक यथाथ असर उमीद क
िवपरीत होता ह - क प, िबखरा आ, अधूरा
और तकलीफ़देह। र म इस डायरी म साफ़
करती ह िक लेखन कवल आनंद का ोत
नह, ब क सय क खोज भी ह। और यह
सय हर बार सुंदर नह होता। उसे वैसा ही
वीकारना और तुत करना लेखकय
नैितकता का िहसा ह। इसिलए उनक डायरी
िसफ़ सकारामक सोच का तुितगान नह ह,
वह न करती ह, टकराती ह, कभी ?द से
भी। वह किवता को आशा का गीत नह,
ब क चुपी म फ?टती एक विन क तरह
देखती ह।
र म भाराज जब िलखती ह िक
"किवता मेर िलए एक िनरतर याा ह िजसका
कोई िनिद गंतय नह ह," तो वे किवता को
एक मुकाम या उपल ध नह, ब क एक
जीवंत ? ?? क प म देखती ह। यह याा
उह भीतर क एकांत तक भी ले जाती ह और
बाहर क कोलाहल से भी जोड़ती ह। यही
किवता क ैतपूण कित ह, वह अंतमुखी भी
ह और बिहमुखी भी। इस डायरी म र म क
किवता-याा एक ऐसी साधना ह जहाँ न कोई
मंिज़ल िन त ह, न कोई समा -रखा। वह
आमा क मौन गिलयार से भी गुज़रती ह और
दुिनया क शोरगुल, िवडबना, िवरोध और
बेचैिनय से भी टकराती ह। यह कथन एक
और तर पर यह भी प करता ह िक
किवता कवल भावना क पूित नह ह, वह
संतुलन का मायम भी ह। एक ओर एकांत म
उतरने का राता ह, जहाँ रचनाकार वयं से
संवाद करता ह, वह दूसरी ओर वह
कोलाहल से टकराता ह, िजसम समाज,
समय और सा क ितविनयाँ ह। यहाँ
किवता एक पुल ह - य और िव क
बीच, आमा और अ तव क बीच।
वे िलखती ह - "कभी-कभी इस शहर क
साट म भी एक सांकितक गूँज सुनाई देती
ह, जैसे कह दूर भारत भवन क गिलय से
कोई किवता धीमे-धीमे साँस ले रही हो, जैसे
िकसी मोड़ से कमार गंधव क सुरलहरयाँ
उठती ह और हवा म घुलकर मेरी आमा को
छ जाती ह। और िफर, कह भीतर, बत
भीतर रवी नाथ टगोर क कोई अनुगूँज गूँज
उठती ह, जो मुझे ?द से, शद से, और
सृजन से जोड़ देती ह।"
इस डायरी को पढ़कर सिदानंद हीरानंद
वा यायन 'अेय' ारा िलिखत "अेय क
डायरी अंश" और िनमल वमा क "रचना क
आयाम" पुतक क याद आती ह। र म
भाराज ने इस डायरी को कवल िलखा नह
ह, ब क इसे िजया ह। हर पं म उनका
आमसंवाद, भीतर क किव क पड़ताल और
उसक कसौटी पर खरा उतरने क बेचैनी
झलकती ह। यह मा एक रोज़नामचा नह ह,
ब क आमबोध क िया का ग
पांतरण ह। यह डायरी पाठक को भीतर तक
समृ करती ह, उसे एक गहरी मानवीयता
और संवेदना से भर देती ह। र म भाराज क
यह कित एक आ मक दतावेज़ ह, िजसम
जीवन क आहट ह, किवता क गूँज ह और
लेखन क तिपश ह। लेिखका ने किवता,
लेखक क पीड़ा, समाज क आह और
आम-अवलोकन को िजस तरह िपरोया ह,
वह िकसी गहर आलोचक क कलम का
माण ह। यह डायरी नह, आमा क उकरी
ई परछाई ह। र म भाराज ने एक लेखक
क रचनामक पीड़ा, कायामक चेतना और
आमबोध क याा को मेरी तलब का सामान
(डायरी) क मायम से अयंत भावशाली
ढग से तुत िकया ह। "मेरी तलब का
सामान" (डायरी) उन िवरल पुतक म से ह
जो किवता, दशन और आमा क यी म
सृजन करती ह। यह कोई नई िवधा नह,
लेिकन िन त प से एक नई ऊचाई ह। इस
तरह क िकताब कम ह और आज क समय म
तो और भी दुलभ ह, जब रचना असर
ताकािलकता और उपादकता म फसी होती
ह। डायरी क भाषा और वाह पाठक को
सतत जोड़ रखने म पूरी तरह सम ह। "मेरी
तलब का सामान" (डायरी) बेहद रोचक,
पठनीय और ?बसूरत ह।
000
"मेरी तलब का सामान" सघन संवेदना क साथ सुपरिचत सािहयकार र म भाराज ारा
िलिखत एक डायरी ह। र म भाराज क मुख रचना म "एक अितर अ", "मने अपनी
माँ को जम िदया ह", "घो घो रानी िकतना पानी", "समुख" (किवता संह), "वह साल
बयालीस था" (उपयास), "ेम क पहले बसंत म", "मेरी यातना क अंत म एक दरवाज़ा था",
"21 व सदी क िव ी किवता" (संपादन), "21 व सदी क िव ी किवता",
"आिदवासी नह नाचगे", "र कन बॉड क अँधेर म चेहरा", एक घुमतु लड़क क डायरी"
(अनुवाद) शािमल ह। िज़दगी क दाशिनक प उजागर करते ए र म भाराज अपनी डायरी
मेरी तलब का सामान िलखती ह। र म भाराज क लेखनी म सहजता, जीवन का पंदन,
आ मक संवेदनशीलता ितिबंिबत होती ह। यह डायरी गहर आमबोध, सािह यक सूझ-बूझ
और संवेदना का सुंदर संगम ह। र म भाराज ने किवता को िजस गहराई से समझा और तुत
िकया ह, वह वयं एक सािह यक लेखनी का उदाहरण ह। वे इस डायरी म अपनी किव s??
