Government Autonomous Ashtang Ayurved College indore m.p . Department of Physiology PowerPoint Presentation on the topic Updhatu Guided by :- Dr. A.P.S Chauhan Sir . ( H.O.D , Professor ) Dr. Anuruchi Solanki Ma’am . ( Lecturer ) Submitted by :- Ankush Randive B.A.M.S First year 2019 - 20 Batch
Certificate This is certified that this record of PowerPoint Presentation done by Ankush Randive , Roll no. – 7 of Government Autonomous Ashtang Ayurved College , Indore M.P . is recommended by Madhya Pradesh Medical Science University Jabalpur , for B.A.M.S First year Course during session 2019-20 under the Department of Physiology . Date :- 24/08/2020 Certified by :- Dr. A.P.S Chauhan Dr. Anuruchi Solanki
उपधातु आयुर्वेद में दोष , धातु और मल को ही शरीर का मूल माना गया है । दोषधातुमलमूलं हि शरीरम् ।। ( सु. सू. 15/3 ) दोषधातुमला मूलं सदा देहस्य ।। ( अ. हृ. सू. 11/1 ) धातु के बारे में कहा गया है – ‘ धारणात् धातवः ‘ अर्थात जो शरीर का धारण करे उसे धातु कहते है । धातु शरीर के धारण के साथ साथ पोषण भी करती है । यह संख्या में 7 होती है – रस रक्त मांस मेद अस्थि मज्जा शुक्र रसाsसृङ्मांसमेदोsस्थिमज्जाशुक्राणि धातवः ।। ( अ. हृ. सू. 1/13 )
इन धातुओं के अतिरिक्त शरीर में उपधातुये होती है । उपधातुओं की उत्पत्ति धातुओं से होती है । यह शरीर का धारण तो करती है परन्तु पोषण नहीं करती । साथ ही ये अपने उत्तर उपधातु का निर्माण नहीं करती । उपधातुओं की संख्या उपधातुओं की संख्या पर आचार्य चरक और आचार्य शाङ्र्गधर के मतो में भिन्नता है । आचार्य चरक के अनुसार केवल रस , रक्त , मांस और मेद धातु की उपधातुये होती है । शेष तीन धातुओं की उपधातु नहीं होती । रसात्सतन्यं स्रिया रक्तमसृजः कण्डरा: सिराः । मांसाद्वसा त्वचः षट् च मेदस: स्नायुसंभवः ॥ ( च. चि. 15/16 ) आचार्य शाङ्र्गधर ने सातो धातु की उपधातु बताई है – स्तन्यं रजश्च नारीणां काले भवति गच्छति । शुद्धमांसभव: स्नेह: सा वसा परिकीर्तिता । स्वेदो दन्तास्तथा केशासत्थैवोजाश्च सप्तमम् । इति धातुभव ज्ञेया एते सप्तोधातवः ॥
धातु उपधातु चरक शाङ्र्गधर १. रस - स्तन्य एवं आर्तव ( रज ) स्तन्य २. रक्त - कण्डरा एवं शिरा आर्तव ३. मांस - वसा एवं षट त्वचा वसा ४. मेद - स्नायु स्वेद ५. अस्थि - X दाँत ६. मज्जा - X केश एवं रोम ७. शुक्र - X ओज
स्तन्य उत्पत्ति रसात् स्तन्यसंभवः ॥ ( च. चि. 15/16 ) रस धातु से स्तन्य ( दूध ) की उत्पत्ति होती है । रसप्रसादो मधुरः पक्वहारनिमित्तजः । कृत्स्नदेहात् स्तनौ प्राप्तः स्तन्यमित्यभिधीयते ॥ ( सू. नि. 10/17 ) पचे हुए आहार से उत्पन्न रस का प्रसाद तथा मधुर भाग , स्तनों में पहुंचकर परिवर्तित होकर स्तन्य कहलाता है । विशस्तेष्वपि गात्रेषु यथा शुक्रं न दृश्यते । सर्वदेहाश्रितत्वाच्च शुक्रलक्षणमुच्यते ॥ ( सू. नि. 10/18 ) आचार्य सुश्रुत के अनुसार जिस प्रकार सर्वशरीरव्यापी होने पर भी शुक्र दिखाई नहीं देता उसी प्रकार स्तन्य सर्वदेहाश्रित होता है । कन्याओं में दूध की उत्पत्ति ना होने के संबंध में कहा गया है कि - धमन्यः संवृतद्वारा: कन्यानां स्तनसंश्रिता: । तासामेव प्रजातानां गर्भिणीनां च ताः पुनः । स्वभावादेव विवृता जायन्ते । ( सु. नि. 10/15,16 )
कन्याओं के स्तनों से संबंधित धमनियां संकुचित होती है जो प्रसूता एवं गर्भवती होने पर अपने आप विस्तृत तथा कार्यरत ही जाती है । गुण तथा कर्म जीवनं वृंहणं सात्म्यं स्नेहनं मानुषं पयः । नावनं रक्तपित्ते च तर्पणं चाक्षिशूलिनाम् ॥ ( च. सू. 27/229 ) नार्यास्तु मधुरं स्तन्यं कषायानुरसं हिमम् । नस्याश्च्योतनयोः पथ्यं जीवनं लघु दीपनम् ॥ ( सु. सू . 45/57 ) स्त्री का दुग्ध गुणों में शीतल , लघु , एवं स्निग्ध होता है । यह जीवन देने वाला , बल बढ़ाने वाला , शरीर के अनुकूल , अग्नि को बढ़ाने वाला , रस में मधुर तथा अन्नरस में कषाय होता है । यह वात , पित्त एवं रक्त विकारों का नाश करता है । माता का दूध पीने से शिशु पुष्ट तथा रोगमुक्त होता है एवं उसकी वृद्धि ठीक प्रकार से होती है । इसके अलावा अभिघातज तथा नेत्र रोगों में नेत्र में दूध डालने से तथा रक्तपित्त विकारों में नासिका में टपकाने से लान मिलता है । शुद्ध स्तन्य की परीक्षा स्तन्यसम्पत्तु – प्रकृतवर्णगंधरसस्पर्शमुदपात्रे दुह्यमानमुदकं त्येति प्रकृतिभूतत्वात् तत् पुष्टिकरमारोग्यकरं चेति स्तन्यसम्पत् । ( च. शा. 8/54 ) जो दूध वर्ण , गंध , रस , स्पर्श में स्वाभाविक हो , फेन एवं तंतुरहित हो , जल में डालने से उसमे मिल जाए तथा जल श्वेत व मधुर हो जाए वो शुद्ध दूध होता है । शुद्ध दूध ना तो जल में तैरता है ही डूबता है ।
दूषित दूध वात दूषित दुग्ध श्यावारुणवर्ण कषायानुरसं विशदमनतिलक्ष्यगंधं रुक्षं फेनिलं लघ्वतृप्तिकरं कण्ठवातविकारणा कर्तृकं वातोपसृष्टं क्षीरमभिज्ञेयम । ( च. शा. 8/84 ) वातदूषित दूध श्याम वर्ण , कषाय , रुक्ष , झाग्युक्त , जल से हल्का तथा वातरोगों को उत्पन्न करने वाला होता है । पित्त दूषित दुग्ध कृष्णनीलपीतताभावभांस तिक्ताम्लकटुकारनुरसं कुणपरुधिरगन्धि भृशोष्णं पित्तविकाराणां कर्तृ पित्तोपसृष्टं क्षीरमभिज्ञेयम । ( च. शा. 8/84 ) पित्त दूषित दूध में काली , नीली , पीली तथा ताम्र आभा होती है । अनुरस में तिक्त , अम्ल तथा कटु होता है । गंध मृतक या रक्त सामान होती है । यह शरीर में पित्तरोगो को बढ़ाता है । कफ़ दूषित दुग्ध अत्यर्थशुक्लमतिमाधुर्योपपन्नं लवणानुरसं घृततैलवसामज्जगन्धिपिच्छिलं तन्तुमदुदपात्रेSवसीदति श्लेष्मविकाराणां कर्तृ श्लेष्मोपसृष्टं क्षीरमभिज्ञेयम् । ( च. शा. 8/84 ) कफ दूषित दूग्ध अत्यधिक श्वेत , अतिमधुर , अन्नरस में लवण , घी , तेल , वसा और मज्जा की गंध वाला , तंतुयुक्त , जल से भारी तथा कफज रोगों को उत्पन्न करता है ।