से आमा क थाह लेती ह।
इस डायरी म र म का किवव पूरी तरह सिय ह, कभी विन क तरह, कभी िवराम क
तरह। िकसी किव का ग पढ़ना अपने आप म एक अलग अनुभव होता ह, तरल, तरिगत, पश
करता आ। यह डायरी भी वैसा ही अनुभव ह जो पाठक को भीतर तक समृ करती ह, उसे
एक गहरी मानवीयता और संवेदना से भर देती ह। "मेरी तलब का सामान" एक आ मक
दतावेज़ ह, ऐसा ग जो किवता क लय म बहता ह। यह डायरी नह, एक याा ह; आमा क
गहराते अनुभव क याा।
र म भाराज ने इस डायरी म िलखा ह- किव से एक िवशेष कार क संवेदनशीलता, एक
अितर मानवीय कोण क अपेा हम वाभािवक प से करते ह। यह अपेा यूँ ही नह
ह यिक किवता दरअसल मनुयता का ही आलाप ह। वह समय और समाज म उप थत हर
अयाय, असमानता और अमानवीयता क िव एक मूक, पर सश? ितरोध ह। जहाँ जीवन
म सब कछ पूण हो, परम संतोष हो, वहाँ किवता का जम नह होता। किवता हमेशा उस रता
से फ?टती ह िजसे संवेदना पहचानती ह, िजसे िववेक झेलता ह। लेिकन यिद िकसी किव का
अपना जीवन उसी किवता क िवपरीत िदशा म चलता आ िदखे, जहाँ शद कछ और कह और
कम कछ और ह, तो या वह किवता पाठक क दय म वही ेम और वही समान जगा
पाएगी? शायद नह। यिक किवता कवल िशप नह ह, वह जीवन क एक ितबता ह।
र म भाराज ने िलखा ह- किवता िलखना, मुझे लगता ह, अपने दय को धीर-धीर खोल
देना ह। एक ऐसा आम-वेश जहाँ शद क मायम से किव अनजाने ही अपने भीतर क सबसे
िनजी िहसे को सामने रख देता ह। और भले ही किव वयं पदा डाले, एक िजासु पाठक उस
किवता म उसक आमा का अंश ज़र खोजेगा। यिक किवता िबना आमा को झक, िबना
दय को समिपत िकए िलखी ही कहाँ जा सकती ह " लेिकन यह एक िवडबना भी ह, कभी-
कभी पाठक क उसुक िनगाह आमा से भी आगे बढ़ जाती ह। वह किवता म किव क देह को
भी पढ़ने लगती ह। उस देह क चार ओर कपना क धागे लपेटकर चटपटी कहािनयाँ गढ़ी जाती
ह। तब किवता िसफ आमा का नह, एक हद तक देह का भी अनावरण करती ह, चाह किव ने
ऐसा चाहा हो या नह। यह किवता क ासदी भी ह और उसका साहस भी।
वे इस डायरी म िलखती ह - आज िफर वही आ। थोड़ी ही देर म एक तेज़ तलब उठी, ऐसी
तलब िजसे शद म बाँधना मु कल ह। न भूख थी, न यास, न कोई ठोस इछा... बस कछ
भीतर से िखंचने लगा। आँख अचानक बेचैन हो उठ, जैसे कोई खोई ई चीज़ तलाश रही ह। म
इधर-उधर देखने लगी, टबल पर रखी िकताब क ढर म, वक लैपटॉप क न पर, कमर क
कोन म, पर कह सुक?न न िमलाs िफर उगिलयाँ अपने आप मोबाइल न पर प च और
टाइप िकया - "Poetry"। पता नह य, पर जब-जब यह बेचैनी होती ह, जवाब किवता क
पास ही िमलता ह। शु ह, यह तलब मुझ जैसे और भी कई लोग क भीतर उठती रही ह...
पुतक समीा
(डायरी)
मेरी तलब का सामान
समीक : दीपक िगरकर
लेखक : र म भाराज
काशक : िशवना काशन, साट
कॉ लैस बेसमट, सीहोर, म
466001, फ़ोन-07562405545
मोबाइल- +91-9806162184
ईमेल-
[email protected]
दीपक िगरकर
28-सी, वैभव नगर, कनािडया रोड,
इदौर- 452016 म
मोबाइल- 9425067036
ईमेल-
[email protected]