स्तन्य वृद्धि के लक्षण स्तन्यं स्तनयोरापीनत्वं मुहुर्मुहु: प्रवृत्तिं तोंद च ॥ ( सु. सू. 15/60 ) स्तन्य वृद्धि में स्तन स्थूल हो जाते है जिसके तनाव के कारण पीड़ा होती है तथा बार बार दूग्धस्त्राव की प्रवृत्ति होती है । स्तन्य क्षय के लक्षण स्तन्यक्षये स्तनयोम्र्लानता स्तन्यासम्भवोSल्पता वा । ( सु. सू . 15/12 ) स्तन्य क्षय में स्तन सिकुड़ कर छोटे हो जाते है , दूध की उत्पत्ति काम या समाप्त हो जाती है ।
आर्तव पर्याय शोणित , रज , ऋतु असृक , मासिक स्त्राव आदि । उत्पत्ति मासेन रसः शुक्रो भवति स्त्रीणां चार्तवम् । ( सु. सु. 14/14 ) एक मास में रसधातु पुरुष में शुक्र और स्त्रियों में आर्तव में परिणत हो जाती है । वहन ते ( द्वे धमन्यौ ) एवं रक्तमभिवहतो विसृजतश्च नारीणामार्तवसंज्ञम । ( सु. शा. 9/7 ) दो गर्भाशय धमनियां स्त्रियों में आर्तव वहन का कार्य करती है । मासेनोपचितं काले धमनीभ्यां तदार्तवम् । ईषत्कृष्णं विगन्ध च वायुर्योनिमुखं नयेत् ॥ ( सु. शा. 3/10 ) मास भर तक संचित कृष्ण वर्ण तथा विकृत गंधयुक्त आर्तव उचित समय पर धमनियों से अपान वायु द्वारा योनीमुख से निष्कासित होता है ।
स्वरुप गुञ्जाफलसवर्ण च पदमाSलकसन्निभम् । इन्द्रगोपसंकाशमार्तवं शुद्धमादिशेत् ॥ ( च. चि. 30/223 ) मासन्निष्पिच्छदाहार्ति पञ्चरात्रानुबन्धि च । नैवातिबहु नात्यल्पमार्तव शुद्धमादिशेत् ॥ ( च. चि. 30/222 ) शुद्ध आर्तव गुञ्जाफल , लाल कमल , इंद्रगोप के रक्त के वर्ण का होता है । यह मास के अंतर से अधिकतम पांच दिन तक न अधिक न कम मात्रा में प्रवृत्त होता है । कार्य रक्तलक्षणमार्तवं गर्भकृच्च गर्भो गर्भलक्षणम् ॥ आर्तव रक्त के लक्षण जैसा होता है । यह गर्भस्थिति का कारक है । गर्भ की स्थिति हो जाने पर गर्भाशय में गर्भ के लक्षण उत्पन्न करता है । आर्तव वृद्धि आर्तवमङ्गमर्दमतिप्रवृत्तिं दौर्बल्य च । ( सु. सू. 15/21 ) आर्तव के अधिक मात्रा में स्त्राव होने से अंगो में पीड़ा , अधिक रज प्रवृत्ति और दुर्बलता होती है । आर्तव क्षय आर्तवक्षये यशोचितकालादर्शनमल्पता वा योनिवेदना च । ( सु. सू. 15/16 ) आर्तवक्षय में समय पर रजोदर्शन न होना या अल्प मात्रा में होना तथा योनि में वेदना होना लक्षण है ।
कण्डरा संख्या षोडश् कण्डराः तासां चतस्रः पादयोः , तावत्यो हस्तग्रीवापृष्ठेषु । तत्र हस्तपादगतानां कण्डरा नखाः प्ररोहाः । ग्रीवाहृदयनिबन्धिनीनामधोभागगतानां मेढ्रम । श्रेणिपृष्ठनिबिन्धनीनामधोभागगतानां बिम्बम् मूर्धोरुवक्षोंSशपिण्डादीनां च ॥ ( सु. शा. 5/10 ) कण्डराये हाथों , पैरो , ग्रीवा तथा पीठ में चार – चार होती है । मतलब कुल सोलह । उद्गम /origin हाथों की कण्डरा - बाहुशिर ( अंशापिण्ड क्षेत्र ) पैरों की कण्डरा - उरु मंडल ( श्रोणि क्षेत्र ) पृष्ठ की कण्डरा - वक्ष क्षेत्र ग्रीवा की कण्डरा – मस्तक निवेश /insertion हाथ और पैरो की कण्डरा – नख प्रान्त में ग्रीवा और हृदय की कण्डरा – मेढ्र ( जघन क्षेत्र / Pubic region ) श्रोणि और पृष्ठ (पीठ) की कण्डरा – बिम्ब ( श्रोणि क्षेत्र / pelvic region )
कार्य प्रसारणांकुचनयोरङ्गानां कण्डरा मताः ॥ ( शा. पू. 5/36 ) शरीर में प्रसारण ( extention ) तथा आकुंचन ( flexion ) का कार्य कण्डरा की सहायता से होता है । कण्डरा पेशियों ( muscles ) को बांधने का कार्य करती है ।
सिरा ध्मानाद्धमन्यः स्त्रवणात् स्रोतांसि सरणात्सिराः ॥ ( च. सू. 30/11 ) जिनमें धमन होता है - धमनियां । जिनमे स्त्रवन होता है - स्त्रोत । जिनमे सरण ( गति ) - सिरा । संख्या एवं प्रकार सप्तसिराशतानि भवन्ति ॥ ( च. सू. 7/15 ) सिराए 700 ( सात सौ )होती है । तासां मूलशिराश्चत्वारिशत् । तासां वातवाहिन्यो दश , पित्तवाहिन्यो दश , कफवाहिन्यो दश , दश रक्तवाहिन्यः । तासां तु वातवाहिनीनां वातस्थानगतानां पञ्चसप्ततिशतं भवति । तावत्य एव पित्तवाहिन्यः पित्तस्थाने , कफवाहिन्यश्च कफस्थाने , रक्तवाहिन्यश्च यकृतप्लीह्नो: । एवमैतानि सप्त सिराशतानि । ( सु. शा. 7/5 ) 700 सिराओ की मूल सिराये 40 होती है – 10 – वातवाहिनी 10 – पित्तवाहिनी 10 – कफवाहिनी 10 – रक्तवाहिनी ये 10 सिराये आगे विस्तृत होकर 175 हो जाती है । इस प्रकार कुल 700 होती है ।
तत्रारुणा वातवहाः पूर्यन्ते वायुना सिरा: । पित्तादुष्णाश्च नीलश्च , शीता गौर्यः स्थिराः कफात् । असृग्वहास्तु रोहिण्यः सिरा नात्युष्णशीतला: ॥ ( सु. शा. 7/17 ) वातवह सिराएं अरुण वर्ण की तथा वात से भरी होती है । पित्तवह सिराएं उष्ण और नील वर्ण की होती है । कफवह सिराएं गौर वर्ण की , शीतल और स्थिर होती है । रक्तवह सिराएं न बहुत शीतल होती है न बहुत उष्ण । अपनी अपनी यथा सिराओं में वात , पित्त , कफ तथा रक्त पूरे शरीर में संचारित होते है तथा अपने नित्य कर्म करते है । इनके दूषित होने पर शरीर में इनसे संबंधित रोग उत्पन्न होते है ।
वसा मांसाद वसा त्वचः षट् च ॥ ( च. चि. 15/16 ) मांस से वसा तथा छह त्वचाओं की उत्पत्ति होती है । शुद्धमांसस्य यः स्नेह: सा वसा परिकीर्तिता ॥ ( सु. शा.1/12 ) शुद्ध मांस के स्नेह को वसा कहते है । प्रमाण त्रयो ( अञ्जलयः ) वसाया: । ( च. शा. 7/16 ) वसा की मात्रा शरीर में सामान्यतः तीन अंजलि होती है । कार्य स्नेहना जीवना बल्या वर्णोपचयवर्धनाः । स्नेहा ह्येते च विहिता वातपित्तकफापहाः ॥ ( च. सू. 8/7 ) स्नेह – स्निग्धता प्रदान करता है । जीवनीय शक्ति ( vitality ) तथा बल बढ़ाता है । तापमान बनाए रखता है । वर्ण के लिए हितकर होता है । वात पित्त कफ के विकारों को नष्ट करता है ।
त्वचा मांसाद् वसा त्वचः षट् च ॥ ( च. चि. 15/16 ) मांस से वसा तथा छह त्वचाओं की उत्पत्ति होती है । उत्पत्ति तस्य खल्वेवंप्रकृतस्य शुक्रशोणितस्याभिपच्यमानस्य क्षीरस्येव सन्तानिकाः सप्त त्वचो भवन्ति ॥ ( सु. शा. 4/3 ) तत्र सप्त त्वचोSसृजः । पच्यमानात्प्रजायन्ते क्षीरात्सन्तानिका इव ॥ ( अ. हृ. शा. 3/8 ) शुक्र और आर्तव के संयोग के बाद उसमें भूतात्मा प्रवेश करता है तब जिस प्रकार अग्नि से परिपाक्व होने पर दूध पर मलाई की तह ( layers ) बनती है उसी प्रकार त्रिदोषों ( विशेषकर पित्त ) से परिपक्व होकर गर्भ के पृष्ठ भाग पर त्वचा की तहे बनती है । आचार्य सुश्रुत तथा वागभट्ट के अनुसार 7 त्वचाए होती है परन्तु आचार्य चरक काश्यप ने 6 त्वचाए मानी है ।
त्वचा सारणी त्वचा का क्रम चरक अनुसार नाम सुश्रुत अनुसार नाम मोटाई ( ब्रीही परिमाण अनुसार ) प्रथमा द्वितीया तृतीया चतुर्थी पञ्चमी षष्ठी X अवभासिनी लोहिता श्वेता ताम्रा वेदिनी रोहिणी मांसधरा 1/18 1/16 1/12 1/8 1/5 1 2 त्वचा के कार्य रक्षा संवेदन संग्रह उत्सर्जन ताप संतुलन इत्यादि ।
स्नायु उत्पत्ति मेदसः स्नायुसम्भवः ॥ ( च. चि. 15/16 ) स्नायु की उत्पत्ति मेद से होती है । मेदसः स्नेहमादाय सिरा स्नायुत्वमानुयात् । सिराणां तु मृदुः पाकः स्नायूनां च ततः खरः ॥ ( सु. शा. 4/28 ) ( पित्तयुक्त वायु ) मेद के स्नेह के भाग को मेद से पृथक करके सिरा और स्नायु में परिवर्तित करती है । संख्या स्नायवां नवशती ॥ ( अ. हृ. शा. 3/17 ) नव स्नायुशतानि ॥ ( सु. शा. 5/34 ) ( च. शा. 7/51 ) शरीर में स्नायु 900 है । तासां शाखासु षट्शतानि , द्वे शते त्रिशच्च कोष्ठे , ग्रीवा प्रत्यूर्ध्व सप्ततिः ॥ ( सु. शा. 5/34 ) शाखाओं में – 600 मध्य शरीर में – 230 ग्रीवा के ऊपर के भाग में - 70
प्रकार एवं स्थान स्नायूश्चतुर्विधा विद्यात्तांस्तु सर्वान्निबोध में । प्रतानवत्यो वृत्ताश्च पृथ्व्यश्य शुषिरास्तथा ॥ ( सु. शा. 5/30 ) स्नायु 4 प्रकार के होते है – प्रतानवती वृत्त पृथुल ( चपटे ) शुषिर ( सछिद्र ) प्रतानवत्यः शाखासु सर्वसन्धिषु चाप्यथ । वृत्तास्तु कण्डराः सर्वा विज्ञेयाः कुशलैरिह ॥ ( सु. शा. 5/39 ) आमपक्वाशयान्तेषु बस्तौ च शुषिराः खलु । पाश्वौरसि तथा पृष्ठे पृथुलाश्च शिरस्यथ ॥ ( सु. शा. 2/40 ) प्रतानवती स्नायु – सभी शाखाओं तथा संधियों में होते है । वृत्त स्नायु – इन स्नायुओं को कार्य में समानता की दृष्टि से कण्डरा के समान समझना चाहिए । शुषिर स्नायु – आमाशय , पक्वाशय तथा बस्ति में होते है । पृथुल स्नायु – पार्श्व , वक्ष , पीठ तथा सिर में होते है ।
कार्य स्नायवो बंधनं प्रोक्ता देहे मांसास्थिमेदसाम् ॥ ( सु. शा. 5/32 ) शरीर में मांस , अस्थि तथा मेद भाग को बांधने तथा दृढ़ करने का कार्य स्नायु करते है ।